अवधी और ब्रजभाषा में अंतर अवधी अर्धमागधी से विकसित कोसली अपभ्रंश से निकली है। यह लखनऊँ, उन्नाव, अयोध्या, गौंडा, बहराहच, फतेहपुर, रायबरेली आदि में बोली जाती है। ब्रजभाषा शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। यह मैनपुर, बदायूँ आदि में बोली जाती है। अवधी में इकार की प्रधानता है, ब्रजभाषा में यकार की अवधी में कर्ता का ने चिह्न नहीं मिलता, ब्रजभाषा में मिलता है। वैसे सूरदास की ब्रजभाषा में यह नहीं दिखता जिससे इसका विकास 16वीं शताब्दी के बाद प्रतीत होता है। अवधी का उ ब्रजभाषा में व हो जाता है- उहाँ <वहाँ , हुआ <हूवा अवधी में इया और उआ के बीच में क्रमशः य- श्रुति और व- श्रुति नहीं मिलती, ब्रजभाषा में मिलती हैं। सिआर < स्यार/सियार, पुआल < प्वाल, अवधी के शब्दों में दो स्वर लगातार आ सकते हैं: भइस, कउन, दुइ, दुआर। ब्रजभाषा में यह प्रवृति नहीं मिलती। इनकी जगह पर वहाँ भैंस, कौन, और, दो […]
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अवधी भक्ति काल में और उसके बाद भी हिंदी प्रदेश की एक प्रमुख साहित्यिक भाषा रही है. इसमें प्रेमाख्यानक काव्य और रामभक्ति काव्य खासतौर पर लिखे गए. उसके ये रामभक्ति काव्य और प्रेमाख्यानक काव्य हिंदी को उसकी देन हैं. रामचरित मानस तो लगभग समस्त उत्तर भारत में धर्मग्रंथ की तरह महत्व पाता रहा. तुलसी ने मानस में अवधी को विभिन्न जनपदीय भाषाई तत्वों से लैस कर एक बहुसामुदायिक भाषा के रूप में विकसित किया है. हिंदी के विकास में अवधी का योगदान महत्वपूर्ण है। अवधी की ध्वनियां भी उच्चारण की दृष्टि से बहुत सहज हैं, इसलिए अवध क्षेत्र के बाहर भी इनके उच्चारण में वक्ताओं को कठिनाई नहीं होती. जब अवधी साहित्यिक भाषा थी, तो गैर अवधी क्षेत्र के रचनाकार भी अवधी में साहित्य रचते थे और अपने क्षेत्रीय भाषाओं को उसमें उडेलते थे. इससे विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों के भाषायी तत्व तद्भव के रूप में एक खास कालखंड की अवधी […]
डा. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, अवधी के भाषायी अभिलक्षण पहली शताब्दी में ही मिलने लगे थे. वे तो सोहगौरा, रुम्मिन्देई एवं खैरागढ़ के अभिलेखों में भी अवधी में लक्षण ढूढ निकालते हैं. ये अभिलेख पहली शताब्दी के ही आसपास के हैं. बाबूराम सक्सेना भी अवधी को अर्धभागधी की तुलना में पालि के अधिक करीब मानते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि पालि अवधी में एकाएक छलांग लगा गई, बल्कि यह है कि एक लंबे अंतराल के बाद भी पालि के कतिपय अभिलक्षण अवशिष्ट रह गए हैं. अवधी‘ कुवलय माला’ की कोसली से निकली हैं, इसलिए उससे तो उसका साम्य है ही, उस दौर की अन्य रचनाओं जैसे कुमारपाल प्रतिबोध, प्रबंध चिंतामणि, प्राकृत पैंगलम आदि की भाषा से भी वह बहुत मिलती- जुलती है. इन पुस्तकों की भाषाओं में अवधी के पूर्व रूप को देखा जा सकता हैः उपर्युक्त उदाहरणों में अवधी की इकारान्तता मौजूद है. अवधी परवर्ती अपभ्रंश से ही विकसित हुई और उसने उस अपभ्रंश के बहुत सारे […]
गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई – दो बक्स, डोलची, बाल्टी। ”यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?” उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ”घरवाली ने साथ में कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।” घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया जैसे एक परिचित, स्नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था। ”कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।” गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधता हुआ बोला। ”कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी, इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।” गनेशी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ”अब आप लोग सहारा न देंगे, तो कौन देगा। आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।” गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे […]
साहित्यिक ब्रजभाषा दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास ही शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई। डा. भंडारकर के इस कथन से भी इस बात की पुष्टि होती है कि जिस क्षेत्र में6वीं- 7वीं शताब्दी में अपभ्रंश का जन्म हुआ, उसी क्षेत्र में आज ब्रजभाषा बोली जाती है। ब्रजभाषा के विकास को तीन चरणों में बाटा जा सकता है- प्रथम चरण- प्रारंभ से लेकर1525 ई. तक ; प्रथम चरण की ब्रजभषा में अपभ्रंशत्व कुछ अधिक ही है। उस समय की ब्रजभाषा अपभ्रंश से निकलने के लिए संघर्ष कर रही थी। हेमचंद्र के व्याकरण में उद्धृत दोहों तथा देशीनाममाला में संग्रहित शब्दों से ब्रजभाषा के शब्दों का विस्मयकारी साम्य है, उग्गाहिअ – उगाहना फग्गु – फाग चोट्टी – चोटी अच्छ – आछै चुक्कइ – चुक्यो विसूरइ – विसूरनो ब्रजभाषा का पूर्वरूप प्राकृत पैंगलम, षडावश्यक बालावबोध (तरूणप्रभ सूरि) , रणमल्ल छंद (श्रीधर व्यास) आदि में तो सुराक्षित है ही, वह हेमचंद्र के व्याकरण के […]
सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ। सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कहूँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा। बचपन में ही वे समय की […]
देवनागरी लिपि: उद्गम देवनागरी लिपि का उद्गम प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी से माना जाता है. 7वीं शताब्दी से नागरी के प्रयोग के प्रमाण मिलने लगते हैं. नवीं और दसवीं शताब्दी से नागरी का स्वरूप होता दिखता है। देवनागरी लिपि: नामकरण ‘नागरी’ शब्द की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में काफी मतभेद है। कुछ लोगों के अनुसार यह नाम ‘नगरों में व्यवहत’ होने के कारण दिया गया. इससे अलग कुछ लोगों का मानना है कि गुजरात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम पड़ा। गुजरात में सबसे पुराना प्रामाणिक लेख, जिसमें नागरी अक्षर भी हैं, जयभट तृतीय का कलचुरि (चेदि) संवत् 456 (ई० स० 706) का ताम्रपत्र है। गुजरात में जितने दानपत्र नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उत्तर भारतीय लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के […]
भाषा : भाषा उस यादृच्छिक, रूढ़ ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था को कहते हैं , जिसके माध्यम से मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है. यह समाज का एक अलिखित समझौता है. लिपि:- लिपि उस यादृच्छिक, रूढ़ , वर्ण प्रतीको की व्यवस्था को कहते हैं , जिसके माध्यय से भाषा को लिखित रूप दिया जाता है. भाषा और लिपि में अनिवार्य सम्बंध नहीं है. लाखों वर्षों तक भाषा बिना लिपि के ही रही है. भाषा और लिपि में अंतर क) भाषा सूक्ष्म होती है, लिपि स्थूल ख) भाषा में अपेक्षाकृत अस्थायित्व होता है, क्योंकि भाषा उच्चरित होते ही गायब हो जाती है. लिपि में अपेक्षाकृत स्थायित्व होता है. ग) भाषा ध्वन्यात्मक होती है, लिपि दृश्यात्मक. घ) भाषा सद्य प्रभावकारी होती है, लिपि किंचित विलंब से ङ) भाषा ध्वनि संकेतों की व्यवस्था है, लिपि वर्ण- संकेतों की. च) भाषा में सुर, अनुतान आदि की अभिव्यक्ति हो सकती है, लिपि में नहीं. भाषा और लिपि में समानता क) भाषा और लिपि दोनों भावाभिव्यक्ति का माध्यम हैं. ख) दोनों सभ्यता के विकास के साथ अस्तित्व में आईं. ग) दोनों का […]
अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषा के तीसरे चरण की भाषा है. अपभ्रंश शब्द का अर्थ है –भ्रष्ट या पतित. पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ‘संस्कृत के शब्दों से विलग भ्रष्ट अथवा देशी शब्दों एवं अशुद्ध भाषायी प्रयोगों’ को अपभ्रंश कहा है. दंडी और भामह अपभ्रंश का उल्लेख मध्यदेशीय भाषा के रूप में करते हैं. दंडी ने अपभ्रंश को आभीरों की बोली कहा है. दंडी के ही परवर्ती रचनाकार राजशेखर ने अपभ्रंश को परिनिष्ठित एवं शिक्षित जनों की भाषा कहा है. स्पष्ट है कि एक दौर की भ्रष्ट-गंवारू भाषा ही अगले दौर में साहित्यिक भाषा बनी. अपभ्रंश के भेद अपभ्रंश के क्षेत्रीय रूपों को देखते हुए मार्कंडेय ने इसके 27 भेदों का उल्लेख किया है. डॉ तगारे के अनुसार, अपभ्रंश के तीन भेद हैं- पूर्वी , पश्चिमी और दक्षिणी . वैयाकरणों ने भी अपभ्रंश के तीन ही भेद स्वीकार किये हैं- नागर, उपनागर और ब्राचड. नागर अपभ्रंश ही हलके अर्थभेद और क्षेत्रभेद के […]
हरभगवान मेरा पुराना दोस्त है. अब तो बड़ी उम्र का है, बड़ी-बड़ी मूंछें हैं, तोंद हैं. जब सोता है तो लंबी तानकर और जब खाता है, तो आगा-पीछा नहीं देखता. बड़ी बेपरवाह तबियत का आदमी है, हालांकि उसकी कुछ आदतें मुझे कतई पसंद नहीं. पान का बीड़ा हर वक्त मुँह में रखता है और कभी छुट्टी पर कहीं जा, तो सारा वक्त ताश खेलता रहता है. न सैर को जाता है, न व्यायाम करता है, यों बड़ा हंसमुख है, किसी बात का बुरा नहीं मानता. हमेशा दोस्तों की मदद करता है. पर एक दिन उसने मेरे साथ बड़ी अजीब हरकत की. शिमला में एक सम्मेलन होने वाला था. हम लोग उसमें भाग लेने के लिए गए. हरभगवान भी अपनी मूंछों समेत, तोंद सहलाता वहां पहुँच गया. और भी कुछ लोग वहां पहुंचे. ये सब लोग एक दिन पहले पहुँच गए, मैं किसी कारणवश दूसरे दिन पहुँच पाया. जब […]
मिस्ट्री ऑफ़ द मंथ : नवम्बर २०१७ ऑफिस में लाश अंतिम तिथि:- १५ नवम्बर, २०१७ ईशा नरूला का आज न सिर्फ मूड खराब था बल्कि वह ऑफिस पहुँचने में भी लेट हो रही थी और ऑफिस लेट पहुंचना उसकी आदतों में शामिल नहीं था। वह दोपहर १२:३५ में ऑफिस पहुँच रही थी। वह सिर्फ लेट ही नहीं हुई थी बल्कि सुबह ११:१३ AM से हो रहे मुसलाधार बारिश के कारण वह भींग भी गयी थी। उसे यह वक़्त इसलिए इसलिए याद था क्यूंकि तभी उसकी कार के सामने वाले पारदर्शी शीशे पर बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें आ कर गिरी थी और उसकी कार में लगे डिजिटल घड़ी की ओर उसका ध्यान गया था।
अशोक के फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ़ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है। लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्तुओं को हतभाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ। बताता हूँ। भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम […]
उस उमस एवं गर्मी के मई के महीने में, शाम 5 बजे ,सुब्रोजित बासु उर्फ मिकी, तीसरे कत्ल की तैयारी कर रहा था। कत्ल करते रहना कितना खतरनाक हो सकता था, उसे इस बात का पूरी तरह एहसास था। जरा सी गड़बड़ से उसकी जान पर बन आ सकती थी। लिहाजा हमेशा की तरह सोच-समझकर, प्लानिंग के साथ इसे अंजाम देने की जरूरत थी। मिकी, दिखने में पतला-दुबला, भीड़ में खो जाने लायक, मामूली शक्ल-सूरत वाला व्यक्ति था। उसके बाल थोड़े लंबे और उंगलियां पतली सी थी। एकबारगी कोई देखे तो सहज ही उसे पेंटर या लेखक मान ले। लेकिन उसे जानने वाले, बखुबी जानते थे कि वह एक दुर्दांत हत्यारा था। उसके चौड़े कंधों पर उसका मजबूत सिर, एक आला दिमाग का स्वामी था। उसे जानने वालों को, जिनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी, यह भी पता था कि अपने पेशे में मिकी के बराबर कम ही […]
बड़ा भाई होना कितनी बड़ी मुसीबत है, इसे वे ही समझ सकते हैं, जो सीधे दिखाई पड़ने वाले चालाक छोटे भाई-बहनों के जाल में फंसकर आये दिन उनकी शरारतों के लिए मेरी तरह खुद ही डांट खाते नजर आते हैं. घर में जिसे देखो वही दो-चार उपदेश दे जाता है और दो-चार काम सौंप जाता है. चाचाजी को फ़ौरन पानी चाहिए, चाचीजी को ऊपर के कमरे से ब्रुश मंगवाना है. पिताजी के मेहमानों के लिए भाग कर चौराहे से पान लाने हैं. छोटे भाई ने सुबह से जलेबी के लिए रट लगा रखी है. फिर मुझे भी अपने कपड़ों पर इस्तिरी करनी है, बस्ता लगाना है, जूते पॉलिश करने हैं और पौने नौ बजे स्कूल के लिए रवाना हो जाना है. यों हूँ तो मैं भी अभी छठी क्लास में ही, लेकिन तीन भाइयों में सबसे बड़ा होने के नाते सुबह से शाम तक चकरघिन्नी की तरह नाचता रहता हूँ. […]
नौगढ़ के टूर्नामेंट की बड़ी तैयारी की गई थी. सारा नगर सुसज्जित था. स्टेशन से लेकर स्कूल तक सड़क के दोनों ओर झंडियाँ लगाईं गई थीं. मोटरें खूब दौड़ रही थीं. टूर्नामेंट में पारितोषिक वितरण के लिए स्वयं कमिश्नर साहब आने वाले थे. इसीलिए शहर के सब अफसर और रईस व्यस्त थे. आज स्कूल के विस्तृत मैदान में दर्शकों की बड़ी भीड़ थी. नगरपालिका के सदस्य, सचिव, अध्यक्ष आदि सभी उपस्थित थे. दर्शकों में सेठों और साहूकारों का भी अभाव न था. हेडमास्टर साहब तो प्रतिष्ठित लोगों का आदर-सत्कार करने में लगे हुए थे. पर इधर लड़कों में कुछ दूसरा ही जोश फैला हुआ था. यों तो कितने ही स्कूलों से लड़के आए थे, पर होड़ दो ही स्कूलों में थी – नौगढ़ और विजयगढ़. विजयलक्ष्मी भी इन्हीं दोनों के बीच में झूल रही थी. कभी वह नौगढ़ की ओर झुकती तो कभी विजयगढ़ की ओर. सभी लड़कों के […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…