रस सिद्ध और मैथिली कोकिल के नाम से विख्यात विद्यापति आदिकालीन कवियों में अन्यतम हैं. संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली – तीनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले विद्यापति अपनी रचनाओं में रसिक, चिंतक और भक्त की भूमिकाओं का समुचित निर्वाह करते नजर आते हैं. संस्कृत में पुरुष परीक्षा, भू परिक्रमा, शैव सर्वस्व सार, गंगा वाक्यावली आदि ; अवहट्ट में कीर्तिलता और कीर्तिपताका तथा मैथिली में पदावली उनकी रचना यात्रा के कीर्ति स्तंभ हैं. पदावली तो आज भी मिथिला क्षेत्र में विदापत के रूप में लोक जिह्वा पर विराजमान है. भाषा ही नहीं, वर्ण्य विषयों की दृष्टि से भी विद्यापति संधियों के कवि हैं. भक्ति और श्रृंगार – दोनों रसों का मणिकांचन संयोग इनकी कविताओं में मिलता है. डॉ शिवप्रसाद सिंह के अनुसार, “विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं, वे दरबारी होते हुए भी जन-कवि हैं, शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं, शैव या शाक्त या वैष्णव होते हुए […]
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प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा की कहानी दुविधा पर हिन्दी में दो फ़िल्में बनी हैं. 1973 में मणि कौल ने दुविधा के नाम से ही पहली फिल्म बनाई ,जिसे वर्ष 1974 का Filmfare Critics Award for Best Movie भी प्राप्त हुआ. मणि कौल को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. मलयालम फिल्मों के अभिनेता रवि मेनन और रईसा पद्मसी (प्रख्यात चित्रकार अकबर पद्मसी की पुत्री ) ने इस फिल्म में केन्द्रीय भूमिकाएँ निभाई थीं. 2005 में अमोल पालेकर ने दुविधा का रीमेक पहेली के नाम से बनाया, जिसमें शाहरुख़ खान और रानी मुखर्जी ने केन्द्रीय भूमिकाएँ निभाईं. एक धनी सेठ था. उसके इकलौते बेटे की बरात धूमधाम से शादी सम्पन्न कर वापस लौटते हुए जंगल में विश्राम करने के लिए रुकी. घनी खेजड़ी की ठण्डी छाया. सामने हिलोरें भरता तालाब. कमल के फूलों से आच्छादित निर्मल पानी. सूरज सर पर चढ़ने लगा था. जेठ की […]
(1) लाजवंती के यहाँ कई पुत्र पैदा हुए; मगर सब-के-सब बचपन ही में मर गए. आखिरी पुत्र हेमराज उसके जीवन का सहारा था. उसका मुंह देखकर वह पहले बच्चों की मौत का ग़म भूल जाती थी. यद्यपि हेमराज का रंग-रूप साधारण दिहाती बालकों का-सा ही था, मगर लाजवंती उसे सबसे सुंदर समझती थी. मातृ-वात्सल्य ने आँखों को धोखे में डाल दिया था. लाजवंती को उसकी इतनी चिंता थी कि दिन-रात उसे छाती से लगाए फिरती थी; मानो वह कोई दीपक हो, जिसे बुझाने के लिए हवा के तेज़ झोंके बार-बार आक्रमण कर रहे हों. वह उसे छिपा-छिपाकर रखती थी, कहीं उसे किसी की नज़र न लग जाय. गाँव के लड़के खेतों में खेलते फिरते हैं, मगर लाजवंती हेमराज को घर से बाहर न निकलने देती थी. और कभी निकल भी जाता, तो घबराकर ढूँढने लग जाती थी. गाँव की स्त्रियाँ कहतीं- “हमारे भी तो लड़के हैं, तू ज़रा सी बात […]
राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बसा एक छोटा-सा गाँव था ‘नरसी की ढाणी’।राजस्थान के और गाँवों की तरह यहाँ भी पानी की बहुत कमी थी।गाँव की बहू-बेटियाँ सिर पर घड़े रखकर दूर-दूर से पानी लाती थीं। इसी गाँव की एक बींदणी थी-सुनेली।घर का सारा काम-काज और दूर से पानी भरकर लाना, शाम तक सुनेली थककर चूर हो जाती थी।पानी लाने की परेशानी से बचने के लिए गाँव का एक परिवार ‘बंजारे के कुएँ’ पर जाकर रहने लगा।सुनेली चाहती थी कि उसका परिवार भी किसी कुएँ के पास जाकर डेरा जमाए।परिवार के लोग अपने पुरखों की ढाणी छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते थे।बेचारी सुनेली मन मारकर रह जाती थी। एक दिन की बात है,सिर पर पानी का घड़ा उठाये मन में कुछ गुनती-विचारती अनमनी-सी सुनेली ढाणी को लौट रही थी।खेजड़े के पेड़ के नीचे साँस लेने रुकी तो उसकी नजर जड़ पर पड़ी।वहाँ उसे गीली-मिट्टी दिखाई दी। ‘ऊँह, ये उँदरे […]
प्रेमचंद ने तोल्स्तोय की कई कहानियों का भारतीयकरण किया है. इन्हें अनुवाद कहने की जगह भावानुवाद कहना ज्यादा सही होगा. प्रस्तुत है ऐसी ही एक कहानी Two Old Men का भावानुवाद एक गांव में अर्जुन और मोहन नाम के दो किसान रहते थे. अर्जुन धनी था, मोहन साधारण पुरुष था. उन्होंने चिरकाल से बद्रीनारायण की यात्रा का इरादा कर रखा था. अर्जुन बड़ा सुशील, साहसी और दृढ था. दो बार गांव का चौधरी रहकर उसने बड़ा अच्छा काम किया था. उसके दो लड़के तथा एक पोता था. उसकी साठ वर्ष की अवस्था थी, परन्तु दाढ़ी अभी तक नहीं पकी थी. मोहन प्रसन्न बदन, दयालु और मिलनसार था. उसके दो पुत्र थे, एक घर में था, दूसरा बाहर नौकरी पर गया हुआ था. वह खुद घर में बैठाबैठा बढई का काम करता था. बद्रीनारायण की यात्रा का संकल्प किए उन्हें बहुत दिन हो चुके थे. अर्जुन को छुट्टी ही नहीं मिलती […]
बड़ी देर के वाद – विवाद के बाद यह तय हुआ कि सचमुच नौकरों को निकाल दिया जाए. आखिर, ये मोटे-मोटे किस काम के हैं! हिलकर पानी नहीं पीते. इन्हें अपना काम खुद करने की आदत होनी चाहिए. कामचोर कहीं के. “तुम लोग कुछ नहीं! इतने सारे हो और सारा दिन ऊधम मचाने के सिवा कुछ नहीं करते.” और सचमुच हमें खयाल आया कि हम आखिर काम क्यों नहीं करते? हिलकर पानी पीने में अपना क्या खर्च होता है? इसलिए हमने तुरंत हिल-हिलाकर पानी पीना शुरु किया. हिलाने में धक्के भी लग जाते हैं और हम किसी के दबैल तो थे नहीं कि कोई धक्का दे, तो सह जाएँ. लीजिए, पानी के मटकों के पास ही घमासान युद्ध हो गया. सुराहियाँ उधर लुढ़कीं. मटके इधर गये. कपड़े भीगे, सो अलग. ‘यह भला काम करेंगे.‘ अम्मा ने निश्चय किया. “करेंगे कैसे नहीं! देखो जी! जो काम नहीं करेगा, उसे रात […]
अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि माना जाता है. इस भाषा का हिन्दवी नाम से उल्लेख सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं में मिलता है. हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी रचनाएं ही हैं. अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद का उपनाम खुसरो था, जिसे दिल्ली के सुलतान ज़लालुद्दीन खिलज़ी ने अमीर की उपाधि दी. उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्द हूं. अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो. मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा.’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं.)’’ अमीर खुसरो को दिल्ली सल्तनत का राज्याश्रय हासिल था. अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्तानों का सत्ता-संघर्ष देखा था,लेकिन राजनीति का हिस्सा […]
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल नाम दिया है. इसके लिए तर्क देते हुए वो कहते हैं- “ राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंध परंपरा ‘रासो‘ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने, ‘वीरगाथाकाल‘ कहा है। प्रवृत्ति के निर्धारण के लिए भी आचार्य शुक्ल ने दो कसौटियां निर्धारित की हैं: (क) विशेष ढंग की रचना की प्रचुरता (ख) विशेष ढंग की रचना की लोक प्रसिद्धि आदिकाल की समयसीमा में शुक्लजी ने हिन्दी भाषा की 12 रचनाएँ ढूंढ कर सामने रखी हैं- 1) खुमाण रासो 2) विजयपाल रासो 3) हम्मीर रासो 4) परमाल रासो (आल्हा) 5) बीसलदेव रासो 6) पृथ्वीराज रासो 7) जयचंद्र प्रकाश 8) जयमयङ्क जसचन्द्रिका 9) कीर्तिलता […]
राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘काव्यधारा’ में 7वीं सदी के अपभ्रंश के कवि सरहपा को हिन्दी का पहला कवि माना है. डॉ रामकुमार वर्मा हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ संवत् 750 से मानते हैं. जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार, हिन्दी साहित्य की शुरुआत संवत् 700 (643 ई) से होती है. स्पष्टतया, अधिकांश विद्वान अपभ्रंश के उस दौर से प्रारम्भिक हिन्दी की शुरुआत मानते हैं, जहाँ सहायक क्रियाओं और परसर्गों का विकास साफ़ परिलक्षित होने लगता है. हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की पहली कोशिश फ्रांस के गार्सा द तासी ने की. तासी रचित ‘इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी’ का प्रथम भाग 1839 में और द्वितीय भाग 1847 में प्रकाशित हुआ. 1883 ई में शिवसिंह सेंगर का शिवसिंह सरोज प्रकाशित हुआ. इसमें लगभग एक हज़ार कवियों की रचनाओं और उनके जीवन का संक्षिप्त परिचय मिलता है. इस लिहाज़ से यह पुस्तक साहित्येतिहास से ज्यादा कविवृत्तसंग्रह है. इसी पुस्तक को आधार बनाकर जॉर्ज […]
“माँ जी!…हाय!माँ जी!…हाय!” एक बार,दो बार,पर तीसरी बार,”हाय हाय!” की करुण पुकार सावित्री सहन न कर सकी।कार्बन पेपर और डिजाइन की कॉपी वहीं कुर्सी पर पटककर शीघ्र ही उसने बाथरूम के दरवाजे से बाहर खड़े कमल को गोद में उठा लिया और पुचकारते हुए कहा,”बच्चे सवेरे-सवेरे नहीं रोते।” “तो निर्मला मेरा गाना क्यों गाती है,और उसने क्यों मेरी सारी कमीज छींटे डालकर गीली कर दी है?” स्नानागार में अभी तक पतली आवाज में निर्मला गुनगुना रही थी,”एक…लड़का….था….वह…रोता..रहता।” “बड़ी दुष्ट लड़की है।नहाकर बाहर निकले तो सही,ऐसा पीटूँ कि वह भी जाने।”माँ से यह आश्वासन पाकर कमल कपड़े बदलने चला गया। न जाने कितनी मंगल कामनाओं,भावनाओं और आशीर्वादों को लेकर सावित्री ने अपने भाई के जन्म दिन पर उपहार भेजने के लिए एक श्वेत रेशमी कपड़े पर तितली का सुन्दर डिज़ाइन सोचा है।हलके नीले,सुनहरे और गहरे लाल रंग के रेशम के तारों के साथ-ही-साथ जाने कितनी […]
यह मैंने आज ही जाना कि जिस सड़क पर एक फुट धूल की परत चढ़ी हो, वह फिर भी पक्की सड़क कहला सकती है. पर मेरे दोस्त झूठ तो बोलेंगे नहीं. उन्होंने कहा था कि पक्की सड़क है, साइकिल उठाना, आराम से चले आना. धूल भी ऐसी-वैसी नहीं. मैदे की तरह बारीक होने के कारण उड़ने में हवा से बाजी मारती थी. मेरी नाक को तो उसने बाप का घर समझ लिया था. जितनी धूल इस समय मेरे बालों में और कपड़ों पर जमा हो गई थी, उतनी से ब्रह्मा नाम का कुम्हार मेरे ही जैसा एक और मिट्टी का पुतला गढ़ देता. पाँच मील का रास्ता मेरे लिए सहारा रेगिस्तान हो गया. मेरी साइकिल पग-पग पर धूल में फँसकर खुद भी धूल में मिल जाना चाहती थी. मैंने इतनी धूल फांक ली थी कि अपने फेफड़ों को इस समय बाहर निकालकर रख देता तो देखने वाले समझते कि […]
लगभग 35 साल का एक खान आंगन में आकर रुक गया । हमेशा की तरह उसकी आवाज सुनाई दी – ”अम्मा… हींग लोगी?” पीठ पर बँधे हुए पीपे को खोलकर उसने, नीचे रख दिया और मौलसिरी के नीचे बने हुए चबूतरे पर बैठ गया । भीतर बरामदे से नौ – दस वर्ष के एक बालक ने बाहर निकलकर उत्तर दिया – ”अभी कुछ नहीं लेना है, जाओ !” पर खान भला क्यों जाने लगा ? जरा आराम से बैठ गया और अपने साफे के छोर से हवा करता हुआ बोला- ”अम्मा, हींग ले लो, अम्मां ! हम अपने देश जाता हैं, बहुत दिनों में लौटेगा ।” सावित्री रसोईघर से हाथ धोकर बाहर आई और बोली – ”हींग तो बहुत-सी ले रखी है खान ! अभी पंद्रह दिन हुए नहीं, तुमसे ही तो ली थी ।” वह उसी स्वर में फिर बोला-”हेरा हींग है मां, हमको तुम्हारे हाथ की बोहनी लगती है […]
पंडित शादीराम ने ठंडी साँस भरी और सोचने लगे-क्या यह ऋण कभी सिर से न उतरेगा? वे निर्धन थे,परंतु दिल के बुरे न थे।वे चाहते थे कि चाहे जिस भी प्रकार हो,अपने यजमान लाला सदानंद का रुपया अदा कर दें।उनके लिए एक-एक पैसा मोहर के बराबर था।अपना पेट काटकर बचाते थे,परंतु जब चार पैसे इकट्ठे हो जाते,तो कोई ऐसा खर्च निकल आता कि सारा रुपया उड़ जाता।शादीराम के हृदय पर बर्छियाँ चल जाती थीं।उनका हाल वही होता था,जो उस डूबते हुए मनुष्य का होता है,जो हाथ-पाँव मारकर किनारे तक पहुँचे और किनारा टूट जाए।उस समय उसकी दशा कैसी करुणा-जनक,कैसी हृदय-बेधक होती है।वह प्रारब्ध को गालियाँ देने लगता है।यही दशा शादीराम की थी। इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए,शादीराम ने पैसा बचा-बचाकर अस्सी रूपये जोड़ लिए।उन्हें लाला सदानंद को पांच सौ रूपये देने थे।इन अस्सी रूपये की रकम से ऋण उतारने का समय निकट प्रतीत हुआ।आशा धोखा दे रही थी।एकाएक […]
एक बात मैं शुरु में ही कह दूँ. इस घटना का वर्णन करने से मेरी इच्छा यह हरगिज़ नहीं है कि इससे चचा छक्कन के स्वभाव के जिस अंग पर प्रकाश पड़ता है, उसके संबंध में आप कोई स्थाई राय निर्धारित कर लें. सच तो यह है कि चचा छक्कन से संबंधित इस प्रकार की घटना मुझे सिर्फ़ यही एक मालूम है. न इससे पहले कोई ऐसी घटना मेरी नज़र से गुजरी और न बाद में. बल्कि ईमान की पूछिए तो इसके विपरीत बहुत – सी घटनाएँ मेरे देखने में आ चुकी हैं. कई बार मैं खुद देख चुका हूँ कि शाम के वक्त चचा छक्कन बाज़ार से कचौरियाँ या गँड़ेरियाँ या चिलगोज़े और मूंगफलियाँ एक बड़े-से रुमाल में बांध कर घर पर सबके लिए ले आए हैं. और फिर क्या बड़ा और क्या छोटा, सबमें बराबर – बराबर बाँटकर खाते-खिलाते रहे हैं. पर उस रोज़ अल्लाह जाने क्या बात […]
ब्रजभाषा और खड़ी बोली का अन्तर ब्रजभाषा मथुरा, वृंदावन, आगरा, अलीगढ़ में बोली जाती है, खड़ी बोली मेरठ, सहारनपुर एवं हरियाणा के उ.प्र. से सटे इलाको में बोली जाती है. ब्रजभाषा आकारान्त या औकारान्त है. यह प्रवृति संज्ञा, विशेषण, सर्वनाम, क्रिया सबमें पाई जाती है. जैसे: घोड़ौ, छोरो, गोरो, सावरो, मेरो, तेरो, जाऊँगो; खड़ी बोली में घोड़ा, छोरा, गोरा, साँवला, मेरा, तेरा, जाऊँगा जैसे आकारान्त रूप मिलते हैं. ब्रजभाषा में पुल्लिंग एकवचन में उ प्रत्यय तथा स्त्रीलिंग एकवचन में इ प्रत्यय का व्यवहार होता है. जैसे: मालु, करमु, दूरि, लहरि; खड़ी बोली में ऐसी प्रवृति नहीं मिलती. वहा माल, कर्म, दूरी, लहर जैसे रूप मिलते है. खड़ी बोली में दीर्घस्वर के बाद द्वित्व की प्रवृति मिलती है. जैसे: लोट्टा, बेट्टा, राण्णी आदि. ब्रजभाषा में यह प्रवृत्ति नहीं है. वहां लोटा, बेटा, रानी आदि शब्द ही चलते हैं. खड़ी बोली में ह के पहले अ का उच्चारण ए की तरह सुनाई […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…