मिर्ज़ा चोया
शुरू करता हूँ गणपति गणेश उर्फ़ अपने अल्ला मियाँ के नाम से, जिसने बनाया एक नन्हा सा शहर बरेली और उसमें फिट कर दिया मिर्ज़ा चोया को. हमें बचपन के मिर्ज़ा चोया और होली की मिली-जुली याद आती है तो हंसी छूट जाती है. उन दिनों हमारा भरपूर बचपन था और मिर्ज़ा चोया की जवानी. मिर्ज़ा का नाम कुछ भी रहा हो, मगर मुंह के कोने से हर समय लार की बूँदें लीक होती रहने के कारण सब लोग उन्हें मिर्ज़ा चोया कहते थे. जहाँ बेचारे ने कुछ कहने को मुंह खोला कि टप से लार चू पड़ी.
लाल धारियों वाली घुटनों से नीची नेकर, बुंदकीदार ढीली-ढाली कमीज, गले में बंधा रोएँदार लार सोखने वाला बिब, पाँव में क्रिकेट वाले जूते-मोज़े, बगल में दबा बड़ा-सा गुब्बारा और हाथ में छोटा-सा बैडमिंटन रैकिट और ‘चुड़िया’ (वे शटल कॉक को चिड़िया की जगह ‘चुड़िया’ ही कहते थे) !
ऐसे थे हमारे नन्हे-मुन्ने तीस वर्षीय मिर्ज़ा चोया. शादी हो चुकी थी. घर में एक गुलगुला सा साल भर का बच्चा भी था. मिर्ज़ा की बीवी दिनभर मिर्ज़ा चोया को साफ़-सुथरा बनाए रखती थीं और गंदे बच्चों के साथ खेलने को मना करती थी.
मिर्ज़ा चोया बड़े तुनकमिजाज थे. बच्चों के साथ खेलते-खेलते बड़ी जल्दी तुनक जाते थे. बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे : ‘मिर्ज़ा चोया, घूरे पे सोया, बिल्ली ने सूंघा, तो भें भें रोया.’ मिर्ज़ा सचमुच भें भें रोना शुरू कर देते और अपने घर के दरवाजे से ही चिल्लाते: ‘बीवी बेगम ! देखिए लल्लू हमें चिढ़ा रहा है. हमारी नई वाली चुड़िया भी छीन ली.’
बीवी बेगम बेचारी नौकरानी को भेजकर मिर्ज़ा को अंदर बुला लेतीं और समझा-बुझाकर उन्हें चुप करातीं.
सुनते थे, मिर्ज़ा जब छ: साल के थे तो उन्हें छत पर बन्दर ने खदेड़ा था. मिर्ज़ा तिमंजिले से नीचे आ गिरे. गहरी चोटें आईं. भगवान ने मिर्ज़ा के प्राणों की रक्षा कर ली मगर दिमाग बेकार हो गया. डाक्टरों ने कह दिया कि उनका शरीर तो बढ़ेगा मगर दिमाग हमेशा के लिए छ: वर्ष के बच्चे का ही रह जाएगा.
मिर्ज़ा के घर में सिर्फ माँ थीं. बड़े होने पर मिर्ज़ा की शादी कर दी गई और माँ चल बसीं. बहू इतनी भली थीं कि अपने पति को बच्चों की तरह पालने लगीं. मुहल्ले के सबलोग मिर्ज़ा को बहुत स्नेह देते थे. बच्चों ने उन्हें अपनी मंडली में शामिल कर लिया था. मिर्ज़ा भी इससे खुश थे.
कभी-कभी बेचारे मिर्ज़ा उल्टा बोल जाते, तो बच्चे हँसते-हँसते लोट जाते थे. मसलन मिर्ज़ा कहते : ‘आज हमारे घर में खीर ने एक पतीला बहू बेगम बनाया है. हम अभी दो प्लेट बहू बेगम खाकर आ रहे हैं, हाँ ! बच्चे पेट पकड़कर हँसने लगते. बेचारी बहू बेगम आँखों में आंसू भरे मिर्ज़ा के बचपन पर दुखी हो उठतीं.
मिर्ज़ा कभी-कभी अपना नन्हा-सा गुलगुला बच्चा बगल में दबा लाते और कहते: ‘हमारा बच्चा है. अभी इसके दांत नहीं निकले हैं. निकल आएँगे तो खूब मूंगफली खाएगा. बहू बेगम रोज इसे दूध से नहलाकर साबुन पिलाती हैं, हाँ !’
बच्चों में हंसी का ठहाका फूट पड़ता. मिर्ज़ा खुश होकर तालियाँ बजाते और कहते: ‘बड़ा हो जाएगा तो हमारे साथ चुड़िया खेलेगा. हम इसे लाल-लाल नेकर खिलाएंगे और बिस्कुट पहनाएंगे. हाँ !’
हँसते-खेलते होली का रंगभरा त्यौहार आया. मिर्ज़ा चोया को ईद का नया नेकर पहनने में भी उतनी ही ख़ुशी होती, जितनी होली के रंगों में भीगने पर. वह कई-कई बार भीगते और बीवी बेगम कई-कई बार उनके कपड़े बदलकर बाहर भेजतीं कि वह खुश रहें.
इस बार होली पर लड़कों ने मिर्ज़ा को खूब बनाने की सोची. मिर्ज़ा बच्चों के बीच उकडूं बैठे अपने गुब्बारे में हवा भर रहे थे. गुल्लन ने बड़े प्यार से उनसे पूछा: ‘क्यों भई चोया, आपने कभी बगलोल का बच्चा देखा है?’
‘हें हें हें ! मुर्गी का बच्चा तो देखा है, पर बगलोल का बच्चा नहीं देखा. क्या खाता है? बगलोल कैसी होती है? हमें बगलोल का बच्चा दिखाइये.’
तभी गुल्लन एक बंद हांडी ले आया और मिर्ज़ा चोया के सिर पर रखकर बोला: ‘इसमें बगलोल का बच्चा बंद है. मुहल्ले से बाहर ले चलो. वहीँ देखेंगे.’
मिर्ज़ा चोया हांडी लेकर थोड़ी दूर चले ही थे कि किसी ने धीरे से डंडा मारकर हांडी फोड़ दी. हांड़ी में शीरा भरा था. मिर्ज़ा चिपचिपे शीरे से नहा गए. गुल्लन ने उन्हें तुरंत समझाया: ‘फिकर मत करो. बगलोल का अंडा बेचारा फूट गया हांडी में. हम तुम्हें दूसरा बच्चा दिखाएंगे. लाओ तुम्हारा जिस्म पोंछ दें.’
थोड़ी ही देर में हंसी के मारे सबका बुरा हाल था. मिर्ज़ा चोया के चेहरे से लेकर पेट तक रंगबिरंगे पक्षियों के पर चिपके हुए थे. गुल्लन ने पोंछने के बहाने तौलिये में लपेटे ढेरों पर उनके शरीर पर डाल दिए जो शीरे में चिपक गए और मिर्ज़ा एक बेतुके पक्षी जैसे नजर आने लगे थे. गुल्लन ने धीरे से उनके कान में कहा : ‘अब घर जाकर आईने में देखो, बगलोल का बच्चा दिखाई दे जाएगा.’
बेचारे मिर्ज़ा उचकते-फांदते घर पहुँचे और दरवाजे से ही मारे ख़ुशी के चीखे: ‘बीवी बेग़म ! दरवाजा खोलिए. आपको बगलोल का बच्चा दिखाएँगे!’
बेगम ने दरवाजा खोलते ही सिर पीट लिया. रोते-रोते भी मिर्ज़ा चोया की पक्षीनुमा सूरत देखकर उन्हें हंसी छूट गई. शाम तक बच्चे बहू बेगम के डर के मारे मिर्ज़ा की खैरियत पूछने नहीं गए.
अगले दिन मिर्ज़ा चोया नया नेकर पहने, मिठाई चुभलाते हुए खेलने आए तो बोले : ‘हें हें हें ! तुम सबने हमें बगलोल का बच्चा बना दिया. हमारी बीवी बेगम रात तक रोटी रहीं. एक भी पूड़ी नहीं खाई.’
समय बीत गया. हम बरेली छोड़कर लखनऊ में आ बसे. लगभग बीस-बाईस वर्ष निकल गए. मिर्ज़ा चोया का कोई समाचार नहीं मिला. अचानक पिछली होली हमें बरेली में मनानी पड़ी. बच्चों के साथ अभी तांगे से उतरे ही थे कि अधपके बालों वाले एक सज्जन ने पीठ पर धप्प मारा : ‘कहो भई, बगलोल के बच्चे ! बरसों बाद इधर!’
वे गुल्लन थे. उनके पास एक नौजवान पुलिस की वर्दी में सजा खड़ा था. उसने अदब से हमें सलाम किया और पाँव छुए. हमारी आँखें फट गईं; ‘अरे ! अरे, मिर्ज़ा चोया?’
‘जी नहीं, चच्चा ! मैं उनका बेटा हूँ. अब्बा को गुजरे कई बरस हो गए. वह आपको बहुत याद करते थे.’
मिर्ज़ा चोया की याद में हमारे आँसू चू पड़े. लगा कि अपना नन्हा सा बच्चा बगल में दबाए कह रहे हैं : ‘दांत निकल आएंगे तो खूब मूंगफली खाएगा. बहू बेगम इसे रोज दूध से नहलाकर साबुन पिलाती हैं.’
हम उनके घर जाकर बूढ़ी बहू बेगम से मिले. मिर्ज़ा चोया के खिलौने, नेकर, चिड़िया, बल्ला बरसों बाद अब भी वैसे ही सजे रखे थे.
April 30, 2018 @ 3:22 pm
बेहतरीन ।
March 21, 2019 @ 2:38 pm
Bahut hi umda??
March 21, 2019 @ 4:31 pm
मिर्ज़ा चोया यादगार किरदार, गज़ब।