अबूझ को बूझने की प्रक्रिया में, संगठित होते समाजों की बैक बोन, धर्म के रूप में स्थापित हुई थी, उन्होंने कुदरती घटनाओं के पीछे ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा दी, शरीर को चलायमान रखने वाले कारक के रूप में आत्मा का कांसेप्ट खड़ा किया और इसे लेकर तरह-तरह के लुभावने-डरावने मिथक और कहानियां खड़ी की— लेकिन क्या वाक़ई आत्मा जैसा कुछ होता है? अगर आपका जवाब हां में है तो खुद से पूछिये कि आपके शरीर में कितनी आत्माएं रहती हैं? आत्मा को मान्यता देंगे तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि आपके शरीर में कोई एक आत्मा नहीं है, बल्कि हर अंग की अपनी आत्मा है और एक शरीर करोड़ों आत्माओं का घर होता है। थोड़ा दिमाग लगा कर सोचिये न, कि आत्मा मतलब आप न? शरीर में क्या है जो बदल नहीं सकता— ब्लड की कमी हो जाये तो दूसरे का ब्लड ले लेते, किडनी खराब हो […]
“मम्मी ई ई ई “, सोनू चिल्लाया। मम्मी उस वक्त रोटी बना रही थी। उन्होंने सोनू को देखा तो वो अपने दोनों घुटनों को आपस में टिकाये, आपने हाथों को पेट पर जोड़े अपनी मम्मी को देख रहा था। “मम्मी सुसु आ रही है। बाहर चलो न!”, उसने एक पाँव से दूसरे पाँव पर वजन डालते हुए बोला था। “मोनू!” मम्मी चिल्लाई थी। मोनू सोनू का बड़ा भाई था और सोनू दुनिया में उससे ही सबसे ज्यादा नफरत करता था। मोनू हर वक्त उस पर अपनी धौंस जमाता था। वो उससे पाँच साल बढ़ा था लेकिन ऐसे बर्ताव करता था जैसे वो मम्मी पापा के उम्र का हो। उसकी दादागिरी से सोनू तंग चुका था और वह कल्पनाओं में कई बार मोनू को पीट चुका था। लेकिन ऐसा नहीं था कि मोनू किसी काम का नहीं था। कई बार स्कूल में जब लड़ाई होती थी तो मोनू ही उसकी मदद […]
1. अभिनिषेध “तू यहाँ कैसे आई?” कमरे में नयी लड़की को देखकर शब्बो ने पूछा। लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। “अरी बता भी दे…रहना तो हमारे साथ ही है…।” “क्यों रहना है तुम्हारे साथ? मैं नहीं रहूँगी यहाँ।” आँखें तरेर कर लड़की तमक कर बोली। “हु..हु…हु..।यहाँ नहीं रहेगी तो क्या अपने घर रहेगी?” अब तक चुप बैठी कम्मो ने पूछा। “अपने घर नहीं। उसके घर।” आँखों को चमकाते हुए वह लड़की बोली। “अच्छा!! चल छोड़…,अपना नाम ही बता दे।” शब्बो ने पूछा। “शीतल।” “बड़ा सुंदर नाम है लेकिन तू अपने नाम जैसी तो बिल्कुल नहीं है।” कम्मो ने मुँह बनाकर कुछ इस तरह कहा कि शीतल हँस पड़ी और फिर शांत होकर बोली, “हाँ…मुझे गुस्सा बहुत आता है।” “क्यों आता है री तुझे गुस्सा!” शब्बो को उसके बारे में कुछ ज्यादा ही जानना था। “जब कोई मेरी सुनता नहीं।” शीतल ने चिढ़ते हुए कहा। “अच्छा चल छोड़…यह बता, तू […]
एक दिन मासा गाँव आया था। उसने सारे गाँव वालों को बुलाया। आज गाँव में जनताना अदालत थी। आसपास के गाँव जैसे जुड़गुम, वरदली, उल्लूर इत्यादि से भी लोग आए थे। कुछ अपनी मर्ज़ी से आये थे और कुछ मासा के खौफ से। पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बैनर पर तेलुगु और इंग्लिश में ‘जनताना अदालत’ लिखा हुआ था। गाँव के चारों तरफ नक्सलियों के संतरी लगे हुए थे, जो ये देख रहे थे कि कोई पुलिस पार्टी रेड करने ना करने आये। ऊपर मंच पर कुर्सी लगाये हुए मासा और उसके साथ कुछ चुनिंदा उसके साथी थे, जिन्होंने हथियार रखे थे। बाकी गाँव वाले नीचे जमीन पर बैठे हुए थे। मासा ने बोलना शुरू किया “हमारा मकसद है क्रांति। यहाँ बैठे हुए लोगों के लिए क्रांति। व्यवस्था परिवर्तन! हमारे जल, जंगल, जमीन पर सिर्फ हमारा हक है। बाहर से आई हुई किसी विदेशी और तानाशाह सरकार का नहीं। […]
जब भी वह उसके पास दिल्ली आती तो पूरा घर व्यवस्थित करने में उसे कुछ दिन लग जाते। पिछले कुछ समय से उसे घर में कुछ ऐसी वस्तुएँ भी मिल जाती थीं, जिससे उसका दिल तेज धड़क जाता था। कभी-कभी उसने टोका तो राजीव ने उसको घुड़क दिया। उसके दोस्त, उनके परिवार, उसके अपने घर वाले कितने लोग तो आते हैं मिलने वाले। किसका क्या छूट गया वो क्या जाने? परन्तु एक फाँस तो कहीं उलझ ही गया पल्लवी के हृदय में। धीरे-धीरे इसको और बल मिला जब राजीव की रुचि उसकी तरफ कम होती गयी थी और कड़वाहट बढ़ती गई थी। दाम्पत्य की डोर ढीली होने लगी थी। एक रोज, घर की साफ़ सफाई में उसको अपने बेडरूम में लिपस्टिक और एक लेडीज रूमाल बेड के नीचे से मिले। वह अब तक काफी कुछ नज़रअंदाज़ करती रही थी। वह कब तक और क्या-क्या पर आँखें मूँद ले, इसका फैसला […]
‘सुंदरबन में सात साल’ मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया उपन्यास है जिसके लेखक हैं श्री बिभूतिभूषण बन्धोपाध्याय जी और श्री भुवनमोहन राय जी और जिसका हिंदी अनुवाद श्री जयदीप शेखर जी ने किया है।उपन्यास की भूमिका के अनुसार श्री भुवनमोहन राय जी ने अपनी बाल-पत्रिका ‘सखा ओ साथी’ में १८९५ में ‘ सुंदरबन में सात साल ‘ के नाम से धारावाहिक शृंखला का प्रकाशन शुरू किया। किसी कारणवश यह शृंखला बंद हो गयी लेकिन पत्रिका का प्रकाशन जारी रहा।कई वर्षों के बाद श्री बिभूतिभूषण जी ने इस कहानी को पूरा किया और राय जी द्वारा लिखे हुए अंश में थोड़ा संपादन-संशोधन भी किया ताकि वे पूरी कथा को अपनी शैली के अनुरूप ढाल सकें। ‘ चाँद के पहाड़ ‘ की तरह ये उपन्यास भी रहस्य और रोमांच से भरपूर है।कहानी की शुरुआत से लेकर से अंत तक का सुंदरवन का यह सफर बेहद रोमांचक और कौतूहल से […]
कमरे में मद्धम आवाज़ में संगीत बज रहा था। उसे ग़ज़ल सुनना पसंद था। शफल मोड पर वो जगजीत सिंह, गुलाम अली, अनूप जलोटा, आबीदा परवीन इत्यादि को सुना करता था। उसे इसमें सुकून मिलता था। इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में जहाँ गानों को भी खत्म होने की जल्दी रहती थी उसे ऐसा संगीत पसंद था जो ठहरा हुआ हो। आँखों को बंद करके जिसके लफ्जों पर ध्यान देने की जरूरत पड़े और जिसे जिया जा सके। और ग़ज़लों में ये सब खूबी मौजूद थी। ग़ज़ल से भी उसका तारुफ़ उसी ने करवाया था। पर आज एक वही गज़लें उसके मन को शांत करने में कामयाब नहीं हो पा रही थी। रह रहकर उसकी निगाहें फोन पर जा रही थी। कभी वो फोन को देखता। उसकी स्क्रीन को स्याह पाकर उसका लॉक खोलता और व्हाट्सएप्प ओन करके मेसेज भेजने की बात सोचता लेकिन फिर उसके हाथ रुक से जाते। वो […]
चन्द्रगुप्त : पात्र-परिचय पुरुष-पात्र चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य साम्राज्य का निर्माता चन्द्रगुप्त : मौर्य सम्राट् नन्द : मगध-सम्राट् राक्षस : मगध का अमात्य वररुचि (कात्यायन) : मगध का मन्त्री आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार सिंहरण : मालव गण-मुख्य का कुमार पर्वतेश्वर : पंजाब का राजा (पोरस) सिकन्दर : ग्रीक-विजेता फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप मौर्य-सेनापति : चन्द्रगुप्त का पिता एनिसाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर देवबल, नागदप, गण-मुख्य : मालव-गणतन्त्र के पदाधिकारी साइबर्टियस, मेगास्थनीज : यवन-दूत गान्धार-नरेश : आम्भीक का पिता सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति दाण्ड्यायन : एक तपस्वी स्त्री-पात्र अलका : तक्षशिला की राजकुमारी सुवासिनी : शकटार की कन्या कल्याणी : मगध-राजकुमारी नीला, लीला : कल्याणी की सहेलियाँ मालविका : सिन्धु-देश की कुमारी कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता एलिस : कार्नेलिया की सहेली चन्द्रगुप्त (नाटक) प्रथम अंक चन्द्रगुप्त (नाटक) द्वितीय अंक चन्द्रगुप्त (नाटक) तृतीय अंक चन्द्रगुप्त (नाटक) चतुर्थ अंक प्रथम अंक : चंद्रगुप्त (स्थानः तक्षशिला […]
हमारे देश में लीगल ट्रायल, मीडिया जैसे शब्द अक्सर ट्रायल में सुनाई पड़ते हैं। इधर एक नया शब्द सुनायी पड़ रहा है द मोनू ट्रायल। ये एक नए किस्म का ट्रायल है, जो गिद्ध पत्रकारिता से उपजा है।ये ट्रायल उसी तरह होता है, जैसे राखी सावंत से भारत की लुक ईस्ट पालिसी पर उनके विचार लेना। मतलब इसमें वो प्रश्न पूछे जाते हैं, जो बन्दे ने पहली बार सुने हों और फ़िर पलटकर उनसे विस्मयकारी जवाब प्राप्त करना। हमारे भी गाँव में एक मोनू था। अति वाचाल और अति महत्वाकांक्षी। मोनू स्कूल जाता था कभी-कभार। उसका एक ही चस्का था – दिन भर चटर-पटर चुगते रहने के बावजूद गले से ऊपर भरपेट भोजन और मोबाइल पर यूट्यूब देखना। ना स्कूल जाना और ना छोटे भाई-बहनों की देखभाल-पढ़ाई में मदद। इसके अलावा घर के किसी भी काम में न मदद ना ही बकरी-गाय की देखभाल करना। गाँव में कब तक कोई […]
जीवन ने घड़ी देखी,दो बजकर बीस मिनट हो रहे थे। पौने तीन तक डायरेक्ट लखनऊ वाली बस छूट जानी थी । उसके बाद कई बसें बदलकर ही वो लखनऊ पहुँच सकता था। वक्त के बारे में सोच कर झुंझला उठा ।उसने ऑटो वाले को घुड़का – “मेरी बस छुड़वा दोगे क्या ,जल्दी कर ना यार” “सामने देखिये साहब, सिग्नल लाल है ।रेलवे का फाटक बंद है । दो गाड़ियों की क्रासिंग है ,इतना लंबा जाम है। फाटक खुल गया तो भी आधा घण्टा लगेगा निकलने में। उड़कर नहीं जा सकता साहब “ ऑटो वालो ने संयत स्वर में कहा। “फिर तो पक्का बस छूटेगी मेरी,यही एक सीधी बस है लखनऊ की ।अब क्या हो सकता है “जीवन ने हताश स्वर में कहा। “एक काम करिये साहब , आप ऑटो छोड़िये।पैदल क्रासिंग पार कर जाइये। क्रासिंग के बगल में मंदिर से लगा हुआ पीछे से एक रास्ता है । उस मोहल्ले […]
हॉस्टल में सुबह ही एक आकाशवाणी से होती थी- “जागो वत्स, जीवन रेस है। दौड़ो, क्योंकि तुम प्रतिस्पर्धा में हो।” 350 लड़कियाँ और सीमित संसाधन। हर एक मिनट में “हाउ लॉंग?” की आवाज़ बाथरूम एरिया को सजीव बनाए रखती थी। ‘आय विल टेक माइ टाइम।’ का जवाब प्रतिस्पर्धा के निर्मम और आक्रामक होने का एहसास कराता था। सुबह लगभग आठ बजे हम लोगों को इंस्टी यानी इंस्टिट्यूट जाना होता था। सुबह का समय सबके लिये बड़ा कठिन समय होता था। फिर भी जैसे-तैसे, कैसे-न-कैसे करके सब तैयार हो ही जाते थे। इंस्टी में नये ही संघर्ष हमारी बाट जोहते थे। हॉस्टल और इंस्टी की रैगिंग में बहुत फ़र्क़ था। लेकिन फ़ेवरेटिज़्म कहाँ नहीं होता! जो लोग सीनियर्स के फ़ेवरेट हो जाते थे, उनकी रैगिंग प्यार मोहब्बत से होती थी। हमारे लखनऊ में कहते हैं- “मुस्कुराइये, आप लखनऊ में हैं।” इसी तर्ज़ पर मेरा स्लोगन था- “जुगत लगाइये, आप कम्पटीशन में […]
अपनी पूरी ज़िंदगी … निस्वार्थ किसी के लिए गुज़ार देती है। बिना अपनी फिक्र किए ममता का चादर हमें ओढ़ा देती है। बिना जताए कोई एहसान, देती है हमें एक नया मुक़ाम माँ की इस ममता को मेरा सलाम। त्याग का प्याला पीकर संस्कारों की लहरों से सींचती है दिल की नगरी में बसाकर अपना रात-दिन हमारे नाम करती है। ममता और त्याग का संगम है, है वह एक ईश्वरीय वरदान। जिसके जीवन में होता यह अनोखा इंसान चमकती है उसकी दुनिया इंद्रधनुष समान। माँ की इस ममता को मेरा सलाम। नन्हे हाथों को थामकर देती है हमें एक खुला आसमान। सिखाती है खोलना अपने पंखों को हमारे सपनों को देती है एक नई उड़ान। माँ की इस ममता को मेरा सलाम।
कवित्त (1) बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ। कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै, अब ना घिरत घनआनँद निदान कौ। अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥ (2) आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौ लौं कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै। मौन हूँ सों देखिहो कितेक पन पालिहौ जू कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै। जान घनआनंद यौं मोहिं तुम्हैं पैज परी जानियेगो टेक टरें कौन धौं मलोलिहै। रुई दिये रहौगे कहा लौं बहराइबे की? कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलिहै॥ सवैया (1) तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे। हित पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दु:ख दोष भरे॥ घनआनंद मीत सुजान बिना सब ही सुख-साज-समाज टरे। तब हार पहार […]
सरस्वती वंदना बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ, ऐसी मति उदित उदार कौन की भई। देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तपवृद्ध, कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई। भावी भूत वर्तमान जगत बखानत है, ‘केसोदास’ कयों हू ना बखानी काहू पै गई। पति बर्नै चार मुख पूत बर्नै पाँच मुख, नाती बर्नै षटमुख तदपि नई नई॥ पंचवटी-वन-वर्णन सब जाति फटी दु:ख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी। निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन को छूटी तटी। अघ ओघ की बेरी कटी विकटी निकटी प्रकटी गुरु ज्ञान गटी। चहुँ ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी वन पंचवटी॥ अंगद सिंधु तरयो उनको बनरा, तुम पै धनुरेख गई न तरी। बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिकै बाट करी॥ श्रीरघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जानि परी। तेलनि तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी॥
(1) के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास। हिए नहि सहए असह दु:ख रे भेल साओन मास॥ एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दु:ख दारुन रे जग के पतिआए॥ मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल। गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥ विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस। आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥ (2) सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए। सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए॥ जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल॥ सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल॥ कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि॥ लाख लाख जुग हिअ-हिअ राखल तइओ हिअ […]
बहुत ही बढिया अौर शिक्षाप्रद ,एवं व्यंगात्मक कहानी , 🙏🙏🙏