मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले, तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता? बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती, रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती, नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता, अपनी बाँहों में […]
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1 झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के पास और अन्दर बेटे कि जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़े की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था। घीसू ने कहा – मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते ही गया, ज़रा देख तो आ। माधव चिढ़कर बोला – मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूं? ‘तू बड़ा बेदर्द है बे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’ ‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’ चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि […]
बल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के भक्तिमार्ग को ‘पुष्टि मार्ग’ कहते हैं।शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म माया से अलिप्त है,इसलिये शुद्ध है।माया से अलिप्त होने के कारण ही यह अद्वैत है। यह ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी। सामान्य बुद्धि को परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली बातों का ब्रह्म में सहज अन्तर्भाव हो जाता है।वह अणु से भी छोटा और सुमेरु से भी बड़ा है।वह अनेक होकर भी एक है।यह ब्रह्म स्वाधीन होकर भी भक्त के अधीन हो जाता है।विशिष्टाद्वैत की तरह शुद्धाद्वैतवादी ने भी ब्रह्म के साथ साथ जगत को भी सत्य बताया है।कारणरूप ब्रह्म के सत्य होने पर कार्यरूप जगत मिथ्या नहीं हो सकता। ब्रह्म की प्रतिकृति होने के कारण जगत की त्रिकालाबाध सत्ता है।जीव और जगत का नाश नहीं होता,सिर्फ़ आविर्भाव और तिरोभाव होता है। पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत के दर्शन को ही भक्ति में ढालता है।पुष्टि का शाब्दिक अर्थ है ‘पोषण’।श्रीमद्भागवत में ईश्वर के अनुग्रह को पोषण कहा […]
आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश का ही श्रेष्ठ नाटक नहीं है,बल्कि यह हिन्दी के सार्वकालिक श्रेष्ठ नाटकों में से एक भी है। जिस नाटक को रंगमंच से जोड़कर भारतेंदु ने जन आंदोलन के एक उपकरण के रूप में विकसित करने का प्रयत्न किया था,वह प्रसाद तक आते आते रंगमंच से पूरी तरह कट जाता है।प्रसाद के साहित्यिक नाटक रंगमंच पर लगातार विफलता स्वीकार करते रहे। मोहन राकेश ने न सिर्फ नाटकों की साहित्यिकता बरकरार रखी,बल्कि नाटक और रंगमंच के बीच की खाई को भी सफलतापूर्वक पाटा। भारतेंदु के नाटक रंगमंच के लिये थे,दर्शकों के लिये थे।साहित्यिकता का मुद्दा वहाँ नहीं था। जयशंकर प्रसाद के नाटक पाठक के लिये है। प्रसाद ने तो घोषणा ही कर दी कि, ‘नाटक रंगमंच के लिये नहीं होते बल्कि रंगमंच नाटक के लिये होता है’।रंगमंच के प्रति पूर्वग्रह के कारण प्रसाद के नाटक पाठकों की नज़र में तो श्रेष्ठ है,परन्तु दर्शकों को ये ज़्यादा […]
जिस तरह प्रसाद ,पंत,महादेवी और निराला छायावाद के चार स्तंभ थे उसी प्रकार केदार नाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,शमशेर और नागार्जुन प्रगतिवादी कविता के चार स्तंभ माने जा सकते हैं। इनमें नागार्जुन की न सिर्फ काव्ययात्रा सबसे लंबी रही है,बल्कि उनका काव्य संसार भी काफी वैविध्यपूर्ण रहा है। जनता से जुड़े हर सवाल पर जनता का साथ देकर नागार्जुन ने जनकवि की उपाधि पाई। नागार्जुन की प्रतिबद्धता सदियों से दलित,शोषित और उत्पीड़ित रही जनता के साथ थी। इसकी स्पष्ट घोषणा करते हुए वे कहते हैं- “प्रतिबद्ध हूँ,जी हाँ,प्रतिबद्ध हूँ बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त” कवि अपने आप को शोषित-पीड़ित जनता से अलग करके नहीं देखता,बल्कि अपने को उन्हीं में से एक समझता है-“मैं दरिद्र हूँ पुश्त-पुश्त की यह दरिद्रता कटहल के छिलके जैसे खुरदरी जीभ से मेरा लहू चाटती आई मैं न अकेला मुझ जैसे तो लाख-लाख हैं कोटि-कोटि हैं ” शोषित जनता के साथ खड़ा कवि निश्चय ही व्यवस्था का […]
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी। तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की हमारे हो रही थी। मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा सा और अधसोया हुआ सा। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में। प्रात ही की ओर को है रात चलती औ उजाले में अंधेरा डूब जाता। मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी खूबियों के साथ परदे को उठाता। एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था और मैंने था उतारा एक चेहरा। वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। और उतने फ़ासले पर आज […]
सरोज स्मृति एक शोकगीति है, जो निराला ने अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु के पश्चात लिखी थी।कवि अन्यत्र कहता है-‘गीत गाने दो मुझे तो वेदना को रोकने को’। यहाँ भी कवि अपनी पुत्री, जो उसके जीवन का एकमात्र सहारा थी’ की मृत्यु से उत्पन्न वेदना को कविता के माध्यम से कम करना चाहता है।पुत्री कवि के जीवन का एकमात्र सहारा थी-‘मुझ भाग्यहीन की तु संबल’..। उसी पुत्री की मृत्यु ने कवि को पूरी तरह तोड़ डाला। यहाँ यह पुत्री के बहाने दुःख भरे अपने पूरे जीवन पर दृष्टिपात कर रहा है – ‘दुःख ही जीवन की कथा रही,क्या कहा आज जो नहीं कही’। धीरे-धीरे बात सिर्फ पुत्री और कवि के जीवन की नहीं रह जाती बल्कि तत्कालीन सामाजिक परिवेश की हो जाती है- ये कान्यकुब्ज़ कुलकुलांगार खाकर पत्तल में करे छेद। पुत्री के सौंदर्य वर्णन में कवि की निर्वैयक्तिकता श्लाघनीय है। पूरी कविता में पिता और कवि का द्वन्द्व चलता […]
किसान समस्या प्रेमचन्द के उपन्यासों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या के रूप में सामने आती है।प्रेमचन्द का पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ यद्यपि स्त्री समस्या को लेकर लिखा गया है,लेकिन यहाँ भी चैतू की कहानी के माध्यम से उन्होँने यह संकेत दे ही दिया है कि किसान समस्या और किसान जीवन ही उनके उपन्यासों का मुख्य विषय होने वाला है।प्रेमाश्रम, कर्मभूमि और गोदान मिलकर प्रेमचन्द के किसान जीवन पर लिखे गये उपन्यासों की त्रयी पूरी करते हैं।इन तीनों उपन्यासों को तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों के साथ रखकर देखना समीचीन होगा। प्रेमाश्रम की रचना 1927 में होती है। कर्मभूमि की रचना 1932 में होती है, जबकि गोदान का प्रकाशन वर्ष 1936 है।इन तीनों उपन्यासों को कालक्रमिक दृष्टि से देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसान समस्या के संबंध में प्रेमचन्द का दृष्टिकोण लगातार परिपक्व हुआ है।प्रेमाश्रम और कर्मभूमि में जहाँ प्रेमचन्द आश्रम बनाकर या किसान आंदोलन की सफलता दिखाकर समस्या का आदर्शवादी हल […]
(मशहूर पाकिस्तानी ग़ज़ल गायिका इक़बाल बानो का पिछले दिनों देहांत हो गया।याह्या खाँ के शासन के विरोध में उनके द्वारा गायी गयी यह नज़्म फैज़ ने लिखी थी।) लाज़िम है कि हम भी देखेंगे हम देखेंगे ……. वो दिन कि जिसका वादा है जो लौह-ए-अजल में लिखा है हम देखेंगे ……. जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएँगे हम महकूमों के पाँव तले जब धरती धड़ धड़ धड़केगी और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी हम देखेंगे ……. जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाये जायेंगे हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएंगे सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे……. बस नाम रहेगा अल्लाह का जो गायब भी है हाजिर भी जो नाजिर भी है मंज़र भी उठेगा अनलहक का नारा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो […]
‘स्त्री न स्वंय ग़ुलाम रहना चाहती है और न ही पुरुष को ग़ुलाम बनाना चाहती है। स्त्री चाहती है मानवीय अधिकार्। जैविक भिन्नता के कारण वह निर्णय के अधिकार से वंचित नहीं होना चाहती।’ यह कथन विश्व की पहली नारीवादी मानी जाने वाली मेरी उल्स्टोनक्राफ़्ट का है। इस घोषणा को हुए दो सौ साल बीत चुके हैं।इन दो सौ सालों में नारीवाद की संकल्पना और नारी की स्थिति में काफी बदलाव आया है।पुरुष को ‘मेल शाउनिस्ट पिग’(MCP) कहने से लेकर ‘ब्रा बर्निंग मूवमेंट’ के नाम पर खुलेआम अपने अंतर्वस्त्रों को जलाने तक नारीवादी आंदोलन ने कई मुक़ाम तय किये हैं,परन्तु ‘निर्णय का अधिकार’ नारी को मिल पाया है या नहीं, यह विवाद का विषय है। नारीवाद में मूल में स्त्री पुरुष समानता को स्थापित करने की चेष्टा काम कर रही थी। लेकिन, ऐसा लगता है बीच रास्ते में ही नारीवाद अपनी राह भटक गया है। स्वतंत्रता की अदम्य लालसा और […]
पद्मावत की व्याख्या आमतौर पर एक सूफ़ी काव्य के रूप में होती रही है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे आलोचकों ने भी पद्मावत के लौकिक प्रेम की अलौकिक व्याख्या करने की कोशिश की है. यदि गौर से देखें तो पायेंगे कि पद्मावत में मुल्ला दाऊद, उस्मान और कुतुबन जैसे रचनाकारों के प्रेमाख्यानों की अपेक्षा आध्यात्मिकता का पुट काफ़ी कम है. जायसी का जोर लौकिक प्रेम पर ज्यादा है. पद्मावत मूलतः युद्ध और प्रेम की ही कथा प्रतीत होती है, जिसमें यत्र-तत्र किंचित आध्यात्मिकता का पुट भी है. अपने पूर्ववर्तियों की तरह जायसी कथा को गूढ़ प्रभाव से युक्त नहीं मानते और न ही इसके पढ़ने से किसी आध्यात्मिक लाभ की आशा दिलाते हैं. जायसी के अनुसार, पद्मावत ‘प्रेम की पीर’ का काव्य है, जिसे पढ़कर पाठक की आंखों में आंसू ही आयेंगे. मुहम्मद कवि यह जोरि सुनावाIसुना सो प्रेम पीर गा पावा II जोरि लाई रकत के लेई I गाढि प्रीति नैन […]
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‘न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह न सही मेरे अशआर में मानी न सही’ सोचता हूँ, ग़ालिब ने शेर किन परिस्थितियों में कहा होगा। इस बेपरवाही के पीछे कितनी पीड़ा छिपी है,अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है। लगातार व्यंग्यवाणों के प्रहार से छलनी सीने से निकली यह आहत निःश्वास बेपरवाही के आवरण में छिपाये नहीं छिपती। कैसा लगा होगा सदी के महानतम शायर को, जब उनके सामने ही किसी ने उनके अशआर पर यह टिप्पणी की होगी कि-‘कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे’ ग़ालिब ही क्यों निराला का हाल भी कुछ ज़ुदा नहीं। कैसों कैसों के कैसे कैसे बोल नहीं सुने? प्रतिकार भी किया, प्रतिक्रिया भी दी। लड़े भी, हारे भी;पर हार नहीं मानी। ग़ालिब जैसी फ़क्कड़ाना तबीयत के बिरले ही होते हैं, जो निस्पृह भाव से अपनी राह चलते हैं।खुशी और ग़म से बेपरवाह;सताइश और सिले से बेपरवाह।
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बहुत ही बढिया अौर शिक्षाप्रद ,एवं व्यंगात्मक कहानी , 🙏🙏🙏