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लेखक के बारे में –

जौनपुर (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले अभिषेक 2013 बैच के डीएसपी हैं | पूर्व बीजापुर के बीहड़ों में नक्सली ऑपरेशन में एके सैंतालिस लेकर चलने वाले अभिषेक पिछले एक साल से बलौदा बाज़ार जिले में पदस्थ हैं | “बैरिकेड” नामक बेस्टसेलर उपन्यास से कई अवार्ड जीत चुके अभिषेक ने इस बार बस्तर के उस भाग को छुआ है जो अछूता है या फिर सतही तौर पर लिखा गया है | पुलिसिया रौब वाली छवि के अलावा इनकी लेखक वाली छवि इन्हें ख़ास बनाती है |

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एक दिन मासा गाँव आया था। उसने सारे गाँव वालों को बुलाया। आज गाँव में जनताना अदालत थी। आसपास के गाँव जैसे जुड़गुम, वरदली, उल्लूर इत्यादि से भी लोग आए थे। कुछ अपनी मर्ज़ी से आये थे और कुछ मासा के खौफ से। पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बैनर पर तेलुगु और इंग्लिश में ‘जनताना अदालत’ लिखा हुआ था। गाँव के चारों तरफ नक्सलियों के संतरी लगे हुए थे, जो ये देख रहे थे कि कोई पुलिस पार्टी रेड करने ना करने आये। ऊपर मंच पर कुर्सी लगाये हुए मासा और उसके साथ कुछ चुनिंदा उसके साथी थे, जिन्होंने हथियार रखे थे। बाकी गाँव वाले नीचे जमीन पर बैठे हुए थे।

मासा ने बोलना शुरू किया “हमारा मकसद है क्रांति। यहाँ बैठे हुए लोगों के लिए क्रांति। व्यवस्था परिवर्तन! हमारे जल, जंगल, जमीन पर सिर्फ हमारा हक है। बाहर से आई हुई किसी विदेशी और तानाशाह सरकार का नहीं। दिल्ली और रायपुर में बैठ कर हम बस्तर के आदिवासियों पर कोई जुल्म करेगा तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमारे जंगल को कटवा कर बड़ी-बड़ी कंपनियों को देगा तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। जनताना सरकार जिंदाबाद।”

“जिन्दाबाद! जिन्दाबाद!” बाकी गाँव वालों ने चिल्ला कर कहा।

“हमारी मेहनत पर, हमारी सोच पर, हमारे मिशन पर, हमारी कुर्बानी पर कोई अगर मिट्टी डालने की कोशिश करेगा तो उसका क्या करना चाहिए?” मासा ने गरजते हुए सवाल पूछा।

“उसके हाथ पैर काट दो”

“उसको जिंदा जला दो”

“उसको फाँसी पर चढ़ा दो”

“उसका गला काट कर उसका सिर गाँव के पेड़ पर लटका दो” जुड़गुम के वेन्जा ने चिल्लाते हुए कहा।

“हाँ! हाँ!” सबने वेन्जा का समर्थन करते हुए कहा।

“बिलकुल सही कहा वेन्जा चाचा” – मासा ने वेन्जा की ओर देखा – “आज ऐसा ही एक इंसान है, जिसने हमारी क्रांति की मशाल बुझाने की कोशिश की है। ये उन हत्यारे पुलिसवालों का मुखबिर बन कर यहाँ की खबर वहाँ देने जाता है।”

“ऐसे लोगों को तो जान से मार देना चाहिए, गर्दन रेत कर” खड़े होकर उल्लूर का शंकर बेड़जा जोश में बोला।

“मगर वो है कौन? कौन है जिसने जनताना सरकार के खिलाफ ऐसी धोखाधड़ी की?” बहुत देर से चुप बैठे मासा के बाप जालम ने पूछा।

मासा के इशारे पर कुर्सी पर बैठा एक आदमी पेड़ों के पीछे गया और एक चेहरा ढँके आदमी को लेकर आया। उसके दोनों हाथ बँधे हुए थे।

मासा ने एक झटके में उस आदमी का नकाब हटाया तो सबकी आँखें फटी रह गईं। वो जुड़गुम के वेन्जा का बड़ा लड़का नम्मू था।

“इसने क्या कर दिया मालिक” वेन्जा ने रोते हुए पूछा।

“तुम्हें नहीं पता ये क्या करता है?” मासा ने गुस्से में पूछा।

“नहीं, क्या करता है, क्या किया है, कब किया है?” वेन्जा की आँखें भीग गईं, गला रुँध गया।

“तुम्हारा लड़का रायपुर सरकार की पुलिस के लिए ‘गोपनीय सैनिक’ का काम करता है” मासा ने नम्मू का कॉलर पकड़ लिया।

“हे भगवान, तो ये करने तू बीजापुर जाता था” वेन्जा ने रोते हुए नम्मू से पूछा।

“घर में खाने के लिए कुछ नहीं, पहनने के लिए कुछ नहीं। जो 4 बोरी चावल होते हैं, उसमें से 2 बोरी इन लोगों को दे देते हो। खुद तो दारू पीकर सो जाते हो, मगर जो 5 लड़के और 3 लड़कियाँ पैदा की हैं, उन्हें कौन खिलायेगा, ये कभी सोचा है! वहाँ दस हजार महीना दे रहे थे गोपनीय सैनिक बनने का तो क्या करता, भूखा मरता और अपने भाई-बहनों को भी मरने देता?” नम्मू अपने बाप वेन्जा पर फट पड़ा।

बगल में खड़े वर्दीधारी नक्सली ने उसकी पीठ पर अपनी राइफल से 2 बट मारे। नम्मू कराहते हुए गिर पड़ा।

“हमें नहीं चाहिए तुम्हारा पैसा। हमें बस क्रांति चाहिए।” वेन्जा ने लाल-लाल आँखों से घूरते हुए कहा।

“बहुत सही वेन्जा चाचा, तुम्हारे जैसे लोग रहेंगे तो क्रांति की लौ जलती रहेगी”  मासा ने खुश होकर कहा।

“लाल सलाम ! लाल सलाम!” मासा के साथी ने नारा दिया और बाकी गाँव वालों ने साथ में सुर मिलाया।

“अब मुझे चाहिए एक आदमी जो आकर इसका गला रेत कर क्रांति की वेदी पर इसका लहू चढ़ा सके।” मासा ने गाँव वालों की तरफ देखा।

जैसे टीचर के क्वेश्चन पूछने पर सभी नज़रें चुराने लगते हैं वैसे ही यहाँ भी सब नज़रें चुराने और एक दूसरे के पीछे छिपने लगे।

“चल तू आजा मेरे चीते” मासा ने भीड़ के पीछे से एक लड़के को आवाज़ दी।

सब पीछे मुड़ कर देखने में लगे हुए थे कि कौन है वो!

वो बुधमन का लड़का लखमू था, जिसे मासा अपने छोटे भाई की तरह मानता था। दोनों में 5 साल का अंतर था। लखमू मासा के जैसा बनना चाहता था, ये बात पूरे गाँव और बुधमन को भी पता थी। वो भी मासा की तरह हथियार लेकर चलना चाहता था। उसका बस यही सपना था। जैसे आजकल के युवाओं का सपना पुलिस या सेना में जाने का रहता है, वैसा ही कुछ! क्यूँकि भारत देश के इस भाग ने पुलिस कभी देखी ही नहीं थी.. युवाओं ने तो बिलकुल भी नहीं। उन्होंने तो शुरु से नक्सल को ही पुलिस का काम करते देखा था। हथियार उन्हीं के पास होते थे, ताकत उन्हीं के पास दिखती थी, गाँव के मुखिया लोग उनकी आवभगत करते थकते नहीं थे और किसी से समस्या होने पर नक्सली ही उसे सुलझाते और कई बार तो जज बनकर सजा भी देते थे। बाहर की खाकी वर्दी वाली पुलिस तो उनके लिए विदेशी पुलिस थी जो कब्ज़ा करने आती थी और नक्सली गाँव वालों की आज़ादी के लिए लड़ते थे। ऐसी फ़ोर्स में कौन युवा नहीं जाना चाहेगा भला!

बुधमन को काटो तो खून नहीं। उसके अपने बेटे के हाथों किसी की हत्या और वो भी उसकी माँ और उसकी आँखों के सामने! बुधमन कुछ बोल ही नहीं पाया।

लखमू अपनी जगह से उठा और धीमे कदमों से मासा के पास पहुँचा। मासा ने उसे अपनी कमर पर बंधी कटार निकाल कर दी। नम्मू को 4-5 नक्सलियों के द्वारा नीचे लिटा दिया गया और उसके हाथ पैर दबा दिए गए। जैसे बकरा कटने से पहले अपनी सारी ताकत झोंक देता है, वैसे ही नम्मू ने भी हिलने डुलने की पूरी कोशिश की, लेकिन वो बस छटपटाकर रह गया। लखमू घुटने के बल नीचे बैठा। उसके हाथ में कटार थी, लेकिन हाथ काँप रहे थे। माथे से पसीना टपक रहा था। उसने आजतक सिर्फ मुर्गे और बकरे काटे थे। मासा ने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा। नम्मू की आँखों में देखने की हिम्मत नहीं थी लखमू में, इसलिए उसने अपनी आँखें बंद की और कटार से उसका गला रेतना शुरू कर दिया। गर्म-गर्म खून निकल कर उसके चेहरे पर गिरता रहा और साथ में नम्मू के कटे गले से चीखने की कोशिश करती आवाजें उसके कानों में जाती रहीं, मगर वो गर्दन को रेतता ही रहा। आखिरकार उसने नम्मू के धड़ से गर्दन को अलग कर ही दिया।

खून से लथपथ लखमू नम्मू की लाश के पास बैठा हुआ था। मासा ने नम्मू का सर उठाया और नारा लगाया “लाल सलाम, लाल सलाम”। जनता ने भी साथ में आवाज़ बुलंद की। सिवाए दूर बैठे बुधमन के, किसी को लखमू के खून से सने चेहरे के बीच से निकलते आँसू नहीं दिख रहे थे..।

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