2004 में प्रदर्शित ‘द डे आफ्टर टूमारो’ में पर्यावरण संकट के भयावह रूप को दिखाया गया था। यद्यपि यह एक काल्पनिक कथा थी, लेकिन पिछले 15 वर्षों में यह कल्पना जिस तेजी से यथार्थ में रूपांतरित होने की ओर बढ़ी है, वह कहीं से भी उस फिल्म की कहानी से कम भयावह नहीं है। वैश्विक […]
‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ अब्दुल बिस्मिल्लाह का सर्वाधिक चर्चित एवं प्रशंसित उपन्यास है। 1987 ई. में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उपन्यास बनारस के साड़ी बुनकरों की ज़िंदगी पर आधारित है। वर्षों तक इन बुनकरों के जीवन के रेशे-रेशे को देखने के बाद लेखक […]
“अतीत की रीसती छत से मेरा वर्तमान ठोप- ठोप टपक रहा भविष्य के पेंदाहीन पात्र में” अभियन्यु अनत ( मॉरीशस के कवि ) कुली लाइंस एक साहित्यिक पुस्तक भर नहीं है, बल्कि इतिहास के उस दौर का चलचित्र (मनमोहन देसाई मार्का नहीं, बल्कि आर्ट मूवी की तरह) है, जिससे कि हममें से ज्यादातर लोग परिचित […]
सबसे पहले भाषा शैली पर,जिसे लेकर काफी हल्ला भी हो रहा है इस पर यह बात लेखक को पनाह देती है कि ‘लेखक अपने आपको शहर कहता है, और शहर उसी जबान में किस्सा सुनाता है, जो उसके लोगों ने उसे सिखायी है.’ पाठक इस कथा के द्वारा बोकारो शहर से भी परिचित हो सकते […]
हर इंसान के अंदर भगवान और शैतान, दोनों, किसी न किसी रूप में मौजूद होते हैं। जब हम कोई सत्कार्य कर रहे हों तो उसे अपने अंदर मौजूद ईश्वरीय अंश का कृत्य मानते हैं, जबकि हर दुष्कृत्य के लिए अपने अंदर मौजूद शैतानीय अंश को उत्तरदायी मानते हैं। हमारे अंदर मौजूद ये दोनो ही अंश […]
रेटिंग: *****
हिंदी में युद्ध कथाएँ काफी कम लिखी गई हैं, बावजूद इसके कि हिंदी कहानी की शुरुआत में ही गुलेरी जी ने ‘उसने कहा था’ जैसी सशक्त कहानी के माध्यम से युद्ध कथा का सूत्रपात् किया था. ऐसे में, जगदीशचन्द्र की ‘आधा पुल’ हिंदी में युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक महत्वपूर्ण रचना के रूप […]
राघौ! एक बार फिरि आवौ। ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।। जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे। क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले ! ते अब निपट बिसारे।। भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे। तदपि दिनहिं दिन होत झावरे मनहुँ कमल हिममारे।। सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो। तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो।।
जननी निरखति बान धनुहियाँ। बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।। कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे। “उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे”।। कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया। बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया” कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे़ | नीरज नयन नेह जल बाढे़ || कहब मोर मुनिनाथ निबाहा | एहि तें अधिक कहौं मैं कहा || मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊ | अपराधिहु पर कोह न काऊ || मो पर कृपा सनेहु बिसेखी | खेलत खुनिस न कबहूँ देखी || सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू | कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू || मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही | हारेंहूँ खेल जितावहिं मोंही || महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन | दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन || बिधि ना सकेउ सहि मोर दुलारा | नीच बीचु जननी मिस पारा || यहउ कहत मोहि आजु न सोभा | अपनी समुझि साधु सुचि को भा || मातु मंदि मैं साधु सुचाली | उर अस आनत कोटि कुचाली || फरह कि कोदव बालि सुसाली | मुकता प्रसव कि […]
तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती को हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये ऊसर बंजर तोड़ो ये चरती परती तोड़ो सब खेत बनाकर छोड़ो मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को? गोड़ो गोड़ो गोड़ो
जैसे बहन ‘दा’ कहती है ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक?) पर कोई चिड़िया कुऊकी चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराए पाँव तले ऊँचे तरुवर से गिरे बड़े-बड़े पियराए पत्ते कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो— खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई। ऐसे, फुटपाथ पर चलते चलते चलते। कल मैंने जाना कि वसंत आया। और यह कैलेंडर से मालूम था अमुक दिन अमुक बार मदन-महीने की होवेगी पंचमी दफ़्तर में छुट्टी थी—यह था प्रमाण और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल आम बौर आवेंगे रंग-रस-गंध से लदे-फँदे दूर के विदेश के वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व अभ्यास करके दिखावेंगे यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।
जल्दी जयपुर पहुँचने के चक्कर में जवाद इब्राहिम ने मुख्य मार्ग से न जाकर, जंगल से हो के जाने वाला ये छोटा रास्ता चुना था। हालाँकि उसकी पत्नी रुख़सार ने एतराज़ भी किया था। शाम का धुँधलका हो रहा था कि अचानक उसकी कार घुर्र-घुर्र कर बंद हो गयी। बस रुख़सार ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, “मैं कह रही थी कि मुख्य मार्ग से चलो, पर तुम्हें तो जल्दी पहुँचना था। वाह! कितनी जल्दी पहुँच गये।”, रुख़सार ने तंज़ कसते हुए कहा, “जाने कौन सा इलाका है, अँधेरा भी हो रहा है।” रुख़सार को बड़बड़ाता छोड़ जवाद गाड़ी से उतरा और अपनी लंबी शक्तिशाली टॉर्च की रोशनी इधर-उधर डाली। सड़क के दाहिनी ओर एक लाल बजरी वाला रास्ता था। किनारे पर लगे तीर के निशान के साथ बोर्ड पर लिखा था “संगमहल”। उसने कार में बैठी रुख़सार से कहा, “फ़िक्र न करो। हम सन्दलगढ़ की हवेली के आस पास के […]
जब हम सत्य को पुकारते हैं तब वह हमसे हटते जाता है जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में सत्य शायद जानना चाहता है कि उनके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं कभी दिखता है सत्य और कभी ओझल हो जाता है और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर कि ठहरिए स्वामी विदुर यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर वे नहीं ठिठकते यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य लेकिन पलटकर खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें और उसमें से उसी का हल्का-सा प्रकाश जैसा आकार समा जाता है हममें जैसे शमी वृक्ष के तने […]
1947 के बाद से इतने लोगों को इतने तरीक़ों से आत्म निर्भर, मालामाल और गतिशील होते देखा है कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए तो जान लेता हूँ मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी या मैं भला-चंगा हूँ और कामचोर और एक मामूली धोखेबाज़ लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच, लज्जा, परेशानी या ग़ुस्से पर आश्रित तुम्हारे सामने बिल्कुल नंगा, निर्लज्ज और निराकांक्षी मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो
हिमालय किधर है? मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर पतंग उड़ा रहा था उधर-उधर-उसने कहा जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी मैं स्वीकार करूँ मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है?
इस शहर मे बसंत अचानक आता है और जब आता है तो मैंने देखा है लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से उठता है धूल का एक बवंडर और इस महान पुराने शहर की जीभ किरकिराने लगती है जो है वह सुगबुगाता है जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ आदमी दशाश्वमेध पर जाता है और पाता है […]
मैं ने देखा एक बूँद सहसाउछली सागर के झाग सेरँग गई क्षण भरढलते सूरज की आग से।मुझको दीख गया :सूने विराट् के सम्मुखहर आलोक-छुआ अपनापनहै उन्मोचननश्वरता के दाग से! कठिन शब्द सहसा- अचानक विराट् – (तत्सम, विशेषण, संज्ञा) – बहुत बड़ा, ब्रह्म उन्मोचन – (तत्सम) – मुक्ति, आजादी नश्वरता – (तत्सम) – नाश होने की प्रवृत्ति, नष्ट हो जाने का गुण
यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा? पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा? यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा। यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित – यह दीप, अकेला, स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय, यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय, यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय, यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत : इसको भी शक्ति को दे दो। यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा, वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा; कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के […]
सरोज स्मृति एक शोक गीति है, जो कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद लिखी थी। काव्यांश देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल। देखती मुझे तू, हँसी मंद, होठों में बिजली फँसी, स्पंद उर में भर झूली छबि सुंदर, प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर तू खुली एक उच्छ्वास-संग, विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग, नत नयनों से आलोक उतर काँपा अधरों पर थर-थर-थर। देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति मेरे वसंत की प्रथम गीति— शब्दार्थ आमूल: पूरी तरह, जड़ से नवल: नया मंद: धीमा स्पंद: व्याख्या काव्यांश शृंगार, रहा जो निराकार रस कविता में उच्छ्वसित-धार गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग […]
गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को। चोट खाकर राह चलते होश के भी होश छूटे, हाथ जो पाथेय थे, ठग- ठाकुरों ने रात लूटे, कंठ रुकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो। भर गया है जहर से संसार जैसे हार खाकर, देखते हैं लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर, बुझ गई है लौ पृथा […]
कार्नेलिया का गीत (अरुण यह मधुमय देश हमारा) जयशंकर प्रसाद के नाटक चन्द्रगुप्त से लिया गया है। काव्यांश अरुण यह मधुमय देश हमारा! जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा। सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा! शब्दार्थ अरुण: सुबह का सूर्य, लाल रंग, प्रातः कालीन आकाश में छाई लाली मधुमय: मिठास से भरा हुआ क्षितिज: जहाँ धरती और आकाश मिलते प्रतीत होते हैं सरस: रस से भरा हुआ तामरस: तांबे की तरह लाल, खनिज से भरी पृथ्वी, कमल विभा: प्रकाश, चमक तरुशिखा: पेड़ों की फुनगियाँ मनोहर: मन को हरने वाला, सुंदर, आकर्षक व्याख्या सिकंदर के सेनापति सिल्यूकस (सेल्यूकस) की पुत्री कार्नेलिया को भारतीय संस्कृति से प्यार है। वह सिंधु नदी के किनारे ग्रीक शिविर में बैठी भारतीय संगीत का अभ्यास करते हुए यह गीत गाती है। कवि ने कार्नेलिया द्वारा भारत को अपना देश मानते दिखाया है। कार्नेलिया कहती […]
बहुत ही सुंदर कविता है जिसने भी लिखी है उसको मेरा दिल से सलाम धन्यवाद आपको