जीवन ने घड़ी देखी,दो बजकर बीस मिनट हो रहे थे। पौने तीन तक डायरेक्ट लखनऊ वाली बस छूट जानी थी । उसके बाद कई बसें बदलकर ही वो लखनऊ पहुँच सकता था। वक्त के बारे में सोच कर झुंझला उठा ।उसने ऑटो वाले को घुड़का –
“मेरी बस छुड़वा दोगे क्या ,जल्दी कर ना यार”
“सामने देखिये साहब, सिग्नल लाल है ।रेलवे का फाटक बंद है । दो गाड़ियों की क्रासिंग है ,इतना लंबा जाम है। फाटक खुल गया तो भी आधा घण्टा लगेगा निकलने में। उड़कर नहीं जा सकता साहब “
ऑटो वालो ने संयत स्वर में कहा।
“फिर तो पक्का बस छूटेगी मेरी,यही एक सीधी बस है लखनऊ की ।अब क्या हो सकता है “जीवन ने हताश स्वर में कहा।
“एक काम करिये साहब , आप ऑटो छोड़िये।पैदल क्रासिंग पार कर जाइये। क्रासिंग के बगल में मंदिर से लगा हुआ पीछे से एक रास्ता है । उस मोहल्ले के खत्म होते ही सोना मोड़ पर कुछ ऑटो मिल जाएंगे जो आपको तत्काल बस अड्डे पर पहुंचा देंगे। लेकिन एक बात है साहब ,उस मोहल्ले से सम्भल कर गुज़रियेगा। सूटकेस,गले की चेन की छिनैती हो सकती है ,थोड़ा सावधान रहिएगा साहब ।उधर एक नेशनल बेकरी है उसके पास ही एक -दो बार छिनैती हुई थी कुछ महीने पहले।चाकू -वाकू भी चल गए थे “।
जीवन ने असमंजस से उसे देखा और कहा “यार ,तू मेरी मुसीबत कम कर रहा है या बढ़ा रहा है ।मतलब क्या है तेरा”।
ऑटोवाला थोड़ा ठहरकर बोला-
“मेरा कोई मतलब नहीं साहब ,मैंने आपको सिर्फ रास्ता बताया है । उस पर चलना या ना चलना आप की मर्जी। आप बाहरी हैं तो आपको आगाह कर दिया । वैसे रोज नहीं होता ये सब,एक -दो बार हो गया था। अभी दिन है आप बेफिक्र होकर जाओ,बहुत लोग उस रास्ते से जा रहे होंगे । आप खातिर जमा रखो ,आप जाओ तो आपकी बस मिल जाएगी। पंद्रह-बीस मिनट में आप बस अड्डे पहुंच जाएंगे। और अगर उस रास्ते नहीं जाना है तो रेलवे फाटक खुलने का इंतजार करिये।वैसे भी मैं खड़े ऑटो का भाड़ा चार्ज नहीं करूंगा आपको ।अब सोच-समझ लीजिये साहब ।“
जीवन ने कुछ सोच -विचार किया उसके बाद उसने ऑटो वाले को बीस का नोट पकड़ाया और सूटकेस लेकर ऑटो से उतर गया।उसने पैदल ही रेलवे फाटक को पार किया और फिर ऑटो वाले के बताये रास्ते की तजवीज करने लगा। उसने देखा कई लोग मंदिर से लगायत पीछे के रास्ते से जल्दी -जल्दी जा रहे थे । उसने सोचा हो -ना-हो ये लोग भी बस अड्डे जा रहे होंगे।
जीवन भी उन लोगों के पीछे हो लिया । एक -दो मोड़ के बाद उसे नेशनल बेकरी का बड़ा सा बोर्ड नजर आया। ये बड़े इत्तफाक की बात थी कि जब उसने खुद को नेशनल बेकरी के सामने पाया तो वो अकेला ही था।
वो थोड़ा सहम गया और चौकन्ना हो गया। उसे खुद पर झल्लाहट भी हुई कि एटीएम के इस जमाने में इतनी ज्यादा नकदी लेकर चलने की बेवकूफी कर बैठा। खुद ही बड़बड़ाया –
“यूँ ही नहीं सब मुझे कहते हैं कि मैं अच्छा आदमी तो हूँ मगर अक्लमंद नहीं”।
उसने सूटकेस पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। और इधर -उधर देख कर टोह लेने लगा कि कोई उसकी तरफ आ तो नहीं रहा है।
“तुम यहाँ , कैसे यहॉं आ गए किसको खोज रहे हो “ एक जनाना स्वर उभरा ।
जीवन ने जनाना आवाज की तरफ मुंह घुमाया तो बेकरी के सामने के एक घर से एक औरत गोद मे बच्ची और झोले में पाव लेकर निकल रही थी।
उस कच्ची बस्ती में आधे प्लास्टर किये हुए मकान में हाथ में दुधमुंही बच्ची लिये उसे मधुरा मिल गयी , वो स्तब्ध रह गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि दस ग्यारह सालों बाद उसे मधुरा इस हाल में मिलेगी । मधुरा उसे देखकर हंसी वैसे ही जैसे वो निश्छल हँसा करती थी ,बिना पूरे होंठ खोले हुए । उसने इशारा किया तो जीवन चंद कदम आगे बढ़कर उसकी चौखट तक पहुंच गया।
अपनी अर्द्ध मुस्कान में मधुरा ने पूछा –
“बताया नहीं तुमने जीवन लाल,तुम यहाँ कैसे । तुम्हारे जैसा अच्छा आदमी इस मामूली शहर में क्या कर रहा है । किसको खोज रहे हो “?
“अच्छा आदमी ,तुम्हें अब भी वो सब बातें याद हैं।“
ये कहकर जीवन चुप हो गया और नजर नीची करके बोला
-“रोजी -रोटी के सिलसिले में इस शहर में आया था और बस स्टेशन जाने का शॉर्टकट रास्ता खोज रहा था। मुझे लखनऊ की डायरेक्ट बस पकड़नी है। रेलवे का फाटक बंद था । सो ऑटो छोड़ दिया। मुझे जल्दी बस पकड़नी थी।लेकिन तुम यहाँ इस हाल में । तुम्हारा विवाह तो मुंबई में हुआ था। फिर तुम्हारा घर कहां है , पति कहाँ है । और महानगर छोड़कर इस छोटे से कस्बे में कैसे। किसी रिश्तेदारी में आयी हो क्या “।
जीवन ने जल्दी -जल्दी पूछा।
मधुरा ने हंसते हुए कहा –
“जल्दी करने की आदत गयी नहीं अब तक तुम्हारी जीवन लाल।जल्दी बस भी पकड़नी है और जल्दी -जल्दी में एक साथ कितने सवाल कर डाले तुमने। दम तो ले लो सही। मुझे यकीन तो हो जाये कि हमारी -तुम्हारी मुलाकात भी हुई है।बैठो तो सही जरा दो घड़ी, अच्छे आदमी”
अधूरी मुस्कान से कहते हुए मधुरा ने उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।
जीवन कुर्सी पर बैठ गया । उसने सूटकेस जमीन पर रख दिया और हालात को जानने -समझने की कोशिश करने लगा।
जीवन ने घड़ी की तरफ नहीं देखा और एकटक मधुरा को देखता रहा। मधुरा ने भी कभी जीवन को ,कभी जमीन को ,कभी छत को निहारा । इस दरम्यान वो बच्ची को थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश करती रही ।
कुछ देर यूँ ही वक्त ठहरा रहा। उन दोनों ने जब अपने -अपने अतीत को खूब याद किया। जब अतीत असहय होने लगा तो मधुरा वर्तमान में लौट आयी।
उसने जीवन की सवालिया आंखों से बचते हुए लेकिन उसी की तरफ देखते हुए कहा –
“ सब बताती हूँ जीवन तुमको।मेरा घर ऊपर है । समझो ये भी है , पानी और नाबदान नीचे ही है । और मेरी शादी नहीं हुई है , ये बच्ची मेरी ही पैदा की हुई है । जिसकी औलाद थी वो भाग गया छोड़कर बिना शादी किये मुझे बिन ब्याही मां बनाकर । पंकज मुझे मुंबई ले गया था। झूठे आदमी बैठाकर नकली आफिस बनाकर उसने मुझसे कोर्ट मैरिज का नाटक किया । आठ साल तक मैं उसके साथ रही। उसका जी मुझसे जब भर गया तब उसने मुझे छोड़ दिया और मुंबई छोड़कर वापी चला गया ।वहाँ किसी और औरत के साथ उसने घर बसा लिया । उसी के घर मे रहता है और उसी की कपड़े की दुकान चलाता है। उसने मुझसे नाता तोड़ लिया।उस वक्त मैं प्रेग्नेंट थी ।हाथ में पैसा नहीं ,ना कोई जान ना पहचान। क्या करती मैं बेबस देहाती औरत। दुनिया से लड़कर ,घर परिवार को लात मार के मैं उससे लव मैरिज करने मुंबई गयी थी । लेकिन मुंबई में ना लव रहा ना मैरिज”
ये कहते –कहते मधुरा की आंख भर आयी।
जीवन स्तब्ध होकर ये सब सुन रहा था। उसके चेहरे पर कई भाव आये -गए।
मधुरा ने दुपट्टे से अपनी आंखों के आंसूं पोंछे।
फिर धीरे से बोली –
“पंकज की तलाश में मैं प्रेग्नेंसी की हालत में वापी भी गयी।अपनी शादी और पेट के बच्चे की दुहाई दी ,लेकिन वो नहीं पसीजा अलबत्ता उसकी बीवी ने भी मुझे बहुत बेइज्जत किया। हारकर पुलिस के पास गयी। पुलिस ने जांच -पड़ताल करके बताया कि पकंज और मेरी शादी कभी हुई ही नहीं थी। नकली ऑफिस में नकली शादी की थी पंकज ने मुझसे। तो अब मैं घर से लड़कर लव मैरिज करने गयी लड़की थी जो बाद में बिना विवाह के मां बन गयी थी और जिसके साथ भागी थी उसने दूसरी शादी कर ली थी। पति ने छोड़ दिया,घर लौट नहीं सकती थी । पुलिस ने भी मदद नहीं की।हाथ में फूटी कौड़ी नहीं, जान देने और भूखों मरने की नौबत आ गयी थी। “
“तो तुम यहाँ नानपारा कैसे पहुंची” जीवन ने फंसे स्वर में पूछा ।
“पेट की बच्ची के साथ मरना मुझे पाप लगा। वहीं मुंबई में मेरी खोली के पास सलमा खाला की बेटी ब्याही थी। ये उन दिनों मुम्बई गयी थीं। इन्होंने मेरा दुखड़ा सुना तो उसी प्रेग्नेंसी की हालत में मुझे यहाँ ले आईं। यहीं मैंने इस बच्ची को जन्म दिया । इन्ही के दिये इस घर में रहती हूँ। इनकी बेकरी में काम करती हूँ,लेकिन बेकरी में ज्यादा काम रहता नहीं है । सो इधर -उधर भी छोटे -मोटे काम कर लिया करती हूं। गुजारा हो ही जाता है ,देखो कब तक जिंदा रहूं इन हालात में।अब मैं और मेरी बेटी इसी हाल में गुजरा कर रहे हैं”।
जीवन स्तब्ध ही रहा , ऊंच -नीच ,आगा-पीछा सोचता रहा।
मधुरा ने धीरे से कहा –
“जीवन लाल ,मैं तब मैं तुम्हें अच्छा आदमी कहती थी तो तुम्हें लगता था कि मैं तुम्हारा मजाक उड़ा रही हूँ और जब जीवनलाल कहती थी तब तुम्हें लगता था कि मैं तुम्हारे पुराने टाइप नाम की खिल्ली उड़ा रही हूँ। वास्तव में ऐसा नहीं था । तुम्हारे बारे में कही जाने वाली एक बात पर अब मुझे पक्का यकीन हो गया है कि दुनिया में अक्लमंद आदमी बहुत हैं और अच्छे आदमी कम “।
जीवन को ये बात सुखद तो लगी लेकिन अगले ही क्षण उसे हालात का इम्कान हुआ तो उसने संयत स्वर में कहा –
“वो सब पुरानी बातें हैं अब पुरानी बातों का क्या “।
मधुरा कुछ क्षण चुप रही फिर धीरे से बोली-
“हाँ ,तुम्हारी बात ठीक है कि अब पुरानी बातें बेमतलब है । लेकिन ज़िंदगी ने अचानक मिलवा दिया तो सोचा कि कुछ पुरानी बातें क्लियर कर दूं ताकि तुम्हारे मन में ना कोई टीस रह जाये और ना ही मेरे मन में कोई अपराध बोध “
ये कहकर मधुरा चुप हो गयी।
दोनों कुछ क्षण चुप रहे और एक दूसरे से इतर इधर -उधर देखते रहे।जब चुप्पियों की बातें खत्म हो गयीं तब दोनों बोलने के लिये मचल उठे मगर सवाल ये था कि पहले बोले कौन।
मधुरा मुँह खोलने ही वाली थी कि व्यग्र स्वर में जीवन ने कहा –
“अब बोलो भी। उन बातों का भले ही कोई मतलब ना हो । शायद तुम्हें कहकर और मुझे सुनकर शायद कुछ राहत मिल जाये”।
मधुरा में लरजते हुए कहा –
“जीवन इस बात पर तुम शायद अब भी यकीन ना करो ,लेकिन फिर भी बताए देती हूं। पंकज और तुम एक साथ मेरी ज़िंदगी में नहीं थे। तुम्हारे लिये मैंने अपनी मम्मी से और मम्मी ने पापा से ये बात चलायी थी। उस वक्त घर में बहुत बखेड़ा खड़ा हो गया था। मरने -मारने की नौबत आ गयी थी ।मेरे घर वाले लव -मैरिज के सख्त खिलाफ थे। उनके सख्त रवैए से मैं भी डर गयी थी इसीलिए उस वक्त इतना डर गयी थी कि तुम्हें पसंद करने और तुमसे प्रेम होने के बावजूद मैं भागकर तुमसे शादी करने की हिम्मत ना जुटा सकी”।
जीवन ने बेचैन आंखों से मधुरा को देखा।
मधुरा ने जीवन से आंखे चुराते हुए कहा-
“पापा का इतना डर था कि मैं उस वक्त तुम्हारे साथ कदम से कदम नहीं मिला सकी। तुम जब मुझसे निराश हो गए कि हमारा विवाह नहीं हो सकता। जब तुमने मेरी उम्मीद छोड़ दी और दिल्ली चले गए। तो मैंने भी ये मान लिया था कि हमारा विवाह नहीं हो सकता। सब कुछ भुलाकर मैं ज़िंदगी में आगे बढ़ गयी और तुम्हारे दिल्ली जाने के डेढ़ साल बाद पंकज मेरी ज़िंदगी में आया”।
जीवन ने मधुरा की तरफ बड़ी कातरता और हताशा से देखा।
मधुरा ने धीमे से कहा –
“जीवन तुमसे विवाह ना होने पाने की मुझे बहुत टीस थी और घरवालों पर बहुत गुस्सा। इसीलिये करीब डेढ़ साल बाद जब पंकज मेरी ज़िंदगी में आया तो इस बार मैं डरी नहीं। इस बार मुझे रोना नहीं था,हारना नहीं था,घरवालों के दबाव में नहीं आना था। सो बहुत आसानी से मैं पंकज की बातों में आ गयी और तुमसे छूटे प्रेम की हर तकलीफ का बदला लेने के लिये अपने घर वालों से विद्रोह करके बिना आगा -पीछा सोचे पंकज के साथ मुम्बई चली गयी। मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ, पापिन हूँ कि ये हिम्मत मैंने तुम्हारे साथ नहीं दिखायी। शायद तुम्हारे साथ किये हुए छल की सजा मिली मुझे। यही सोच रहे हो ना तुम जीवन “
ये कहते हुए मधुरा हंसी लेकिन आँसू उसकी आँखों में तैरते हुए साफ दिख रहे थे।
मधुरा को हंसते और आँखों से ढलक आये गालों पर आंसुओं को देखकर जीवन असमंजस में पड़ गया कि वो मधुरा के हँसने में साथ दे या रोने में? चाहकर भी जीवन मुस्करा नहीं सका। उसके चेहरे पर असमंजस उभर आया था।
बातें खत्म हुईं तो उन दोनों ने फिर चुप्पियां ओढ़ लीं। जितना वो दोनों एक दूसरे से जुबानी बात करते थे उतनी ही उनकी चुप्पियां भी ।
अचानक बच्ची के रोने के स्वर से उन दोनों की तंद्रा टूटी।
मधुरा लपक कर उठी ,उसने नल की टोटी खोली , बोतल के दूध में पानी मिलाया और बेटी को कंधे पर लेकर लोहे की सीढ़ियों पर उपर चढ़ गयी ,जाते -जाते उसने इशारे से कहा- “रुको, आती हूँ “।
सड़क की तरफ खुलने वाला दरवाजा खुला था । इक्का -दुक्का लोग आ- जा रहे थे । जीवन नीचे टीन की छत तले बैठा रहा,गर्मी से तप रही दोपहरी में वो अपने ग्यारह वर्ष पहले के अलगाव और बीस साल पुराने प्रेम के बारे में जोड़ -घटाव,गुणा -भाग करता रहा।
थोड़ी देर बीती तो मधुरा कच्छी और ब्रा पहनकर सीढ़ी से उतरी। उसके बदन पर नाम मात्र के कपड़े देखकर उसे लगा मधुरा नहाने जा रही है और उसके बाकी के कपड़े अंदर बाथरूम में होंगे । समय के फेर का आकलन उसने किया कि जो मधुरा दुपट्टे में मुंह छिपाकर नजरें बचाते हुए शर्माते हुए बचकर निकल जाया करती थी वो आज नाम मात्र के कपड़ों में उसके सामने बेधड़क खड़ी है।
उसने बिना दरवाजे वाली खिड़कियों की दीवार से लगे लोहे के भारी दरवाजे को बंद किया । उस दरवाजे को बंद करने का कोई खास मतलब नहीं था ,सड़क से घर के अंदर और अंदर से सड़क का पूरा दृश्य दिखता था । लेकिन आमदरफ्त जरूर रुक जाती थी दरवाजा बंद करने से ।
मधुरा ने कोने में पड़े एक तख्त की तरफ इशारा करते हुए कहा –
“तुम भी अपने कपड़े उतार दो, आओ जल्दी जो करना है कर लो, नहीं तो बच्ची उठ जाएगी कभी भी, तुम्हे इस बात की बड़ी टीस और कसक रहा करती थी ना , कि तुम मुझे हासिल नहीं कर सके । तुम्हें हमेशा लगता था ना कि मैं तुमसे बिस्तर पर सम्बन्ध नहीं बनाती थी तो तुमसे सच्चा प्रेम नहीं करती थी । आज तुम्हारी ये मन की साध भी पूरी हो जाएगी और तुम्हे तुम्हारा पूरा –पूरा प्रेम भी हासिल हो जाएगा। काहे को मन मार के जियो तुम इसके बिना। वैसे तुम्हारी भी बात सही थी कि बिना शरीर के मिले कोई प्रेम पूरा नहीं होता ।ये बात तब मैं नहीं समझती थी लेकिन अब मेरी भी समझ में आ गयी । प्रेम -व्रेम यही है सब है ,देह से देह ना मिले तो सब बेकार ही है। आओ तुमको भी तुम्हारा हक मिलना ही चाहिये”
ये कहते हुए मधुरा तख्त पर जाकर अपने शरीर को पसार कर लेट गयी।
थोड़ी देर तक कोई हलचल ना होते देख मधुरा ने कहा –
“आओ ,क्या दिक्कत है अब । मैं राजी -खुशी तुम्हें ये मौका दे रही हैं। पहले भी मुझे तुमको अपनी देह सौंपने में कोई संकोच नहीं था, बस यही डरती थी कि कुंवारी थी तो कोई बच्चा -वच्चा ना ठहर जाए पेट में। गांव में रहने वाली कुंवारी लड़की को डॉक्टर -दवाई बहुत मुश्किल से तब मिलते थे बच्चा वगैरह हटाने में। तब यही डर था, कुंवारी तो अब भी हूँ , मेरा मतलब बिना शादी के और अब बच्चा ठहरने का क्या डर ? अब तो बच्चा पैदा हो चुका है । हां मेरी देह में अब वो बात नहीं तो तुम्हे शायद मजा ना आये उतना । लेकिन मैं जानती थी कि तुम तब भी मजे के लिये नहीं बल्कि अपने मन की साध के लिये मुझसे जिस्मानी सम्बन्ध बनाना चाहते थे । इससे पहली बात तो तुम्हारे मन की साध पूरी हो जाती कि तुमने मुझे पूरी तरह से हासिल कर लिया और दूसरी बात तुम्हारे मन का ये कांटा भी निकल जाता कि मैंने तुम्हें अपना कुंवारा शरीर सौंप दिया तो मैं तुमसे पूरी तरह से प्यार करती हूँ”।
जीवन असमंजस से उसकी बातों को सुन रहा था ,उसकी धमनियों में रक्त का प्रवाह बढ़ चुका था। स्त्री की इस प्रकार की उपस्थिति से वो अपने शरीर में सनसनाहट महसूस कर रहा था। प्रत्यक्ष में वो सहज दिखने की भरपूर कोशिश कर रहा था लेकिन उसके हाव -भाव में असमंजस ही तारी था।
मधुरा ने उसकी मनोदशा को भांपते हुए कहा –
“ऐसा नहीं था जीवन कि आधा -अधूरा और सिर्फ बातों वाला प्यार तुमसे करती रही हूं और देह को छूने का अधिकार अपने पति के लिए बचाकर रखा था। यही सब सोचते थे ना तब तुम ।यही बात थी ना, सही कह रही हूँ ना, मैं जानती -समझती सब थी तुम्हारे मन की ।
बस कुछ वजहों से तुम्हारे मन की साध पूरी ना कर सकी थी। चलो अब अपने मन की साध पूरी कर लो, मैं अब भी वही हूँ ,बासी जरूर हो गयी हूँ, मगर बूढ़ी नहीं “
ये कहकर मधुरा हंसने लगी लेकिन अचानक हंसते -हंसते गम्भीर हो गयी और उसने आंखे बंद कर लीं।
थोड़ी देर और बीत गयी मगर उस अधखुले कमरे में किसी भी तरह की हलचल नहीं हुई। जीवन सूटकेस पर हाथ रखे बैठा रहा और अनिर्णय की स्थिति में मधुरा को अपलक देखता रहा।
थोड़ी देर तक इतंजार करने के बाद कोई हलचल ना होते देख मधुरा ने कुनमुनाते हुए आंखे खोली और फंसे हुए स्वर में बोली –
“क्या सोच रहे हो अच्छे आदमी। अब इतने अच्छे भी मत बनो कि दुनिया से ही कट जाओ। बेकार में ऊंच -नीच मत सोचो, तुम मर्द हो तुम्हें इतना क्या सोचना, आओ भी अब । मेरी भी समस्या समझो तुम।बिना कपड़ों के मैं बड़ी देर तक ना ऐसे रह सकती हूं और ना ये दरवाजा बंद रखा जा सकता है लंबे टाइम तक। अभी कोई ना कोई बुलाने आएगा, बच्ची जाग सकती है ,ऊपर अकेली है। तुम्हारा ये सब हो जाये तो मुझे और भी काम हैं ,घर में मर्द नहीं बैठा है कोई जो खिलाये, मुझे दो पैसे की रोजी तलाशने और कमाने बाहर जाना भी जाना है। मुझे कोई शौक नहीं चढ़ा है ये सब करने का। मुझे लगा शायद तुम्हारे मन की कोई साध रह गयी हो तो ? तो अब पूरी कर लो। आओ ना फिर “।
जीवन ने अपलक देखते हुए अपनी आंखें चौड़ी की और सधे स्वर में बोला
“उठो, कपड़े पहन लो, और चलो यहां से। मैं तुमसे विवाह करूंगा “।
मधुरा हंस पड़ी और बोली –
“तुम विवाहित होवोगे,नौकरी या बिजनेस होगा। दिल्ली में रहते हो या लखनऊ में।रईस लग रहे हो तो बीवी भी अच्छी मिली होगी। बाल -बच्चे होंगे , कैसे विवाह करोगे मुझसे? अपनी दुनिया चौपट कर लोगे क्या? वैसे भी मुझे हासिल करने के लिये तुम्हे अब मुझसे विवाह करने की जरूरत नहीं, हाँ पहले शायद मुझे हासिल करने के लिये विवाह की जरूरत पड़ सकती थी ,लेकिन अब तो बिल्कुल भी नहीं। तुम बिल्कुल नहीं बदले तब भी बात -बात में विवाह करने को तैयार हो जाते थे और अब भी विवाह करने को तैयार हो। तुम भले ही अब भी अच्छे आदमी होवोगे लेकिन अब मैं अच्छी औरत नहीं रही। सेकेंड हैंड समझो मुझे तुम “
ये कहते हुए मधुरा के होठों पर मुस्कान बिखर गयी।
जीवन ने अपलक देखते हुए सर्द स्वर में कहा –
“दुबारा नहीं कहूंगा, उठो कपड़े पहनो, बच्ची को लो और अगर जरूरी समझो तो कोई सामान अपने साथ ले लो, वरना कुछ भी नहीं लो। अगर तुम मुझे तब अच्छा आदमी समझती थी और अब भी अच्छा आदमी ही समझती हो तो फिर चलो मेरे साथ यहां से अभी। मैं तुमसे विवाह करूंगा । मेरा बिजनेस,नौकरी, बाल -बच्चे वगैरह की चिंता तुम मत करो। वो मेरा सिरदर्द है। मैं तुम्हें इस हाल में रहने नहीं दे सकता। फाइनल बात कह रहा हूँ और काफी सोच -समझ कर कह रहा हूँ। अब ज्यादा सवाल -जवाब मत करना। बच्ची को लो और चलो “।
जीवन के भिंचे हुये चेहरे को देखकर मधुरा सहम गयी। उसके चेहरे पर मुस्कराहट के बजाय विषाद और असमंजस फैल गया।
मधुरा अपलक जीवन को देखे जा रही थी और जीवन ने सिगरेट सुलगा ली थी और कश लेने के बाद खिड़की के बाहर देखना शुरू कर दिया था। मधुरा ने इस बात पर सोच -विचार करना शुरू कर दिया था कि वाकई जीवन लाल इतना अच्छा आदमी है या उसकी अक्लमंदी में हमेशा की तरह फिर कमी वाली कोई बात हो गयी है।