कबीर कवि, समाज सुधारक या भक्त
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कहीं है जिनसे समाज सुधार में सहायता मिलती है, इसलिए उन्हें समाज सुधारक समझना उचित है। वस्तुतः उनकी व्यक्तिगत साधना की परिधि इतनी व्यापक थी कि वह अनजाने ही समाज की समस्त विकृतियों को झकझोरती हुई ब्रह्म में लीन हो गयी।’ द्विवेदी जी के उपरोक्त कथन पर विचार करें तो स्पष्ट है कि वे उनके समाज सुधार का कारण उनकी भक्ति को मानते हैं।
कबीर भक्त हैं, समाज सुधारक हैं या कवि हैं- यह सवाल अक्सर ही विद्वानों और आलोचकों में चर्चा और विवाद का विषय बनता रहा है। आचार्य द्विवेदी कबीर की कविता को उनकी भक्ति का उपोत्पाद (बाई-प्रोडक्ट) मानते हैं, जबकि कई आधुनिक विचारक कबीर को मूलतः कवि मानने पर जोर देते हैं। वस्तुतः यह विवाद कबीर के व्यक्तित्व को खण्डित करके देखने का परिणाम है। कवि कबीर, भक्त कबीर या समाज सुधारक कबीर में कोई आत्यन्तिक विरोध नहीं है। यह सवाल जरूर उठाया जा सकता है कि कबीर पहले भक्त है या समाज सुधारक या फिर कवि। कहना मुश्किल है कि कबीर की भक्ति ने उन्हें समाज सुधार के लिए प्रेरित किया या उनकी समाज सुधार चेतना ने उन्हें भक्ति की राह दिखाई।
कबीर के ब्रह्म ऐसे ब्रह्म हैं जो निर्गुण होते हुए भी कण-कण में, घट-घट में व्याप्त हैं। यह इस्लाम का एकेश्वरवाद नहीं है और न ही पूर्णतया उपनिषदों का अद्वैतवाद-
मुसलमान का एक खुदाई, कबीर का स्वामी घट-घट रह्यौ समाई।
वह सृष्टि के कण-कण में अपने साहब की सूरत देखते हैं। समाज उनके लिए ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब है। ब्रह्म की इस सृष्टि के प्रति प्रेम और ब्रह्म से प्रेम में कोई अन्तर नहीं है-
दया राखि धरम को पाले, जग सो रहे उदासि। अपना सा जीव सबको जाने ताहू मिले अविनाशी।
इस प्रकार कबीर की भक्ति उन्हें आत्यंतिक रूप से समाज और उसकी चिन्ताओं से जोड़ती है। कुछ आलोचकों का मानना है कि समाज सुधार चिन्ता ने ही कबीर की भक्ति को यह स्वरूप दिया है। कबीर जिस समाज में जी रहे थे, उस समाज में विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों के बीच का वैमनस्य हिंसक रक्तपात तक पहुँच चुका था। ऐसे समय में उस ईश्वर का प्रचार जो सबका स्वामी है और जिसकी नजर में सभी समान हों, निश्चय ही समाज सुधार चेतना का ही परिणाम है।
कबीर की प्रखर चेतना तत्कालीन समाज की हर विसंगति पर पूरी शक्ति से टूट पड़ती है। कबीर प्रभावशाली वर्गों के पाखण्ड को तार-तार करके जनता के सामने रख देते हैं। संप्रदायवाद का विरोध भक्ति काल के अन्य कवियो के यहाँ भी है। कहीं प्रच्छन्न रूप से तो कहीं प्रकट रूप से, परन्तु कबीर जैसी आक्रामकता भक्ति काल ही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है। कबीर तत्कालीन दोनों प्रमुख सम्प्रदायों हिन्दू और इस्लाम के विभेद को ऊपरी और मानव जनित करार देते हैं। उनकी नजर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों की सृष्टि करने वाला ईश्वर एक ही है। हिन्दू और मुस्लिम का भेद उसने नहीं बनाया-
हिन्दू-तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई।
कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों से सवाल करते हैं-
जे तू बाभन बभनी जाया, आन बाट ह्वै काहे न आया?
जे तू तुरक तुरकनी जाया, भीतर खतना क्यों न कराया?
कबीर न सिर्फ दोनों सम्प्रदायों के भेद को कृत्रिम करार देते हैं, बल्कि उनके बाह्याचारों, कर्मकाण्डों और पाखण्डों पर करारा प्रहार करते हैं। मन्दिर-मस्जिद कबीर की नजर में निरर्थक हैं। ये मनुष्य को मनुष्य से दूर करने के उपकरण हैं। इनके माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती-
कांकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई चुनाय
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
ग ग ग ग ग ग ग
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजँू पहाड़
या ते वा चक्की भली जो पीस खाय संसार
ऐसा नहीं है कि कबीर सिर्फ हिन्दू और इस्लाम की ही आलोचना करते हैं। कबीर ने योग साधना से काफी कुछ ग्रहण किया है, परन्तु वहाँ भी पनप आये बाह्याचार पर हमला करने से वे नहीं चूकते-
मन न रंगाय, रंगाय जोगी कपड़ा
कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ैले
दढ़िया बढाय जोगी बन गइले बकरा।
मध्यकालीन भारतीय समाज अन्धविश्वासों, रूढ़ियों और कुरीतियों से बुरी तरह ग्रस्त था। कबीर अपने प्रबल तर्को से इस अन्धविश्वासी मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ा देते हैं। उन दिनों यह मान्यता थी कि गंगा में नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। कबीर कहते हैं-
गंगा में नहाये कहो को नर तरिगै
मछली न तरी जाको पानी मा घर है।
कबीर जीवन भर काशी में वास करते रहे। काशी की भूमि को मोक्ष दायिनी माना जाता है, परन्तु जीवन की आखिरी बेला में कबीर काशी को त्याग कर मगहर चले गये:
जो काशी तन तजै कबीरा तो रामहिं कहा निहोरा रे- अर्थात् जब काशी में प्राण-त्याग करने से मुक्ति मिले तो राम को याद करने का क्या फायदा।
कबीर के लिए मानव-मानव में कोई भेद नहीं है। उनके लिए काशी और काबा में कोई भेद नहीं है:
काबा फिरि काशी भया रामहि भया रहीम
मोट चून मैदा भया बैठ कबीरा जीम।
यह मानव मात्र के लिए प्रेम का दर्शन है। मानव-मानव की समानता का दर्शन है। उनके लिए न राम-रहीम में कोई अन्तर है न ब्राह्मण – शूद्र में-
एक बूंद ते विश्व रच्यौ है, को बाभन को शूद्रा।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भक्त कबीर और समाज सुधारक कबीर में कोई भेद नहीं है। उनकी भक्ति उन्हें समाज सुधार की ओर ले जाती है तो दूसरी ओर समाज सुधार चेतना उनकी भक्ति का स्वरूप गढ़ती है।
कबीर का कवि रूप उनके भक्त और समाज सुधारक रूप से अलग नहीं है। कबीर कवि हैं या नहीं इस विवाद का निर्णय उनकी कविता ही कर सकती है। जहाँ तक खुद को कवि मानने की बात है, मलिक मोहम्मद जायसी को छोड़कर भक्तिकाल में किसी ने भी खुद को कवि नहीं कहा है- ‘कवित विवेक एक नहीं मोरे, सत्य कहहि लिखी कागज कोरे’ कहने वाले तुलसीदास के कवित्व पर शायद ही कभी सन्देह किया जाता हो। वस्तुतः कविता रची नहीं जाती, रच जाती है। कबीर के भावों का आवेग इतना तीव्र है कि वह स्वतः काव्य रूप में फूट पड़ता है। कबीर के राम शब्दों में समझाये जाने वाले नहीं है। असीम ब्रह्म की सत्ता को सीमित शब्द व्यक्त नहीं कर सकते। इसलिए वे अपने राम/ब्रह्म को विभिन्न प्रतीकों, उपमानों के जरिये संकेतित करते हैं और इस क्रम में बरबस ही कविता बन जाती है। निश्चय ही यह काव्य रचना की सायास चेष्टा नहीं है, लेकिन जनता से गहरे रूप में जुड़ा व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त किये बिना भी नहीं रह सकता-
बोलन के सुख कारणे कहिए सिरजनहार
भामह ने साहित्य की परिभाषा देते हुए कहा है- ‘‘शब्दार्थो सहितौ काव्यम’’ यानि शब्द और अर्थ का सान्निध्य ही कविता है। शब्द और अर्थ का सुन्दर संयोजन ही कबीर की अनुभूतियों को कविता में ढाल देता है। बेशक कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- मसि कागज छूयौ नहीं कलम गह्यो नहीं हाथ- लेकिन उनकी कविता में रस, अलंकार, छन्द और बिम्ब की मोहक छटा दिखाई पड़ती है। कबीर के यहाँ अलंकार काव्य शोभा कारक धर्म नहीं हैं, बल्कि उनके यहाँ अलंकार काव्य की संरचना और अनुभूति का अभिन्न अंग हैं।
रूपक – माली आवत देख के कलिया करे पुकार, फूलि-फूलि चुन लई काल्ह हमारी बार।
– यह संसार कागज की पुड़िया बूंद पड़ी घुल जाना है। रहना नहीं देश वीराना है।
उपमा – पानी को बुदबुदा अस मानस की जाति
एक दिन छिप जायेंगे तारे ज्यों परभाति।
विभावना – बिन मुख खाई, चरण बिन चाले
बिन जिभ्या गुण गाई।
विरोधाभास – घर जारे घर उबरै
घर राखे घर जाय।
अनुप्रास – पियत प्याला प्रेम का सुधरे सब साथी।
आलोचकों ने कबीर की पंक्तियों में विभिन्न रसों की उपस्थिति को भी स्वीकार किया है:-
– हरि मोर पिऊ मैं हरि की बहुरिया – शृंगार रस
– हरि जननी मैं बालक तेरा – वत्सल रस
– सूरमा को अंग – वीर रस
– शान्त रस की उपस्थिति कबीर की रचनाओं में सर्वत्र देखी जा सकती है। आलोचकों ने निराला के अद्वैत और प्रसाद के शैवागम दर्शन को कविता के रूप में स्वीकार कर लिया। अज्ञेय की बौद्धिकता और अस्तित्ववादी दर्शन भी उन्हें पच गये। फिर, तार्किकता, बौद्धिकता और आध्यात्मिकता का आरोप लगाकर कबीर के काव्य पर उंगली उठाना आश्चर्यजनक लगता है।
निष्कर्षतया यह कहना ही सही होगा कि कबीर एक साथ भक्त, समाज सुधारक और कवि तीनों हैं और ये तीनों रूप अविच्छिन्न अन्तर्सम्बन्ध द्वारा एक दूसरे से जुड़े हैं।