यों तो जिस जेल की यह बात है उसका नाम मैं बता देता, पर मुश्किल यह है कि उसके साथ फिर दारोगा का नाम भी बताना पड़ेगा या आप खुद पता लगा लेंगे, और एक कहानी के नाम पर किसी को दुख देना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता, फिर चाहे कहानी सच्ची ही क्यों न हो। इतना बता सकता हूँ कि बात सन चौंतीस की है, जब देश-भर की जेलें दूसरी बार खचाखचा भर रही थीं, और ए, बी,सी क्लासों में बँटकर, अलग-अलग दलों के बिल्ले लगाकर भी बहुत-से असन्तुष्ट आन्दोलक ‘सियासी’ के नाम से एक बिरादरी में शामिल होकर अपने दिन बिता रहे थे। कहने को कह लीजिए कि वह हज़ारा की जेल थी, क्योंकि हज़ारा जेल पंजाब की शायद सबसे बड़ी जेल थी और सच को छिपाना ही तो उसे झूठ में नहीं, बड़प्पन में छिपाना ज़रा भला मालूम होता है। मैं हज़ारा जेल में नया-नया आया था। […]
No Posts Found
सबसे पहले भाषा शैली पर,जिसे लेकर काफी हल्ला भी हो रहा है इस पर यह बात लेखक को पनाह देती है कि ‘लेखक अपने आपको शहर कहता है, और शहर उसी जबान में किस्सा सुनाता है, जो उसके लोगों ने उसे सिखायी है.’ पाठक इस कथा के द्वारा बोकारो शहर से भी परिचित हो सकते हैं जो कि ‘आदिवासियों को विस्थापित करके बना था ,इसलिए उनकी आह लिए बसा था और शहर के बनने से, किसान प्रधान देश के किसान भी लोहा उगाना सीख गए थे.’ लेखक की तारीफ तो केवल इसलिए भी बनती है कि काफी सरल कहानी होने के बावजूद पाठक प्रेम कहानी में,खासकर नायिका मनु के पात्र में,थोड़े या ज्यादा ही सही, डूबने तो लग ही जाते हैं. आप मनुवाद के प्रबल विरोधी हो, फिर भी मनु को याद रखेंगे. कथा के प्रवाह के दौरान अध्यायों को दार्शनिकता के छौंक के साथ समाप्त किया गया है. बहुत […]
संत रविदास की जन्मस्थली सीर गोवर्धन से दक्षिण की तरफ रमना और बनपुरवा जाने वाली कच्ची सड़क के रास्ते में मदरवाँ गाँव था. बनारस शहर और गाँव का संधि स्थल. गजाधर तिवारी उर्फ़ गँड़ासा गुरु इस गाँव के अनमोल रतन थे. गँड़ासा गुरु जैसा नामकरण उन्हें गाँव में ही मिला था. एक बार गाय के लिए गँड़ासे से चारा काटते हुए चारे के पौधे में छुपे साँप नें इनकी कानी उंगली पर काट लिया. गजाधर तिवारी ने पहले तो उस साँप को सजा देते हुए एक झटके में गँड़ासे से उसकी गरदन उड़ा दी और इसके साथ ही विष को शरीर में जाने से रोकने के लिए बिना देर किए जय बजरंग बली का उद्घोष करते हुए अपनी कानी उंगली को भी एक झटके में उड़ा दिया. ढेर सारा खून बह जाने से गजाधर बेहोश होने लगे. गाँव वाले आनन फानन में उनको मृत समझ कर उन्हें तथा साँप, दोनों […]
श्रीयुत गोलमिर्चफोरनदास भट्टाचार्य आजकल बड़े आदमी गिने जाते हैं. पहले कॉलेज में हमलोग नित्य इनका नवीन नामकरण संस्कार करते थे; लेकिन अब उन्होंने खुद अपना एक विकटाकार नाम रख लिया है. तब से हम लोग भी अपने-अपने काम-धंधों में लग गए और उनका नामकरण बंद हो गया. अब वे भीमभंटा सिंह राव कुलकर्णी के नाम से अपना परिचय देते हैं, और हम लोग भी उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं. बाकी नामों को दिमाग के किसी अंडमान टापू में भेज दिया गया या बंगाल की खाड़ी में डुबा डाला गया. इससे यह न समझा जाय कि इनके माता-पिता इनको जन्म देने के बाद इनका नाम रखना ही भूल गए. उन्होंने बहुत सोच-विचार और तर्क-वितर्क करके इनका नाम रखा था- भामिनी-भूषण भट्टाचार्य. मेरे ही मुहल्ले में रहते थे और मेरे सहपाठी थे. पढ़ने-लिखने और तिलंगी उड़ाने में उन्हें कमाल हासिल था; लेकिन एक बात ज़रूर थी, पढ़ने की और ज्यादा […]
उन्होंने वह पत्रिका बंद कर मेज पर रख दी। वे जानते हैं, एक क्षण में चपरासी को अंदर बुला कर पानी या कुछ और माँगना चाहिए। इस पत्रिका में जो कुछ देखा है, उनके मन में जो कुछ प्रवेश पा रहा है, यह सब कुछ ठीक नहीं हो रहा। पर वह क्षण इतने समय में ही हाथ से निकल गया, वे इस स्थिति के मोह को भंग न कर सके। विदेश से आनेवाली चित्र-प्रधान पत्रिका है। इस बार भारत के वन्य पशुओं पर विशेषांक निकाला है। बिलकुल बीच का पृष्ठ खोल कर देखा था तो हाथ, आँखें, शरीर की सारी इंद्रियाँ और आत्मा सब जैसे थम कर वहीं पर केंद्रित हो गई थीं। नीचे पढ़ा – चीता। चित्र में बैठे हुए उस चीते ने इनकी ओर देखा, इनकी आँखों में उसने आँखें डाल दीं। और तब ही उनके मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि हाँ, मुझे इसको मारना […]
क्राइम फिक्शन, विश्व भर में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली विधा है। हर वर्ग का पाठक इस विधा को कभी न कभी पढ़ता ही है। आप और हम देखते हैं कि अनेकानेक भाषाओं में विश्वस्तरीय क्राइम फिक्शन पुस्तकों का अनुवाद होता और वे बड़े चाव से पढ़े जाते हैं। ईबुक की दुनिया में तो प्रतिदिन कोई न कोई पुस्तक ईबुक के रूप में ईबुक प्लेटफॉर्म पर अपलोड की जाती हैं। क्राइम फिक्शन विधा में मिस्ट्री, खासकर मर्डर मिस्ट्री उपन्यासों की बहुत डिमांड होती है और आप इस विधा को सर आर्थर कॉनन डायल, एडगर एलन पो, अगाथा क्रिस्टी, पैरी मेसन, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे धुरंधर क्राइम फिक्शन लेखक से लेकर कईगो हिगाशीनो, ली चाइल्ड, विश धमीजा, सलील देसाई, कंवल शर्मा, संतोष पाठक जैसे इस दौर के लेखक तक को देख सकते हैं। ये तो वो नाम हैं, जिनकी किताबें इन पंक्तियों के लेखक ने […]
विष्णु खरे को श्रद्धांजलि स्वरूप 1947 के बाद से इतने लोगों को इतने तरीकों से आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए तो जान लेता हूँ मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी एक मामूली धोखेबाज़… या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी या गुस्से पर आश्रित तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो…
”ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?” कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा। बाबू साहब ने दोंनो बाँहें फैलाकर कहा- ”हाँ बेटा,ला देंगे।” उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले- ”क्या करेगा रेलगाड़ी?” बालक बोला- ”उसमें बैठकर बली दूल जाएँगे। हम बी जाएँगे,चुन्नी को बी ले जाएँगे। बाबूजी को नहीं ले जाएँगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्हें ले जाएँगे।” बाबू- “और किसे ले जाएगा?” बालक दम भर सोचकर बोला- ”बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।” पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा- ”और अपनी ताई को नहीं ले जाएगा?” बालक कुछ देर तक अपनी ताई की और देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चिढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्छा न लगा। […]
डाक्टरी की लंबी पढ़ाई और इंटर्नशिप आदि पूरी करने और दिल्ली के एक बड़े निजी अस्पताल में दो साल की प्रैक्टिस करने के बाद सरकारी डॉक्टर के तौर पर सार्थक की पहली तैनाती आगरा की बाह तहसील के एक ग्रामसभा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हुई। उसके साथ ही उसकी सहपाठी और अब मंगेतर डॉ नेहा ने भी पास के ब्लॉक के अस्पताल में अपनी तैनाती ले ली थी। सप्ताह में एकाध बार दोनों मिलते और अन्य डॉक्टरों के साथ लंच और कुछ न कुछ खेलकूद या पार्टी वगैरह का आयोजन करते। एक दिन पास के सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य और दो शिक्षक उसके दफ्तर में आए। वे शिक्षक दिवस के दिन सार्थक को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करना चाहते थे। सार्थक ने सहर्ष स्वीकृति दे दी । शिक्षक दिवस के दिन स्कूल के कार्यक्रम में उसे बच्चों के बीच बहुत आनंद आया। उसने देखा कि अब सरकारी […]
वो मेरे सामने बेड पर पड़ी थी. उसके शरीर पे कपड़े की एक धज्जी भी न थी. मैंने उसे देखा फिर अपने मुंह पे हाथ रख कर उबकाई रोकने की भरसक कोशिश की. वहां दवाइयों की गंध से मेरा सर पहले से ही चक्कर खा रहा था और अब ये वीभत्स नजारा. उफ्फ ! पापा ने मुझे मना भी किया था कि तुम देख नहीं पाओगे, लेकिन मेरी जिद की वजह से उनकी एक न चली. हार कर वो मुझे साथ लेकर आये थे सेवा सदन नामक हॉस्पिटल के उस कमरे में जहाँ झुलसे हुए मरीजों को एडमिट किया जाता है. वो लगभग अस्सी प्रतिशत जल चुकी थी. मच्छरदानी के अंदर पड़े पूरे शरीर पर बड़े बड़े फफोले पड़ चुके थे. उसका गोरा और सुंदर शरीर काला पड़ चुका था. उसका हसीं चेहरा भी जल चुका था. मुश्किल से सोलह साल की थी वो, मेरी ही हमउम्र. मेरी […]
महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914) में प्रकाशित यह कविता हिंदी दलित साहित्य की पहली रचना मानी जाती है. हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि। हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते, हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां, हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे, बे-धरम होके कैसे मुंहवा दिखइबि ।।1।। खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले। ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले। धोतीं जुरजोधना कै भइया छोरत रहै, परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले। मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के, कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले। कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब। डोम तानि हमनी क छुए से डेराले ।।2।। हमनी के राति दिन मेहत करीजां, दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि। ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं, हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि। हकिमे के लसकरि उतरल बानीं। […]
मैला आँचल’ ! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का सहस कर बैठे ! उछालिए साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना ही डुग्गी पीटने का है !
शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे. चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा बंद लिफाफा मेरे हाथ में रख दिया. मैंने खोलकर देखा, सामनेवाले पड़ोसी रायबहादुर गिर्राज किशन (गिरिराज कृष्ण) का पत्र था, काँपते हाथों अनमिल अक्षरों और टेढ़ी पंक्तियों में लिखा था : माई डियर प्रताप, “मैंने फुल्ली को आदेश दे रक्खा है कि मेरी मृत्यु के बाद यह पत्र तुम्हें फौरन पहुँचाया जाए. तुम मेरे अभिन्न मित्र के पुत्र हो. रमेश से अधिक सदा आज्ञाकारी रहे हो. मेरी निम्नलिखित तीन अंतिम इच्छाओं को पूरा करना – “ 1. रमेश को तुरंत सूचना देना. मेरी आत्मा को तभी शांति मिलेगी, जब उसके हाथों मेरे अंतिम संस्कार होंगे. मैंने उसके साथ अन्याय किया है. […]
26 अगस्त 2018 … मैं लिफ्ट के जरिये उपर चौथी मंजिल पर पहुंचा . मैंने एक फ्लैट के दरवाजे के सामने खड़े हो कर थोड़ी देर सोचा , फिर कॉलबेल पे ऊँगली रखी . तत्काल कहीं अन्दर एक मधुर घंटी की आवाज गूंजी . मेरे दिल की धड़कने अचानक पता नहीं क्यूँ तेज हो गई थी ? थोड़ी देर में दरवाजे का नॉक खुलने की आवाज आई और दरवाजा खुला . वो खुले बालों में मेरी नजरों के सामने खड़ी थी . “मुझे मालूम था तुम जरुर आओगे .” ये कहते हुए उसके चेहरे पे मुस्कराहट थी लेकिन आंखों में उदासी . “कैसी हो?” मैं बोला . “अंदर आओ .” उसने मेरे सवाल का जवाब गोल कर दिया . मैंने झिझकते हुए अंदर प्रवेश किया . फ्लैट बहुत ही शानदार था और करीने से सजा हुआ था . मैं हॉल के एक सोफे में धस गया और चारों ओर नजरें […]
जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा.गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था.ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ.वह सिंध होकर मुल्तान से गजनी जाना चाहता था.लूट के सामान के साथ फौज की यात्रा भारी पड़ रही थी.भीमदेव व अन्य राजपूत उस पर टूट पड़ने के लिए इधर-उधर से सिमट रहे थे.महमूद इनसे बच निकलने के लिए कूच पर कूच करता चला गया.अंत में लगभग छह सहस्र राजपूतों से उसकी मुठभेड़ हो ही गई. महमूद की सेना राजपूतों की उस टुकड़ी से संख्या में कई गुनी बड़ी थी.विजय का उल्लास महमूद की सेना में, मार्ग की बाधाओं के होते हुए भी, लहरें मार रहा था.उधर राजपूत जय की आशा से नहीं, मारने और मरने की निष्ठा से जा भिड़े थे. उन छह सहस्र राजपूतों में से कदाचित ही कोई बचा हो.परंतु अपने कम-से-कम दुगुने […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…