मैं जब भी व्यक्त हुआ आधा ही हुआ उसमें भी अधूरा ही समझा गया उस अधूरे में भी कुछ ऐसा होता रहा शामिल जिसमें मैं नहीं दूसरे थे जब उतरा समझ में तो वह बिल्कुल वह नहीं था जो मैंने किया था व्यक्त इस तरह मैं अब तक रहा हूँ अव्यक्त।
सभ्यता के दूसरे छोर पर अपने पैरों से एक गोरा दबाए बैठा है एक काले की गर्दन और काला चिल्ला रहा है- ‘आई कांट ब्रीद-आई कांट ब्रीद’ सभ्यता के इस छोर पर जन्मना स्वघोषित श्रेष्ठ कुछ इस तरह से बुने बैठे हैं मायाजाल जिसमें फंसा है अधिकतर का गला बोला भी नहीं जाता उनसे बोलें […]
मैं एक पेड़ होना चाहता हूँ जिसके नीचे मेरी बेटियाँ खेलें घर-घर जिसकी डाल पर वे और सावन दोनों झूलें झूम झूमकर मैं चिड़िया होना चाहता हूँ कि ला सकूँ दूर देश से दाने और डाल सकूँ उनके मुँह में बड़े प्रेम से बड़े जतन से मैं अपनी बेटियों के लिये बनना चाहता हूँ जादूगर […]
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ इसका सबूत इससे बढ़कर क्या होगा कि अब फूलों को बस निहारता हूँ तोड़ता नहीं मुझे बगिया अब तुम्हारे ही बालों का जूड़ा लगती है मैं प्राची में उगते सूर्य को देख भर जाता हूँ असीम ऊर्जा से और पश्चिम में तुम्हारे घर की ओर अस्त होने की कामना से […]
बुढ़ापे में चलने की ताकत भी कहाँ बची थी। पर नफीसा आज रुक भी तो नहीं सकती थी। आखिर उसने बड़ी मुश्किल और जद्दोजहद के बाद यह ठाना था। हाँफते लड़खड़ाते उसके कदम बस मंजिल तक पहुँचकर ही दम लेना चाहते थे। मंजिल….इसे लेकर भी तो नफीसा निश्चिंत नहीं थी। सोच रही थी….पता नहीं वहाँ […]