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1. अभिनिषेध

“तू यहाँ कैसे आई?” कमरे में नयी लड़की को देखकर शब्बो ने पूछा। लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया।

“अरी बता भी दे…रहना तो हमारे साथ ही है…।”

“क्यों रहना है तुम्हारे साथ? मैं नहीं रहूँगी यहाँ।” आँखें तरेर कर लड़की तमक कर बोली।

“हु..हु…हु..।यहाँ नहीं रहेगी तो क्या अपने घर रहेगी?” अब तक चुप बैठी कम्मो ने पूछा।

“अपने घर नहीं। उसके घर।” आँखों को चमकाते हुए वह लड़की बोली।

“अच्छा!! चल छोड़…,अपना नाम ही बता दे।” शब्बो ने पूछा।

“शीतल।”

“बड़ा सुंदर नाम है लेकिन तू अपने नाम जैसी तो बिल्कुल नहीं है।” कम्मो ने मुँह बनाकर कुछ इस तरह कहा कि शीतल हँस पड़ी और फिर शांत होकर बोली, “हाँ…मुझे गुस्सा बहुत आता है।”

“क्यों आता है री तुझे गुस्सा!” शब्बो को उसके बारे में कुछ ज्यादा ही जानना था।

“जब कोई मेरी सुनता नहीं।” शीतल ने चिढ़ते हुए कहा।

“अच्छा चल छोड़…यह बता, तू इस सुधारगृह में क्यों आ गई?” शब्बो ने उत्सुकता से पूछा।

“खून कर दिया होगा किसी का!” कम्मो ने फिर मुँह बनाकर कहा।

शीतल ने घूरकर कम्मो को देखा और बोली, “नहीं…मैं घर से भाग गई थी।”

“लो…एक और आ गई घर से भागी हुई। यहाँ आने के लिए कुछ तो ढंग का काम करती।” कम्मो ने उसे छेड़ते हुए कहा।

“अब कर दूँ…ढंग का काम?” शीतल ने चिढ़ते हुए कहा।

“मैं उसके साथ भागी थी…मुझे पकड़ कर यहाँ डाल दिया…और उसे…उसे बलात्कार के इल्जाम में जेल में।” शीतल ने दुखी होकर कहा।

“तो उसने तेरा बलात्कार किया था?” शब्बो ने आँखें चौड़ी करके पूछा।

“नहीं… मैं अपनी मर्जी से उसके साथ सोई थी।” शीतल धीरे से बोली।

“लो…! ये तो होना ही था…समाज का काम है यह तो।” शब्बो ने हँसोड़ सा मुँह बनाकर कहा।

“क्या काम है?” शीतल के चेहरे पर झुंझलाहट उतर गई।

“और क्या होगा? कुँवारी लड़कियों को किसी के साथ सोने से रोकने का और शादीशुदा को…।” शब्बो इतना कह चुप हो गई।

“और शादीशुदा को…!!” शीतल ने उसकी बात को दोहरा कर पूछा।

“शादीशुदा को उसके मर्द के साथ सोने को मजबूर करने का।” शब्बो ने मुँह में भर आए थूक को वहीं थूक दिया।

शब्बो की बात सुनकर कम्मो के चेहरे पर आह सी खींच गई, जैसे हजारों जख्म फड़फड़ाने लगे हो।

 

***

 

 

2.ईदिपस

 

बरसों की रिसर्च का नतीजा उसके हाथ में था। उसके बनाए गैजेट से एक्स के मस्तिष्क में रहने वाली उस ग्रंथि का पता चलने वाला था जो एक्स को पाप करने के लिए उकसाती है।

एक्सप्लोरेशन और रिसर्च के अनुसार भूतकाल में एक्स, वाई के मुकाबले बेहद संवेदनशील व भावुक थी फिर विकास के नियम का यह कौन-सा चरण आया जिससे एक्स के मस्तिष्क में अपराध की प्रवृत्ति पनपने लगी?

वह जानना चाहता था कि आखिर एक्स इतनी ख़ूँख़ार क्यों हो गई? उसके मस्तिष्क में ऐसी कौन-सी ग्रंथि थी जिसने उसे हिंसक बना दिया?

वाई ने अपनी आँखों पर वह चश्मेनुमा गैजेट पहन लिया और कलाई पर बंधे डिवाइस से एक्स का डाटा गैजेट में अपलोड किया। चेहरे पर प्रसन्नता लिए उसकी उँगलियाँ डिवाइस पर थिरकने लगीं।

अभी डाटा अपलोड हुआ ही था कि वर्चुअल स्क्रीन तेजी से खुद-ब-खुद स्क्रोल होनी लगी। उस पर तारीखें उभरने लगीं। परेशान वाई उस पर नियंत्रण की कोशिश करने लगा। तभी स्क्रीन अचानक रुक गई और कुछ दिखाई देने लगा।

उसके गैजेट की ब्लू लाइट जल उठी। उसके मस्तिष्क में तेजी से हलचल होने लगी।

वह एक्स के साथ एक जंगल में था…वह देख पा रहा था कि वह शिकार कर रही थी। उसने एक्स को अपनी बाँहों में ले लिया और गुफा में ले जाकर…एक्स के चेहरे पर बदलाव दिख रहा था।

अब एक्स पत्तों से अपने शरीर को लपेटे दिख रही थी।

स्क्रीन पर तेजी से दृश्य बदलने लगे।

एक्स बाजार में खड़ी थी जंजीरों में….और वाई!.. वह हँसते हुए उसके कपड़े…वह निर्वस्त्र थी।

एक्स अपनी शक्ति भूल चुकी थी। खुद को समेटकर वह खुद पर ही शर्मिंदा थी।

दृश्य बदला…

ओह…एक्स जल रही थी और वाई? वह ढोल बजा रहा था ताकि एक्स के चीखने की आवाज न सुनाई दे। लेकिन यह क्या…? एक्स जिंदा थी और असंख्य मृत वाई, एक्स को बार -बार आग में धकेल रहे थे।

दृश्य तेजी से बदला…

अब एक्स खून से लथपथ पड़ी थी। उसकी आयु! वह अपने बचपन में थी लेकिन उसके जननांगों पर चोट……..ओहह!

अचानक वाई को कुछ हँसने की आवाजें सुनाई दीं। वह ध्यान से सुनने लगा। यह… यह तो उसी की आवाज थी!

दृश्य फिर परिवर्तित होने लगे।

एक्स बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी लेकिन…वाई भी वहीं था… उसके हाथ में उसके द्वारा की गयी खोज की फाइल थी…

अब एक्स खामोश थी और उसके चारों तरफ उसी के जैसे दिखने वाली अनेक एक्स विलाप कर रही थीं….

वाई ने फाइल को होठों से चूमा लेकिन उसके होंठों पर….खून…!!

हड़बडा कर वाई ने गैजेट को आँखों से हटा दिया। उसके चेहरे से पसीना चूने लगा।

अपने को संयत कर उसने गैजेट को दोबारा आँखों पर चढ़ाया और फिर से डाटा अपलोड किया। वह सावधानी से डिवाइस को सेट करने लगा।

दृश्य फिर से सामने आने लगे…..लेकिन एक्स का मस्तिष्क! उसकी पाप ग्रंथि!! अब मस्तिष्क की शिराएँ कुछ दिखाई देने लगीं कि तभी…दृश्य फिर बदला।

एक्स की उँगलियाँ कुछ बदली दिख रही थीं। उसके नाखूनों में किसी के माँस के टुकड़े फँसे थे….और वाई? वह जमीन पर पड़ा हुआ था।

फाइल…वाई…और खून…दृश्य में…एक्स खामोश थी…विलाप था और…वाई के हाथों में गैजेट…!

अचानक वाई को अपने अंदर एक्स नजर आने लगी। घबरा कर उसने गैजेट पटक दिया। गैजेट जमीन पर चकनाचूर पड़ा था।

उसकी खोज पूर्ण हो चुकी थी…उसे पाप ग्रंथि मिल चुकी थी लेकिन… लेकिन एक्स के मस्तिष्क में नहीं, बल्कि….खुद उसके मस्तिष्क में।

 

***

 

 

 

3.दृष्टिकोण

 

“तुम्हारी आँखों में एक कहानी है…एक लम्बी कहानी।

“कैसी कहानी?”

“वही ढूँढ रहा हूँ….।”

“मिल गई तो क्या करोगे?”

“उपन्यास लिखूँगा।” उसके माथे से बालों को हटाकर मैं बोला।

“उपन्यास लिखकर क्या करोगे?”

“अपनी नायिका को जीवन दूँगा…।”

“हा…हा…हा…।”

“हँस क्यों रही हो?”

“आँखों में छिपी कहानी याद आ गई…वह भी मुझे जीवन देना चाहता था…पर… पर…।”

“पर!…पर क्या?”

“दे दी यह जिल्लत..।”

कैनवास पर चलते मेरे हाथ अचानक ठिठक गए।

मेरी नजर उसके चेहरे पर टिक गई। चेहरे पे छपी कहानी का अंश उसकी आँखों से बह रहा था…।

मैंने बेचैनी से कैनवास को देखा। उसमें उभरती आकृति कुछ मलीन सी लगी।

ब्रश में सुनहरे रंग को भरकर मैं उस आकृति को पॉलिश करने लगा…मेरे हाथ तेजी से चलने लगे।

“रहने दो…क्यों सच को छिपा रहे हो?” वह हँसते हुए बोली।

उसकी आवाज से दिल में कहीं एक हूक सी उठी।

“मैं..मैं…कुछ नहीं छिपा रहा… बस घिनौने सच की मरम्मत कर रहा हूँ।” इतना कहकर मैंने आकृति की आँखों में काला रंग भर दिया।

आँसू अब कहीं छिप से गए थे। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई… लाल रंग से ब्रश भर उठा…उसके वक्ष पर एक चुनरी फैल गयी।

अपनी देह को ढँका हुआ देख आकृति विस्मय से भर गई…पहली बार किसी ने आँचल डाला था…अब तक तो सबने….।

उसकी आँखें फिर से छलछला आई।

“भावुकता मूर्खता की निशानी है…।” वह बोली।

“मुझे ऐसा नहीं लगता…।”

“अब तक यही अनुभव किया है…भावुकता के कोर में फँस कर न जाने कितनी बार इस देह से आँचल…लेकिन अब तुमसे डर लग रहा है।” उसकी सिसकती आवाज मेरे मन को जख्मी कर रही थी।

“मुझसे डर क्यों?” यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था।

“कल जब सड़क पर जब तुम मेरी बोली लगाओगे तो एक बार फिर मेरा आँचल हटाया जायेगा…कुछ निगाहें मेरी कमर से नीचे उतरेंगी…और मैं पहले की तरह…।”

उसकी बातें सुनकर मेरी उँगलियों में हड़कन सी होने लगी…। अब वह मेरे नियंत्रण में नहीं थी।

कुछ देर बाद कैनवास पर बनी आकृति की गोद में सुनहरी काया थी उसे वह अपने वक्ष से लगाए ममता लुटा रही थी।

अब मेरी नायिका खुश थी…उसे जीवन मिल गया था।

***

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