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गुड्डो

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वो मेरे सामने बेड पर पड़ी थी. उसके शरीर पे कपड़े की एक धज्जी भी न थी. मैंने उसे देखा फिर अपने मुंह पे हाथ रख कर उबकाई रोकने की भरसक कोशिश की. वहां दवाइयों की गंध से मेरा सर पहले से ही चक्कर खा रहा था और अब ये वीभत्स नजारा. उफ्फ !

   पापा ने मुझे मना भी किया था कि तुम देख नहीं पाओगे, लेकिन मेरी जिद की वजह से उनकी एक न चली. हार कर वो मुझे साथ लेकर आये थे सेवा सदन नामक हॉस्पिटल के उस कमरे में जहाँ झुलसे हुए मरीजों को एडमिट किया जाता है.

   वो लगभग अस्सी प्रतिशत जल चुकी थी. मच्छरदानी के अंदर पड़े पूरे शरीर पर बड़े बड़े फफोले पड़ चुके थे. उसका गोरा और सुंदर शरीर काला पड़ चुका था. उसका हसीं चेहरा भी जल चुका था. मुश्किल से सोलह साल की थी वो, मेरी ही हमउम्र. मेरी आँखों से आंसू बहते जा रहे थे और मैं उन्हें रोकने की कोशिश भी नहीं कर रहा था.

कितनी खूबसूरत और हसीन दिखती थी वो और अब यूँ मेरे सामने जली पड़ी थी. डॉक्टर्स ने बचने की उम्मीद छोड़ दी थी लेकिन फिर भी पूरी कोशिश कर रहे थे.

मैं पलट कर वहां से भागा और हॉस्पिटल के बाहर आया किसी सूनी जगह की तलाश में. हॉस्पिटल के सामने एक पार्क में जा कर मैं जार जार रोया. थोड़ी देर बाद पापा मुझे ढूंढते हुए पार्क में आये.

“मैंने तुमसे कहा था न कि तुम उसे देख नहीं पाओगे लेकिन फिर भी तुम नहीं माने ?”

मैं उनसे लिपट कर रो पड़ा. वो मेरी पीठ थपथपाते हुए दिलासा देते रहे.

“वो बच जायेगी न पापा ! वो बच जायेगी न ! डॉक्टर अंकल से कहो उसे बचा ले पापा. उसे बचा ले. उसे ठीक कर दे पापा. उसे फिर से पहले जैसा बना दे पापा.” मैं रोता हुआ बोला.

एक सोलह साल का लड़का और कर भी क्या सकता था ?

पापा मुझे बहुत देर तक दिलासा देते रहे, समझाते रहे और हिम्मत बंधाते रहे. बड़ी मुश्किल से मैं शांत हुआ.

और घर आकर उस दिन पहली बार मैंने गुरु नानक देव जी की तस्वीर के सामने हाथ जोड़ के ये विनती की…

“उसे ठीक कर दो वाहे गुरु जी. उसे ठीक कर दो. उसकी जान बख्श दो. उसे फिर से पहले जैसा बना दो. बदले में मेरी जान ले लो. बस उसे ठीक कर दो.”

पता नहीं मैं कितनी देर रोता रहा… मन्नतें करता रहा, दुआएं मांगता रहा और रोते-रोते ही भूखा प्यासा सो गया.

सुबह पापा ने जगाया और मुझे बहुत मनाया कि मैं स्कूल जाऊँ, हालाँकि मैं बिल्कुल भी स्कूल नहीं जाना चाहता था. गुड्डो का हॉस्पिटल के बेड पर पड़ा वो जला हुआ शरीर मुझे सारी रात सपने में डराता रहा था और मैं कई बार रात को चौंक कर जागा था.

पापा के बहुत समझाने पर मैं यूनिफार्म पहन कर स्कूल पहुंचा. पूरे स्कूल में उदासी का माहौल था. सबको खबर हो चुकी थी कि गुड्डो के साथ क्या गुजरी है! स्कूल असेंबली में गुड्डो के शीघ्र स्वस्थ होने की भी प्रार्थना की गई, जिससे मेरे दिल को बेहद सुकून महसूस हुआ. पूरा स्कूल उसके जल्द से जल्द ठीक होने की प्रार्थना कर रहा था. मैंने किसी को नहीं बताया कि मैं हॉस्पिटल जा के गुड्डो को देख कर आया था.

छोटा सा हिंदी मीडियम स्कूल था, जो हमारी कॉलोनी में ही था. सिद्धार्थ हाई स्कूल. डेढ़ साल से मैं इस स्कूल में पढ़ रहा था. इसके पहले मैं रांची के एक हाई फाई इंग्लिश मीडियम स्कूल में बचपन से पढ़ता रहा था, लेकिन पापा का बिजनेस अचानक ठप्प होने की आर्थिक तंगी की वजह से मुझे वो स्कूल छोड़ कर मजबूरन इस स्कूल में आना पड़ा था. स्कूल न कह कर उसे किसी कबूतर का दड़बा कहना लाजिमी होगा, क्योंकि स्कूल के नाम पर वो एक दो मंजिला बिल्डिंग थी, जिसमें किसी तरह ये स्कूल संचालित हो रहा था. स्कूल में बच्चों की संख्या कम थी, इसलिए दो-दो क्लास एक ही रूम में चलती थी. जैसे नाइन्थ और टेंथ की क्लास एक ही साथ अरेंज होती थी, क्योंकि दोनों क्लास को मिला के हम गिनती के मुश्किल से तीस स्टूडेंट थे.

मैं क्लास रूम में बैठा बार-बार उस बेंच को देख रहा था, जिस पर अभी कुछ दिनों पहले तक गुड्डो बैठा करती थी. हमारे टीचर जी क्लास में पता नहीं क्या पढ़ा रहे थे और मैं फ़्लैश बैक में चला गया था.

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फ़्लैश बैक…

क्लास रूम में काफी शोरशराबा हो रहा था. मैं किताबों में ध्यान नहीं लगा पा रहा था. अचानक ही मॉनिटर उठ कर जोर से चिल्लाई और सारे स्टूडेंट्स को शांत किया. सेकंड मॉनिटर भी उठ खड़ी हुई और उन स्टूडेंट्स के नाम बोर्ड पर लिखने लगी जो शोर मचा रहे थे. धीरे-धीरे क्लास में शांति छा गई.

क्लास मॉनिटर थी सरबजीत कौर और सेकंड मॉनिटर थी पूर्णिमा प्रधान. दोनों ही बोल्ड और ब्यूटीफुल. दोनों कॉलोनी में ही रहती थी. दोनों के पापा और मेरे पापा में अच्छी जान पहचान थी. सरबजीत के पापा किसी प्राइवेट फैक्ट्री में सुपरवाईजर थे और पूर्णिमा के पिता प्लम्बर थे. सरबजीत इससे पहले मुंबई में अपनी मौसी के पास रहती थी और वापस रांची आकर कुछ महीने पहले ही इस स्कूल को ज्वाइन किया था, जबकि पूर्णिमा शुरू से ही इस स्कूल में पढ़ रही थी. दोनों ही नाइन्थ स्टैण्डर्ड में थी और मैं टेंथ स्टैण्डर्ड में.

यहाँ जिक्र के काबिल ये बात है कि सबसे ज्यादा परेशानी मुझे पूर्णिमा से थी, जो मुझपर बुरी तरह फ़िदा थी और अपनी चाहत को छुपाने की कोशिश भी नहीं करती थी. उसने कभी कुछ कहा नहीं था लेकिन हमारी क्लास के सारे स्टूडेंट्स मुझे उसका नाम लेकर चिढाते थे. मैं कभी टीचर के किसी सवाल का जवाब देने के लिए खड़ा होता तो वह पीछे मुड़ कर मुझे ऐसे प्यार भरी निगाहों से एकटक देखती थी, कि मैं शर्म से दोहरा हो जाता था. मुझे समझ नहीं आता था कि कैसे रियेक्ट करूँ ? सरबजीत भी उसकी हरकत देख कर उसे टोकती थी लेकिन उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था.

एक दिन लंच ब्रेक के बाद मैं वापस अपनी बेंच पर आया. अपने टिफ़िन बॉक्स को बैग में वापस डालने के क्रम में मुझे अचानक ही मुझे अपनी बेंच में किसी कॉपी का फटा हुआ मुड़ा तुड़ा पेज दिखाई दिया. मैंने उस पेज को बाहर निकाला और पढ़ना शुरू किया. शुरुआत के ही दो लाइन पढ़ने के बाद मेरी हालत ख़राब हो गई. मैं जूड़ी के मरीज की तरह कांपने लगा. उस ठंडे मौसम में भी मेरे माथे से पसीना बहने लगा.

मेरे हाथ में एक लव लेटर था. मेरी सोलह बरस की बाली उमरिया का पहला प्रेम पत्र. माय फर्स्ट लव लेटर. क्लास रूम में बाकी स्टूडेंट्स आने लगे थे, इसलिए मैंने जल्दी से उस लेटर को अपने पॉकेट में डाल लिया. उस घड़ी मेरा दिल हंड्रेड माइल्स पर सेकंड की स्पीड से दौड़ रहा था. शरीर का सारा ब्लड, दिमाग के अंदर उफान पे उफ़ान मार था. मैंने किसी तरह खुद को कंट्रोल किया और बाकी पीरियड्स में नार्मल रहने की पूरी कोशिश की. मैंने किसी को कुछ नहीं बताया. वैसे भी उस क्लास में एक ही लड़का मेरा दोस्त था और वह था जगजीत उर्फ़ जग्गू.

अब जानना ये था कि लेटर भेजा किसने है? मुझे पूरा शक़ पूर्णिमा पे था. उसके बाद भी पूर्णिमा ने कई बार मुझे कनखियों से देखा, लेकिन उसके चेहरे पे सिर्फ वही पुरानी जानी पहचानी मुस्कराहट थी, न कि लेटर भेजने का कोई इशारा करता हुआ अंदेशा.

खैर छुट्टी की घंटी बजी और मैं बैग उठा जग्गू को अकेला छोड़ कर घर भागा. आधे रास्ते में घर का रास्ता छोड़ कर मैंने बड़े मैदान के एक पेड़ के पीछे बैठ कर उस लेटर को निकाला और धड़कते दिल के साथ पढ़ा. एक बार नहीं, कई बार. एक अजीब ही फीलिंग हो रही थी. लेटर पढ़ते हुए ख़ुशी कम, डर ज्यादा और गुस्सा तो और भी ज्यादा आ रहा था.

ख़ुशी थी लेटर मिलने की, डर इसलिए कि पकड़ा गया तो क्या होगा और गुस्सा लेटर के लिखने के ढंग को लेकर. पूरे पत्र में आगे-पीछे दोनों तरफ रोमांटिक फालतू शायरी लिखी थी. बानगी के लिए मुलाहजा फरमाइये – ख़त लिखती हूँ खून से, स्याही न समझना. मरती हूँ तुम्हारी याद में जिन्दा न समझना… ऐसे ही कई शायरी और दिल का हाल, साथ जीने की कसमें और न पाने की सूरत में मरने की गुंजाइश. मुझे समझ नहीं आया कि अब ये कौन लैला की मॉडर्न अवतार हमारे स्कूल में अवतरित हुई थी जिसने मुझे अपना मजनू तस्लीम कर लिया था !

इसके अलावा पूरे पत्र में कई दिल बने थे और हर दिल में कोई न कोई तीर गुदा था. लेटर के शुरुआत में माय डिअर के साथ मेरा नाम तो था, लेकिन भेजने वाली का नाम नदारद था. ये था मेरे क्लास की हिंदी मीडियम वाली लड़कियों में से किसी एक का कारनामा, जिसने पिछले चार घंटे से मेरे दिल से लेकर दिमाग तक की घंटी बजा दी थी.

यहाँ ये क्लियर करना ज़रूरी है कि उस नाइन्थ और टेंथ की जॉइंट क्लास में एक मैं ही अकेला था, जो इंग्लिश मीडियम से आया था. पढ़ने में मैं शुरू से ही तेज था, इसलिए यहाँ भी अव्वल ही था. लेकिन इंग्लिश से हिंदी मीडियम में आने पर मुझे बहुत परेशानी हो रही थी. खासकर, मैथ्स और साइंस के कठिन शब्दों को लेकर. सबसे बड़ी प्रॉब्लम संस्कृत थी, जो मैंने कभी पढ़ी नहीं थी क्योंकि पुराने स्कूल में मैंने संस्कृत की बजाय गुरमुखी ले रखी थी. लेकिन एक प्लस पॉइंट ये भी था कि इंग्लिश मीडियम स्कूल का ये साइड हीरो इस हिंदी मीडियम स्कूल का सुपरस्टार था और अपने क्लास की लव अट्रैक्शन सीक करने वाली लड़कियों के लिए उनका प्रिंस चार्मिंग. वाह, क्या किस्मत पाई थी मैंने ! जिस लड़के को पुराने स्कूल में कोई सूखी घास भी न डालती थी, वो आज इस स्कूल की लड़कियों की निगाहों का मरकज बना हुआ था. लेकिन, इसमें मेरा कोई जलवा न था. ये तो ‘अंधों में काना राजा’ वाली मिसाल मुझपे चरितार्थ हो रही थी.

खैर किसी तरह वो दिन गुजरा. शाम को मैं टयूशन पढ़ने भी नहीं गया. रात में कई बार छिप-छिप कर मैंने वो लैटर पढ़ा. इसी चक्कर में मैं न तो होमवर्क कर पाया, न ही चैप्टर के क्वेश्चन-आंसर याद कर पाया. घरवालों को भी कुछ पता न चला कि मैं किस बखेड़े में फंसा हुआ था.

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सुबह मैं स्कूल पहुंचा. लेटर मेरी जेब में था. क्लास रूम में मैंने टोह लेने की कोशिश की कि ये दिलफरेब हरकत किसकी थी ? पूर्णिमा नार्मल थी, लेकिन शकुन्तला बार-बार मुड़ कर मुझे देखती और रहस्यपूर्ण ढंग से मुसकुराती. अब ये क्या चक्कर है साला ? ये क्यूँ अचानक मुस्करा रही है ? ये अब नई मिस्ट्री ?

शकुन्तला काफी जहीन, सुंदर और लम्बे चौड़े हाथ पाँव वाली लड़की थी और पढ़ाई में मेरे बाद दूसरा नंबर उसी का था. उसे पूरी क्लास के लड़के गब्बर कहते थे, क्योंकि उसकी आवाज मर्दों जैसी भारी थी पर मैंने कभी नहीं कहा था. इन्फैक्ट मैं लड़कियों से बात ही नहीं करता था. लेकिन मुझे उसकी उस मुस्कुराहट से शक़ होने लगा कि लेटर कहीं इसी ने तो नहीं भेजा ? कहीं इस शकुन्तला ने मुझे अपना दुष्यंत तो समझ नहीं लिया ?

मैं अपनी ही सोच पे बुरी तरह कलपा. फिर मैंने अपनी ऊँगली में पहनी आठ आने वाली स्टील की अंगूठी पे नजर डाली. इस दुष्यंत की अंगूठी सही सलामत थी.

वैसे भी अपने पापा की माली औकात के जेरेसाया मेरा स्टैण्डर्ड उस स्कूल में सबसे हाई था और मुझे भी इस बात का पूरा एहसास था. घर का सबसे बड़ा बेटा होने की वजह से मुझे अपनी जिम्मेदारियों का भान भी था. इन लड़कियों के मुंह लगना मैं अपनी हेठी समझता था. वैसे भी कुछ महीनों बाद मुझे बोर्ड एग्जाम देना था और इस घुटन वाले माहौल से छुटकारा भी मिल जाना था. मेरा इरादा फर्स्ट डिवीज़न में पास होके शहर के सबसे शानदार कॉलेज ‘सेंट ज़ेवियर कॉलेज’ में एडमिशन लेने का था. मुझे न तो आशिकी में दिलचस्पी थी, न ही उस वक़्त इन लड़कियों में दिलचस्पी थी और न ही भविष्य में कभी कोई दिलचस्पी होने वाली थी. काश मुझे पता होता कि कितना अहमक और गलत था मैं उस वक़्त !

अचानक मेरे दिमाग में एक नया ख्याल आया. कहीं ये हरकत किसी लड़के ने तो नहीं की है ? वैसे भी साले सारे खामखाह मुझसे चिढ़े रहते थे सिर्फ जग्गू को छोड़ कर. कहीं किसी ने मुझे बकरा बनाने की कोशिश तो न की थी और वो लेटर मुझे सरकाया था ?

मैंने सारे लड़कों को गौर से देखा और अंदाजा लगाने की कोशिश की कि इनमें से कोई तो नहीं ? मैं कोई अंदाजा लगा न पाया. फिर मैंने चुपके से वो लेटर निकाल कर जग्गू को दिया और पढ़ने को कहा. आखिर कोई तो राजदार हो मेरे इस कश्मकश का ! वो बेंच के नीचे छुपा कर वो लेटर पढ़ने लगा. जैसे जैसे वो पढ़ता गया, उसके चेहरे पे हैरानी के भाव आते गये. मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया और लेटर उसके हाथ से लेकर उठ खड़ा हुआ. टेंशन, डर, सस्पेंस से मेरी हालत बहुत ख़राब हो चुकी थी. अब फैसले की घड़ी थी.

मैं टीचर से परमिशन लेकर बाहर निकला और प्रिंसिपल के ऑफिस पहुंचा. प्रिंसिपल अकेले बैठे थे. मैं इजाजत लेकर अन्दर दाखिल हुआ और उनके टेबल पे मैंने वो लव लेटर रख दिया और अदब से खड़ा हो गया. उन्होंने मुझे हैरानी से देखा और फिर लेटर उठा कर पढ़ने लगे. मैं चुपचाप खड़ा रहा.

काश उस वक़्त मुझे मालूम होता कि थोड़ी देर बाद मुझ पर क्या शामत आने वाली थी और जिंदगी का एक अनोखा तजुर्बा करना था जो मैं ताउम्र भूलने वाला नहीं था.

प्रिंसिपल ने पूरा लेटर पढ़ा फिर मुझसे गंभीर स्वर में कहा “तुम अपने क्लास में जाओ.”

मैं वापस क्लास रूम में आया. घंटी बज चुकी थी लंच ब्रेक की.
लंच ब्रेक के बाद क्लास फिर शुरू हुई.

ये क्या ? सारे क्लास के स्टूडेंट्स मुझे अजीब निगाहों से घूर रहे थे. मुझे समझ में आ गया कि मुझे मिलने वाले लव लेटर की कथा ‘टॉक ऑफ़ द क्लास’ हो चुकी थी. वो तो मुझे बाद में पता चला कि मेरे जिगरी दोस्त जग्गू ने लंच ब्रेक के दौरान मुझे मिले लव लेटर का रहस्योद्घाटन, मेरे गैरहाजिरी के दौरान क्लास में कर दी थी और अब पूरी क्लास की निगाहों का मरकज मैं था.

क्या सीन था ! जिसने लव लेटर लिखा, उसका कोई अता पता नहीं और जिसे लव लेटर मिला… वो यानि कि मैं…पूरी क्लास की हसद का शिकार था. व्हाट ए लक की जगह ‘व्हाट द फ# वाली सिचुएशन थी मेरे लिए. साला पूरी क्लास के सामने शर्मिंदगी का एहसास मुझे हो रहा था. लव लेटर लिखने वाले को कोसने बजाय सारे लड़के मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे लव लेटर पा के मैंने कोई गुनाह ए अजीम कर दिया हो.

पूर्णिमा, शकुन्तला और सरबजीत बार-बार मुड़ के मुझे देखती और मेरे चेहरे के एक्सप्रेशन से कुछ भांपने की कोशिश करती रही लेकिन मैं भावशून्य रहा. मैंने खुद को सीरियस दिखाने की कोशिश की हालांकि अंदर से मैं बुरी तरह हिला हुआ था. शुक्र है भगवान् का कि मैं बहुत ही बेहतरीन एक्टर भी था, इसलिए अपने मनोभावों को पूरी तरह कंट्रोल करने में सफल रहा.

सबसे ज्यादा गुस्सा मुझे जग्गू पे आ रहा था जिसने पूरे क्लास में मेरे सर पे थोपी हुई आशिक़ी का ढिंढोरा पीट दिया था. जी चाह रहा था कि खींच के एक घोड़े जैसी दुल्लती उसके पिछवाड़े पे लगाऊ लेकिन मन मसोस के रह गया. साले का पेट औरतों जैसे था, जिसमें कोई बात पच ही नहीं सकती थी. कमीना मुझसे भी लंबा और हैंडसम था लेकिन पढ़ाई में जीरो और दूसरों की सीक्रेट्स का ढिंढोरा पीटने में माहिर.

लंच ब्रेक के बाद क्लास शुरू हुई कि अचानक प्रिंसिपल सर क्लास में पधारे. उन्होंने टीचर को बाहर जाने के इशारा किया और पूरे पीरियड में एक लंबा चौड़ा भाषण दिया जिसका शार्ट में मजमून ये था कि…”हम स्टूडेंट्स को अपनी पढाई पे ध्यान देना है…हम सारे स्टूडेंट्स आपस में भाई बहन के जैसे है और हमें अपनी मर्यादा का पालन करना है….कोई ऐसा काम नहीं करना है जिससे स्कूल और हमारे परिवार के मान सम्मान को आंच आये.” इतना कह के वो वापस चले गये. जाहिर है उन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और अपनी पोजीशन क्लियर कर ली थी.

लेकिन उनके लेक्चर का किसी पर कोई असर नहीं पड़ा. पूरी क्लास के लड़के अब भी मुझे ऐसी नजरों से घूर रहे थे कि साले तूने हिम्मत कैसे की लव लेटर पाने की ! हम क्या यहाँ कददू छिलने के लिए आये है ! ऐसा लग रहा था कि इस क्लास की लड़कियों की मोहब्बत पे उनका पैदाइशी कॉपीराईट था जिसे मैंने अचानक भंग कर दिया था.

खैर लास्ट पीरियड मैथ्स का था और इसी क्लास में मुझपे बिजली गिरी. अचानक मैथ्स टीचर ने मुझसे एक प्रमेय पूछ लिया, जो उन्होने पिछले दिन याद करने को दिया था और जिसे मैंने उस लव लेटर के चक्कर में याद नहीं किया था. मैं चुपचाप खड़ा रहा कि शकुन्तला ने अपना हाथ उठा दिया और उस प्रमेय का बखान भी कर दिया.

उस स्कूल के मैथ्स टीचर का पनिशमेंट देने का तरीका भी अनोखा था. जो जवाब न दे पाये, उसे अपोजिट सेक्स से थप्पड़ खाना पड़ता था. क्या स्कूल था ! मतलब लड़के को थप्पड़ लड़की मारती थी और लड़की को लड़का.

पिछले डेढ़ सालों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मैं पहली बार किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाया था. इससे पहले मैं सारी लड़कियों को थप्पड़ मारने का सौभाग्य प्राप्त कर चुका था और आज मेरी बारी थी. लेकिन मैं कूल एंड काम था, क्योंकि आज तक मैंने थप्पड़ मारने के बजाय सिर्फ हल्की सी चपत लगाई थी लड़कियों को और मुझे मालूम था कि शकुन्तला मुझे भी हल्की सी चपत ही लगाएगी.

शकुन्तला मेरे पास आई. सारी क्लास दम साधे मेरे गाल पर पड़ने वाले थप्पड़ कम चपत का इंतेजार कर रही थी.

“तड़ाक! थप्पड़ की आवाज पूरे क्लास में गूंजी. मेरे मुंह पे इतना जोर का थप्पड़ पड़ा था शकुन्तला का, कि दर्द से मेरी आँखों से आंसू आ गए. उसके पंजे का निशान मेरे गालों पे छप गया. दर्द और अपमान से मेरा चेहरा लाल हो गया. पहली बार जिंदगी में किसी लड़की ने मुझे थप्पड़ मारा था, वो भी अपने पूरे जी जान से.

सरबजीत और पूर्णिमा जो दम साधे ये नजारा कर रही थी. पता नहीं क्यों उनके चेहरे पे हाहाकार के भाव आये. तुरंत वो दोनों अपने बेंच से एक साथ तिलमिला के उठी और शकुन्तला की ओर झपटी.

अगले बीस सेकंड्स में ढेर सारी घटनाएं एक साथ घटी उस क्लास रूम में. सरबजीत मराठी में कोई गाली बकती हुई, झपट कर शकुन्तला के पास पहुंची और उसके पास पहुँच के उसको बालों से पकड़ कर उसे अपनी तरफ सीधा किया और एक जोर का थप्पड़ उसके मुंह पे खींच के रसीद किया. पूर्णिमा को बीच रास्ते में ही दो लड़कियों ने थाम लिया. जग्गू झपट के उठा और शकुन्तला को सरबजीत के चंगुल से छुड़ाया और अपनी बाँहों का घेरा डाल के दोनों के बीच खड़ा हो गया. मैं भी अपने बेंच से निकला और सरबजीत को दोनों हाथों से थाम कर खींच के कोने में ले गया.

सरबजीत की आँखों में खून उतरा हुआ था. पूर्णिमा अपने को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. उसकी आँखों से भी शोले बरस रहे थे. मैथ्स टीचर चिल्ला रहे थे और सबको शांत करने की कोशिश कर रहे थे. बाकी सारे स्टूडेंट्स हक्का-बक्का हो के सारा नजारा देख रहे थे. शकुन्तला की हालत ख़राब थी और वो रो रही थी.

मैं खुद हैरान था कि ये हो क्या रहा है ? स्कूल में डिसिप्लिन नाम की कोई चीज थी ही नहीं और आज तो हद हो गई थी और इन सब के पीछे एक ही वजह थी – वो साला वाहियात लव लेटर जिसकी वजह से आज क्लास रूम में महाभारत छिड़ा हुआ था.

“तुम्हारे मुंह से खून निकल रहा है पप्पू ?” अचानक सरबजीत मेरे चेहरे को देख कर बोली. पप्पू मेरा घरेलू नाम था और हम क्लास में सारे स्टूडेंट्स एक दूसरे को उसके घरेलू नाम से ही बुलाते थे.

मैंने उसे देखा. वो अब काफी शांत दिखाई दे रही थी.

मैंने अपने होंठों को अपनी उँगली के पोर से पोंछा. वाकई खून निकल रहा था. इस भारी बदन वाली शकुन्तला का हाथ वाकई काफी भारी था. वैसे भी मैं काफी दुबला पतला था शायद इसीलिए मेरा गाल उसके थप्पड़ को बर्दाश्त नहीं कर सका था.

मैं क्लास रूम से निकल कर नल की तरफ चल दिया अपना मुंह धोने वो भी बिना टीचर की इजाजत लिए. सरबजीत भी मेरे साथ थी. नल पे पहुँच के मैंने मुंह अच्छी तरह धोया फिर सरबजीत की तरफ देख कर फीके ढंग से मुस्कराया और अफसोसजनक शब्दों में कहा…”तुम्हें शकुन्तला को नहीं मारना चाहिए था ? लेकिन तुमने उसे मारा क्यों ?”

“उसे भी इस तरह जोर से थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था! तुमने आज तक किसी को ऐसे थप्पड़ नहीं मारा.” वो गुस्से में बोली.

उसका जवाब सुन कर बहुत अच्छा लगा लेकिन क्या फायदा ! तीर तो कमान से निकल चुका था.

“तुम्हें पता है, तुम्हारी आज की हरकत की वजह से तुम्हें स्कूल से रेस्टिकेट किया जा सकता है ?”

“तो कर दे. वैसे भी मुझे कौन सा पढ़ लिख कर कलेक्टर बनना है ? वैसे भी मम्मी पापा मेरे लिए लड़का देख ही रहे है मेरे हाथ पीले करने के लिए.” वो तमक कर बोली.

मैं हैरान हो गया.

नाइन्थ क्लास में पढ़ने वाली एक पंद्रह साल की नाबालिग लड़की की शादी ? ये कैसे हो सकता है ?

लेकिन नब्बे के दशक में ये मामूली बात थी. माँ बाप को भी अपनी जवान होती बेटी के हाथ पीले करने की चिंता ज्यादा होती थी…न कि उसे पढ़ा लिखा कर अपना कैरियर, अपना फ्यूचर खुद बनाने की आजादी देने का हौसला या दानिशमंदी.

“लेकिन तुमने वो लेटर प्रिंसिपल को क्यों दिखाया? फाड़ के फेंक नहीं सकते थे ?” अचानक उसने सवाल दाग दिया.

“तो और क्या करता? पता नहीं किसने लिखा है ? कल से मेरा दिमाग ख़राब कर दिया है उस लेटर ने ?” मैं कलप कर बोला.

“मुझे पता है किसने वो लेटर लिखा है?”

मैं हैरान रह गया.

“तुम्हें पता है?” मैं चकित हो कर बोला.

“हाँ. लेकिन तुम ये बताओ कि वो लेटर मैंने लिखा होता अपने नाम के साथ…तो भी वो लेटर तुम प्रिंसिपल को दे आते ?”

मैं गड़बड़ाया. मुझे जवाब न सूझा. मैंने उसकी ओर देखा. वो मुझे अपलक देख रही थी.

“शायद.” मेरे मुंह से सिर्फ ये शब्द निकला.

उसके मुंह से मराठी में फिर कुछ निकला जिसका मतलब मुझे समझ नहीं आया लेकिन इतना अंदाजा जरुर हुआ कि वो मुझे कोस रही थी. ये बचपन से मुम्बई में पढ़ी लिखी थी और ये महानगर के रहन सहन का ही असर था कि इतनी बोल्ड थी. लेकिन मैं बहुत ही दब्बू था.

अचानक मेरी निगाह जग्गू पे पड़ी जो तमतमाता हुआ हमारी ओर चला आ रहा था.

आते ही वो सरबजीत पर बरसा.

“तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है? एक तो ऐसे ही घर में इतना टेंशन चल रहा है और तुम यहाँ स्कूल में स्यापा कर रही हो. मम्मी को पता चलेगा तो घर में कोहराम मच जायेगा. जिस दिन से तुम्हारी शादी की बात चली है उस दिन से तुम अजीब-अजीब हरकतें कर रही हो. अब चलो यहाँ से. प्रिंसिपल ने तुम दोनों को अपने ऑफिस में बुलाया है.”

ये थी भाई बहन की जोड़ी.

हैंडसम जगजीत सिंह और ब्यूटीफुल सरबजीत कौर सगे भाई बहन थे. एक ही माँ की कोख से पैदा हुए थे.

प्रिंसिपल ऑफिस से बुलावा और अब सरबजीत कौर की खैर न थी….

मैंने जग्गू को देखा और कहा “तुम चलो, हम आते है.”

जग्गू ने हम दोनों को गौर से देखा फिर वापस चल दिया.

“लो आ गया बुलावा बिग बॉस का. अब भुगतो.” मैंने सरबजीत को कहा.

जवाब ने उसने अपने कंधे उचक दिए और चलने के लिए कदम बढाया.

मैंने तुरंत उसका हाथ थाम कर रोक लिया और पुछा “अभी थोड़ी देर पहले तुमने क्या कहा था ? तुम्हें मालूम है कि वो लेटर किसने लिखा है ?”

वो हंसी. उसने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश न की.

“मुझे तो तुम्हें वो लेटर मिलने से पहले ही मालूम था पप्पू जी. मुझें ही क्यूँ, पूर्णिमा और शकुन्तला को भी तुम्हें मिलने वाले लव लेटर की एडवांस में खबर थी.” वो मुस्कराते हुए बोली.

मैं जैसे सातवें आसमान से गिरा. ये क्या नया सस्पेंस था ! मैंने उसे हैरानी से देखा. उसके चेहरे पे एक शरारती मुस्कराहट नाच रही थी.

“हमारे गुरुओं ने एक बहुत अच्छी बात कही है. तुम्हें तो मालूम ही होगा. गुरबानी तो पढ़ी ही होगी तुमने ?” मुस्कराहट अभी भी उसके खूबसूरत चेहरे पर बरकरार थी.

“क्या?” अकस्मात मेरे मुंह से निकला.

“बांह जिना दी फडिये, सिर दीजे बांह न छडिये.” इतना कह के उसने मेरे उस हाथ को देखा जिससे मैंने उसके हाथ को थाम रखा था.

मुझे जैसे झटका लगा. तुरंत मैंने उसका हाथ छोड़ दिया.

वो मुड़ी और प्रिंसिपल ऑफिस की ओर चल दी.

मैं उसके पीछे चल पड़ा.

रास्ते में मैं सोच रहा था कि क्या लड़की है ये ? कभी मराठी में गालियां बकती थी तो कभी गुरबानी के पाठ पढ़ाती थी. और साला लेटर किसने लिखा है ? साली तीनों लड़कियों ने मिल के मुझे फंसाया है या कहानी कुछ और ही है ?

खैर प्रिंसिपल ऑफिस में हम सब की हाजिरी हुई. शकुंतला, पूर्णिमा, सरबजीत, जग्गू, मैं और मैथ्स टीचर सब प्रिंसिपल सर के ऑफिस में मौजूद थे.

और मैं सोच रहा था कि मेरा यहाँ क्या काम ? मुझे क्यों बुलाया गया है ? मैं तो थप्पड़ खाया हूँ न कि मैंने किसी को मारा है ?

उसी वक़्त छुट्टी की बेल बज उठी और स्कूल की छुट्टी हो गई लेकिन हमें मालूम था कि हमारी छुट्टी तब तक नहीं होगी जब तक इस केस का फैसला नहीं हो जाता.

प्रिंसिपल सर ने हम सबको गौर से देखा और फिर सुनवाई शुरू हुई. अगले आधे घंटे तक आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहा. शकुन्तला रो रो के फरियाद करती रही. सरबजीत भी बिना डरे अपनी बात कहती रही. पूर्णिमा भी सरबजीत के समर्थन में बहस में कूद पड़ीं. मैथ्स टीचर पुरज़ोर लहजे में सरबजीत और मुझको स्कूल से रेस्टिकेट करने की मांग करते रहे. मैं और जग्गू उल्लू की तरह कभी इधर देखते कभी उधर.

अचानक मैं चौका. मुझे भी रेस्टिकेट ? मैं बुरी तरह कलपा. थप्पड़ खाने के एवज में मुझे स्कूल निकाला की मांग ! मैं तो मजलूम था, विक्टिम था, एक जालिम हसीना के जुल्म का शिकार था. ये मैथ्स टीचर क्या भांग खा के आया था ?

लग रहा था जैसे कोई कोर्ट रूम ड्रामा चल रहा था जिसकी सुनवाई और फैसला ऑन द स्पॉट होना था.

फाइनली फैसले की घड़ी आई और जज साहब ने फैसला सुनाया.

शकुन्तला को मुझसे माफ़ी मांगनी होगी. सरबजीत को शकुन्तला से माफ़ी मांगनी होगी. पूर्णिमा को वार्निंग दिया गया और सरबजीत को भी भविष्य में दुबारा ऐसी गलती करने पर तुरंत स्कूल से निकाल दिए जाने का फ़रमान जारी किया गया.

मैथ्स टीचर की हम दोनों की स्कूल निकाला की मांग को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया.

शकुन्तला ने मुझे सॉरी कहा और फिर सरबजीत ने शकुन्तला को. हमें घर जाने का हुक्म सुनाया गया और कोर्ट बर्खास्त कर दिया गया.

हमने क्लास रूम से अपने अपने बैग उठाए और घर की ओर चल पड़े एक साथ. सारे स्टूडेंट्स पहले ही घर जा चुके थे.

रास्ते में पूर्णिमा और शकुन्तला आपस में उलझ पड़ी.

“एक तो तुमने इसे इतना जोर का थप्पड़ मारा कि इसके मुंह से खून आ गया. उसपर से तुम्हारा बाप इसे स्कूल से निकलवाना चाहता है, क्यों ? इसने क्या किया है ?” ये पूर्णिमा की आवाज थी.

शकुन्तला हमारे स्कूल के मैथ्स टीचर की बेटी थी.

मैंने भी शकुन्तला की ओर देखा. उसके पास कोई जवाब नहीं था लेकिन मुझे जवाब अच्छी तरह से मालूम था. मेरे इस स्कूल में आने के बाद मैथ्स टीचर की लाडली बिटिया की पोजीशन दूसरे नम्बर पर हो गई थी, शायद इसीलिए ?

मैंने और जग्गू ने बीच रास्ते में, उन बहस करती हुई लड़कियों को अलग किया. फिर हम आगे बढे.

अचानक मैंने तीनो लड़कियों का रास्ता रोक लिया और अपने दांत पीसता हुआ बहुत ही गंभीर स्वर में बोला.

“अब एक बात मेरी कान खोल के सुनो और मेरे सवाल का जवाब दो. और यदि मुझे जवाब नहीं मिला तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.”

तीनों लड़कियों अर्थात गुड्डो, पिंकी और सिम्मी ( उनके घरेलू नाम ) ने मुझे गौर से देखा.

“वो वाहियात लेटर किसने लिखा था?” मैं एक एक शब्द को चबाकर बोला.

तीनों लड़कियां ने एक दूसरे की शक्ल देखी, आँखों ही आँखों में कुछ इशारा किया और ठहाका मार के हंस पड़ी. मैं उल्लू की तरह उनकी शक्ल देखने लगा. मेरी चबा-चबा के कही हुई बात का उनपे कोई असर ही नहीं हुआ.

तीनों ने मेरी बात को जैसे एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाला. साली, कोई मुझे सीरियसली ले ही नहीं रही थी.

“क्या हुआ? हंस क्यों रहे हो तुम लोग ?” मैं कलपता हुआ बोला.

“क्यों? इतने बड़े जासूस हो. इतने जासूसी नोवेल्स पढ़ते हो. खुद ही पता लगा लो मिस्टर जीनियस.”

ये शकुंतला की आवाज थी, और आवाज में ताने के साथ साथ चैलेंज भी था. उसे ही मेरे नोवेल्स पढ़ने की खबर थी. बाकी दोनों लड़कियों ने भी सर हिला के शकुन्तला की बात का जैसे समर्थन किया.

मैं कुछ देर तक तीनों को घूरता रहा. वो तीनों भी मेरी आँखों में आँखे डाल कर घूरती रही. क्या लड़कियां थी तीनों ! अभी थोड़ी देर पहले क्लास रूम में आपस में गुत्थमगुत्था हो रही थी और अब एक साथ मुझे आँखे दिखा रही थी. सच्ची, इन लड़कियों की फ़ितरत समझना तो ऊपरवाले के बस बात नहीं थी तो मेरी क्या औकात थी ?

फाइनली मैंने चैलेंज एक्सेप्ट करने का फैसला किया. इस इंग्लिश मीडियम वाले जीनियस को ये हिंदी मीडियम की लड़कियों ने आखिर समझ क्या रखा था ?

“ओके. अब मैं ही पता लगाता हूँ कि वो लेटर किसने लिखा है ? किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं.” मैं दृढ़ स्वर में बोला और मुड़ कर चल दिया. वो चारों भी मेरे पीछे-पीछे चल दिए.

चलते-चलते मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं कुछ भूल रहा हूँ. मैं याद करने की कोशिश करने लगा. अचानक मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और याद आ गया कि मैं क्या भूल रहा था. मैं वापस पलटा और इस बार शकुन्तला का रास्ता रोक कर बाकी तीनों से कहा “तुम तीनों घर जाओ. मुझे इससे कुछ काम है ?”

शकुन्तला की आँखों में भय उतर आया. उसने बाकी तीनों की ओर पनाह मांगती निगाहों से देखा. तीनों की मुंडी तुरंत ना में हिली. जाहिर है वो शकुन्तला को मेरे साथ अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे. मैं समझ गया वो थप्पड़ वाली घटना की वजह से उसे मेरे साथ अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे.

“अरे मुझे सिर्फ इससे बात करनी है. मैं इसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा. मेरा यकीन करो मेरी माँओं.” मैं विनती के स्वर में बोला.

तत्काल तीनों मुंडी फिर ना की मुद्रा में हिली.

“तुम्हें जो भी बात करनी है, हमारे सामने करो. तुमने इसके साथ कुछ उलटा सीधा किया तो कल ही हम चारों स्कूल से बाहर होंगे.” ये जग्गू की आवाज थी.

मैंने उसे देखा. उसकी आँखों में दृढ़ता थी. वो किसी भी हालत में शकुन्तला को मेरे साथ अकेला नहीं छोड़ने वाला था.

“ओके, तुम तीनों भी यहीं रहो.” इतना कह के मैंने शकुन्तला की ओर मुड़ा और कहा “अब मेरी सिर्फ एक बात को जवाब दो और खबरदार जो ये कहा कि बहुत बड़े जासूस हो, खुद पता कर लो.”

शकुन्तला ने अपना सर सहमति में ऐसे हिलाया, जैसे जो पूछना हो पूछो.

“मैंने आज तक क्लास में किसी को भी चाहे वो लड़का हो या लड़की, कभी जोर से थप्पड़ नहीं मारा. सिर्फ हल्की सी चपत ही लगाई और वो भी तुम्हारे पापा के अनोखे पनिशमेंट के सदके. तुम्हें और इन दोनों – मैंने पूर्णिमा और सरबजीत की ओर इशारा किया – “को हल्की सी चपत ही लगाईं लेकिन तुम्हें पहली बार मुझे थप्पड़ मारने का मौका मिला और तुमने इतनी जोर का थप्पड़ मारा कि मेरे मुंह से खून आ गया. तुम्हें पता है, अभी तक मेरा गाल झनझना रहा है – मैंने अपना गाल सहलाया – “क्यों मारा तुमने मुझे इतनी जोर से. सिर्फ इसलिए क्योंकि मैंने तुम्हारी फर्स्ट पोजीशन छीन ली थी.” हालांकि बोलना तो मुझे चीख चिल्ला के था लेकिन मैं बड़े आराम और शांति से बोला.

मेरी बात का जबरदस्त असर हुआ. बाकी तीनों के चेहरे पे उत्सुकता के भाव आये मतलब वो भी इस सवाल का जवाब जानना चाहते थे. तीनों ने शकुन्तला की ओर सवालिया निगाहों से देखा.

शकुन्तला ने हम सब को देखा और अपने गले को छू कर कसम खाने वाले अंदाज में रोनी और मरी हुई आवाज में बोली…”कसम से मैंने अपनी मर्जी से नहीं मारा. जब से तुम इस स्कूल में आये हो, सभी लड़कियों को चपत मार चुके हो. हर लड़की तुमसे जलती है, तुम से नफरत करती है. इन दोनों को छोड़कर – उसने पूर्णिमा और सरबजीत की ओर इशारा किया – “सबने मुझसे कहा था कि जिस दिन भी तुम्हें थप्पड़ पड़ने की नौबत आये, उस दिन सबका बदला लिया जाये. बस इसीलिए मैंने तुम्हें जोर से थप्पड़ मार दिया. वैसे मुझे तुम्हें इतनी जोर से मारने का इरादा नहीं था फिर भी आई एम सॉरी.”

तीनों ने शकुन्तला को हैरानी से देखा. मैंने भी.

साली क्लास की बाकी लड़कियों ने इसे अपना लीडर चुना था अपनी बेइज्जती का बदला लेने के लिए और इस गधी ने इसे एक क्लासिक पुण्यकार्य समझ के अंजाम भी दिया था. मेरे मुंह पे वो जोरदार थप्पड़ पड़ते ही क्लास की बाकी लड़कियों को जरूर उसी क्षण असीम शांति और मोक्ष की प्राप्ति हुई होगी ! उनके तड़पते दिल को करार आ गया होगा !

ये ख्याल आते ही मैं बुरी तरह कलपा. मेरा जी चाहा कि खींच के एक जोर का थप्पड़ लगाऊँ इस बेवकूफ को लेकिन किसी तरह अपने गुस्से को जब्त कर गया.

लेकिन इतना तो तय था कि आज का वो थप्पड़ मैं सारी उम्र भूलने वाला नहीं था और न ही उस वाहियात लव लेटर को भी जो इन तीनों में ही से किसी ने लिखा था !

अब कुछ कहना सुनना बेकार था इसलिए मैं उन चारों को वहीं छोड़ कर वापस मुड़ा और तेज क़दमों से घर की ओर चल दिया. मैंने एक बार भी मुड़ के नहीं देखा कि वो मेरे पीछे आ रहे थे या नहीं !

उस रात काफी देर तक मैं उन तीनों लड़कियों के दिए हुए चैलेंज के बारे में सोचता रहा, जिसे मैंने क़बूल किया था. फाइनली मुझे समझ आ गया कि कैसे इस पहेली को हल करना है ? फिर मैं आराम से सो गया.

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अगले दिन मैं तैयार हो कर स्कूल पहुंचा. सब कुछ नार्मल था. जग्गू और बाकी तीनों लड़कियां भी कूल थी. लेकिन क्लास की बाकी लड़कियां खुश दिखाई दे रही थी जो कि जाहिर है पिछले दिन मेरे मुंह पे थप्पड़ पड़ने की वजह से थी.

थर्ड पीरियड में मेरे अंदर का जासूस जाग उठा और मेरा ‘ऑपरेशन चैलेंज’ शुरू हुआ. आखिर इन लड़कियों को ये बताना था कि मैं उतना बेवकूफ हूँ नहीं जितना मैं शक्ल से दिखता था ? इनका दंभ तो मुझे किसी भी हाल में तोड़ना ही था !

सबसे पहले मैंने टीचर्स के पीरियड चेक किये और बाकी क्लास रूम्स का चक्कर लगाया. सिक्स्थ क्लास खाली थी क्योंकि वो गेम्स पीरियड था और सारे स्टूडेंट्स बाहर ग्राउंड में थे. फिर मैं स्टाफ रूम पहुंचा और हिंदी टीचर से नाइन्थ और टेंथ क्लास के चेक किये हुए होमवर्क नोटबुक्स मांगे. उन्होंने बिना कोई सवाल किये सारे नोटबुक्स मेरे हवाले कर दिए. मैं नोटबुक्स लेकर खाली पड़े सिक्स्थ क्लासरूम में घुस गया और सिर्फ तीन नोटबुक्स छांट कर अलग किया. तीनों नोटबुक्स शकुन्तला, सरबजीत और पूर्णिमा के थे.

मैंने आज तक किसी की हैंडराइटिंग की तरफ ध्यान नहीं दिया था, लेकिन आज पहली बार कर रहा था. इस पहेली को सोल्व करने का बस यही एक जरिया मेरे पास था. एक-एक कर के मैंने तीनों नोटबुक्स के पन्ने पलटने शुरू किये.

उस लव लेटर को मैं प्रिंसिपल को दे आया था. वापस मांगने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन उसे मैंने इतनी बार पढ़ा था कि एक-एक शब्द मेरे जेहन में छपे हुए थे और हैंडराइटिंग तो मैं हरगिज भी भूलने वाला नहीं था.

तीसरी नोटबुक खोलते ही मेरे चेहरे पे मुस्कराहट आई. लव लेटर वाली हैंडराइटिंग मेरे सामने थी. इस बेवकूफ लड़की ने अपने ही हाथ से वो लेटर लिखा था. ऑपरेशन चैलेंज फतह.

“मिल गई लेटर लिखने वाली न? वाकई तुम जीनियस हो यार. इसीलिए तो मैं तुम्हें इतना पसंद करती हूँ.” ये आवाज दरवाजे की तरफ से आई थी.

मैंने पीछे मुड़ कर देखा. एक हाथ अपनी कमर में रखे वो, दरवाजे के सामने खड़े हो कर बड़ी अदा से मुस्करा रही थी.

मैंने मुस्कराते हुए कहा “वेलकम, माय डिअर. अच्छा हुआ तुम खुद आ गई वरना मुझे तुम्हें ढूँढने जाना पड़ता. दरवाजा बंद करो और अंदर आओ.

पूर्णिमा प्रधान ने क्लास रूम में इंटर किया और अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया. वो अब भी मुस्करा रही थी और शर्तिया रोमांस के मूड में थी.

“सबसे पहले तीन बात का जवाब दोगी तुम और मुझे यकीन है तुम झूठ नहीं बोलोगी.” मैं मुस्कराते हुए बोला.

उसने सहमति में सर हिलाया.

“पहली बात – सरबजीत उस लेटर के बारे में कैसे जानती थी?”

“उसने मेरी नोटबुक के अंदर रखी वो लेटर सुबह ही देख ली थी.” वो मुस्कराते हुए बोली.

उसने तुम्हें मना नहीं किया था ?”

“उसने मना किया था लेकिन मेरा मन नहीं माना. तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो पप्पू…..मैं तुम्हें…..”

“दूसरी बात – मैं उसकी बात काटता हुआ बोला -“शकुन्तला को उस लेटर की कैसे खबर थी?”

“उसने मुझे लंच ब्रेक में तुम्हारे बैग में लेटर रखते हुए देख लिया था.”

“जग्गू को इस सब की खबर थी?”

“नहीं, उसे कुछ पता नहीं इस सब के बारे में.”

मैंने मुस्कराते हुए उसकी आँखों में झाँका. मुझे यकीन हो गया वो झूठ नहीं बोल रही थी.

“अब तुम मेरी बात गौर से सुनो और बीच में मत बोलना – अचानक मेरे होठों से मुस्कराहट गायब हो गई और मैं सर्द लहजे में बोला – “क्या समझती हो तुम अपने आपको? स्वर्ग से उतरी हुई मेनका और मुझे विश्वामित्र. मेरा ध्यान भंग करने आई हो तुम. मैं यहाँ अपनी पढ़ाई, अपने बोर्ड एग्जाम की तैयारी के लिए जी जान से जुटा हुआ हूँ और तुम्हें अपनी नौटंकी से फुर्सत ही नहीं है…”

उसके चेहरे का रंग उड़ गया.

लेकिन मैं जारी रहा…”मुझे तुम में कोई दिलचस्पी नहीं है…मुझे यहाँ किसी लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं है. तुम्हारी जैसी ही एक लड़की की वजह से मुझे अपने पिछले स्कूल से रेस्टिकेट किया गया और अब वही कहानी फिर यहाँ. तुम्हें तो पढाई लिखाई से कुछ लेना देना है नहीं लेकिन मुझे है. तुम मेरे स्टैण्डर्ड के आस पास भी नहीं हो इसलिए मेरे सपने देखने बंद करो. वैसे भी तुम्हारे लेटर और मेरे मुंह पे थप्पड़ वाली बात आज नहीं तो कल, मेरे पापा को पता चल ही जायेगा. क्या मुंह दिखाऊंगा मैं उन्हें ? मैं तमतमाता हुआ बोला.

वो रोने लगी लेकिन मुझे जरा भी दया नहीं आई. खून खौला हुआ था मेरा.

“अब एक आखिरी बात कान खोल कर सुन लो. आज के बाद यदि तुमने मुझे कोई लव लेटर लिखा या क्लास रूम में मुझे पीछे मुड़ के प्यार से देखा तो मैं तुम्हें इस स्कूल से रेस्टिकेट करवाऊंगा और अब अगर इतना सुनना के बाद भी आशिक़ी का भूत उतरा नहीं तुम्हारे सर से तो कोई और नमूना ढूंढ लो.”

इतना कह के मैं दरवाजा खोल के बाहर निकल गया. पीछे सारे नोटबुक्स वैसे ही पड़े थे.

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एक महीना बीत गया. सब कुछ नार्मल हो गया. वो घटना बीते कल में शुमार हो गई. पूर्णिमा ने फिर मुझसे कोई पंगा लेने की कोशिश न की. वो बिल्कुल सुधर गई.

अचानक एक दिन दरवाजे की घंटी बजी. मैंने दरवाजा खोला. सरबजीत सामने खड़ी थी हाथों में एक कार्ड लिए.

“अंकल है?”

अंकल मतलब मेरे पापा.

“हाँ है. अंदर आओ.” ये कह के मैं दरवाजे से हट गया. वो पापा के पास गई और उन्हें कार्ड दिया और बातें करने लगी. मैंने उत्सुकता वश ये जानने की कोशिश की कि आखिर वो क्या बात कर रही थी.

“खुश रहना बेटी. वाहेगुरु तुम्हें बेहद खुश रखे.” ये पापा की आवाज थी और सरबजीत रो रही थी.

थोड़ी देर बाद सरबजीत निकली और बिना मुझपे एक निगाह डाले वापस चली गई.

मैंने अंदर जाकर वो कार्ड उठा कर देखा. वो उसकी शादी का कार्ड था. अगले हफ्ते उसकी शादी थी. मेरा दिल धक् सा रह गया.

“वैसे भी मुझे कौन सा पढ़ लिख कर कलेक्टर बनना है. वैसे भी मम्मी पापा मेरे लिए लड़का देख ही रहे है मेरे हाथ पीले करने के लिए.” उसकी आवाज मेरी कानों में गूंजी.

तो उसके मम्मी पापा ने फाइनली उसके लिए लड़का ढूंढ ही लिया था. लेकिन न जाने क्यों मुझे बहुत बुरा लग रहा था.

अगले दिन वो स्कूल नहीं आई. मैंने जग्गू से सारी डिटेल्स ली. लड़की की फोटो देख कर ही लड़के वालों ने उसे पसंद कर लिया था. लड़का एक ट्रक ड्राईवर था और पंजाब में काफी जमीन थी. लड़के वालो की तरफ से सिर्फ चार लोग आ रहे थे और शादी के बाद सीधा दुल्हन को पंजाब ले जाने वाले थे. शादी बिना शोर शराबे और सादगी से कॉलोनी में ही होने वाली थी.

अगले हफ्ते वो दिन भी आ गया जिस दिन शादी थी. मैं भी पापा के साथ शादी में पहुंचा. रविवार का दिन था और दिन में ही शादी थी. मंडप सजा था जहाँ ग्रंथी जी बैठे थे. दूल्हा दुल्हन मंडप में बैठे थे. पाठ चल रहा था. मैंने लाल जोड़े में सजी घूंघट के अंदर झाँकने की कोशिश की. मेरी कोशिश कामयाब रही और सरबजीत की आंखों से मेरी आँखें टकराई और मेरी हैरानी की सीमा न रही. मुझे अपनी आंखों पे यकीन न हुआ.

मैंने फिर घूंघट में देखा. उसने दोबारा वो ही हरकत दुहराई. उसने मेरी ओर देखते हुए अपने सर और आँखों को हिला के एक इशारा किया. मैंने तुरंत वो इशारा समझा और इशारा ये था कि आ जाऊँ तुम्हारे पास.

क्या लड़की थी ! मंडप में बैठी थी. उसकी शादी हो रही थी और वो उस सिचुएशन में भी पंगा ले रही थी. मुझे लगा थोड़ी देर और मैं यूँ ही उसे देखता रहा तो. वो मंडप से वाकई उठ कर मेरे पास आ जायेगी. मैं किसी बखेड़े में फँसना नहीं चाहता था इसलिए मैं वहां से हट कर दूसरी तरफ बैठ गया.

थोड़ी देर बाद लावा फेरे की घोषणा हुई. दूल्हा दुल्हन ने उठ कर लावा फेरे लेने शुरू किये और आनंद कारज संपन्न हुआ.

मैं वहां ज्यादा देर नहीं ठहरा और बिना खाना खाये ही घर आ गया. गुस्सा आ रहा था उसकी मम्मी पर जो इतनी कम उम्र में उसकी शादी कर दी लेकिन मैं कर भी क्या सकता था ?

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अगले दिन सुबह स्कूल की असेंबली प्रेयर हो रही थी. सब हाथ जोड़े प्रेयर कर रहे थे कि अचानक असेंबली में कुछ फुसफुसाहट शुरू हो गई. सभी पीछे मुड़ के देख रहे थे. मैंने भी पीछे मुड़ के देखा.

सरबजीत सुर्ख लाल रंग के सलवार कुरते में चली आ रही थी. सबके चेहरे पर हैरानी के भाव थे. टीचर्स भी उसे हैरानी से देख रहे थे. जग्गू आज स्कूल नहीं आया था. मैं भी हैरान था कि कल इसकी शादी हुई और आज ये स्कूल में. माजरा क्या है ?

वो ठीक मेरे बगल में आकर लड़कियों की लाइन में खड़ी हुई और हाथ जोड़ कर प्रेयर में शामिल हो गई.

मैंने उसे गौर से देखा. उसके हाथों में मेहंदी खिल रहा था. उसके माथे पे सिन्दूर चमक रहा था और वो बला की खूबसूरत लग रही थी. लेकिन उसके चेहरे की उदासी छुप नहीं रही थी.

क्लास शुरू हुआ. शकुन्तला और पूर्णिमा उसके पास जा बैठी और उससे बातें करने लगी. मैं चुपचाप पीछे बैठा उसे हँसते और बातें करते देखता रहा.

लंच ब्रेक हुआ. सारे स्टूडेंट्स बाहर चले गए. मैं क्लास में ही बैठा रहा. थोड़ी देर बाद वो क्लास रूम में आई और मेरे पास आकर खड़ी हो गई. मैंने सर उठा कर उसे देखा.

वो कुछ देर मुझे देखती रही, फिर फीके स्वर में बोली “मैं सिर्फ तुमसे मिलने आई थी. परसों मैं पंजाब चली जाऊँगी. लेकिन तुमने मेरी शादी में मुझे कोई गिफ्ट नहीं दिया पप्पू ! क्यों?”

मुझे समझ नहीं आया मैं क्या कहूँ ?

लेकिन फिर हिम्मत जुटा कर कहा “मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है गुड्डो, कुछ नहीं ! फिर भी तुम्हें कुछ चाहिए तो मांग लो. मैं पूरी कोशिश करूँगा तुम्हें वो चीज देने के लिए.”

“अब क्या मांगूँ तुमसे? अब तो बहुत देर हो चुकी है.” उसने वैसे ही उदास स्वर में कहा.

मैं भी जानता था अब बहुत देर हो चुकी है. कभी-कभी वक़्त, हालात और माँ बाप की जिद बहुत सारे दिलों को ऐसे तोड़ देते है कि जिनकी टीस जिंदगी भर रह जाती है. कुछ घाव भर तो जाते है लेकिन उनकी टीस कभी नहीं जाती.

“अच्छे से पढना और टॉप करना मिस्टर जीनियस. सिम्मी को आगे मत निकलने देना वरना मुझे अफ़सोस रहेगा.” वो हंस रही थी लेकिन उसकी आँखों में नमी थी. सिम्मी शकुन्तला का घरेलू नाम था.

मैं निःशब्द बैठा था.

“अच्छा, अब मैं चलती हूँ. लेकिन जाते-जाते तुमसे एक निशानी मांग रही हूँ. अपनी अंगूठी ही दे दो. इसे देख कर ही तुम्हें याद कर लिया करूँगी.”

मैंने अपनी उँगली में पहनी अंगूठी को देखा. पचास पैसे की स्टील की अंगूठी जो फुटपाथ से खरीदी थी और जिसपे मेरे नाम का पहला अक्षर P गुदा था.

मैंने तुरंत वो अंगूठी निकाल कर उसे दे दिया. उसने वो अंगूठी अपनी उँगली में पहन ली, मेरे सर के बालो पर हाथ फेरा और चली गई. मैं उसे जाते हुए देखता रहा.

मेरा दिल रो रहा था लेकिन मैं चुपचाप अपने आंसू जब्त किये बैठा था.

वो स्कूल से चली गई हमेशा हमेशा के लिए और मेरी जिंदगी से भी.

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अगले दिन फिर स्कूल और वही सब कुछ. लेकिन मुझे उसकी कमी महसूस हो रही थी. मैंने कितनी बार उस बेंच को देखा जिसपे वो बैठती थी और जो खाली था मेरे सूने दिल की तरह. उसके जाने के बाद मुझे एहसास हो रहा था जैसे मैंने कोई अनमोल चीज खो दी है. सच्ची, कभी-कभी हमें किसी रिश्ते की अहमियत तब पता चलता है जब देर, बहुत देर हो चुकी होती है.

स्कूल ख़त्म हुआ मैं घर पहुंचा. घर पहुँचते ही मुझे वो हौलनाक खबर लगी. गुड्डो दोपहर को बुरी तरह जल चुकी थी और उसे तुरंत हॉस्पिटल ले जाया गया था. मैं पागल हो गया और जार -जार रोने लगा. पापा ने मुझे बहुत मुश्किल से चुप कराया.

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अचानक घंटी बजने की आवाज आई. मैंने चौक कर सर उठाया. लास्ट घंटी बज चुकी थी और मैं फ़्लैश बैक से बाहर आया.

मैंने अपना बैग उठाया और घर की ओर चल दिया. रास्ते भर मैं गुड्डो के लिए प्रार्थना कर रहा था और वो हॉस्पिटल में पड़ी जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही थी.

घर जाने के बजाय मैं सरबजीत उर्फ़ गुड्डो के फ्लैट पहुंचा. मेरे घर से मुश्किल से दो मिनट का रास्ता था. घर पे ताला लटका हुआ था. पड़ोसियों से पता चला कि सारे हॉस्पिटल गए हुए है. मुझे जग्गू से मिलना था, लेकिन उससे मिलने के लिए मुझे हॉस्पिटल जाना पड़ता जो मैं हरगिज भी जाना नहीं चाहता था. मुझे गुड्डो को उस हालत में देखना मंजूर नहीं था.

दिन गुजरते गए. गुड्डो के घरवाले तो जैसे हॉस्पिटल में ही डेरा जमा के बैठ गए थे. किसी से मुलाकात न हो पाई. पापा हर दूसरे तीसरे दिन जाते रहे उसे देखने और मुझे हर खबर देते रहे.

आखिर डॉक्टर्स की मेहनत रंग लाई. उन्होंने गुड्डो के प्राण बचा लिए.

मैंने वाहेगुरु का शुक्रिया अदा किया.

स्कूल में जग्गू भी आ नहीं रहा था, जो हमें कुछ पता चलता. शकुन्तला और पूर्णिमा मुझसे पूछती गुड्डो के बारे में. मैं क्या बताता ! मैं तो खुद टुकडो में उसके हालत के बारे में जान रहा था, वो भी पापा के मार्फ़त. लेकिन गुड्डो के साथ हुए उस हादसे (?) ने मुझे, शकुन्तला और पूर्णिमा को बेहद करीब ला दिया था.

महीना बीत गया. पापा ने बताया कि डॉक्टर्स ने ऑपरेशन के लिए गुड्डो के जांघ से मांस काट कर उसके आग से गले हुए शरीर के हिस्सों पे लगाया. मेरी रूह काँप गई ये सुन कर.

दिन बीतते गए. बोर्ड का एग्जाम बिल्कुल सर पर आ गया तो मेरी मुलाकात जग्गू से हुई. उसकी हालत ख़राब थी. बहन के साथ हुए हादसे ने उसे पूरी तरह तोड़ कर रख दिया.

मैंने उसे उस हादसे के बारे में पुछा तो उसने यही कहा कि उस दिन घर पर कोई नहीं था. सिर्फ गुड्डो और उसका पति था. गुड्डो किचन में लंच बना रही थी कि गलती से स्टोव से उसकी साड़ी में आग लग गई.

मुझे यकीन नहीं हुआ. वो झूठ बोल रहा था लेकिन मेरे पास सच्चाई जानने का कोई जरिया नहीं था. सच्चाई सिर्फ दो लोग जानते थे – एक गुड्डो दूसरा उसका पति ! गुड्डो पता नहीं कब ठीक होती और मिलती और उसके पति से मैं कुछ पूछ नहीं सकता था !

बाद में पापा ने भी गुड्डो की जलने की यही स्टोरी सुनाई. पुलिस ने भी इसे एक्सीडेंट केस मान कर कोई तहकीकात नहीं की.

लेकिन मेरा दिल दिमाग इसे हादसा मानने को तैयार ही नहीं था.

वक़्त बीतता गया और बोर्ड एग्जाम शुरू हुए. मैं, शकुन्तला और जग्गू ने सारे पेपर के एग्जाम दिए.

अगले तीन महीनों में गुड्डो काफी ठीक हो गई और अपने पति के साथ गुरदासपुर चली गई. मैं उससे मिल भी नहीं पाया.

दो महीने के बाद मेट्रिक का रिजल्ट आया. मैं 59% के साथ सेकंड डिवीज़न से पास हुआ. 1% से मैं फर्स्ट डिवीज़न से चूक गया. जग्गू फेल हो गया था और शकुन्तला उर्फ़ सिम्मी 70% मार्क्स लाई थी. उसने मुझे बुरी तरह पछाड़ दिया था.

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वक़्त पंख लगा के उड़ता गया. सिम्मी हायर एजुकेशन के लिए मुंबई चली गई, अपनी बुआ के पास. जग्गू ने ड्राइविंग सीख ली और दिल्ली चला गया, काम की तलाश में. पूर्णिमा उर्फ़ पिंकी की शादी दसवीं पास करते ही हो गई.

मैंने कॉलेज ज्वाइन कर लिया और अपने पापा का बिज़नस भी संभाल लिया. हमारा डूबता हुआ बिज़नस मेरी दिन रात की मेहनत से कामयाब हुआ और हम तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते गए.

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पांच साल बीत गए.

अचानक एक दिन कॉलोनी में ही मुझे वो दिखी. मैंने अपनी बाइक रोकी और उसे देखा. उसने अपने दुपट्टे से अपने चेहरे को होंठों तक ढक रखा था. सिर्फ उसकी नाक और आँखें दिखाई दे रही थी. मैं बाइक से उतर कर उसके सामने जा खड़ा हुआ और कहा “गुड्डो.”

उसने मेरी तरफ देखा और उसकी आँखों में चमक उभरी.

“पहचान लिया.” दुपट्टे के अंदर से आवाज आई.

“मुझे तुमसे कुछ बात करनी है.”

“मैं जानती हूँ. मुझे भी तुमसे बहुत बात करनी है “

“चलो मेरे साथ.” इतना कह के मैंने अपनी बाइक स्टार्ट की. वो मेरे पीछे चुपचाप बैठ गई. थोड़ी देर बाद कॉलोनी के पास स्थित एक रेस्टोरेंट के सामने मैंने बाइक रोका और हम दोनों अन्दर गए और एक खाली सीट टेबल पर बैठ गए. रेस्टोरेंट में ज्यादा भीड़ नहीं थी. गर्मी काफी थी इसलिए मैंने दो लस्सी का आर्डर किया.

“इतनी गर्मी है. अब तो अपने चेहरे से ये घूंघट हटा दो.” मैं मुस्कराते हुए बोला. सच तो ये था कि उसके दुपट्टे की वजह से मैं उसका चेहरा देख नहीं पा रहा था.

“तुम मेरा चेहरा देख नहीं पाओगे पप्पू! इसलिए इसे रहने दो.” दुपट्टे के अन्दर से आवाज आई.

“तुम हटाती हो इसे या मैं हटा दू.” मैं दृढ़ स्वर में बोला.

तभी वेटर लस्सी टेबल पर रख गया.

उसने मेरी आँखों में देखा फिर आहिस्ता से अपने नाक के नीचे से दुपट्टा हटाया. मैंने हाथों को देखा. जलन के निशान मौजूद थे.

फिर मैंने उसके चेहरे पे निगाह डाली. उसके पूरे चेहरे पे निगाह पढ़ते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए. उसका गला था ही नहीं. होंठों के नीचे का मांस लटक कर गले से मिल कर एक हो गया था और पूरी चमड़ी जली हुई थी.

रेस्टोरेंट में मौजूद बाकी लोग भी उसे देख के हैरत में थे.

पांच साल पहले की हमारे स्कूल की सबसे खूबसूरत लड़की एक बदसूरत औरत के रूप में मेरे सामने मौजूद थी. मेरा जी चाहा कि मैं विधाता के इस क्रूर मजाक के लिए उसे कोसूँ और जी भर के गालियाँ दू.

मुझसे उसका गला देखा नहीं जा रहा था. ऐसा लग रहा था कोई मेरे दिल को अपनी मुट्ठी में भर कर भींच रहा हो. मेरा दिल खून के आंसू रो उठा. कैसा लगता है जब किसी की प्यारी सी सुंदर गुडिया को जला दिया जाए. रब ने भी कुछ ऐसा ही किया था मेरे साथ.

कितना दर्द सहा होगा इस मासूम सी कम उम्र लड़की ने ! उसका दर्द मेरे चेहरे पे झलक आया.

वो चुपचाप मेरा चेहरा पढ़ रही थी.

“मैंने कहा था न तुम देख नहीं पाओगे…लेकिन तुम नहीं माने.” इतना कह के उसने अपने गले को वापस दुपट्टे से ढकने की कोशिश की.

मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे ऐसा करने से रोक दिया.

“ऐसे ही रहो. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं है. हाँ, पहली बार देखा तुम्हारा ये रूप देखा इसलिए थोड़ा अजीब लगा…लेकिन चिंता मत करो. थोड़ी देर में मुझे तुम्हारे इस रूप की आदत हो जायेगी.” मैं जबरन मुस्कराता हुआ बोला.

“अभी तो तुमने मेरा आधा चेहरा और गला ही देखा है पप्पू. पूरा बदन देखोगे तो घिन आएगी तुम्हें मुझसे.” वो फीकी हंसी हंसती हुए बोली.

“अच्छा – अचानक मेरे चेहरे पे मुस्कराहट उभरी और मैं शरारत से बोला – “तो कब दिखा रही हो अपना ये खूबसूरत बदन. ऐसा करते है, पास में ही मेरा अपना फ्लैट है. चलो वहीं बेडरूम में चलते है. फिर देखते है कि मुझे घिन आती है या फिर……” मैंने वाक्य जानबूझकर अधूरा छोड़ दिया.

“धत. तुम्हें शर्म नहीं आती दो बच्चों की माँ से ऐसी बातें करते हुए. तुम तो ऐसे बेशर्म नहीं थे. स्कूल में तो शराफत सर से पाँव तक टपकती थी और अब ये बेशर्मी.” वो शरमाते हुए बोली.

मैं ठहाका मार के हंसा. आस पास के टेबल पर बैठे लोग मुझे देखने लगे.
यहीं तो मैं चाहता था कि वो अपने रूप रंग को भूल जाये और नार्मल हो जाए. धीरे-धीरे बातों ही बातों में वो सच में नार्मल होते चली गई और फिर से वो ही पुरानी गुड्डो बन गई. पांच साल वाली पुरानी गुड्डो.

“जानते हो, जब तुम बाइक से उतर कर मेरी तरफ बढे तो मैं पहली नजर में पहचान ही नहीं सकी. कहाँ वो स्कूल का दुबला पतला छड़ी के जैसा लंबा लड़का और कहाँ ये हैंडसम बांका छैल छबीला. बॉडी भी शानदार बना रखी है तुमने. जिम जाते हो न ?” उसकी हसरत भरी बातें सुन कर मैं मुस्कराया. उसकी मुस्कान और जिन्दादिली वापस आ गई थी.

“हाँ, तीन साल हो गए जिम जॉइन किये हुए. क्यों, देखनी है मेरी बॉडी, मेरे सिक्स पैक्स.” ये कह कर मैं बॉडी फुलाता हुआ खड़ा हो गया और अपने शर्ट के बटन्स खोलने लगा.

“रहने दो, ये पब्लिक के सामने ज्यादा स्मार्ट मत बनो.” वो मुझे झिड़कते हुए बोली. मैं हँसता हुआ वापस बैठ गया.

धीरे-धीरे हम लस्सी सिप करते रहे और पुरानी यादों को ताजा करते रहे. वो लव लेटर, वो थप्पड़, पूर्णिमा, शकुन्तला, जग्गू, अपने घर परिवार की बातें, अपनी दो बेटियों की बातें और पता नहीं क्या क्या….

“तुमने शादी के लिए मना क्यों नहीं किया था?” अचानक मैंने पूछा.

“कितना मना किया था! लेकिन मेरी मम्मी को तुम जानते ही हो. मेरे बाद तीन और बेटियां ब्याहने थे उनको. इसलिए आखिर में मानना पड़ा.” वो आह भर के बोली.

मैं चुप रहा.

“क्यों? तुम करते मुझसे शादी ? मुझे तो कभी पता ही नहीं चला कि तुम मुझे पसंद भी करते हो या नहीं ?” अचानक वो मुझे घूरती हुए बोली.

“तुम मेरे जिगरी दोस्त की बहन थी और जिगरी दोस्त की बहन…” मैं धीरे से बोला और वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

उसके चेहरे पे हैरानी के भाव आये.

अचानक उसने मराठी में कोई गाली दी जो मुझे समझ नहीं आई और वो लगभग चिल्लाते हुए बोली – “जिगरी दोस्त की बहन थी गधे, तो अपने जिगरी दोस्त से ही पूछ लेते कि वो तुम्हारा साला बनना पसंद करता या नहीं ? तुम्हें कितना पसंद करता था मेरा भाई… तुम मुझसे कभी बातें करते तो वो खुद ही हट जाता था वहां से. वो तो मुझे तुम्हारे साथ सेफ समझता था. वो तो खुद तुम्हें जीजा के रूप में पा के निहाल हो जाता. हद है तुम साले इंग्लिश मीडियम वालो की. तुमसे बेहतर तो हम हिंदी मीडियम वाले ही ठीक थे.”

मैं मुंह बनाये चुपचाप बैठा रहा. वो मुंबई जैसे महानगर में बड़ी हुई थी और मैं एक छोटे शहर का. मैं इतना बोल्ड हो ही नहीं सकता था.

“पता नहीं अंकल जी ने तुम्हें कभी बताया या नहीं, लेकिन फिर भी सुन लो. मैं खुद तुम्हारे पापा के पास अपना रिश्ता ले कर गई थी.”

मैं चिहुँका. ये तो बोल्डनेस की इन्तेहां थी. मेरे चेहरे पर अविश्वास के भाव आये लेकिन मैं जानता था वो झूठ नहीं बोल रही थी.

उसने मेरा चेहरा पढ़ लिया.

“पूछ लेना अंकल जी से!” वो चैलेंज भरे स्वर में बोली.

“क्या कहा था पापा ने?” मुझे अपने पापा का जवाब सुनना था.

“उन्होंने मुझे समझाया कि अभी तुम दोनों की शादी की उम्र नहीं है. कम से कम पांच साल रुक जाओ और अपने मम्मी पापा को भी मना लो. पप्पू को बालिग़ होने दो फिर मैं खुद तुम्हारे घर आऊंगा रिश्ता लेकर. मैं खुद चाहता हूँ कि तुम मेरे घर की बहू बनो. – उसने एक गहरी सांस ली और कहा – “लेकिन मेरी मम्मी पांच साल इंतजार नहीं करने वाली थी इसलिए….” वो मायूस हो कर कहती गई और मैं हैरान हो कर सुनता रहा.

“सोचि सोच न होई, जे सोचि लख वार!” मैं धीरे से बुदबुदाया.

मुझे याद आया कि वो अपनी शादी का कार्ड लेकर आई थी और कैसे पापा के गले लग के रो रही थी और पापा उसे खुश रहने की दुआ दे रहे थे.

मुझे अपने पापा पर गर्व महसूस हुआ और उसकी मम्मी पर गुस्सा भी आया.

देर हो चुकी थी, बहुत देर हो चुकी थी. काल का पहिया वापस मैं मोड़ नहीं सकता था.

अचानक मुझे कुछ याद आया और मैंने उसके उँगलियों में निगाह डाली.

“मेरी दी हुई निशानी कहाँ है? मेरी अंगूठी कहाँ है मैडम जी ?” मैं उसके चेहरे पे निगाह डालता हुआ बोला.

“वो तो उस हादसे के बाद हॉस्पिटल वालों ने निकाल ली थी और पता नहीं फिर कहाँ गया. मुझे दुबारा नहीं मिली वो अंगूठी.” उसने अफ़सोस व्यक्त किया.

“कोई बात नहीं.” मैंने उसे दिलासा दिया – “वो आठ आने की अंगूठी तुम्हारे जान से बढ़कर नहीं थी. तुम्हारी जान बच गई, वो ही काफी है.”

“अच्छा ये बताओ, तुम कब शादी कर रहे हो?”

“मैं…जल्दी ही कर लूंगा. वो क्या है कि मैं एक मराठी में गालियाँ देने वाली और गुरबानी का पाठ भी समझाने वाली मुम्बइया लड़की ढूंढ रहा हूँ. जिस दिन मिल जाएगी,उसी दिन चट मंगनी, पट शादी, तट हनीमून और झट बच्चे.” मैं मस्ती में कह तो गया लेकिन उसके चेहरे के भाव देख कर तुरंत समझ आ गया कि मैंने उसके दर्द को फिर छेड़ दिया था.

उसने मुंह फेर लिया और अपने आंसू पोछने लगी.

“सॉरी… मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाने का नहीं था.” मैं धीरे से बोला.

“हमारा क्या कुसूर था पप्पू? क्या गुनाह किया था हमने ? किस बात की सजा मिली मुझे ? आज लोग मुझे देख के मुंह फेर लेते है. बच्चे मुझे देख कर डर जाते है. अपने मुंह को छिपा कर निकलना पड़ता है मुझे. डर के, सहम के मैं घर से निकलती हूँ. आज भी पापा के लिए दवाई लेने निकली थी कि तुम मिल गये. मैंने बरसों से आइना नहीं देखा. क्यूँ मेरे साथ ऐसा किया रब ने ?” वो रो पड़ी.

मेरे पास उसके किसी भी सवाल का जवाब नहीं था. लेकिन जवाब देना बहुत ही जरुरी था.

“तुम अपने रूप रंग को लेकर इतना परेशान हो. मेरी निग़ाहों से खुद को देखो. मेरी आँखों में देखो. तुम आज भी उतनी ही हसीन हो मेरे लिए, उतनी ही खूबसूरत हो जितनी पांच साल पहले थी. और यदि यकीन न आये तो वापस जा के अपने पति को तलाक देकर, अपनी दोनों बेटियों को लेकर मेरे पास आ जाना. ये छह फुट का बांका छैल छबीला अभी भी तुम पर मरता है और यकीन करो जिंदगी भर ये इंग्लिश मीडियम वाला गधा इस हिंदी मीडियम वाली को अपने पलकों पे बिठा के रखेगा.” मैं पता नहीं कहाँ से इतना बोल गया कि मुझे भी यकीन नहीं हुआ कि ये सब मैंने कहा है.

शायद बरसों से दिल में दबी बात जुबां पर आ गई थी.

उसकी आँखों में चमक आ गई लेकिन शायद मेरी बातों पे यकीन नहीं आया.

“अब इतनी लम्बी लम्बी मत फेंको मिस्टर. मैं सच में आ जाऊंगी.” वो मुस्कराते हुए बोली.

“तुम मजाक समझ रही हो? तुम्हें यकीन नहीं आ रहा है न ? तुम एक काम करो, अपना एड्रेस मुझे दो. मैं खुद तुम्हारे ससुराल आ के बाकायदा तुम्हारी सास ससुर से तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा और दहेज़ में तुम्हारी दो प्यारी-प्यारी बेटियां मांगूंगा उनसे. साला आज तक हिस्ट्री में ऐसा किसी ने नहीं किया होगा कि कोई बहू के ससुराल जा के बोला होगा कि हे ठाकुर…ये बहू हमको दे दे रे ! बोलो…क़बूल है, क़बूल है, क़बूल है.” मैं बाकायदा सर झुका के आदाब के पोज में उसके सामने झुक गया.

वो इतनी जोर से हंसी और हंसती गई कि लोग फिर हमारी ओर देखने लगे.

फिर वो किसी तरह अपनी हंसी रोक के बोली “मेरा पति तुम्हें गोली मार देगा.”

मैं खुल के मुस्कराया और कहा “वो कुछ नहीं करेगा. मैं उसे एक्सचेंज ऑफर करूँगा न ! पांच साल पुरानी बीवी दे दो और बदले में मेरी हसीं नौजवान कड़क गर्लफ्रेंड ले लो. कोई बहुत बड़ा गधा ही होगा जो ऐसी शानदार एक्सचेंज ऑफर को ठुकराएगा.”

वो फिर हंसने लगी लेकिन अचानक ही उसकी हंसी को ब्रेक भी लग गया.

“क्या कहा तुमने? हसीं, नौजवान कड़क गर्लफ्रेंड. इतनी देर में तुमने बताया ही नहीं कि तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड भी है ? कौन है वो ? उसी के साथ ऐयाशी करने के लिए तुमने फ्लैट लिया है न कमीने ? मैं जानती थी तुम सिर्फ शराफत का ढोंग करते हो…अन्दर से तुम भी बाकी मर्दों जैसे हो !” वो तमतमाते हुए बोली. उसके इतने सारे सवालों में साफ़ साफ़ जलन महसूस किया मैंने.

वो ही सदियों पुरानी सौतिया डाह ! इस डाह को तो लगता है ख़ुदा पहले एक एसेंशियल इन्ग्रेडीयेण्ट के रूप में मिटटी में मिलाता है, फिर उस मिटटी से औरत बनाता है.

लेकिन उसकी इस अदा और तेवर में जो अपनापन था, वो मेरे दिल को गुदगुदा गई.

उसके बाद मैंने कितनी सफाई दी लेकिन वो मानने को तैयार ही नहीं हुई कि मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है. इसी तरह नोकझोंक करते करते कितना समय बीत गया, हमें पता ही नहीं चला. हम में से कोई भी जाना नहीं चाहता था लेकिन शायद उसके पास वक़्त कम था.

वो उठ खड़ी हुई.

“थैंक्यू पप्पू! तुमसे मिल के मुझे कितनी ख़ुशी हुई, मैं बयां भी नहीं कर सकती. एक बार डॉक्टर्स ने मेरी जान बचाई थी और आज तुमने मुझमें एक नई जान डाल दी. तुम्हारे साथ मैं भूल गई थी कि मैं कितनी बदसूरत हूँ. तुमने मुझे एहसास दिलाया कि मैं कितनी खूबसूरत हूँ. तुम्हारे साथ ने मुझे एहसास कराया कि खूबसूरती सामने वाले की नजर में होती है न कि किसी की शक्ल में. तुम वाकई जीनियस हो यार.” उसके बातों में झलक रही उसके आत्मविश्वास से मुझे बेहद सुकून महसूस हुआ.

वो जाने को तत्पर हुई.

“एक मिनट रुको.” मैंने उसे रोका.

उसने मेरी तरफ देखा.

मैंने अपने गले से अपनी चेन और अपनी ऊँगली से अंगूठी निकाली और उसकी ओर बढाया और कहा “ये मेरी निशानी है. इस बार इसे खोना मत चाहे कितना भी बड़ा हादसा क्यूँ न आ जाये.”

उसने सर हिला के मना किया और कहा – “ये सोने के है और बहुत कीमती है पप्पू. मैं नहीं ले सकती.”

“तुम्हारे लिए नहीं दे रहा हूँ इडियट. ये हमारी दो प्यारी प्यारी बेटियों के लिए है. कह देना एक महाबेवकूफ इंसान मिला था जिंदगी में और तुम दोनों के लिए दे गया. साला, जब देने के लिए कुछ नहीं था तो जबरदस्ती मेरी अंगूठी मांग ली और आज देने के लिए सब कुछ है तो कुछ मांग नहीं रही. क्या इंसान हो यार !” इतना कह के मैंने उसका पर्स खोला और उसके अन्दर वो दोनों चीजें रख दी.

उसकी आँखें फिर नम हो उठी.

“अब जाते-जाते एक आखिरी सवाल का जवाब दे दो. बहुत देर से पूछने की हिम्मत कर रहा था, लेकिन पूछ नहीं पा रहा था.” मैं बहुत ही विनीत स्वर में बोला.

“मैं जानती हूँ तुम क्या पूछना चाहते हो? मैं बहुत देर से इसी सवाल का इंतजार कर रही थी और हैरान थी कि अब तक तुमने ये सवाल पुछा क्यों नहीं कि आग कैसे लगी थी ?” वो बड़े ही शांत स्वर में बोली.

मैं हैरान रह गया.

“सुनो पप्पू, मैं भी तुम्हें कोई निशानी देना चाहती हूँ ताकि तुम मुझे जिंदगी भर याद रखो. बोलो, लोगे एक निशानी मेरे से ?” उसने बहुत गंभीरता से ये बात कही.

मैंने उल्लू की तरह पलकें झपकाई. मुझे कुछ समझ नहीं आया लेकिन मेरा सर सहमति में हिला.

“तुम्हारे सवाल के तीन जवाब है…पहला – क्या मैं सच में गलती से जली थी…दूसरा – क्या मैंने खुद को आग लगाईं थी और तीसरा – क्या मेरे पति ने मुझे जलाया था. मैं चाहती हूँ कि इस सवाल का जवाब तुम जिंदगी भर ढूंढो और मुझे याद करो कि आग कैसे लगी थी ? ये है मेरी दी हुई निशानी…ये सवाल…जो तुम्हें जीवन भर तुम्हें तुम्हारी गुड्डो को भूलने नहीं देगी.”

इतना कह के वो आराम से काउंटर पर पहुंची, बिल चुकाया और रेस्टोरेंट से निकल कर चल दी. उसने बाहर एक रिक्शा रुकवाया, उसपे बैठी और मेरी तरफ हाथ हिला कर मुस्कराई और रिक्शा चल दिया. उसने अपने चेहरे को ढकने की जरा भी कोशिश न की. अब वो डर और सहम उसके चेहरे पे कहीं नहीं था. वो वो ही पुरानी बोल्ड और ब्यूटीफुल सरबजीत थी. मैं रेस्टोरेंट से बाहर आया और अपनी निगाहों से दूर जाते रिक्शे को देखता रहा, जिसमें मेरी क्लास की मॉनिटर बैठी मुझसे फिर दूर जा रही थी.

फिर मैंने ऊपर कहीं अपने आसमानी पिता को देखा. एक फीकी हंसी हंसा और बुदबुदाया – “जो तुध भावे नानका, सोई भली तू कार !”

उसके बाद मैं कभी उससे मिल न पाया. ये मेरी गुड्डो से आखिरी मुलाकात थी.

आज 28 साल के बाद भी कभी-कभी मैं यही सोचता हूँ कि आग कैसे लगी थी ???

समाप्त.

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सभी टिप्पणियाँ देखें
धर्मेंद्र त्यागी

बहुत ही शानदार सुंदर और मार्मिक कहानी
परम सर की बहुत ही शानदार कहानी

परमजीत

शुक्रिया धर्मेंद्र ।

RAGHAVENDRA TYAGI

बहुत ही शानदार कहानी..?

परमजीत

बहुत बहुत शुक्रिया राघवेंद्र जी ।

Hitesh Rohilla

Bahut-e-badhiya

Paramjit

Thanks Hitesh Bhaai

विक्की

क्या भैया रुला दो आप
एक कहानी में हँसी के साथ दुःख था
इसमें दुःख ही दुःख ??
दिल छुने वाली कहाँनी
एक सवाल
करता है आसमान क्यों
इस दिल के फैसले??????

Paramjit

क्या करूँ विक्की । बस यूं समझ लो कभी कभी वक़्त और हालात ही विलेन बन जाते है । इस कहानी में भी यही है।ये मेरी तरफ से मेरी गुड्डो को एक ट्रिब्यूट है जो लिखना बहुत ही जरूरी था।

Shobhit Gupta

बहुत शानदार मार्मिक कहानी, अंत तो बहुत ही जबरदस्त है..

Paramjit

बहुत बहुत आभार शोभित भाई इस कहानी को इतना पसंद करने के लिए ☺☺

Manish Kumar

अत्यन्त भावप्रणव और मार्मिक .. मुद्दतों बाद इतना खूबसूरत पढ़ने को मिला, नॉन स्टॉप पढ़के ही ख़त्म तो कर दी, लेकिन जेहन पर हावी हो गई है

Paramjit

बहुत बहुत आभार आपका मनीष जी इस कमेंट के लिए। मैं शुक्रगुजार हूं आपका जो कहानी आपको इतना पसंद आया। उम्मीद है आगे भी मेरी लिखी कहानियां आपको पसंद आयेगी।

Manish Kumar

जी परमजीत जी, इसीलिए मैंने आपको follow और See first कर दिया है

अखिलेश गिरि

किशोरावस्था का प्यार युवावस्था में भी याद आ जाती है