कोतवाल रामलखन सिंह अपने कमरे में कुछ उदासी भरी सोच की मुद्रा में बैठे थे. उन्होंने सपने में भी न सोचा था कि जरा से बवाल से कप्तान उन्हें लाइन हाजिर कर देगा. ऐसा भी नहीं था कि वे पहले निलंबित या लाइन हाजिर नहीं हुए थे. कई बार तो उन्होंने सिर्फ कोतवाल बने रहने के लिए और डीएसपी के प्रमोशन से बचने के लिए भी कोई न कोई कांड करवा दिया, जिससे वे थानेदार या कोतवाल ही रहें. कोतवाल के पद को लेकर उनके मन में मुगलकालीन भारत के कोतवाल जैसी छवि उतर आती थी. अक्सर वे अपनी इस मान्यता को कोतवाली में किसी खाली शाम को लोकल पत्रकारों के बीच साझा करते, “यार देखो पुलिस में सबसे पुराना असरदार पद कोतवाल का ही है. इ सब डीआईजी पीआईजी , एसपी टेसपी तो बाद में आए. अवध में नवाबों के जमाने से कहावत चली आ रही है कि, कोतवाल […]
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बाज़ार रोज़ से ज्यादा गर्म था। जिस तरफ देखो रौनक थी। डेनियल यूँ तो हर साल इंडिया आता था पर ऐसे नज़ारे उसे यहाँ कम ही देखने को मिलते थे। वो छः फिट से निकलते कद का, कोई 50 की उम्र का होते हुए भी 35 से ऊपर न लगता था। ऐसा था मानों टॉम क्रूज़ की हाइट बढ़ा दी गयी हो। उसे चावड़ी बाज़ार से निकलते ही दिल्ली बुरी और भीड़ भरी लगने लगती थी। वो दिल्ली के इस इलाके को किसी कसाई मुहल्ले सा समझता था; चारों तरफ़ मुर्गियां दौड़ रही हैं, लोग ज्यादा वजन वाली पहले खरीद रहे हैं। कोठो की श्रखलाओं से गुज़रता वो एक जगह ठिठका। पहली मंज़िल पर एक बमुश्किल 17 साल की लड़की, शरीर के ऊपरी हिस्से में न के बराबर कुछ पहने, चहलकदमी कर रही थी। ठीक उस कोठे के नीचे अच्छी खासी भीड़ जमा थी। कोई रिक्शे वाला उसी भीड़ में […]
ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे । जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी, निश्छल प्रेम-कथा कहती हो- तज कोलाहल की अवनी रे । जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया, ढीली अपनी कोमल काया, नील नयन से ढुलकाती हो- ताराओं की पाँति घनी रे । जिस गम्भीर मधुर छाया में, विश्वचित्र-पट चल माया में, विभुता विभु-सी पड़े दिखाई- दुख-सुख बाली सत्य बनी रे । श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से जहाँ सृजन करते मेला से, अमर जागरण उषा नयन से- बिखराती हो ज्योति घनी रे !
अरसा काफी लंबा गुजर चुका था. सिंदबाद के मन में यह लहर बार-बार दौड़ रही थी कि वह अपनी तिजारत को हिन्दुस्तान तक फैला दे. उसने एक दिन तय कर ही लिया कि वह हिन्दुस्तान जाएगा. उसने अपनी गठरियों में तिजारती सामान बाँध लिया. वह बसरा के लिए रवाना होने ही वाला था कि उसके पास एक आदमी दौड़ता हुआ आया. वह आदमी और कोई नहीं, वही हिंदबाद था जो बग़दाद की सड़कों पर टहलते हुए सिंदबाद के महल के नीचे आकर बैठ गया था. उसने बाइज्जत सिंदबाद को मशवरा दिया कि अब उसे समुद्री जहाज से जाने की ज़रुरत नहीं है. अब तो आपको हवाई जहाज से सफ़र करना चाहिए, वरना हिन्दुस्तान के लोग आपको निहायत पिछड़ा हुआ मानेंगे. सिंदबाद ने मशविरे के लिए हिंदबाद का शुक्रिया अदा किया और अपना साफा संभालते हुए सोच में पड़ गया कि हवाई सफ़र पता नहीं कैसा हो. लेकिन तभी सिंदबाद […]
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’ असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी! अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो, प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!
माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद् – भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे “सुल्तान” कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रुपया, माल, असबाब, जमीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे – से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा,” उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान […]
सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में – क्षात्र-धर्म के नाते सखि, वे मुझसे कहकर जाते। हुआ न यह भी भाग्य अभागा, किसपर विफल गर्व अब जागा? जिसने अपनाया था, त्यागा; रहे स्मरण ही आते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते, पर इनसे जो आँसू बहते, सदय हृदय वे कैसे सहते ? गये तरस ही खाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। जायें, सिद्धि पावें वे सुख से, दुखी न हों इस जन के दुख से, उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ? आज अधिक वे भाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। गये, लौट भी वे आवेंगे, कुछ अपूर्व-अनुपम […]
शुरू करता हूँ गणपति गणेश उर्फ़ अपने अल्ला मियाँ के नाम से, जिसने बनाया एक नन्हा सा शहर बरेली और उसमें फिट कर दिया मिर्ज़ा चोया को. हमें बचपन के मिर्ज़ा चोया और होली की मिली-जुली याद आती है तो हंसी छूट जाती है. उन दिनों हमारा भरपूर बचपन था और मिर्ज़ा चोया की जवानी. मिर्ज़ा का नाम कुछ भी रहा हो, मगर मुंह के कोने से हर समय लार की बूँदें लीक होती रहने के कारण सब लोग उन्हें मिर्ज़ा चोया कहते थे. जहाँ बेचारे ने कुछ कहने को मुंह खोला कि टप से लार चू पड़ी. लाल धारियों वाली घुटनों से नीची नेकर, बुंदकीदार ढीली-ढाली कमीज, गले में बंधा रोएँदार लार सोखने वाला बिब, पाँव में क्रिकेट वाले जूते-मोज़े, बगल में दबा बड़ा-सा गुब्बारा और हाथ में छोटा-सा बैडमिंटन रैकिट और ‘चुड़िया’ (वे शटल कॉक को चिड़िया की जगह ‘चुड़िया’ ही कहते थे) ! ऐसे थे […]
आँख मुलमुल…गाल…गुलगुल…बदन थुलथुल, मगर आवाज बुलबुल ! वे मात्र वन पीस तहमद में लिपटे, स्टूल पर उकडूं बैठे, बीड़ी का टोटा सार्थक कर रहे थे ! रह-रह कर अंगुलियों पर कुछ गिन लेते और बीड़ी का सूंटा फेफड़ों तक खींच डालते थे! जहां वे बैठे थे वहाँ कच्ची पीली ईंट का टीन से ढका भैंसों का एक तवेला था ! न कोई खिड़की न रौशनदान ! शायद उन्हें डर था कि भैंसें कहीं रोशनदान के रास्ते ख़िसक ने जाएं ! सुबह सवेरे का टाइम था और भैंसें शायद नाश्तोपराँत टहलने जा चुकी थीं ! तवेला खाली पड़ा था ! उन्होंने मुझे भर आँख देखा भी नहीं और बीड़ी चूसते हुए अंगुलियों पर अपना अन्तहीन केल्क्यूलेशन जोड़ते रहे !… मैंने उनसे सन्दलवुड चिल्डन स्कूल का रास्ता पूछा तो उनकी आंखों और बीड़ी में एक नन्ही सी चमक उभरी !…धीरे से अंगुली आकाश की ओर उठा दी गोया नया चिल्ड्रन स्कूल कहीं […]
इस देश के तमाम लोगों की तरह मुझे भी यकीन हो रहा है कि इस देश के भविष्य का निर्माण करने का काम सिर्फ फिल्मों का है। जैसा संदेश लोगों में पहुँचाना हो, वैसी फिल्म बनाकर लोगों को दिखला दीजिए – बस, दुनिया अपने-आप बदलती चली जाएगी। इधर जैसे ही मुझे फिल्मों के जरिए यह संदेश मिला, कि ‘समाज को बदल डालो’, तैसे ही मैंने अपनी समाज-सेवा को अधिक गहरे स्तर पर करने का फैसला कर लिया, और मौके की तलाश करने लगा, ताकि मैं समाज को एक ही दाँव में बदल दूँ! इस तरह के मौके रोज-रोज आते नहीं, कि आपको समाज को बदल डालने का अधिकार सब लोग देते फिरें। लेकिन आदमी लगन का पक्का हो, तो समाज एक-न-एक दिन मौका देता ही है। और इस विचार को कार्य में बदल डालने की शुरुआत मैंने रेलवे-स्टेशन से करने का शुभ संकल्प किया। ऐसा कुछ पहले से तय नहीं […]
निर्बल बकरों से बाघ लड़े¸ भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸ पैदल बिछ गये बिछौनों से॥1॥ हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ भिड़ गये सवार सवारों से। घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ तलवार लड़ी तलवारों से॥2॥ हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे॥3॥ क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ तलवार हाथ की तड़प–तड़प। हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ लेती थी बैरी वीर हड़प॥4॥ क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ हो गया पतन कर कोड़े का। भू पर सातंक सवार गिरा¸ क्षण पता न था हय–जोड़े का॥5॥ चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ लेकर अंकुश पिलवान गिरा। झटका लग गया¸ फटी झालर¸ हौदा गिर गया¸ निशान गिरा॥6॥ कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ करवट कोई उत्तान गिरा। रण–बीच अमित भीषणता से¸ लड़ते–लड़ते बलवान गिरा॥7॥ होती थी भीषण मार–काट¸ अतिशय रण से छाया था भय। था हार–जीत का पता नहीं¸ क्षण इधर विजय […]
भेड़िया क्या है’, खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ.’ मैंने उसका विश्वास कर लिया. खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि 70 के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था. उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पाँ होता था. उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी. उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान. जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था. तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह […]
मिथिला के लोक में गोनू झा वैसे ही प्रसिद्ध हैं, जैसे अकबर के दरबार में बीरबल और कृष्णदेव राय के दरबार में तेनालीराम . गोनू झा की हाजिरजवाबी और तीक्ष्ण बुद्धि बड़ी से बड़ी समस्याओं का हल सहज ही निकाल लेती है. बिहार की लोककथाओं से पढ़िए गोनू झा की चतुराई का यह किस्सा. गोनू झा की हाजिरजवाबी से खुश होकर राजा उन्हें अक्सर इनाम देते रहते थे. इस कारण लोगों को लगता था कि गोनू झा ने खूब सारे पैसे जमा कर रखे हैं. यही कारण है कि चोर भी गोनू झा के घर चोरी करने की ताक में रहा करते थे. एक रात चोरों ने गोनू झा के घर में सेंध लगा ही दी. चोर अंदर पहुँचे तो देखा कि घर के लोग जगे हुए हैं. चोरों ने गोनू झा के सोने के कमरे में रखे मिट्टी के भांडों के पीछे छिपने का ठिकाना ढूँढा और घर के […]
कल शाम को चौक में दो-चार जरूरी चीजें खरीदने गया था। पंजाबी मेवाफरोशों की दूकानें रास्ते ही में पड़ती हैं। एक दूकान पर बहुत अच्छे रंगदार,गुलाबी सेब सजे हुए नजर आये। जी ललचा उठा। आजकल शिक्षित समाज में विटामिन और प्रोटीन के शब्दों में विचार करने की प्रवृत्ति हो गई है। टमाटो को पहले कोई सेंत में भी न पूछता था। अब टमाटो भोजन का आवश्यक अंग बन गया है। गाजर भी पहले ग़रीबों के पेट भरने की चीज थी। अमीर लोग तो उसका हलवा ही खाते थे; मगर अब पता चला है कि गाजर में भी बहुत विटामिन हैं, इसलिए गाजर को भी मेजों पर स्थान मिलने लगा है। और सेब के विषय में तो यह कहा जाने लगा है कि एक सेब रोज खाइए तो आपको डाक्टरों की जरूरत न रहेगी। डाक्टर से बचने के लिए हम निमकौड़ी तक खाने को तैयार हो सकते हैं। सेब तो रस […]
बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देनेवाले प्रश्न कर बैठते हैं। अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ते हैं, तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्चे कुछ दिन तक अगर उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्सर उन्हें डॉटा करते है। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं? कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…