मुक्तिबोध की कविताओं की एक विशेषता है, एक तरह का अधूरापन और औपन्यासिकता । यह कहना असंगत न होगा कि जो बीहड़ विमर्श और वैसा ही बीहड़ रचनाशिल्प उन्होंने चुने थे उसके परिणामस्वरूप यह अधूरापन अनिवार्य ही था।
उनका रचनाकाल छायावाद की छाया में प्रारंभ हुआ था।
अपनी अधूरी और अधूरापन लिये कविताओं में मुक्तिबोध अपना एक नितांत निजी स्वर तलाशते दिखते हैं।
ऐसी पंक्तियों में उनका आत्यंतिक लक्ष्य देखा जा सकता है , ” ओ अनाश्रयी अनात्मन् / इस युग क्षय में तुम्हें चरम अक्षय होना है। “
अपनी लड़ाई में अकेले होने की तीव्र अनुभूति वे व्यक्त करते हैं , ” बहुत बहुत करना है, बहुत अकेले/बहुत बहुत ओझल हो , बहुत बहुत मरना है। “
विमर्श और बिम्ब मुक्तिबोध की कविताओं में गुँथे हुये आते हैं। नामवर जी ने एक बार कहा था कि मुक्तिबोध हिन्दी की परंपरा के कवि नहीं दिखते। उनका आशय था कि मुक्तिबोध अनोखी भाषा और विरल शिल्प की कविताएं लिखते हैं ।
उनसे पहले और बाद में भी दूर दूर तक उन सी कविता नहीं दिखती।
उनका प्रभाव, बाद बाद में, मलयज और विनोद कुमार शुक्ल पर कुछ दिखता है।
पिछले पचास पचपन सालों में हिन्दी कविता की परिधि का भले ही जितना भी विस्तार हुआ हो , लेकिन मुक्तिबोध की केन्द्रीयता पल भर के लिये भी डिगती
नहीं ।
‘अँधेरे में ‘ सत्ता के लगातार सीमाहीन शक्ति वाली और निरंकुश होने और होते ही जाने का एक विराट आख्यान है ।
यह एक कविता है जिसमें पिछले पचास पचपन सालों में घटा हुआ देखा जा सकता है ।
यही कारण है कि उन्हें केवल अग्रगामी चेतना के अवाँगार्द कवि के रूप में जानना पर्याप्त नहीं है ।
मुक्तिबोध की व्याख्या के लिये नये मुहावरे गढने होंगै, जैसे अपने समय की व्याख्या के लिये उन्होंने गढे थे।
इसका कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलता कि उन्होंने बोर्खेज को कितना पढा , कितना गुना , परंतु ‘ अँधेरे में ‘ कविता जादुई यथार्थवाद का एक अद्भुत उदाहरण है।