बुढ़ापे में चलने की ताकत भी कहाँ बची थी। पर नफीसा आज रुक भी तो नहीं सकती थी। आखिर उसने बड़ी मुश्किल और जद्दोजहद के बाद यह ठाना था। हाँफते लड़खड़ाते उसके कदम बस मंजिल तक पहुँचकर ही दम लेना चाहते थे। मंजिल….इसे लेकर भी तो नफीसा निश्चिंत नहीं थी। सोच रही थी….पता नहीं वहाँ पहुँचने पर क्या होगा ? देवर-देवरानी और उनके बच्चे उसे घर में घुसने भी देंगे या नहीं ? सोचते सोचते उसकी चाल कुछ धीमी हो जाती पर अगले ही पल यह सोचकर दूनी तेजी से चलने लगती कि माफी माँग लेगी तो उन्हें दया तो आ ही जायेगी। सालों के रिश्ते नातों की दुहाई देगी तो जरूर पिघल जायेंगे। ‘आखिर मेरी न सही अपने मरहूम भाई के रिश्ते की लाज तो रखेंगे ही। और न भी रखें तो पचास पचपन साल तक जहाँ की मिट्टी से लिपटकर रही, जहाँ के लोगों के सुख-दुख और खुशी- […]
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चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सभी प्राणी शांत, आंखें बंद किए हुए प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना मौन रूप में हो रही थी। शब्द भटकाने का काम करते हैं जबकि मौन आत्मा के अधिक निकट रहता है। प्रार्थना समाप्त होते ही महासंसद की कार्यवाही प्रारंभ हुई। ‘‘सदियों से तुम मनुष्यों ने तपती दुपहरी में हमें खेतों में जोता। हमारे गोबर तक को नहीं छोड़ा। बदले में हमें क्या दिया? सूखी घास व खाखला!’’ बैल सामाज के प्रतिनिधि ने महासंसद में खड़े होकर कहना जारी रखा, ‘‘तुम लोगों ने काजू कतली खाई और हमें दिया तो केवल गुलामी का जीवन और सूखा खाखला। अब हमें जानवाराधिकारों के अलावा कोई शर्त मंजूर नहीं होगी।’’ प्रतिनिधि बैल कहते हुए अपने स्थान पर बैठ गया। सभी जानवर प्रतिनिधियों ने तीन बार मेज थपथाई। इसके बाद गर्दभ का नाम आया। प्रतिनिधि गर्दभ ने खड़े होकर माईक के पास मुँह ले जाकर कहना प्रारंभ किया, ‘‘हमने तुम्हारे लिए क्या […]
मैं पीजी में मौजूद अपने कमरे में दाखिल हुआ और दरवाजा बंद करके उसकी चटखनी लगाकर अपनी धौकनी सी चलती साँसों को काबू में लाने की कोशिश करने लगा। “क्या हुआ”,शेखर ने अपने फोन से नजरें उठाकर मेरी तरफ देखा। शेखर मेरा रूम मेट था। हम कॉलेज के वक्त से ही दोस्त थे और अब पीजी में रूम मेट थे। इसके अलावा आजकल शेखर को पबजी का शौक चढ़ा हुआ था। वह या तो फोन पर पबजी खेल रहा होता या कंप्यूटर पर कोडिंग कर रहा होता। इससे इतर उसकी ज़िन्दगी में फिलहाल कुछ जरूरी नहीं था । मैंने पाँच मिनट तक लम्बी लम्बी साँसे ली। जब स्कूल में थे तो दौड़ने के पश्चात अपनी साँसों को नियंत्रित करने का तरीका बताया गया था। अपने मुँह को बंद रखकर नाक से ही लम्बी लम्बी साँसे लेते और छोड़ते जाओ। थोड़े देर में ही साँसे नियंत्रित हो जाती थी। शेखर ने […]
यश खांडेकर ने महलनुमा इमारत को ध्यान से देखा। शाम के वक्त हल्की बारिश में पुराने जमाने की वह इमारत भूतिया प्रतीत हो रही थी। इमारत की सभी खिड़कियाँ बंद थी। बाहर से यह कहना असंभव था कि वह किसी पार्टी का आयोजन स्थल है। वह वहाँ किशोरचंद राजपूत के निमंत्रण पर पहुँचा था। अपने 70वें जन्मदिन के मौके पर किशोरचंद ने कुछ बेहद खास मेहमानों को वहाँ आमंत्रित किया था। शहर के कोने और उजाड़ इलाके में बसी उस इमारत में खुद पहुंचना एक मुश्किल भरा काम था। यश के खुद वहाँ अपनी गाड़ी पर पहुंचने के आश्वासन को नकारते हुए किशोरचंद ने उसे अपनी शोफरचालित गाड़ी के जरिए बुलाया था। अचानक बारिश तेज हो गयी। यश लगभग दौड़ते हुए इमारत के दरवाजे पर पहुँचा जो बंद था। करीब उसे एक रस्सी नजर आई। जिसे खींचने पर अंदर घंटी बजने की आवाज आई। ऐसा लगा मानों मंदिर में कोई […]
“प्रभु आये हैं द्वार पर साम्राज्ञी और प्रथम भिक्षा वे आप से ही चाहते हैं आज!” दासी की आवाज़ भर्राई हुयी थी और आँखों से आंसू टप टप टपक रहे थे मगर वो ये देख कर मन ही मन आश्चर्यचकित भी थी कि रानी यशोधरा की आँख में एक भी आंसू न था. हाँ कहीं कहीं एक अग्निशिखा सी चमक जाती क्षण भर को. मुख भी एकदम तमतमाया सा! पास ही एक कोने में आठ वर्षीय राजकुमार राहुल भी सहमे से खड़े थे. इस एक क्षण में ही मन में दबी कितनी ही स्मृतियाँ फिर से जीवंत हो उठीं. शाक्य वंश के सम्राट सुशोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ से विवाह से लेकर बोधित्सव के आज कपिलवस्तु में आने तक की प्रत्येक स्मृति मानो फिर से जीवन पा गई. स्वयंवर से लेकर गठबंधन तक….प्रथम मिलन से लेकर प्रणय बंधन तक….पुत्र जन्म से लेकर दारुण विछोह तक! एक भी स्मृति तो ऐसी […]
प्रोफेसर को वो साढ़े तीन शब्द अपने कानों में मिश्री की तरह घुलते महसूस हुए। उसने नाक पर थोड़ा नीचे ढुलक आए चश्में को ठीक किया और गर्दन उठाकर सामने देखा। एक अल्हड़ युवती, शालीनता की प्रतिमूर्ति बनी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी थी।
“अरे उठो! नशे में हो क्या?” मैं झटके से उठा “हरिद्वार आ गया क्या?” “अरे हाँ, तभी तो उठा रहा हूँ, पर तू उठने को तैयार ही नहीं, कुंभकरण के वंशज”, बस कंडक्टर थोडा गुस्से में था. शायद मुझे थोडा ज्यादा समय ऐसे ही सोते हुए हो गया था. बस पूरी ख़ाली हो चुकी थी. बस से मैं चुपचाप उतर गया. अब इस बेचारे कंडक्टर से क्या बहस करता, उसे क्या पता कि मेरी मंजिल क्या है, हरिद्वार या हरी के द्वार! कल तक सब कुछ था मेरे पास; अच्छे स्कूल में पढाई, मैं पढाई में अव्वल, एक गर्लफ्रैंड, प्यार करने वाला परिवार वगैरह बगैरह. पर अब जैसे लगता है कुछ नहीं बचा. सब कुछ ख़त्म!
हमको बचपन से ही सिखाया जाता है कि कभी किसी के साथ बुरा मत करो क्योंकि ईश्वर सब देख रहा होता है और इसके अलावा हमको बचपन से ये भी सिखाया जाता है कि बुरे कर्मों के फल हमको इसी जन्म में मिलते हैं लेकिन अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मैं ये कह सकता हूँ कि कुछ काम ऐसे भी होते हैं जहाँ किसी के भले के लिए किसी का बुरा करना भी जरूरी होता है पर मन में एक अजीब सी दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि करूँ या न करूँ? अगर आप नासमझ हो तो इस दुविधा से पार पाना बेहद कठिन नजर आता है लेकिन यदि आपके पास थोड़ी सी भी दुनियादारी की समझ है तो ये दुविधाएँ आपके समक्ष बस एक अनुभव बनकर रह जाती हैं जिनको आप खुद तक सीमित रख सकते हो या लिखकर सारी दुनिया के सामने पेश कर सकते हो। ऐसी […]
अच्छे मियाँ ने जब पाँच साल की उम्र से ही अच्छे-अच्छे लक्षण दिखाने शुरू कर दिये, तो उनके बाप परेशान हो गये। माँ-बहन की अच्छी-अच्छी गालियाँ न सिर्फ़ याद थीं बल्कि गाँव के हाफ़ी जी जिस तरह से क़ुरान की तिलावत करते थे, उसी अंदाज़ में अच्छे मियाँ इन गालियों की तिलावत करने लगे थे। पहला कलमा याद करके नहीं दिया लेकिन “चोली के पीछे…” इतने लय-सुर में गाते थे कि बस सुबहान अल्लाह! एक दिन तो अपनी माँ रज़िया बी से ही ठुमक-ठुमक कर यही सवाल पूछने लगे और रज़िया बी ने शरमा कर अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया और शाम को अच्छे मियाँ के बाप जब घर आये तो शिकायत कर बैठीं- “आप को तो कुछ दिखाई देता नहीं। लड़का हाथ से निकला जा रहा है। पढ़ाई-लिखाई के नाम पर कोरा लेकिन दिन भर सिनेमा के गाने…।” […]
चुभती हुई गरमियों के दिन ..। नयन के माथे का घूँघट…उसके ललाट पर विषधर के फन सरीखा फैला हुआ था। पसीने से नहायी… हाथ का पंखा झलती ,वह घूँघट की ओट से आंगन की झकमक करती भीड़ को ताक रही थी। वहां शोरगुल के घने बादलों के बीच….रंगीन साड़ियों और दमकते गहनों से सजी गुजी औरतें, हलवाईयों की निगरानी करने में उलझे पुरुष,बिन माँगे सलाहों की पुष्पवृष्टि करतीं गांव घर की बुजुर्ग सुलझी हुई महिलाएं,शरारतों में रमी बालकों की टोली, टटके कस्बाई फैशन को कृतार्थ करती नवयुवतियाँ ….मानों एक इंद्रधनुष सा फैला था। मगर नयन को प्रतीत हो रहा था कि इस इंद्रधनुष से आग की लपटें निकल रही हैं और वह फुंकी जा रही है…इन लपटों में। उसका सारा शरीर तप रहा है। अचानक उसे लगने लगा कि उसके इर्द गिर्द… एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। उसे बहुत शिद्दत से एकांत की आवश्यकता महसूस होने लगी..चिर-काम्य,शीतल […]
(उनको समर्पित जिनके लिए वतन…. धर्म और मज़हब से बढ़ कर था। उनको सुनाने के लिए जिनके लिए कौम और धर्म उनके मुल्क से बढ़ कर हैं. ) 18 मार्च 1858 (झांसी के किले में कहीं किसी जगह) “कितने हैं?” “दस हजार से कम न होंगे हुज़ूर साहिबा! पंद्रह भी हों तो बड़ी बात नहीं मगर इतना दिख रहा है कि गोरों की फ़ौज तीन दिसा (दिशा) से अपनी ओर ही बढ़ रही है.” “और तोपें? कितनी तोपें ला रहे हैं फिरंगी?” “सौ के करीब तो होंगी ही.” रणचंडी के होठों पर मुस्कान खेल गयी. हैरत की बात कोई थी भी नहीं। लखनऊ और सागर के बाद अब बुंदेलखंड की ही बारी आनी थी. ईस्ट इंडिया कम्प्नी का कमांडर इन चीफ कैम्पबेल जानता था कि झाँसी को विजित किये बिना उत्तराखंड को संभाल पाना मुश्किल होगा. इसी लिए उसने झाँसी के लिए अपने सबसे ख़ास सिपहसालार जनरल ह्यु रोज़ को […]
कोडवर्ड की शिकार कोख रोहित मीणा नालायक अमित कुलश्रेष्ठ मौत की चिट्ठी आनंद सिंह इश्क दी जात आलोक बंसल एक कहानी भूली सी ठाकुर महेश सिंह जिन्नात सईद अयूब गुलनार डॉली परिहार घनगरज मनु दुग्गल जानवराधिकार प्रेम एस गुर्जर ब्याहता सुनीता सिंह दलित समर्थन, कानूनी घमर्थन शिवेश आनंद धरोहर मीनाक्षी चौधरी फटीचर परमाणु सिंह जिगर -जमीन का दुकड़ा संगम डूबे अन्तराल संतोष कुमार सयाली विकास नैनवाल खुदखुशी शोभित गुप्ता जाली नोट. सुनीत शर्मा
एक सुंदर युवती, प्रात:काल, गाँधी-पार्क में बिल्लौर के बेंच पर गहरी नींद में सोयी पायी जाय, यह चौंका देने वाली बात है। सुंदरियाँ पार्कों में हवा खाने आती हैं, हँसती हैं, दौड़ती हैं, फूल-पौधों से खेलती हैं, किसी का इधर ध्यान नहीं जाता; लेकिन कोई युवती रविश के किनारे वाले बेंच पर बेखबर सोये, यह बिलकुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर बल-पूर्वक आकर्षित करने वाली। रविश पर कितने आदमी चहलकदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के लिए वहाँ ठिठक जाते हैं, एक नजर वह दृश्य देखते हैं और तब चले जाते हैं। युवकवृंद रहस्य भाव से मुसकिराते हुए, वृद्धजन चिंता-भाव से सिर हिलाते हुए और युवतियाँ लज्जा से आँखें नीचे किये हुए।
घंटी की आवाज सुनते ही खेल के मैदान में भगदड़ मच गई. लड़के खेल छोड़कर अपने कमरों की और भागे. अशोक तो ‘कबड्डी-कबड्डी’ करता हुआ ही अपने कमरे में पहुँच गया. डेस्क के नीचे पड़े हुए जूते पहनने के लिए वह जैसे ही झुका, उसकी नजर अपनी पुस्तक पर पड़ी. पुस्तक औंधे मुँह पड़ी थी. उसका आधा भाग बीच से फटा हुआ था. ठीक वैसे ही जैसे हरीश, विनोद, आलोक और अतुल की पुस्तकें फटी हुई पाई गई थीं. वह चिल्ला उठा: “भूत मेरी पुस्तक फाड़ गया.” लड़कों के तमतमाए हुए चेहरे भय के कारण एकाएक फक पड़ गए. हरीश ने अशोक के हाथ से पुस्तक ली और सुरेश के आगे करते हुए बोला: “सुरेश, क्या तुम अब भी नहीं मानते कि यह किसी भूत का काम है?” सुरेश कुछ उत्तर नहीं दे सका. लेकिन दिल से वह अब भी यह मानने को तैयार नहीं था कि आधी […]
कई दिन से दोनों पक्ष अपने-अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिन की आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद ही उगे फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाड़ियों की ऊंचाइयों और ढलवानों पर जंग से बे-ख़बर क़ुदरत अपने रोज के काम में मसरूफ़ थी। परिंदे उसी तरह चहचहाते थे। फूल उसी तरह खिल रहे थे और शहद की सुस्त मक्खियां उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ ऊँघ कर रस चूसती थीं। जब पहाड़ियों में किसी फ़ायर की आवाज़ गूंजती तो चहचहाते हुए परिंदे चौंक कर उड़ने लगते, जैसे किसी का हाथ साज़ के ग़लत तार से जा टकराया है और उन की सुनने की शक्ति को सदमा पहुंचा हो। सितंबर का अंजाम (अंत) अक्तूबर के आग़ाज़ (आरंभ) से बड़े गुलाबी अंदाज़ में बग़लगीर हो रहा था। […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…