आपने सुना होगा कि कुछ लोग भाड़ झोंकने दिल्ली जाते हैं, कोयला ढोने कलकत्ता जाते हैं और बीड़ी बेचने बम्बई जाते हैं. मैं अपनी हजामत बनवाने लखनऊ गया था. लखनऊ पहले सिर्फ अवध की राजधानी थी, अब महात्मा बटलर की कृपा से सारे संयुक्त प्रान्त की राजधानी है. कई सुविधाओं का खयाल करते हुए यह मानना पड़ता है कि राजधानी होने के योग्य यह है भी. पहले तो रेवड़ियां अच्छी मिलती हैं, जो आसानी से जेब में भरकर कौंसिल चेम्बर में खायी जा सकती हैं; दूसरे नवाबजादियों का भाव सस्ता है जो बाहर से आये हुए कौंसिल के मेम्बरों का गृहस्थाश्रम बनाये रखने में मदद पहुंचाती हैं; तीसरे पार्कों की बहुतायत है जिनमें कौंसिल की ताती-ताती स्पीचों के बाद माथा ठंडा करने की जगह मिल जाती है. तब भला बताइये कि इन सुभीतों के आगे इलाहाबाद को कौन पूछेगा? वहां सिवाय अक्षयवट के धरा ही क्या है? गवर्नमेंट की यह […]
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काट (दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) ‘पी सिकंदर’ के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, ‘रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है?)?’ – और उस की छह फुट लंबी सुगठित देह, जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी, तन गई और बटन टूटे होने के कारण, मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल वक्षस्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएँ दृष्टिगोचर हो उठीं। बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई मूँछों के ऊपर गढ़ों में धँसी हुई दो आँखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई और जरा मुस्करा कर उसने कहा, ‘डाची (साँड़नी) देख रहा था चौधरी, कैसी खूबसूरत और जवान है, देख कर आँखों की भूख मिटती है।’ अपने माल की […]
रामदयाल पूरा बहुरूपिया था। भेस और आवाज बदलने में उसे कमाल हासिल था। कॉलेज मे पढ़ता था तो वहाँ उसके अभिनय की धूम मची रहती थी; अब सिनेमा की दुनिया में आ गया था तो यहाँ उसकी चर्चा थी। कॉलेज से डिग्री लेते ही उसे बम्बई की एक फ़िल्म-कम्पनी में अच्छी जगह मिल गयी थी और अल्प-काल ही में उसकी गणना भारत के श्रेष्ठ अभिनेताओं में होने लगी थी। लोग उसके अभिनय को देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे। उसके पास प्रतिभा थी, कला थी और ख्याति के उच्च शिखर पर पहुँचने की महत्त्वाकांक्षा! इसीलिए जिस पात्र की भूमिका में काम करता बहुरूप और अभिनय मे वह बात पैदा कर देता था कि दर्शक अनायास ही ‘वाह-वाह’ कर उठते और फिर हफ्तों उसकी कला की चर्चा लोगों में चला करती। दो महीने हुए, उस की शादी हुई थी। बम्बई की एक निकटवर्ती बस्ती में छोटी-सी एक कोठी किराये पर ले […]
मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती है परन्तु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्-धक करती हुई जला करे। तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे, उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ, व्यंग स्वर में कहा-‘‘अरे मैया रे, किसका पाप किसे खा गया रे!’’- तभी आसन्न वैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग रोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था। तारा सम्पन्न थी, इसलिए वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चला जाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ, ननद रामा अपनी दरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी। दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिए प्रस्तुत न होता। श्यामा चौदह बरस की हो चली। बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याह न कर […]
…न …करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने ‘इस्टिसन’ सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।…ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी…! करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी। ‘करमा, नींद नहीं आती?’ ‘बाबू’ ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा। गमछे से नथुने को साफ करते हुए करमा ने कहा – ‘यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!’ ‘मुझे भी नींद नहीं आएगी,’ बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा – ‘नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।’ करमा पूछना चाहता था कि नए ‘पोख्ता’ मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?…बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता […]
हरगोबिन को अचरज हुआ – तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहां का कुशल संवाद मंगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है? हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भांति उसने वातावरण को सूंघकर संवाद का अंदाज लगया। …निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चांद-सूरज को भी नहीं मालूम हो! परेवा-पंछी तक न जाने! ‘‘पांवलागी बड़ी बहुरिया!’’ बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आंख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा… बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है! जहां दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहां आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ […]
मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखो में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा – क्या है मुलिया, आज कैसा जी है? मुलिया ने कुछ जवाब न दिया उसकी आँखें डबडबा गयीं! महावीर ने समीप आकर पूछा – क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं ? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है ? मुलिया ने सिसककर कहा – क़ुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ? महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा – चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं ? मुलिया ने बात टालकर कहा – कोई बात भी हो, क्या बताऊँ? मुलिया इस ऊसर में गुलाब का फूल थी। गेहुआँ रंग था, हिरन की-सी आँखें, नीचे खिंचा हुआ चिबुक, कपोलों पर हलकी लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखो में एक विचित्र आर्द्रता, जिसमें एक […]
उद्यान की शैल-माला के नीचे एक हरा-भरा छोटा-सा गाँव है। वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उसके झोपड़ों को भर देता है। तलहटी के हिम-शीतल झरने उसको अपने बाहुपाश में जकड़े हुए हैं। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्ध-संगीत निरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प और लहर उत्पन्न करता है। दाड़िम के लाल फूलों की रँगीली छाया सन्ध्या की अरुण किरणों से चमकीली हो रही थी। शीरीं उसी के नीचे शिलाखण्ड पर बैठी हुई सामने गुलाबों की झुरमुट देख रही थी, जिसमें बहुत से बुलबुल चहचहा रहे थे, वे समीरण के साथ छूल-छुलैया खेलते हुए आकाश को अपने कलरव से गुञ्जित कर रहे थे। शीरीं ने सहसा अवगुण्ठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँस पड़ी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था। मकरन्द मुँह में भरे दो नील-भ्रमर उस गुलाब से उड़ने में असमर्थ थे, भौंरों […]
अभी-अभी बस पानी थमा ही है और अभी-अभी कानन उसके होटल के कमरे से अस्वीकृता लौटी है. कानन ने इसे तिरस्कार समझा, लेकिन स्वयं उसने क्या समझा, यह वह भी नहीं जानता. अभी तो कुर्सी की गीली गद्दी की सलवटें तक यथावत हैं. साँझ बहुत पूर्व ही हो चुकी थी, बल्कि कहना चाहिए कि कानन आई ही थी मुँहधेरे में. उस समय वह बुखार में तपता चुपचाप लेटा हुआ था. नौकर बहुत पहले दूध रख गया था और तब से वह उदास नीली छत ताकता सोचता रहा था. सभी तरह की बातें थीं. घर से सैकड़ों मील दूर तबादले पर फेंक दिया गया था. प्रायः शाम को होटल की छत पर खड़े होकर सामने की टेकरी, किला, मैदान, मैदान में खेलते बच्चे, पड़ोस के मराठी वकील की लड़की….और, और भी बहुत कुछ देखता रहता था. आज भी बुखार में वह लखनऊ-प्रयाग के बारे में सोचता रहा. कल्याणी घिरती […]
दिल्ली में एक सुल्तान थे सिकंदर लोदी। उनके एक छोटे भाई थे आलम खाँ। उनकी एक बेटी थी, जिसका नाम था गुलनार। गुलनार बेहद खूबसूरत थी। इतनी…जितना – ‘त्योहारों में घर चाहे जितना सजा लो, एक लड़की बिना हमेशा सजावट अधूरी। लड़की से ही घर की सबसे बड़ी सुंदरता है। चाहे झोपड़ी ही क्यों न हो। और महल कांतिहीन’ की कवियित्री लिख सकती है। इतनी… जितना, आपका दिमाग़ सोच सकता है। इतनी… जितना, उसे इस धरती पर सबसे खूबसूरत नारी होने का खिताब दिया जा सकता है। इतनी… जितनी कि, मैं कोई उपमा नहीं दे सकती। गुलनार जब छोटी थी। तब सिकंदर ने अपने भाई (गुलनार के अब्बू) से ये वादा किया था कि वो गुलनार का निक़ाह अपने बेटे इब्राहिम लोदी के साथ करेंगे। वक़्त गुजरता गया। गुलनार बड़ी हो चुकी थी। फिर एक दिन गुलनार के अब्बू ने; अपने भाई सिकंदर को, वो वादा याद दिलाया। सिकंदर इस बात के लिए तैयार हो गये और ये ख़बर अपने बेटे […]
बुढ़ापे में चलने की ताकत भी कहाँ बची थी। पर नफीसा आज रुक भी तो नहीं सकती थी। आखिर उसने बड़ी मुश्किल और जद्दोजहद के बाद यह ठाना था। हाँफते लड़खड़ाते उसके कदम बस मंजिल तक पहुँचकर ही दम लेना चाहते थे। मंजिल….इसे लेकर भी तो नफीसा निश्चिंत नहीं थी। सोच रही थी….पता नहीं वहाँ पहुँचने पर क्या होगा ? देवर-देवरानी और उनके बच्चे उसे घर में घुसने भी देंगे या नहीं ? सोचते सोचते उसकी चाल कुछ धीमी हो जाती पर अगले ही पल यह सोचकर दूनी तेजी से चलने लगती कि माफी माँग लेगी तो उन्हें दया तो आ ही जायेगी। सालों के रिश्ते नातों की दुहाई देगी तो जरूर पिघल जायेंगे। ‘आखिर मेरी न सही अपने मरहूम भाई के रिश्ते की लाज तो रखेंगे ही। और न भी रखें तो पचास पचपन साल तक जहाँ की मिट्टी से लिपटकर रही, जहाँ के लोगों के सुख-दुख और खुशी- […]
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सभी प्राणी शांत, आंखें बंद किए हुए प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना मौन रूप में हो रही थी। शब्द भटकाने का काम करते हैं जबकि मौन आत्मा के अधिक निकट रहता है। प्रार्थना समाप्त होते ही महासंसद की कार्यवाही प्रारंभ हुई। ‘‘सदियों से तुम मनुष्यों ने तपती दुपहरी में हमें खेतों में जोता। हमारे गोबर तक को नहीं छोड़ा। बदले में हमें क्या दिया? सूखी घास व खाखला!’’ बैल सामाज के प्रतिनिधि ने महासंसद में खड़े होकर कहना जारी रखा, ‘‘तुम लोगों ने काजू कतली खाई और हमें दिया तो केवल गुलामी का जीवन और सूखा खाखला। अब हमें जानवाराधिकारों के अलावा कोई शर्त मंजूर नहीं होगी।’’ प्रतिनिधि बैल कहते हुए अपने स्थान पर बैठ गया। सभी जानवर प्रतिनिधियों ने तीन बार मेज थपथाई। इसके बाद गर्दभ का नाम आया। प्रतिनिधि गर्दभ ने खड़े होकर माईक के पास मुँह ले जाकर कहना प्रारंभ किया, ‘‘हमने तुम्हारे लिए क्या […]
मैं पीजी में मौजूद अपने कमरे में दाखिल हुआ और दरवाजा बंद करके उसकी चटखनी लगाकर अपनी धौकनी सी चलती साँसों को काबू में लाने की कोशिश करने लगा। “क्या हुआ”,शेखर ने अपने फोन से नजरें उठाकर मेरी तरफ देखा। शेखर मेरा रूम मेट था। हम कॉलेज के वक्त से ही दोस्त थे और अब पीजी में रूम मेट थे। इसके अलावा आजकल शेखर को पबजी का शौक चढ़ा हुआ था। वह या तो फोन पर पबजी खेल रहा होता या कंप्यूटर पर कोडिंग कर रहा होता। इससे इतर उसकी ज़िन्दगी में फिलहाल कुछ जरूरी नहीं था । मैंने पाँच मिनट तक लम्बी लम्बी साँसे ली। जब स्कूल में थे तो दौड़ने के पश्चात अपनी साँसों को नियंत्रित करने का तरीका बताया गया था। अपने मुँह को बंद रखकर नाक से ही लम्बी लम्बी साँसे लेते और छोड़ते जाओ। थोड़े देर में ही साँसे नियंत्रित हो जाती थी। शेखर ने […]
यश खांडेकर ने महलनुमा इमारत को ध्यान से देखा। शाम के वक्त हल्की बारिश में पुराने जमाने की वह इमारत भूतिया प्रतीत हो रही थी। इमारत की सभी खिड़कियाँ बंद थी। बाहर से यह कहना असंभव था कि वह किसी पार्टी का आयोजन स्थल है। वह वहाँ किशोरचंद राजपूत के निमंत्रण पर पहुँचा था। अपने 70वें जन्मदिन के मौके पर किशोरचंद ने कुछ बेहद खास मेहमानों को वहाँ आमंत्रित किया था। शहर के कोने और उजाड़ इलाके में बसी उस इमारत में खुद पहुंचना एक मुश्किल भरा काम था। यश के खुद वहाँ अपनी गाड़ी पर पहुंचने के आश्वासन को नकारते हुए किशोरचंद ने उसे अपनी शोफरचालित गाड़ी के जरिए बुलाया था। अचानक बारिश तेज हो गयी। यश लगभग दौड़ते हुए इमारत के दरवाजे पर पहुँचा जो बंद था। करीब उसे एक रस्सी नजर आई। जिसे खींचने पर अंदर घंटी बजने की आवाज आई। ऐसा लगा मानों मंदिर में कोई […]
“प्रभु आये हैं द्वार पर साम्राज्ञी और प्रथम भिक्षा वे आप से ही चाहते हैं आज!” दासी की आवाज़ भर्राई हुयी थी और आँखों से आंसू टप टप टपक रहे थे मगर वो ये देख कर मन ही मन आश्चर्यचकित भी थी कि रानी यशोधरा की आँख में एक भी आंसू न था. हाँ कहीं कहीं एक अग्निशिखा सी चमक जाती क्षण भर को. मुख भी एकदम तमतमाया सा! पास ही एक कोने में आठ वर्षीय राजकुमार राहुल भी सहमे से खड़े थे. इस एक क्षण में ही मन में दबी कितनी ही स्मृतियाँ फिर से जीवंत हो उठीं. शाक्य वंश के सम्राट सुशोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ से विवाह से लेकर बोधित्सव के आज कपिलवस्तु में आने तक की प्रत्येक स्मृति मानो फिर से जीवन पा गई. स्वयंवर से लेकर गठबंधन तक….प्रथम मिलन से लेकर प्रणय बंधन तक….पुत्र जन्म से लेकर दारुण विछोह तक! एक भी स्मृति तो ऐसी […]
Good