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सुंदरबन में सात साल

पाठकीय समीक्षा

लेखक: बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय (अनुवाद: जयदीप शेखर)

साहित्य विमर्श प्रकाशन

मूल्य: 165

*****

पेपरबैक

बाल-किशोर उपन्यास
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‘सुंदरबन में सात साल’  मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया उपन्यास है जिसके लेखक हैं श्री बिभूतिभूषण बन्धोपाध्याय जी और श्री भुवनमोहन राय जी और जिसका हिंदी अनुवाद श्री जयदीप शेखर जी ने किया है।उपन्यास की भूमिका के अनुसार श्री भुवनमोहन  राय जी ने अपनी बाल-पत्रिका ‘सखा ओ साथी’ में १८९५ में ‘ सुंदरबन में सात साल ‘ के नाम से धारावाहिक शृंखला का प्रकाशन शुरू किया। किसी कारणवश यह शृंखला बंद हो गयी लेकिन पत्रिका का प्रकाशन जारी रहा।कई वर्षों के बाद श्री बिभूतिभूषण जी ने इस कहानी को पूरा किया और राय जी द्वारा लिखे हुए अंश में थोड़ा संपादन-संशोधन भी किया ताकि वे पूरी कथा को अपनी शैली के अनुरूप ढाल सकें।

चाँद के पहाड़ की तरह ये उपन्यास भी रहस्य और रोमांच से भरपूर है।कहानी की शुरुआत से लेकर से अंत तक का सुंदरवन का यह सफर बेहद रोमांचक और कौतूहल से भरा है जो पाठक को अंत तक बांधे रखता है।यह कहानी है नीलू नाम के एक १३ वर्ष के बच्चे की जो अपने दादाजी के साथ एक सागर-द्वीप पर जाता है जहाँ हर वर्ष मकर संक्रांति का बहुत बड़ा मेला लगता है। गंगा नदी के मिलान के कारण यह एक तीर्थस्थल भी माना जाता है।नीलू इस द्वीप पर खूब मज़े करता है, इस बात से बिलकुल अनजान कि इस द्वीप पर आना उसकी ज़िन्दगी को किस प्रकार बदल लेगा। द्वीप पर उसकी मुलाकात होती है एक बर्मी लड़के से जिसके साथ वह मेले में घूमता है और उससे दोस्ती भी कर लेता है,मगर ये दोस्ती उसे कुछ ज़्यादा ही भारी पड़ जाती है।रात को जब वह बजरे में सो रहा होता है तो अचानक देखता है कि बजरा तो नदी के तट पर है ही नहीं।घबराकर वह बजरे में चिल्लाने लगता है और उसके ३-४ सहायक आते है।तब उसकी नज़र एक बर्मी व्यक्ति पर पड़ती है जो मेले में उसका पीछा कर रहा था।नीलू इस बात से अनजान था कि वो बर्मी व्यक्ति एक डकैत है जो लोगों को अगवा कर बाद में पैसों के लिए बेच देते है और इस बार उन डकैतों ने नीलू को अगवा किया था।बजरे पर बैठे हर व्यक्ति को उन बर्मियों का झुंड मार देता है और नीलू को एक द्वीप पर लेकर जाते है जहाँ उसकी मुलाकात उसी बर्मी बच्चे से होती है  जिससे वह पहले मिला था और दोनो दोस्त बन गए थे।

 आगे की कहानी बहुत ही रोमांचक है…इतना कि कहीं-कहीं तो पाठक का भी दिल बैठने लगता है।सुंदरबन के जंगलों में भटकते ३ लोगों की यात्रा के साथ कहानी आगे बढ़ती है जो हर दिन मुसीबतों को ढूंढने सुंदरबन के जंगलों और नदियों में चले जाते है।ये तीन लोग हैं- नीलू,निवारण और उसका दोस्त बर्मी लड़का जिसे वह मोनू कहकर बुलाता है।शुरू में नीलू बहुत डरता है लेकिन धीरे-धीरे उसे भी मज़ा आने लगता है।निवारण,मोनू और नीलू की यह तिगड़ी बहुत सारे खुराफाती काम करती हैं और अक्सर मुसीबत में फस जाते है।इसीलिए शायद कहा गया है तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा।मगर उनकी दोस्ती और यारी के किस्से पाठकों को रोमांचित भी करते हैं और भावुक भी…इस हद तक कि उनके साथ एकाकार हो जाते हैं।

उपन्यास में सुंदरबन की जो तस्वीर खींची गई है वह इतनी सूक्ष्म और व्यापक है कि बिना सुन्दरवन जाए भी आप उसे अच्छी तरह से पहचान सकते है।ऐसा लगता है कि लेखक के साथ-साथ पाठक भी शब्दचित्रों के सहारे सुंदरवन की यात्रा पर चला जा रहा है।सुंदरबन में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों,पेड़-पौधों,फूलों,नदियों आदि का बहुत ही सुंदर चित्रण मिलता है इस उपन्यास में।

श्री जयदीप शेखर जी का हृदय से आभार जिनके प्रयासों के कारण बांग्ला भाषा में लिखी गई इस रोमांचक पुस्तक को हम जैसे बच्चों को हिंदी में पढ़ने का अवसर मिला और नीलू के साथ-साथ हम भी सुंदरवन की इस कभी ना भूलने वाली यात्रा में शामिल हो सके।उनके अनुवाद के बिना हम हिंदीभाषी क्षेत्र वालों को बांग्ला के इतने महान लेखकों और उनकी रचनाओं को पढ़ने का अवसर भी नहीं मिलता।

साहित्य विमर्श प्रकाशन का एक बार फिर से शुक्रिया जिसकी बदौलत ‘चाँद का पहाड़’ के बाद बांग्ला भाषा का यह दूसरा उपन्यास हिंदी में पढ़ने को मिल सका।यह एक ऐसा प्रकाशन है जिसके प्रति मेरे मन में एक अलग सा आदर और सम्मान का भाव है।मुझे आशा है कि साहित्य विमर्श प्रकाशन के कारण हम भविष्य में और भी क्षेत्रीय भाषाओं की ऐसी बेहतर किताबें हिंदी में पढ़ सकेंगे।

 

  • अनन्या सिंह
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Vikas Nainwal

पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाती समीक्षा।