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2 Comments

  1. Siddharth
    February 17, 2020 @ 11:46 am

    क्या था ये, न कोई सर न पैर

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  2. ख़ान इशरत परवेज़
    September 15, 2020 @ 10:57 pm

    “मुझे लोग समझ नही पाते।” ऐसा कहने वाले बहुत हद तक सही होते हैं। सभी के प्रति सरल
    और करूणा का भाव रखने के बावजूद वे अपने पक्ष में दलीलें खड़ी करके स्वयं को सर्वथा श्रेष्ठ समझने का भ्रम पाले रहते हैं। यही मनोदशा उन्हें अन्तर्मुखी एकाकी बना देती है। गिरीराज किशोर ने अपने में ही खोये रहने वाले नायक की मनोस्थिति को बड़े सलीके से उकेरा है। कथानक और क्लाईमैक्स विहीन होते हुए भी रचना पढ़ने को बांधे रखती है और जीवंत शब्द चित्र प्रस्तुत करती है। समयाभाव वश ज़्यादा नही कहूंगा। अच्छी रचना है।

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