यहाँ के हम सिकन्दर-उपन्यास अंश ( तुम तक)

हॉस्टल में सुबह ही एक आकाशवाणी से होती थी- “जागो वत्स, जीवन रेस है। दौड़ो, क्योंकि तुम प्रतिस्पर्धा में हो।” 350 लड़कियाँ और सीमित संसाधन। हर एक मिनट में “हाउ लॉंग?” की आवाज़ बाथरूम एरिया को सजीव बनाए रखती थी। ‘आय विल टेक माइ टाइम।’ का जवाब प्रतिस्पर्धा के निर्मम और आक्रामक होने का एहसास कराता था।
सुबह लगभग आठ बजे हम लोगों को इंस्टी यानी इंस्टिट्यूट जाना होता था। सुबह का समय सबके लिये बड़ा कठिन समय होता था। फिर भी जैसे-तैसे, कैसे-न-कैसे करके सब तैयार हो ही जाते थे। इंस्टी में नये ही संघर्ष हमारी बाट जोहते थे। हॉस्टल और इंस्टी की रैगिंग में बहुत फ़र्क़ था। लेकिन फ़ेवरेटिज़्म कहाँ नहीं होता! जो लोग सीनियर्स के फ़ेवरेट हो जाते थे, उनकी रैगिंग प्यार मोहब्बत से होती थी। हमारे लखनऊ में कहते हैं- “मुस्कुराइये, आप लखनऊ में हैं।” इसी तर्ज़ पर मेरा स्लोगन था- “जुगत लगाइये, आप कम्पटीशन में हैं।”
कॉलेज रैगिंग के इन्ट्रोडक्शन में अपनी दो रुचियाँ भी बतानी होती थी और सख़्त हिदायत थी कि कोई ‘गाना सुनना’ और ‘टीवी देखना’ क़िस्म की घिसी पिटी और बकवास रुचि नहीं बतायेगा। मैंने किताबों के बाहर कभी कोई शौक़ रखे ही नहीं थे और किताबें भी कोर्स वाली। मैं सोचती- ‘ऐसी क्या हॉबी हो सकती है, जो निर्मल आनन्द दे और साथ में सुरक्षित भी हो?’
सोचती हुई अपने स्कूल के दिनों तक जा पहुँची मैं। ज़ीरो पीरीयड में हम लोग ख़ूब मस्ती किया करते थे। मैं गाना गाती, कोई डांस करता, कोई कविता सुनाता, तो कोई जोक सुनाता। एक दिन मेरी दोस्त रश्मि ने कहा- “मैं हाथ देखना सीख रही हूँ। बहुत सारा सीख भी लिया है। अगर किसी को अपने बारे में कुछ जानना हो, तो मेरे पास या सकता है।” किसी को? अरे, सबको! सबको अपने बारे में कुछ-न-कुछ जानना था। देखते-ही-देखते सब उसे घेर कर खड़े हो गये। अपनी बारी आने का इंतज़ार तो था ही, लेकिन दूसरे के बारे में भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे सब। क्या सम्मोहन था! इसके बाद तो यह हर दिन की बात हो गयी थी। मिल गया! मुझे रास्ता मिल गया! मैंने दो शौक बताने शुरु किये ‘गाना’ और ‘पामिस्ट्री’। और जैसा कि मेरा अनुमान था, गाना सुनने से ज़्यादा पामिस्ट्री का शौक़ सीनियर्स को आकृष्ट करता था। कभी-कभी मुझे गाना भी सुनाना पड़ा था, लेकिन ज़्यादातर मेरे हाथों में किसी-ना-किसी का हाथ होता था और मैं उसकी रेखाएँ पढ़ने का ड्रामा करती थी। इतने दिनों में रोज़ इन लोगों को देखकर, पढ़कर उनकी प्रकृति और स्वभाव का कुछ पता तो चल ही गया था।
यह मेरे लिए बचपन का कोई अबोध खेल नहीं था, बल्कि बहुत सोची समझी युक्ति थी। मैं जानती थी कि अब आपसी व्यवहार में सेक्सुअलिटी भी इन्वाल्व होती थी, भले ही अप्रकट ढंग से हो। मैं जब उन सीनियर लड़कों का हाथ पकड़ती थी, तो हथेली के स्पंदन या अकड़ से एहसास हो जाता था कि इस बन्दे का दिल इस समय किस गति से धड़क रहा होगा। वो धीरे से अपनी ही किसी फ़ैंटसी में खो जाते थे। लेकिन यह ज़ाहिर ना होने देने की जद्दोजहद में ऐसे जूझ रहे होते थे कि उनके लिये मेरी कही हर बात पर ‘हम्म’ करने के सिवा कोई चारा न था। मन-ही-मन मुझे ज़बरदस्त ख़ुशी होती कि लड़कों की दुनिया में जीना आ गया मुझे। अब मुझे डर नहीं लगता था लड़कों से और ना ही लड़के एलियन लगते थे। शेर पर सवार होना सीख गयी थी मैं।
लेकिन सीनियर लड़कियाँ? उनके बारे में कुछ कहना वाक़ई मेहनत का काम था। एक तो लड़की और उस पर सीनियर, ज़रा सा चूके और निपटारा हुआ समझो। तो उन्हें कुछ ऐसी बातें बतानी पड़ती थी, जो मेरे सिवा किसी ने कभी न बताई हो और बताने का अन्दाज़ बहुत सॉलिड रखना होता था। ‘मेरे अफ़ेअर का क्या फ़्यूचर है?’ पहली बार जब यह पूछा गया, तो मैंने हथेली घूरते हुए सोचा- ‘जब सब झूठ का ही व्यापार चल रहा है तो बुरा झूठ क्यों बोलो।’
मैं कह देती थी- “मुश्किलें बहुत आयेंगी, लेकिन फिर सब ठीक हो जायेगा।” वो प्यार कितना बोरिंग होगा ना, जिसमें दुनिया की कोई दिलचस्पी ही न हो। अरे! प्यार तो वही, जिसकी पूरी दुनिया दुश्मन बन जाये। प्यार तो वही, जो दुनिया से जूझ जाये। प्यार तो वही, जिसमें आशिक़ जान की बाज़ी लगा दे और प्यार तो वही जिसमें अंततः जीत प्रेमी-प्रेमिका की हो। इस तरह पूछने वाले को मुश्किलों का मज़ा और जीत की उम्मीद दोनों देकर मैं खिसक लेती थी। एक ही सीनियर लड़की थी, जो मेरी इन सब हेराफेरी में फँसती नहीं थी और मुझे उसी एक लड़की से बचकर चलना होता था। बहुत बड़ी समस्या सुलझा ली थी मैंने। जीवन आसान होने लगा था। जो कभी झमेले लगते थे अब उन्हीं क़िस्सों में मज़ा आने लगा था। हॉस्टल के जीवन और अपनी आज़ादी से प्यार होने लगा था। नयी जगह में बिना परिवार की मदद के मैंने अपनी अच्छी इमेज और मजबूत जगह बना ली थी। ‘छा गये’ वाली अनुभूति मन को ख़ुशी और गुरूर से भर देती थी। अपने जैसी कोई दूसरी दिखती ही नहीं थी मुझे। आत्मविश्वास आसमान छूता था। सब कुछ सँभाल सकती हूँ मैं। सब कुछ।
May 21, 2022 @ 6:35 am
रोचक अंश है। पुस्तक को पढ़ने की इच्छा जागृत हुई। मैंने हेमा जी का दूसरा उपन्यास संभल ए दिल तो पढ़ा था लेकिन इसे नहीं पढ़ा था। अब पढ़ने की इच्छा जागृत हो गई है।