‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ अब्दुल बिस्मिल्लाह का सर्वाधिक चर्चित एवं प्रशंसित उपन्यास है। 1987 ई. में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
उपन्यास बनारस के साड़ी बुनकरों की ज़िंदगी पर आधारित है। वर्षों तक इन बुनकरों के जीवन के रेशे-रेशे को देखने के बाद लेखक ने इनके पूरे संघर्ष को उपन्यास के पन्नों पर सजीव कर दिया है। वे बुनकर जिनकी साड़ियाँ विश्व-भर में प्रसिद्ध हैं, अपनी तमाम मेहनत के बावजूद परिवार को दो जून ठीक-ठाक खाना भी नहीं खिला पा रहे हैं, जबकि उनकी ही मेहनत पर फल-फूल रहे हैं ‘गिरस्ता’ और ‘कोठीवाल’।
उपन्यास का नायक यही बुनकर समुदाय है, जिसके केंद्र में है ‘मतीन’। मतीन अपनी दुरवस्था को जस का तस स्वीकारने को तैयार नहीं है। ऐसा क्यों है कि ‘करघा अपना, जाँगर अपनी, सिर्फ कतान हाजी साहब का, लेकिन हाजी साहब की कोठियाँ तन गयीं और मतीन उसी ईंट की कच्ची दीवारों वाले दरबे में गुजर कर रहा है। … कितनी भी सफाई से बिनो, नब्बे रुपये से ज्यादा मजदूरी नहीं मिलने की। हफ्ते भर में सिर्फ नब्बे रुपया। उसमें से भी कभी पाँच रुपया ‘दाग’ का और कभी ‘रफ़ू’ का तो कभी ‘तीरी’ का कट जाता है!’ मतीन बार-बार इस सवाल से जूझता है। पत्नी को टीबी है। खून की उल्टियाँ करती है। डॉक्टर अंडे और फल खिलाने को कहता है, पर जब खाने के लिए रोटी नहीं जुटती तो अंडे और फल कहाँ से आएंगे। क्या करे मतीन? कहाँ जाए मतीन? वह सुनता है कि सरकार ने बुनकरों को काफी सहूलियतें दे रखी हैं। उन्हें बैंक से लोन मिलता है, जिससे वे अपना निजी धंधा शुरू कर सकते हैं। वह लोन लेने बैंक पहुँचता है तो उसे पता चलता है कि ‘लोन’ लेने के लिए तीस आदमियों की सोसायटी बनानी पड़ेगी और सबको एक सौ दो रुपये की फीस जमा करनी पड़ेगी। मतीन तीस लोगों और पैसों की व्यवस्था करे, उसके पहले ही सोसायटी बन जाती है। मतीन, लतीफ़, अल्ताफ, रऊफ आदि सभी जुलाहों के दस्तखत बैंक में मौजूद उस कागज पर चमकते हुए मतीन को मुँह चिढ़ा रहे थे, जिसमें लिखा था कि उन लोगों ने हाजी अमीरुल्ला को अपनी सोसायटी का चेयरमैन चुना है। सोसायटी को मिले पैसों से हाजी साहब ने पावरलूम बिठा लिया। जो मजदूर उनके करघों पर काम करते थे, वे सड़क पर आ गए। इस प्रकार मछली के तेल में ही मछली भुनी गई।
उपन्यास में इस शोषण के खिलाफ संघर्ष भी है, लेकिन यह संघर्ष कहीं से भी बराबरी का नहीं है। संघर्ष जिसमें एक ओर हैं हाजी अमीरुल्ला और सेठ गजाधर प्रसाद जैसे गिरस्ता और कोठीवाल तो दूसरी ओर हैं निरीह और लाचार बुनकर। एक के पास है सत्ता का वरद हस्त तो दूसरे के पास हैं खाली हाथ और खाली पेट। इकबाल जैसे नौजवानों में जोश तो है, लेकिन उनके शोषकों के पास जो कुटिलता है, वह इन युवकों के जोश पर भारी पड़ती है।
पूरी तरह बुनकरों के जीवन और उनकी समस्याओं पर केंद्रित उपन्यास होने के बावजूद लेखक की सजग दृष्टि के कारण उपन्यास में जीवन के कई अन्य पक्ष भी स्वाभाविक रूप से आते हैं। बनारस शहर तथा आसपास के विभिन्न उत्सवों, पीरों-शहीदों के मजारों पर लगने वाले मेलों, शादी-ब्याह आदि की झलकियाँ उपन्यास में बिखरी पड़ी हैं।
भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग की पाकिस्तानपरस्ती को भी लेखक ने भली-भाँति उजागर किया है। पाकिस्तान की जीत की खुशी में पान की दुकान पर मुफ़्त में पान बाँटे जाते हैं। उनके बच्चे हिन्दुस्तान को हराने के लिए कमर कसकर मैदान में उतरते हैं-“जब से पाकिस्तान ने भारत को हराया है, तब से यहाँ का हर लड़का इमरान खाँ बनने का ख्वाब देख रहा है। ..। लड़के चीखते हैं और मैच जोर पकड़ लेता है। आज हिन्दुस्तान झँटहियोवाले को हरा के रहना है।”
इस प्रकार के छोटे-छोटे प्रसंग काफी प्रभावी हैं। निर्विवाद रूप से यह न सिर्फ लेखक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है, बल्कि हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों की किसी भी सूची में स्थान पाने योग्य है।
इस उपन्यास को मंगवाया हु