घनगरज- साहित्य विमर्श प्रतियोगिता-2018-तृतीय पुरस्कार
(उनको समर्पित जिनके लिए वतन…. धर्म और मज़हब से बढ़ कर था। उनको सुनाने के लिए जिनके लिए कौम और धर्म उनके मुल्क से बढ़ कर हैं. )
18 मार्च 1858 (झांसी के किले में कहीं किसी जगह)
“कितने हैं?”
“दस हजार से कम न होंगे हुज़ूर साहिबा! पंद्रह भी हों तो बड़ी बात नहीं मगर इतना दिख रहा है कि गोरों की फ़ौज तीन दिसा (दिशा) से अपनी ओर ही बढ़ रही है.”
“और तोपें? कितनी तोपें ला रहे हैं फिरंगी?”
“सौ के करीब तो होंगी ही.”
रणचंडी के होठों पर मुस्कान खेल गयी. हैरत की बात कोई थी भी नहीं। लखनऊ और सागर के बाद अब बुंदेलखंड की ही बारी आनी थी. ईस्ट इंडिया कम्प्नी का कमांडर इन चीफ कैम्पबेल जानता था कि झाँसी को विजित किये बिना उत्तराखंड को संभाल पाना मुश्किल होगा. इसी लिए उसने झाँसी के लिए अपने सबसे ख़ास सिपहसालार जनरल ह्यु रोज़ को भेजा था.
जनरल ह्यु रोज़ लगभग १२ हज़ार सिपाहियों और ८० तोपों के साथ नर्मदा के उत्तरी किनारे पर होता हुआ सीधा झांसी की ओर बढ़ा चला आ रहा था. बानपुर और शाहगढ़ी के सामंतों ने हालांकि उसका सामना करने का भरपूर प्रयत्न किया मगर फिरंगी फ़ौज के आगे टिक पाना जैसे नामुमकिन सा था. अंग्रेज़ी तोपखाने के आगे जो भी आया नेस्तनाबूद कर दिया गया। उत्तराखंड में ग्वालियर के ईलावा अब केवल एक और चुनौती बची थी……. झांसी।
“कितने दिन हैं झांसी के पास?”
“दो या अधिक से अधिक तीन दिन में फिरंगी घेरा डाल देंगे हुज़ूर साहिबा.”
अधिक सोच विचार का समय नहीं था. रानी का मुख दृढ़ निश्चय से दमक उठा
“भाऊ साहेब कहाँ हैं?”
“कारखाने में हुज़ूर साहिबा!”
“आज संध्या काल हम कारखाने आएंगे. उन तक संदेस पहुंचा दो!”
“जी!”
इस से अधिक मुख खोलने की मजाल थी भी नहीं किसी की.
18 मार्च 1858 (झांसी का गोला बारूद का कारखाना)
“गोला दागने पर तोप पीछे ना झटका दे भाऊ!”
“हर्गिज़ नहीं रानी साहिबा! झटका तो दूर की बात है तोप हिलेगी भी नहीं!”
“और गोले?”
“हर तरह के गोले तैयार हैं महारानी. पोले भी और फटने वाले भी. आधे सेर से लेकर पैंसठ सेर तक के गोले मैंने तैयार कर लिये हैं.”
“घेरा लम्बा पड़ सकता है खुदाबखश!”
“आप बिलकुल भी चिंता मत करें रानी साहिबा! 3 महीने तक का गोला बारूद मैं तयार कर चुका हूँ. अगर और की ज़रूरत पड़ेगी तो और हो जायेगा! बारूद की कमी नहीं होगी झांसी की तोपों के लिये.”
“आपके होते कैसे होगी भाऊ?”
रानी ने चौंक कर पीछे देखा तो झांसी के तोपखाने का सरदार गुलाम गॉस खान अभी अभी आन पहुंचा था.
“आने दो फिरंगियों को रानी साहिबा! भागने के लिये ज़मीन कम पड़ जायेगी कम्बख्त ललमुँहों को ! भाऊ बख्श की कड़्क बिजली की मार से बच ना पायेंगे अंग्रेज़!”
गुलाम गौस खान की आवाज़ पूरे कारखाने को गुंजा गयी !
रानी झांसी और खुदाबख्श सहित वहां मौजूद हर कोई मुस्कुरा उठा.
“और तुम्हारा घनगरज गौस खान?”
“घनगरज की गूंज तो गोरे साहब को ताउम्र ना भूलेगी रानी साहिबा! ये इस गुलाम का कौल है आप से ! हाँ अगर वो जीता बचा तो!”
रानी सहित सभी हंस दिये.
“मैं सभी तोपों का मुआईना खुद करूंगी गौस खान! झांसी को बचाने की इस लड़ाई का बहुत कुछ दारोमदार तुम दोनों पर ही है. झांसी की सुरक्षा दीवार को ढहने मत देना तुम!”
दृढ़ निश्चय से खुदाबख्श और गॉस खान की मुठ्ठियाँ भिंच गयीं।
“हमारी तोपों के रहते अगर ये हुआ रानी साहिबा तो खुदा कसम हमारा सर कलम कर झांसी के बाज़ार में डाल देना ताकि हर आता जाता उसे एक ठोकर लगा कर जाए.”
कोई भी न जान पाया कि सीने में फौलाद रखने वाली मणिकर्णिका ने अपने आंसू आँख से बाहर निकलने से कैसे रोके।
“तुम्हारी वफादारी पर हमें और झांसी दोनों को नाज़ है भाऊ बख्श और गौस खान!”
26 मार्च 1858 ( सुबह का पहला पहर )
पिछले तीन दिन से फिरंगी सेना ने झांसी के किले पर कब्ज़ा करने के लिए कोइ कसर न छोड़ रखी थी मगर सच तो ये था कि झांसी के वीरों के शौर्य और दृढ निश्चय ने उनकी एक न चलने दी थी. पिछ्ले तीन दिन से दीवान जवाहर सिंह से लेकर सिपहसालार रघुनाथ सिंह , ठाकुर दुल्हाजू , पीर अली और सरदार पूर्ण कोरी ही नहीं रानी की औरतों की तीन पल्टन सुन्दरबाई, मुन्दरबाई और मोतीबाई के नेतृत्व में सिपहसालारों और तोपचियों से कंधे से कन्धा मिला कर लड़ी थीं. ये युद्ध अंग्रेज़ी सेना के लिए एक सबक सिद्ध होने वाला था और शायद इसी को भांपते हुए जनरल ह्यु रोज़ ने चंदेरी के किले से अतिरिक्त कुमुद भी मंगवा ली थी जो कि अभी ब्रिगेडियर स्टुअर्ट के नेतृत्व में झांसी आ पहुँची थी. स्टुअर्ट अपनी चालबाज़ियों से किसी भी युद्ध का पास पलटने में सक्षम था. तभी तो पिछले एक घंटे से ह्यू रोज़ अपने इस ब्रिगेडियर की बात बहुत ध्यान से सुन रहा था और उसे ये नयी तजवीज़ कुछ अधिक ही जम रही थी.
“एक बार सिर्फ एक दीवार ढह गयी और सिर्फ एक रास्ता खुल गया तो झांसी हमारे कब्ज़े में होगी सर!”
जनरल रोज़ ने सहमति में सर हिला दिया।
26 मार्च 1858 (सुबह का पहला पहर ) (झांसी का महादेव मंदिर )
रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ महाकाल को माथा टेकने आई थीं. उनके साथ लगभग पचास पठानों का एक निजी सुरक्षा दस्ता था. ये पठान चंद माह हुए ही राहतगढ़ की लड़ाई से बच कर झांसी आये थे और रानी से मदद की गुहार लगाई थी. रानी ने उनके सरदार गुलमुहम्मद से एक लम्बी बातचीत के बाद उन्हें अपनी निजी सुरक्षा का दायित्व सौंप दिया था. हालांकि इस बात के लिए कई सिपहसालारों ने उनको सावधान भी किया था मगर रानी झांसी अपने निर्णय पर अडिग थीं. उसके ज़हन में गुल मुहम्मद के कहे लफ्ज़ जैसे आज भी उसे अपने इस निर्णय का अनुमोदन करते लगते थे.
“अम बाहर मुल्क से ज़रूर आया है रानी साहिबा मगर जिस तरह से आपने अम सबको आसरा दिया है खुदा कसम आज से झांसी अमारा मुल्क है और आप अमारी मालिक! खुदा रसूल के बाद अम सब के लिए आप का हुकुम ही अमारा ईमान रहेगा ! अमारे होते हुए कोई आपका या आपके लख्ते जिगर का बाल भी बांका कर पाया तो अमारा खुदा अंम को कभी मुआफ न करे.”
इस वफादारी के बदले में गुलमुहम्मद ने केवल एक दरखास्त की थी कि उसे और उसके साथिओं को झांसी की मिट्टी में दफन किया जाए. कोई नहीं जानता था कि बेहद गुप्त ढंग से रानी लक्ष्मीबाई ने गुलमुहम्मद की वफादारी को भी परख लिया था। रानी के भेजे एक गुप्तचर के तमाम लालच और फंदेबाज़िओं के बावजूद गुल मुहम्मद की वफादारी अडिग साबित हुई थी. अंत पंत वो गुप्तचर इस पठान से केवल एक ही जवाब लेकर लौटा था।
” एक बार नमक से दग़ा करने की सोच भी लूं जनाब मगर उस मिट्टी से कैसे दग़ा करूँ जिसमें बाद-ए-वफात मुझे दफ्न होना है?”
और सच में आज तक गुलमुहम्मद सहित एक भी पठान ने रानी को किसी भी शिकायत का मौका नहीं दिया था और आज तो अतिरिक्त फिरंगी पलटन के आने की खबर सुन कर गुलमुहम्मद एक ऐसी दरखास्त ले कर आया था कि जिस पर रानी को भी गर्व होता और हुआ भी.
“अमको भी झांसी की लड़ाई में शामिल होने का मौका दें रानी साहिबा!”
गुल मुहम्मद ने डरते डरते इल्तिज़ा तो कर दी थी मगर रानी झांसे ने इसके लिए सख्ती से मना कर दिया था.
“तुमसे किसने कहा गुलमुहम्मद कि तुम झांसी की लड़ाई में शामिल नहीं हो? तुम्हारे हिस्से तो मैंने झांसी की सुरक्षा का सबसे कठिन और महत्वपूर्ण ज़िम्मा डाला है. मेरी और दामोदर की सुरक्षा का. इस काम में ज़रा सी भी चूक का मतलब समझते हो?”
गुलमुहम्मद ने हामी में सर हिलाया।
“और जहाँ तक आमने सामने की लड़ाई का प्रश्न है वो जैसा वक्त आएगा वैसे देख लिया जाएगा.”
“जी रानी साहिबा! अम फिर से दोहराता ऐ कि आपके और आपके शहज़ादे तक कोई भी मुसीबत तबी पहुँच पाएगी जब अम सब में से कोई एक भी ज़िंदा न बचेगा!”
रानी ने हलके से गुल मुहम्मद का सर थपथपा दिया और मंदिर में अपनी एक लड़ाकी की और मुड़ीं।
“तुमने ठीक से संदेस समझ लिया है न जूही?”
“जी महारानी! “
“तो समय बर्बाद मत कर और जल्दी से निकल जा. अगर तात्या पीछे से इन फिरंगिओं पर हमला करने में सफल हो गया तो हम इन का समूल विनाश कर देंगे। जा और जल्दी से कालपी के किले में मौजूद तात्या तक ये संदेस पहुंचा। सिपहसालारों की ज़रुरत यहां न होती तो मैं किसी और को भेजती.”
“आप चिंता मत करें रानी साहिबा. आखिर मैं यूं ही तो मोतीबाई की सब से बढ़िया जासूस नहीं हूँ. ईश्वर ने चाहा तो मैं तात्या साहब को साथ ले कर ही लौटूंगी और फिर इन फिरंगियों का हाल चक्की के दो पाटों में गिरे अनाज सा ही होगा.”
रानी लक्ष्मीबाई ने महादेव के अभिषेक से चन्दन ले जूही के माथे पर लगा दिया.
26 मार्च 1858 (रात का पहला पहर ) (रानी झांसी का मुलाकाती कक्ष)
रानी के सामने केवल गुलाम गॉस खान सावधान की मुद्रा में खड़ा था और उनकी बगल में झांसी के गुप्तचर विभाग की मुखिया मोतीबाई।
“तुम बताओ गॉस खान क्या ये बिना किसी की मुखबिरी के मुमकिन है?”
“नहीं हुज़ूर साहिबा ! इतनी सटीक गोलाबारी और वो भी तब जब कि मैंने और भाऊ बख्श ने आज दिन भर फिरंगिओं के तोपखाने की धज्जियां उड़ा कर रख दी हों बिना भीतरी सूचना के नहीं हो सकती। इस के लिए तो उन्हें एक निश्चित स्थान पर अपनी तोपें लगानी पड़ेंगी.”
“मगर वो ये कर चुके हैं गॉस खान! और अब हालात ये हैं कि किले की पूर्वी दीवार पर भीषण गोलाबारी हो रही है. भाउ बख्शी अभी वहीं पर हैं मगर उन्हें भी इस गोलाबारी के बीच तोपों की स्थिति का अंदाज़ा नहीं हो पा रहा.”
गॉस खान के लिए ये एक अचरज की बात थी. अभी दो घंटे पहले ही तो गॉस खान अपनी तोप अपनी घनगरज अपने सहयोगी लालता ब्राह्मण को सौंप कर खाना खाने और विश्राम करने आया था और तब तक तो सब कुछ ठीक ठाक ही लग रहा था।
“कितनी तोपें हैं मोतीबाई?”
“रात के अंधेरे में और आड़ में होने के कारण ठीक ठीक अंदाजा तो नहीं लग सकता मगर कम से कम तीन तो हैं हीं.”
“और उनकी जगह का कुछ अंदाजा?”
“फिलहाल तो जार पहाड़ी के पीछे गोसाईओं के मंदिर की आड़ में लग रही हैं. बाकी तोपची तुम हो. बुर्ज से जाकर खुद अंदाज़ा लगाओ.”
“जाओ गॉस ! अब झांसी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तुम पर और घनगरज पर ही है.”
गॉस खान ने निकलने में एक पल की भी देरी न लगाई।
26 मार्च 1858 ( रात का दूसरा पहर रानी झांसी का शयन कक्ष )
“हुज़ूर साहिबा से मिलना है…अभी के अभी गुलमुहम्मद!”
इस वक्त गुलमुहम्मद खुद रानी के शयन कक्ष के बाहर अपने अन्य पठान साथिओं के साथ पहरे पर था. वो अगर लालता ब्राह्मण को पहचानता न होता तो कभी भी रानी की निद्रा में बाधा मत डालता मगर गॉस खान के मुख्य सहायक के इस वक्त मिलने की इजाज़त मांगने का मतलब एक ही था. कुछ बेहद ज़रूरी…कोई बेहद संगीन मुआमला! सो न तो गुलमुहम्मद ने खबर करने में देर लगाई और न ही रानी ने आने में
“क्या हुआ लालता ? सब खैरियत?”
“हुज़ूर साहिबा फिरंगिओं के तोपखाने ने पूर्वी दीवार को हिला कर रख दिया है.“
रानी झांसी की हैरत का ठिकाना न रहा।
“गॉस खान के होते हुए भी?”
“जी रानी साहिबा! खान साहब ने उन तोपों पर आपसे बात किये बिना गोले बरसाने से इंकार कर दिया है.”
रानी झांसी के लिये इस से बड़ी अचरज की खबर कोई और ना हो सकती थी. झांसी के तोपखाने का सरदार फिरंगियों की तोपों पर गोले बरसाने से मना कर रहा था.
“आगे कहो?”
….और….और ….. उन्होने आपको इसी वक्त घनगरज वाले बुर्ज पर आने की दरखवास्त की है.”
गुल मुहम्मद अपनी तलवार निकालने को था कि रानी झांसी की कड़ी नज़रों ने उसे रोक दिया.
“गौस खान की वफादारी पर हमें अपनी सांसों से भी अधिक भरोसा है गुलमुहम्मद ! बात कुछ संगीन ही लग रही है. मैं लाल्ता के साथ दक्षिणी बुर्ज पर जा रही हूँ. तुम यहीं रह कर दामोदर का ख्याल रखना.”
गुलमुहम्मद के एक इशारे पर वहाँ मौजूद आठ में से चार पठान रानी और लाल्ता ब्राह्मन के पीछे हो लिये. रानी ने कोई ऐतराज़ ना किया. वो जानती थी कि उनकी जगह लेने के लिए चार और पठान एक आध पल में ही कक्ष के बाहर पहुंच जायेंगे. 500 पठानों में से 8 पठानों का काम केवल निगरानी और अपने बाकी साथिओं तक सन्देश पंहुचाना ही था. आठों पहर ! दिन रात! वो हमेशा बारी बारी से बेहद सजगता से अपना ये फ़र्ज़ निभाते थे.
26 मार्च 1858 (रात का दूसरा पहर) (किले का दक्षिणी बुर्ज)
दूर से देखने पर फिरंगी तोपों के गोले टूटते सितारों की बारिश जैसे लग रहे थे. आज तकरीबन सारा दिन नुकसान उठाने के बाद अँधेरा घिरते ही फिरंगी तोपों ने किले की पूर्वी दीवार पर गोले बरसाने आरम्भ कर दिए थे. किले की दीवार अभी तक तो इस गोलाबारी को सहन कर रही थी मगर इस हिसाब से कितनी देर तक और सलामत रहती कुछ कह पाना मुश्किल था. हो चुके नुक्सान की मरम्मत भी तभी मुमकिन थी जब इन तोपों को खामोश किया जाता.
दक्षिणी बुर्ज तक पहुँचने तक रानी के ज़हन में केवल एक ही सवाल कौंध रहा था कि क्या गॉस खान विफल रहा था ?
“घनगरज चुप क्यों है गौस खान?”
रानी की आवाज़ ऐसे गूंजी जैसे बिजली कौंध गई हो.
“और तुम्हारे होते फिरंगियों की तोपें गरज कैसी रही हैं खान?”
गौस खान ने लाल्ता ब्राहमन की ओर देखा जो कि तुरंत उसका इशारा समझ गया.
“महारानी.अंग्रेज़ फिर से अपनी चाल चल गये हैं. पूर्व में सारा दिन अपनी कई तोपों का नुकसान सहने के बाद उन्होंने सांझ काल अपनी तोपें गोसाईयों के मंदिरों के पीछे लगाई हैं …. उन मंदिरों की ओट में.
लाल्ता ब्राह्मन ने इशारा किया. रानी जानती थी कि गोसाईयों के मंदिरों के लिये जन मानस में कितनी आस्था थी.
….पूरब से खुदाबख्श भी इसी लिए उन पर गोले नहीं दाग पा रहे और दक्षिण से गॉस खान गोले दाग तो सकते हैं मगर उन गोलों की चपेट में मंदिरों के आने का पूरा अंदेसा है रानी साहिबा!”
लालता ब्राह्मन जैसे तैसे अटक अटक कर बताता गया और उसी अनुपात में रानी के मुख पर क्रोध की लालिमा बढ़ती गई.
अंतिम शब्द सुनते सुनते तो रानी के मुख पर कहर के भाव कुछ यूं उभरे कि लालता ब्राह्मण के मुख से आगे एक लफ्ज़ और न फूटा। यहां तक कि निडरता की मिसाल माना जाने वाला गॉस खान भी सहम सा गया.
“निकम्मे हो तुम सभी और उस से भी निकम्मी है तुम्हारी सोच!”
जैसे बिजली कड़की हो।
“मुल्क के आगे मंदिर या मस्जिद की कोई बिसात नहीं है गॉस और सुराज (स्वराज) के सामने मज़हब की.
स्वाधीनता ही धर्म है और कर्तव्य ही मोक्ष। मातृभूमि से बढ़ कर ना कुछ होता है और न कभी होगा.”
मानो देवी संहार की मुद्रा में हो.
“गोसाईओं के मंदिर उड़ते हैं तो उड़ जाएँ मगर मुझे दो घड़ी से अधिक फिरंगी तोपें अब झांसी पर गोले बरसाती न दिखें। और याद रहे हुकुम उदूली की सज़ा बहुत कड़ी होगी गॉस खान!”
“जो हुकुम रानी साहिबा!”
गॉस खान ने रानी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी देखा हो उसे याद नहीं पड़ा.
सुबह की अज़ान में अभी वक्त था मगर गॉस खान ने नमाज़ अता की और अपने खुदा से केवल इतना माँगा कि परवरदिगार अपने इस बन्दे की लाज रख लेना।
आधी घड़ी तोपों की जगह समझने में लगाई और आधी घड़ी घनगरज से निशाना बाँधने के लिए।
गोले अपने हाथों से तौले और बिस्मिल्लाह कह पलीते को आग लगा दी.
एक ….. दो …. तीन …..
तीनों गोले ठीक अंग्रेज़ी तोपों के एकदम पीछे जा कर गिरे और उन्हें मटियामेट कर दिया. गोसाईयों के मंदिर झांसी की आस्था लिये वहीं खड़े थे. एक दम सुरक्षित!
लालता ब्राह्मण हैरत से गॉस खान का सटीक निशाना देख रहा था.
“शुक्र है तेरा परवरदिगार कि तेरे करम से मैं झांसी और अपने हिन्दू भाइयों दोनों को ही मुंह दिखाने लायक रह गया.”
“खान भाई! ये निशाना तो तुम पहले भी लगा सकते थे… तुमने ही लगाना था तो फिर हिचक क्यों रहे थे?”
“निशाना मेरा ज़रूर था बिरहमन ( ब्राह्मण ) मगर हौसला और फ़र्ज़ निभाने की आज़ादी रानी साहिबा के भरोसे ने दी और इन के बिना तो आज शायद गॉस खान का भी निशाना चूक जाता.”
लाल्ता ब्राह्मण समझ ना पाया कि अधिक सच्चा कौन था? गॉस खान के अल्फाज़ या फिर घनगरज का निशाना.
उपसंहार :
“दिस व्हिस्लिंग डिक हैज़ डैमेज्ड आउर दिस होप टू!”
गॉस खान और लाल्ता ब्राह्मन दोनों ही उस रोज़ जनरल रोज़ के कहे ये लफ्ज़ सुन ना पाये. कड़क बिजली कड़कती रही. घनगरज गरजती रही और फिरंगिओं के छक्के छुड़ाती रहीं जब तक कि दुल्हाजू सिंह ने धोखे से झांसी किले का ओरछा फाटक फिरंगी सेना के लिए खोल न दिया. दीवान रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह, खुदाबख्श, गॉस खान और गुलमुहम्मद समेत उसके हरेक पठान ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए, झांसी के लिए, स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहूति दी मगर अपने जीते जी रानी पर आंच न आने दी.
खुदाबख्श की तोप ‘कड़क-बिजली’ और गॉस खान की ‘घनगरज’ आज झांसी के किले में शांत खड़ी हैं. अब वो कोई गर्जन नहीं करतीं….. मगर वो अगर गरजतीं भी तो क्या हम उनकी आवाज़ सुन लेते? और रानी झांसी का वो गर्जन….क्या हम समझ पाते?
“मुल्क के आगे मंदिर या मस्जिद की कोई बिसात नहीं है और सुराज के सामने मज़हब की.
स्वाधीनता ही धर्म है और कर्तव्य ही मोक्ष। मातृभूमि से बढ़ कर ना कुछ होता है और न कभी होगा.”
January 16, 2019 @ 9:39 pm
बेहतरीन किस्सागोई नज़र आई इस कहानी में। क्या कमाल का लेखन और कल्पनाशीलता है। बहुत ही सुंदर।
January 16, 2019 @ 9:55 pm
बेहतरीन
January 16, 2019 @ 10:10 pm
इतिहास की एक घटना और उसका संदेश…
बहुत ही बढ़िया मनु जी…
इतनी बढ़िया कहानी, इतना शानदार संदेश लिए हुए कथानक तीसरे नंबर पर है…
इंतज़ार उन कहानियों का जो इससे आगे निकल गयीं।
????
January 16, 2019 @ 11:37 pm
शानदार…अभी कुछ दिनों पहले ही मनु दुग्गल जी के नाम से वाकफियत हुई..फिर इनकी आने वाली रचना के कुछ अंश पढ़े….तभी से मनु जी की कोई रचना पढ़ने की उत्सुकता थी और आज ये इच्छा पूर्ण हुई और क्या खूब पूरी हुई…इतिहास की बुनियाद पर जात पात धर्म विधर्म जैसी समकालीन या कहें तो सर्वकालिक समस्याओ की ईंटो को अपनी बेतरीन किस्सागोई के सीमेंट में लपेट कर क्या खूबसूरत इमारत बनाई है इन्होंने…वाकई आनन्द आ गया पढ़ के…अब तो इनकी नई रचना #तपेदिक की प्रतीक्षा रहेगी…..साथ ही राजीव रंजन सिन्हा जी को भी कोटिशः धन्यवाद ऐसी प्रतियोगिता के आयोजन के लिए जिसके कारण इतने उम्दा लेखकों से परिचय हो रहा है और ये निवेदन भी की द्वितीय एवम प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानियां भी शिघ्र ही ब्लॉग पर उपलब्ध करवाईयेगा… इतनी बेहतरीन कहानी के तृतीय स्थान पर होने से बाकी कहानियां पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई है???
January 17, 2019 @ 4:04 pm
बेहतरीन कहानी
January 17, 2019 @ 7:20 pm
सुपरब , बहुत ही बढिया तरीके से वर्णन किया है घटनाअों का ,
बहुत ही बेहतरीन लेखन किया गया है …
साधुवाद