जहरबाद

झीनी-झीनी बीनी चदरिया जैसी लोकप्रियता भले ही अब्दुल बिस्मिल्लाह के अन्य उपन्यासों को हासिल नहीं हुई हो, लेकिन पठनीयता और सामाजिक यथार्थ के प्रामाणिक अंकन की दृष्टि से उनके सभी उपन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
‘जहरबाद’ प्रकाशन की दृष्टि से अब्दुल बिस्मिल्लाह का तीसरा उपन्यास है, परंतु वस्तुतः: यह प्रथम प्रकाशित उपन्यास ‘समर शेष है’ से पूर्व की कथा है। जहरबाद एक तरह के जहरीले फोड़े को कहते हैं, जिसका जहर प्राणघातक होता है। यह कहानी भी उन्हीं लोगों की है, जिनकी ज़िंदगी एक जहरबाद की तरह टीस और जहर से भरी हुई है। ‘जहरबाद’ की कथा–भूमि मध्यप्रदेश के मंडला जिले का एक ग्रामीण अंचल ‘हिनौता’ है।
जहरबाद : कथ्य
हिनौता कथावाचक ‘मैं’ का ननिहाल है, जहाँ वह अपने माँ-बाप के साथ रहता है। ‘मैं’ का परिवार ही नहीं, बल्कि गाँव के अधिकांश परिवार आर्थिक अभाव की चक्की में पिस रहे हैं। त्रिलोचन के अनुसार, –‘इस उपन्यास में ऐसे चरित्रों का निरूपण हुआ है, जो गरीबी की रेखा के बहुत नीचे पाए जाते हैं। दरअसल जहरबाद ग्रामीण परिवेश में जीवन के अस्तित्व के लिए संघर्षरत अर्द्ध सर्वहारा लोगों की कहानी है |”
‘मैं’ की माँ टोकरी में किराने का सामान लेकर गाँव-गाँव में बेचती है, जिसके बल पर तीन व्यक्तियों के उस परिवार का जीवन चलता है। गरीबी का यह आलम है कि कुल संपत्ति के नाम पर है- “एक ओर गल्ला रखने का कुठला और उसके पीछे चूल्हा। चूल्हे के पास कुछ घडे और एक टूटा हुआ बक्सा। ऊपर कथरियों और मेरे धब्बेदार पैजामा-कमीज से अलगनी। एक ओर दीवार पर में अटका अब्बा का खाकी कोट, जो धुए और रों से चीकट हो गया था…!”
परंतु शुरू से उनकी ऐसी हालत नहीं थी। ‘मैं’ के दादा बहुत बड़े जमींदार थे। “घर में कई-कई नौकर थे, लेकिन अब्बा ने शौकिया नौकरी की थी, जंगल विभाग में। महीने में बारह रुपये मिलते थे, जिससे वे हर महीने कलकतिया धोती खरीदते थे।”
जंगल की नौकरी के कारण ही उन्हें मध्य प्रदेश आना पड़ा। जमींदारी धीरे-धीरे समाप्त होती गयी और बची-खुची जायदाद चचेरे भाइयों ने अपने नाम लिखा ली। अधिकारी से कहा-सुनी हो जाने के बाद ‘मैं’ के अब्बा ने नौकरी छोड़ दी और लुटे–पिटे अपने घर जाने की बजाय मध्य प्रदेश के उसी इलाके में रहना पसंद किया, जहाँ उनकी ससुराल भी थी।
नौकरी छोड़ने के बाद ‘मैं’ के अब्बा के पास कोई निश्चित काम-धंधा नहीं रह गया। चमड़े के कारोबार से लेकर हड्डियाँ इकट्ठी करने तक कई धंधों में हाथ आजमाने के बावजूद वे घर की बची-खुची संपत्ति नष्ट करने के अतिरिक्त, कुछ खास नहीं कर सके। पत्नी के जेवर रेहन रखकर चमड़े का व्यवसाय प्रारंभ किया, परंतु बड़े व्यापारियों के आगे कामयाब नहीं हो सके- उल्टे सारा पैसा जाने के कारण भूखों मरने की नौबत आ गयी।
कोई और विकल्प नहीं होने के कारण ‘मैं’ की अम्माँ को टोकरा उठाकर गाँव-गाँव घूमना पड़ा। जब किसी तरह घर का खर्च चलने लगा तो ‘मैं’ के अब्बा और निश्चिंत हो गए और खाली वक्त का ‘सदुपयोग’ मछलियों के शिकार में करने लगे। पत्नी द्वारा टोके जाने पर वे गाहे-बगाहे उसकी पिटाई से भी नहीं चूकते थे। इस प्रकार पिता द्वारा माँ की पिटाई ‘मैं’ के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी, जिसे वह निर्विकार भाव से देखा करता था।
पैसा कमाने के लिए कई-कई जतन किए जाते हैं। चुनाव के दिनों में राजनीतिक पार्टी के पोस्टर चिपकाए जाते हैं; इस आशा में कि, ‘हमारी पार्टी’ जीत जाएगी तो सारे दुख-दर्द मिट जाएँगे, परंतु पार्टी की जीत पर मिलते हैं- सिर्फ ग्यारह रुपये । ये ग्यारह रुपये किसी भी तरह दुख-दर्द मिटाने के लिए नाकाफी थे।
अब ‘मैं’ के अब्बा ने शहर के व्यापारी के लिए बीड़ी के पत्तों की खरीद का काम शुरू किया, परंतु, जहाँ तक पैसों का सवाल है, यहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। ‘मैं’ के अब्बा ने “अम्माँ से वादा किया था कि बकरीद में वे जरूर उनके लिए साड़ी लाएँगे । पर बार-बार दौड़ने के बावजूद लाल बाबू ने उन्हें पैसे नहीं दिए।… अब्बा ने बड़ी मिन्नतें कीं, परंतु सिवा लच्छेदार बातों और कुर्बानी के गोश्त के कुछ टुकड़ों के, उनके हाथ कुछ नहीं लगा।”
घर की स्थिति ने बालक ‘मैं’ को छोटी उम्र में समझदार बना दिया और वह स्वयं भी पैसा कमाने के प्रयत्न करने लगा। ‘खिचरी’ के दिन वह पड़ोसी साबुनलाल के साथ घर-घर जाकर अनाज माँगता है, ताकि उन्हें बेचकर अपने लिए एक गर्म स्वेटर खरीद सके, परंतु अंततः उसे एक पुराना सूती स्वेटर ही प्राप्त होता है, क्योंकि कई और चीजें घर के लिए उसके स्वेटर से ज्यादा जरूरी थीं।
वह कभी गेहूँ के कट चुके खेतों से बालियाँ बीनता है, तो कभी तेंदू के पत्ते एकत्र करता है, ताकि भोजन की कोई व्यवस्था कर सके; परंतु, इन सबके बाद भी स्थिति यह है कि भूख मिटाने के लिए उसे टेसू की जडें चबानी पड़ती हैं- “पता नहीं भूख के कारण या अपने स्वाभाविक गुण के कारण मुझे वे जडें बहुत स्वादिष्ट लगीं। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दूध की छीमियाँ चबा रहा हूँ।”
अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए सरकार ने सड़क बनवाना प्रारंभ किया, जिसमें सबको काम दिया जाने लगा। बालक ‘मैं’ भी अपने पिता के साथ काम पर जाने लगा। वह काम पर जाने वाला अकेला बालक नहीं था, बल्कि कई माता-पिता अपने उन बच्चों को काम पर ले जा रहे थे, जिनके खेलने के दिन भी अभी खत्म नहीं हुए थे। ये बच्चे खेलने की बजाय मजदूरी कर रहे थे, ताकि घर के लिए राशन जुटा सकें।
भूख और गरीबी ने इन बच्चों को असमय ही उनके बचपन से जुदा कर दिया था- “शाम को जब उछलते-कूदते, गीत अलापते हुए, घर लौटते वक्त सभी लोग मस्ती के आलम में होते, तब मैं अपने हाथों को छाती पर दबाए ठिठुरता हुआ अब्बा के पीछे खामोश चलता होता था। ऐसा लगता था मानो मेरे भीतर का बचपना निःशेष हो गया हो।
कभी-कभी मैं सोचा करता था कि यदि खेतों में पैदावार हुई होती तो बजाय सड़क पर पत्थर ढोने के मैं खेतों से खरिहानी वसूलता और बाकी समय में गेंद खेलता या खेतों में जब चने के पौधे तैयार हो जाते तो लड़के लड़कियों के साथ वहाँ जाकर चना-भाजी खाता। लेकिन अपने ही विचारों से मैं पीड़ित होकर उदास हो जाता।”
सड़क का काम खत्म होने के बाद ‘अब्बा’ ने हड्डियाँ खरीदने का काम प्रारंभ किया। बालक ‘मैं’ भी ममेरे भाई रफीक के साथ हड्डियाँ इकट्ठा करने के काम में लग गया और हड्डियों के बोरे के साथ पिता के समक्ष पहुँचा, ताकि उन्हें तुलवा कर पैसे प्राप्त कर सके-
“रफीक भैया के साथ मुझे देखकर अब्बा चौंके। उन्हें अब तक शायद यह नहीं मालूम था कि मैं भी हड्डियाँ बीनने जैसा घृणित काम करके आया हूँ। लेकिन उस वक्त मेरे चेहरे की जो हालत थी, वही शायद मेरी पोल खोले दे रही थी। अब्बा दुखी हो उठे ।…
… मैं अपने ही बाप के सामने एक मजूर के रूप में खड़ा था… यह मेरे अब्बा का दोष था या मेरा, मैं समझ नहीं सका। शायद अब्बा भी इस चीज को समझ नहीं पा रहे थे। आश्चर्य तो मुझे इस बात का हुआ कि वे मुझ पर नाराज नहीं हुए। यथार्थ शायद बहुत ज्यादा कठोर हो गया था।”
हैरत की बात यह है कि जिस कठोर यथार्थ को ‘मैं’ महसूस कर रहा था और उससे लड़ने की कोशिश कर रहा था, उसे उसके अब्बा महसूस नहीं कर पा रहे थे या फिर जान बूझ कर उस कठोर यथार्थ से आँखें चुरा रहे थे। अपनी हर नाकामी का ठीकरा पत्नी के सिर पर फोड़ना और बात बे बात उसकी पिटाई करना उनकी आदत बन गयी थी-
“अब्बा एकदम से जानवर हो गए थे। फिर अम्माँ के शरीर पर लगातार लातों, और जूतों का प्रहार होने लगा, मगर वे चुप थीं। उन्होंने न कोई प्रतिवाद किया, न किसी प्रकार की सफाई दी। वे चीखी-चिल्लायी भी नहीं। जब तक अब्बा थक नहीं गए, अम्माँ को कुचलते रहे और वे निर्विरोध पिटती रहीं।”
पिटाई का यह सिलसिला धीरे-धीरे तलाक तक जा पहुँचता है। ‘मैं’ की नजर में इसके पीछे भी आर्थिक कठिनाइयाँ ही थीं- “दोपहर होते-होते हमारी परछी में काफी लोग जमा हो गए थे। साथ ही बाहर भी औरतों-मर्दों की अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी और मैं देख रहा था कि किस प्रकार आर्थिक कठिनाइयों से संघर्ष करता हुआ कोई परिवार अंततः एक तमाशा बन कर रह जाता है।”
वस्तुतः इन सबके पीछे कारण सिर्फ आर्थिक अभाव ही नहीं है, बल्कि पुरुषवादी सामंती मानसिकता भी है। ‘मैं’ के अब्बा को यह बर्दाश्त नहीं कि उसकी पत्नी उसके कार्यों पर टीका-टिप्पणी करे, भले ही वह पत्नी की कमाई खा रहा हो। अगर पत्नी की जुबान ज्यादा खुल रही है तो उसे चुप कराने का सबसे अच्छा इलाज है पिटाई। इससे भी बात न बने तो तलाक का’ हथियार है ही।
एक से अधिक शादियाँ करना या अपनी पत्नी को तलाक देना ‘मैं’ के अब्बा के लिए नया काम नहीं था- “दादा ने दो शादियाँ की थीं और अब्बा ने चार। पहली बीवी को तलाक दिया, दूसरी मर गयी, तीसरी को पुन: तलाक दिया और अम्माँ चौथी बीवी के रूप में आयीं |””
निश्चय ही पहली बीवियों को तलाक देने के पीछे आर्थिक कारण नहीं थे, क्योंकि उन दिनों वे जंगल विभाग की अच्छी नौकरी में थे। ‘मैं’ की अम्माँ को भी तलाक देने के पीछे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण थे पुरूषवादी अहं और अनमेल विवाह के कारण उत्पन्न संदेह।
‘मैं’ के अब्बा को यह संदेह था कि उसकी पत्नी उसके बुढ़ापे का नाजायज फायदा उठा रही है– “मैं बूढ़ा हूँ, इसका मतलब यह तो नहीं कि कुछ समझता नहीं हूँ। मेरे बुढ़ापे का वह नाजायज फायदा उठाना चाहती है, मैं इसे कतई बर्दाश्त नहीं करूँगा।””
‘मैं’ की अम्माँ की सहेली फुलझर का प्रेम-संबंध गाँव के ही युवक लोखरी के साथ था। मैं की अम्माँ इन दोनों के बीच मध्यस्थ का काम करती थी तथा कभी-कभी उन्हें मिलने के लिए अपने घर में स्थान भी उपलब्ध करा देती थी। इसी कारण लोखरी यदा-कदा ‘मैं’ के यहाँ आया करता था। इस बात ने ‘मैं’ के अब्बा के संदेह को और भड़का दिया और बात अंततः तलाक तक पहुँच गयी।
मैं’ की अम्माँ तलाक के बाद ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकी और जल्दी ही अपनी उपेक्षित बहिष्कृत जिंदगी से मुक्ति पा गयी। किनारा कर लिया उस संसार से जिसने चरित्रहीनता का बिल्ला लगा कर उसे बहिष्कृत कर दिया था।
लेखक ने ‘मैं’ की अम्माँ के माध्यम से इस पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की दुरवस्था को भली-भाँति चित्रित किया है- “एक घाटी में पकरी के एक पेड़ के नीचे अम्माँ टेढ़ी-मेढ़ी होकर पड़ी थीं। मुँह उनका खुला था और कत्थे रंगे दाँत फैले हुए थे। पेट पिचक गया था तथा टाँगो पर से धोती सरक गयी थी। उनके विषैले जिस्म पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और रह-रह कर पकरी के कच्चे फल उनके निस्पंद शरीर पर पट-पट गिर रहे थे।”
जहरबाद सिर्फ “मैं’ या उसके परिवार की कथा नहीं है, बल्कि इस रुग्ण समाज की कथा है। समाज, जिसका जख्म नासूर बन गया है। ‘मैं’ के शब्दों में, “जिसे मैंने छोटा-सा फोड़ा भर समझ रखा है वह भीतर ही भीतर काफी दूर तक फैल गया है। ऊपर से भले ही वह शुष्क दिखाई दे रहा हो पर उसकी तह में मर्मांतक टीसें भरी हुई हैं, उसकी पर्तों में जहरीले कीड़े बिलबिला रहे हैं। वह फोड़ा-वह जहर ही हमारा जीवन है, जिसे हम किसी मजबूरी की भाँति जी रहे हैं।”
समूचे जीवन में जहर फैल गया है, फिर भी जिंदगी नहीं रुकती। जीवन के कठोर यथार्थ के बीच ऐसे पल आते रहते हैं, जो कुछ पल के लिए सारे दुख भुला देते हैं। लेखक गाँव में होने वाले तीज–त्यौहार, नाच-गानों का बारीकी के साथ वर्णन करता है।
कैसे हैं ये इंसान और कैसी है इनकी जिजीविषा, जो तमाम दुखों के बीच भी इन्हें हँसने–गाने की ओर प्रवृत्त करती है। माँदर और चिकारा की गूँजें अभावों की पीड़ा को अपने साथ उड़ा ले जाती हैं। लेखक ने शैला–रीना, करमा जैसे लोकनृत्यों एवं मडुई, खुजलैयाँ, फुलरा जैसे स्थानीय उत्सवों का विस्तार से वर्णन किया है । स्थानीय भाषा का प्रयोग जहरबाद के कथ्य को प्रामाणिकता प्रदान करता है।
बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से जहरबाद
जहरबाद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है, बाल मनोविज्ञान का सफल प्रयोग। पूरी कथा बालक ‘मैं’ की दृष्टि से कही गयी है। माता-पिता के संबंधों का बालक मैं’ पर प्रभाव, दोनों के प्रति उसकी सहानुभूति और कभी-कभी दोनों के प्रति क्रोध- ये सभी प्रसंग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत विश्वसनीय बन पड़े हैं।
लोखरी और फुलझर का प्रेम-प्रसंग तथा उनके प्रति बालक ‘मैं’ के विचारों को लेखक ने विस्तार से चित्रित किया है। कैशौर्य की ओर बढते ‘मैं’ का फुलझर के प्रति आकर्षित होना अत्यंत सहज है। लोखरी के प्रति उसकी नापसंदगी का कारण भी यही है कि लोखरी फुलझर का प्रेमी है। कैशोर्य की ओर बढ़ते बालक के ये विचार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत विश्वसनीय हैं।
अपनी ममेरी बहन शहीदन के साथ ‘मैं के संबंधों को इस दृष्टि से देखा जा सकता है- “चूंकि शहीदन उम्र में मुझसे काफी बड़ी थी इसलिए और मामलों में वह मुझसे अधिक जानती थी। अतएव कभी-कभी वह मुझे छेड़ा भी करती थी, जिससे मेरे भीतर भी विचित्र प्रकार का तनाव उत्पन्न होने लगता था।”
कटु दांपत्य संबंधों के कारण परस्पर विरक्त माँ-बाप बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते, जिससे बच्चे आसानी से कुसंगति की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। माँ-बाप की लापरवाही के कारण ‘मैं’ भी चोरी करने, बीड़ी पीने और ताश खेलने जैसी गंदी आदतें सीख रहा था, जिसे लेखक पूरी मनोवैज्ञानिक समझ के साथ चित्रित करता है।
इस प्रकार लेखक ने एक विकासमान बालक के जीवन में घटने वाली हर अच्छी–बुरी घटना को पूरी सच्चाई एवं तन्मयता के साथ चित्रित किया है। इसी कारण जहरबाद इतना विश्वसनीय उपन्यास बन पड़ा है।
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April 20, 2020 @ 11:09 am
Shayad ye kathan sahi hai ki abhaav se manav ka swabhav badalta hai.
Apni kamia dhakne k liye hinsa ko dhaal banaya gaya hai.
March 30, 2022 @ 10:36 pm
जहरबाद फोड़ा हो या नासूर, परंतु इसे लिखा है अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब ने डूब कर . `झीनी झीनी बीनी चदरिया `भी इसी तरह का उपन्यास है.झीनी झीनी बीनी चदरिया बुनकर की दुरावस्था, बेबसी को दिखाता है . मगर ज़हरबाद एक अंचल विशेष के माध्यम से भारत के ग्रामीण अंचलों की तस्वीर प्रस्तुत करता है .दूसरे रूप में 2020 के कोरोना- संकट में भारतभर केसड़कों , पटरियों पर,पुलिस द्वारा पीटे जाने और अपने ही राज्य की बंदसीमा में घुसने की जद्दोजहद में देखा गया था . इतनी दुरावस्था कि भूख बीमारी मानी जाए .पेट के लिए दाना खोजने में ही पूरी जिंदगी गुजर जाए और पूरी जिंदगी की दूरी एकमात्र भूख ही रह जाए .
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक का यह उपन्यास है तब तक आजादी के स्वर्ण जयंती मनाने के लिए भारत बेताब था .विश्व ग्राम बन रहा है .भारत भी उदारीकरण की ओर बढ़ गया है.परंतु भारत के अधिकांश ग्रामीण अर्थशास्त्र इन्द्रके कोप और कृपा पर ही निर्भर है. जंगल और खेत भी अब इन भूखे- नंगे के पेट भरने में लाचार दिख रहा है . दूसरी और तीसरी ( कपड़ा और घर) आवश्यकता की बात ही क्या.मनुष्य की लालसा , उम्मीदें देह के साथ हीचली जा रही है.विकास की घोषणाएं ढिंढोरें ही बन जाते हैं. उल्टे विकास के ठेकेदार और लफंगे बहन ,बेटियों की इज्जत लूटते हुए उन्हें भिखारिनी/ उपेक्षितों की ही श्रेणी में पहुंचा देता है.और यह स्थिति लगातार उपन्यास की शुरुआत ( यानी जीवन की शुरुआत ) से ही अंतिम तक बद से बदतर होती जा रही है. कहानी में सब कुछ है. ग्रामीण संस्कृति, पर्व- त्योहार, उल्लास, उल्लास की खोज आंचलिक नृत्य- संगीत तथा पंच, पंचायतऔर उसकी विशेषता कमियाँ सब. पुरुष पुरुष का अहं, बहुविवाह, तलाक स्त्री जाति की लाचारी- बेबसी सब कुछ. और इसके बीच की धुरी फिर भी निहायत गरीबी ही है और गरीबी से उत्पन्न ज़हरबाद जो धीरे- धीरे जीवन के रस और जीवन के सारे रिश्ते को छीज- छीजकर दर्द में ही विलीन कर देता है. रही सही कसर धार्मिक- सामाजिक पुरानी प्रथा तलाक पूरा कर देता है. पति- पत्नी पुत्र आमने – सामने एक ही जगह रहते हुए भी तलाक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है कि न देने वाले,न लेने वाली और न उन दोनों से जन्मे पुत्र को एक पल चैन से दम लेने देता है. यह उपन्यास `एक चादर मैली सी( राजेंद्र सिंह बेदी )की याद दिलाता है.लगता है लेखक कबीर से ज्यादा प्रभावित है.उनका वर्णन यह भी सिद्ध करता है निराश- हताश – निराश्रित मनुष्यों को कबीर के पद किस तरह सुकून देते हैं.इसलिए कबीर के पद में ये अपने दुख मिलाकर भी गाते चलते हैं.