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रुपाली ‘संझा’ के यात्रा वृतांत ‘दिल की खिड़की में टँगा तुर्की’ का एक अंश

तकरीबन तीन हजार साल प्राचीन रोमन कालीन शहर! नहीं सिर्फ शहर नहीं…सुप्रसिद्ध पुरातन पत्तन (बंदरगाह) शहर! इस तरह की भौगोलिक स्थिति का मतलब तब किसी शहर के लिए हुआ करता था धन्ना सेठ होना। ये वो जमाना था जब सारा व्यापार समुद्र मार्ग के द्वारा होता था। ऐसी स्थिति में ये प्राकृतिक बंदरगाह उस शहर के लिए कारू का खजाना साबित हुआ करते थे। जब ये शहर अपने वैभव की पराकाष्ठा पर था तब मेडिटेरेनियन समुद्र के तट पर बसा नगर था! अपने वक्त का व्यापार के लिए लोकप्रियता के चरम पर पहुँचा हुआ नामी-गिरामी शहर।

कैस्टर नदी गहन भावातिरेक की मानिंद एफ़ेसस और मेडिटेरेनियन सागर के बीच बहती रहती थी। उन्हें आपस में जोड़ने का यही तो सेतु था, सतत बहता हुआ। शहर और समुद्र एक-दूसरे के प्यार में गहरे खोये हुए थे। वे हमेशा एक-दूसरे के आलिंगन में बद्ध रहते। समुद्र आवेग में आ-आकर एफ़ेसस को चूमता रहता था। एफ़ेसस अपनी दौलत दोनों हाथों से उस पर लुटाता रहता। दोनों एक साथ काफ़ी ख़ुश थे, इतने कि सारी दुनिया को उनसे रश़्क होता था। लेकिन वो मोहब्बत ही क्या, जिसके पीछे जमाना हाथ धोकर ना पड़ जाए। लगी हाय इन्हें भी! कैस्टर नदी अपने उन्माद के बहाव में पानी के साथ गाद मिट्टी भी लाकर समुद्र में भरती गई। उसे लगा, वो अथाह प्यार लुटा रही है। पर भावों के अतिरेक में भूल गई शायद कि अपना सारा का सारा हुमगकर किसी को सौंप देना, अपने को खाली करने के अलावा दूसरे को आकंठ भर देना भी होता है! अघाया हुआ तो मुँह फेरेगा ही! यही वज़ह रही समुद्र का जी उससे भरता गया। वो उकताकर पीछे हटता गया। कैस्टर उसका सामीप्य पाने के लिए अकुला कर जितनी आगे बढ़ती, मेडिटेरेनियन उकताकर उतना ही पीछे हटता जाता। गति थी ना उसमें, जा सकता था कहीं भी, कैसे भी, पीछे भी! वो चला गया। नदी के पास और कोई राह नहीं थी, वो बस आगे बढ़ना जानती थी, जो कि बंद होती जा रही थी।

अपने प्रिय की बेरुखी की उपेक्षा कर पीछे मुड़ कर लौट जाना, सदियों के अपने इतिहास में उसने जाना ना था। ऐसे में समुद्र की बेवफ़ाई को वो सहन ना कर सकी और धीरे-धीरे सूखती चली गई। नदी का किनारा पकड़े खड़ा एफ़ेसस भी वहीं का वहीं ठहरा रह गया। वो भी कहाँ चल पाता था, जो चल पड़ता मेडिटेरेनियन सागर के पीछे-पीछे?

कैस्टर नदी द्वारा एफ़ेसस से सारा मलबा गुबार की तरह बटोर कर मेडिटेरेनियन सागर के मुहाने पर जमा करते जाने से दोनों के बीच की दूरी दो चार मीटर पर जाकर नहीं सिमटी; वो दूर, बहुत दूर तक खिंचती चली गई। आज वो समुद्र तकरीबन आठ किलो मीटर दूर है इस शहर से। सिल्ट के जमाव के चलते मेडिटेरेनियन समुद्र लगातार पीछे हटता गया और एफ़ेसस समुद्र से अपना नाता खोकर अपनी हस्ती से हाथ धोता गया। रही-सही कसर तीन बार आए भूकंप और कई बाढ़ों ने पूरी कर दी! इसने तहस-नहस करके रख दिया शहर को। ऐसे ही इतना कसैलापन आ गया था इन सब विपत्तियों के मारे कि ये शहर अपना सारा मधुर रस खोकर करेले जैसा कड़वा हो गया था। इस पर नीम और चढ़ी जब सिमेरियन, रोमन, ऑटोमन शासक बारी-बारी से इसकी अकूत संपदा से आकर्षित होकर इस पर आक्रमण कर अपना आधिपत्य जमाते रहे। अपने-अपने हिसाब से इसे तोड़-फोड़ कर उजाड़ते-बसाते रहे। इतने वार सहना आसान कहाँ होता है? बावजूद इसके पूरे जिगरे के साथ होइयोड्स, अपासा, अलोप, सेल्कुक, एफ़ेसस ये नाम बदल-बदलकर यह शहर अलग-अलग समय में भरसक ठसक लिए हुए दृढ़ता से सिर उठाये खड़ा रहा। भीषण बाढ़ों के चलते समुद्र के मुहाने पर फैलते दलदल से मलेरिया का भीषण प्रकोप भी यहाँ जड़ें फैला सैकड़ों जानें लेकर इसे तबाह करने पर आमादा हो गया।

चौतरफ़ा मार का मारा एफ़ेसस बेचारा। लेकिन इसके नाश का मुख्य कारण समुद्र का पीछे चला जाना ही रहा। समुद्र का पीछे हटना, उसका आगे बढ़ जाना ही था। वो बढ़ चला, चलता ही चला गया! जो चले जाते हैं, वो तो आगे बढ़ जाते हैं! जो पीछे छूट जाते हैं, वो छूटे ही रह जाते हैं।

समुद्र का त्यागा हुआ वो भरा-पूरा ख़ूबसूरत शहर एफ़ेसस!

अपने प्रिय से बिछड़ कर सूख ही जाना था उसे। उसके लौट आने की राह तकते हुए तिल-तिल कर मरना उसके हिस्से में आ गया था। वही अब हम देख पा रहे हैं! अवशेष उस मृत शहर का, निरा कंकाल।

यहाँ से असल बात शुरु होती है…प्रकृति की तरह ही तो है मनुष्य की प्रवृत्ति भी! दो लोग आपस में जुड़े होते हैं चाहे आकर्षण या स्वार्थ की वज़ह से। मन के उद्गम से निकली कोमल भावनाओं की नदी उन्हें सिंचित करती रहती हैं। प्यार के उफ़ान में कैसे हुलक-उमग कर वे मिलते हैं, लेकिन जल्दी ही मोहब्बत की इस ज़मीन पर कोफ्त की मिट्टी जमने लगती है! कभी कुछ नया आकर्षित करने लगता है या कहीं और से ज्यादा फ़ायदा ही आता दिखाई पड़ने लगता है, तो वहाँ रास्ते पलट जाया करते हैं!

ऐसे में दोनों में से कोई एक साथ छोड़ देता है तो कोई छूट जाता है! छोड़ने वाला तो आगे बढ़ा चला जाता है और धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो जाता है।

छूटा हुआ ही नज़र के सामने पड़ता रहता है खंडहर की तरह बचा हुआ! उस मृत मोहब्बत की मज़ार बनकर…!

क्या तो शिकायत करें और क्या तो शिकवा। प्रकृति ही जब स्थायी नहीं, तो इंसानों की क्या ही हस्ती! एक अदना सा तिनका ही तो है वो इस प्रकृति का, उसे तो बदलना ही है। सारे संसाधन चूक जाने पर खाली ही हो जाना है! फिर क्या बचता है?

बदकिस्मती ज़्यादा ही मेहरबान हो जाए और भूकंप के झटके भी बीच-बीच में देती रहे तो नेस्तनाबूत हुए बिना कोई चारा है?

एफ़ेसस एक मरा हुआ या मारा हुआ शहर जो कभी कितना आलीशान, ख़ुशगवार, जीवंत हुआ करता था, अब अपनी ही लाश ढो रहा है…क्या वो बदकिस्मत था? या फिर शापित?

उसका हश्र देख उदासी घनीभूत होती जा रही है।

जैसे-जैसे एफ़ेसस के अंदर कदम दर कदम बढ़ते चले गये, चारों ओर छितरे टूटे-फूटे अवशेष सिवाय गहरे अवसाद के और कुछ नहीं सौंपते। हर उठते एक कदम के नीचे एक कराह सी उठती महसूस होती है। कोई संवेदनहीन मन ही होगा जो चीत्कार ना करे इस पर।

‘आर्केडियन स्ट्रीट’ या ‘हार्बर रोड’ इस शहर की प्रमुख सड़क थी जो संगमरमरी स्लैब और स्तंभों से दोनों ओर से घिरी हुई थी। जिनके अवशेष अब भी उस दौर की बुलंदी को दिखाने के लिए समुद्र की ओर मुँह किये, सिर झुकाए बदस्तूर टिके हुए हैं। मानो इन्ही के कंधों पर एफ़ेसस की आख़िरी साँसों का सारा दारोमदार है। सड़क के दोनों किनारों पर सिरे से दुकानें और दीर्घाएँ बनी हुई थी। स्तंभों पर रोशनी किये जाने की व्यवस्था भी थी। ये सड़क आगे की ओर सीधी जाकर लाइब्रेरी से दो दिशाओं में बँटकर ‘मार्बल रोड’ और ‘क्यूरेट्स स्ट्रीट’ के नाम से जानी जातीं थी।

एफ़ेसस के दुःख से जुड़ा मन गाइड के शब्दों से भटक कर वापस ज़मीनी धरातल पर आता था। इस उदासी में भी एक रिसता हुआ रस है! जो बूंद-बूंद टपक कर अपनी चाशनी में तर कर रहा है। ज्यों कोई विरह गीत पार्श्व में निंरतर बज रहा हो और उसमें आँसू की तरह घुलते जा रहे हो हम।

अभी तो एफ़ेसस में उस भव्य सड़क पर कदम रखे ही हैं जहाँ कभी रोमन अपने ठाट-बाट के साथ आवाजाही किया करते थे।

यहीं के अवशेष अपनी गाथा सुनाने को इतने आतुर हैं तो आगे मुख्य स्मारकों तक जाते-जाते जाने कितना बड़ा महा- काव्य तैयार हो जाएगा। मुझे लगता नहीं एफ़ेसस से मन भर पाएगा कभी। बहुत सारी बातों के बीच मन को मुदित करे ऐसी एक दिलकश कशिश हैं यहाँ।

उसे घूँट-घूँट पिये बिना मेरी प्यास बुझने वाली नहीं। फ़िलहाल तो आइये आगे चलते हैं।

हार्बर रोड से मुख्य शहर की ओर बढ़ने पर बीच राह में बायीं ओर एक थियेटर पड़ता है। रोमन लोगों के जीवन का ये एक अहम हिस्सा हुआ करता था। दिन भर की थकान के बाद आराम से शामें बिताना इनका प्रमुख शगल था। गुज़ारा नहीं था इसके बिना। जहाँ-जहाँ रोमन बसे वहाँ एक थियेटर जरूर बसाया इन्होंने। निःसंदेह मनोरंजन, खेल, आपसी मेल मुलाक़ात से ही इनकी शामें गुलज़ार हुआ करती रही होंगी। यहाँ इस खुले थियेटर की ख़ासियत ये थी कि लोगों के बैठने के लिए जो सीटें बनाई गई थीं उनकी प्रत्येक की चौड़ाई थी मात्र दस इंच! कल्पना कीजिये कितने छरहरे रहे होंगे लोग। ख़ूबसूरती के सारे पैमाने ध्वस्त ना हो जाते होंगे इनके सामने? इनकी ख़ूबसूरती ही सबको परास्त करने के लिये काफ़ी रहती होगी! यूँ ही हथियार डाल देते होंगे लोग तो इनके आगे, क्यों कर इन्हें साम्राज्य विस्तार के लिये हथियारबंद होकर निकलना पड़ता था?

थियेटर से निकलकर सामने ही थोड़ा आगे की तरफ़ बढ़ने पर दायीं ओर एक चौकोर चिकने सफ़ेद पत्थर पर सिर्फ एक ‘बाँये पैर’ का निशान खुदा हुआ है और उसके नीचे एक ‘हृदय’ उकेरा गया है! जानियेगा इसकी कहानी? ये एक तरह से इश्तिहार था, एक रुमानी इशारा भी। पत्तन से दिन भर की कड़ी मेहनत-मशक्कत से फ़ारिग हो वापस घर लौटते हुए अलमस्त युवाओं के लिए, अल्हड़ युवतियों का प्रेम क्रीड़ाओं के लिये सांकेतिक आमंत्रण कि बायीं तरफ़ बनी स्थली महफ़ूज है मिलन के लिये! अपने कदम उसी ओर बढ़ाओ और पास चले आओ प्रिय, कि तुम्हारा इंतज़ार है। साँझ ढलने के पहले से तैयार हो हम दिल संभाले बैठे हैं। थक हार कर लौटते हुए अपने कदम इसी ओर उठाओ कि थकान उड़नछू हो जाए, शामें रंगीन हो जाएँ! प्रेम को खुले दिल अपनाते हुए लोग।

आसान तो कभी नहीं रहा था यूँ इज़हार-ए-महोब्बत कर पाना पर दिल वालों की दिलेरी के आगे सब फीका है! दुनिया उनके पैरों तले रही है, यही तो वो पथरीला पैर इंगित करता है।

यहाँ से थोड़ा और आगे बढ़ने पर दायीं ओर पड़ती थी ‘लाइब्रेरी ऑफ सेल्सस’- विश्व प्रसिद्ध पुस्तकालय! एफ़ेसस का चुंबकीय आकर्षण।

इजिप्त की अलेक्जेंड्रिया और तुर्की की ही परगामा लाइब्रेरी के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी लाइब्रेरी! 12000 स्क्रोल्स (पांडुलिपियों) से इतनी समृद्ध कि उस जमाने में देश-विदेश से बुद्धिजीवी, विद्वान, शोधार्थी यहाँ आते थे अपना ज्ञान बढ़ाने, शोध करने। उस जमाने में अपने आकार में इतनी विशालकाय लाइब्रेरी का होना उन लोगों की सोच-समझ, उनकी अध्ययन- शीलता, शोधपरकता और ज्ञानपिपासु प्रवृत्ति का ही परिचायक है। अध्ययन, अन्वेषण को लेकर उनकी चित्त की गंभीरता का आलम ये था कि गहन मननोपरांत तैयार की गई पांडुलिपियाँ मौसमी कारकों विशेष तौर पर नमी से प्रभावित होकर क्षतिग्रस्त ना हो पाये इसके उपाय स्वरूप लाइब्रेरी की दीवारें दोहरी बनाई गईं! उनके बीच में एक हाथ बराबर दूरी रखी गई ताकि वहाँ सीलन का प्रभाव ख़त्म हो जाये। लाइब्रेरी पूर्व की ओर थी ताकि भरपूर रोशनी प्राप्त होती रहे। कितनी ही संजीदगी से तो उन लोगों ने इस लाइब्रेरी को किताबों के इबादतगाह की तरह पूजा होगा।

ये यकीन इस लाइब्रेरी के लिए निर्मित माहौल से पुख़्ता ही होता है।

बढ़ती लोकप्रियता रास आई है भला आजतक किसी को, किसी की? विश्व प्रसिद्ध अलेक्जेंड्रिया (इजिप्त) की सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरी को एफ़ेसस की तेजी से नाम कमाती ये लाइब्रेरी अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी प्रतीत हुई। ऐसे में जो किया जाता है वही किया उसने भी। विश्व की प्रथम सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित लाइब्रेरी भी अपने समकक्ष दूसरी को अपना कद बढ़ाते देख ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगी। अपना ताज किसी और के माथे पर सज जाएगा ये देखना, देखना तो छोड़िए ये ख़्याल में आना भी कितना ख़ौफनाक होता है, उसके वशीभूत ये भय मात्र जो कदम उठाने को मजबूर करता है इसकी परिणति कैसी होती है देखिये ज़रा…!

हुआ यूँ कि उस वक्त सारे स्क्रो्ल्स पपायरस पर लिखे जाते थे (कागज़ इज़ाद नहीं हुए थे उस समय), जो इजिप्शियन्स ही बनाते थे और दुनिया भर में भेजते थे, लिखाई के लिए। तो उन्होंने एफ़ेसस की इस प्रसिद्धि के पायदान पर तेजी से चढ़ती जा रही लाइब्रेरी के पाँवों में चक्के बाँधने के लिए पपायरस भेजना बंद कर दिया। लिखो अब…कैसे लिखकर कुछ भी सुरक्षित करोगे? कैसे अपने ज्ञान के भंडार का विस्तारण करोगे?

ऐसे ही रुकावटें डाली जाती हैं ना आगे बढ़ते हुए की राहों में ?

लेकिन एक लक्ष्य तय कर आगे बढ़ने का ठाने हुए भी कहाँ हार मानते हैं? एक दरवाजा बंद होता है तो वो दूसरा दरवाजा ढूँढते हैं।

ना मिले कोई द्वार तो खिड़की की राह भी खोल लेते हैं आगे जाने के लिये, बल्कि बदहाल हालात में तो रोशनदान भी उनके लिए सहारा बन जाता है।

तो वही हुआ यहाँ भी..! पपायरस की आमद नहीं, ना सही।

पपायरस नहीं तो क्या, इतना आगे चले जाने के बाद लिखना बंद थोड़े ही हो जाएगा। चिंतन-मनन पर ताले तो नहीं पड़ सकते। निकाला एक नया रास्ता! पपायरस की जगह चमड़े पर लिखना शुरु किया और लीजिए राह में आई बाधाओं से लड़ते-लड़ते नई क्रांति कर दी।

आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, इसे सिद्ध करते हुए पहली चमड़े की जिल्द वाली किताब बना कर इतिहास रच दिया सेल्सस ने।

हौसले बुलंद हो तो बुलंदी छूने से कोई रोक नहीं सकता चाहे कितना ही बड़ा नामचीन रास्ते का रोड़ा बने क्यों ना हो खड़ा हो सामने। राहें खुद-ब-खुद बन जाती हैं। सेल्सस की लाइब्रेरी ने अपनी सबसे विपरीत और कठिनतम परिस्थिति में बिना धैर्य खोये अपना सर्वश्रेष्ठ देकर एक माकूल उदाहरण स्थापित कर दिया।

ये थी एक लाइब्रेरी; विश्व की तीसरी बड़ी, जिसमें कुछ वक्त बिताकर मैं उन ख़ुशनसीबों में शामिल हो गई जिसने उन दोनों लाइब्रेरी का दीदार किया। एक अलेक्जेंड्रिया जो एक लंबे वक्त तक बेताज बादशाह रही और दूसरी सेल्सस जो बादशाहत अपने नाम करने चली थी।

एक ऐसा शहर जो अब जिंदा नहीं, पर मर कर भी मुझ जैसी कई जानों की जान है। इस लाइब्रेरी को जानने के बाद यही जाना है मैंने। इस सफ़र का ये एक अहम पड़ाव था मेरे लिए।

अपने-अपने तरीके थे, अपनी थकान मिटाकर स्फूर्ति पाने के, दिल बहलाने के। प्यार का सागर हार्बर रोड के दायें-बायें दोनों ओर हिलोरे मारता रहता था। गौर करने लायक बात तो ये कि बायीं ओर थियेटर और रंगशाला थी जिनके तार दिल से जुड़े होते हैं। जबकि दायीं ओर लाइब्रेरी थी गंभीर लोगों की मोहब्बत, उनके दिमाग की ख़ुराक। मेरा मानना है ये महज़ एक इत्तेफ़ाक नहीं हो सकता।

एफ़ेसस के लोगों की सुलझी, संतुलित एवं विकसित मनःस्थिति उनके शहर की इस योजनाबद्ध वास्तुकला के नक्शे में उभरकर सामने आती है। जब जैसे मन के आवेग की दशा रहती होगी, उसी के मुताबिक़ दायें या बायें किस दिशा में जाना है, तय कर उस ओर मुड़, मन की नैय्या को खे लिया जाता होगा।

इस खंडहर हो चुके सारे शहर में भी सही-सलामत कुछ अवशेष बख़ूबी बचे रह गये तो केवल ये प्रेम के अंश। मोहब्बत चाहे अपने किसी शौक के लिये हो, किताबों या उन जैसी पसंदीदा किन्हीं चीजों के लिये, या अपने इर्द-गिर्द मौजूद प्रिय लोगों या स्थानों के लिए कभी दम नहीं तोड़ती। तभी तो एफ़ेसस में समय के प्रहार से ऐशो-आराम के सब सामान ध्वस्त हो जाने के बावजूद ये प्रेम की निशानियाँ महफ़ूज़ रह गईं, क्योंकि मोहब्बत कभी मरती नहीं। ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद!

‘हार्बर रोड’ जो लाइब्रेरी से दो दिशाओं में बँट जाती थी उनमें से एक ले जाती थी मुख्य बसाहट की ओर, दूसरी चली जाती थी हम्माम की तरफ़।

लाइब्रेरी से आगे जाने पर सामने बसी थी मुख्य बसाहट। गोया कि काम से लौटते हुए युवा सारी मौज-मस्ती करने के बाद इत्मीनान से आराम करने, परिवार के साथ समय बिताने के लिये घरों में दाखिल होते थे।

मिट्टी से बने हुए घर। दीवारें, फ़र्श, छत सब जगहों पर एक-एक कोने में चटख रंगों से की गई मनमोहक चित्रकारी नज़रों को बाँध लेती हैं। फ़र्श पर जगह-जगह मोज़क के टुकड़ों की ज्यामितीय आकार की बेहद तरतीबी से बिछाई गई आकृतियाँ, यूँ मानो कालीन बिछाया गया हो। इस कदर दिल फ़रेब कि आज भी उस पर पैर रखने में दिल में हूक सी उठे कि कहीं मैला ना हो जाए! फर्श के नीचे टेराकोटा की नलियों के माध्यम से मौसम के अनुसार गर्म और ठंडे पानी की निरंतर सप्लाई होती रहती थी, घरों को वातानुकूलित बनाए रखने के लिए। घरेलू काम में इस्तेमाल में आने वाली सारी वस्तुएँ, बर्तन-भांडे सब टेराकोटा के होते थे। उनके काफ़ी सारे नमूने अवशेष  रूप में यहाँ देखें जा सकते हैं।

कुछ साबुत, कुछ टूटी-फूटी हालत में हैं, लेकिन उन्हें इस्तेमाल करने वाले मालिकों की शान को शान से बयाँ करते हुए। चारों ओर ऐसा मंजर बिखरा पड़ा है जो गवाही देता है कि यहाँ के रहवासियों की रंगीन तबीयत ज़मीन से जुड़े रह कर ही हरी होती थी।

यहाँ से आगे बढ़ने पर बायीं तरफ़ क्रम से आते थे ‘सार्वजनिक शौचालय’ ‘सार्वजनिक हम्माम’ और ‘सोना बाथ’!

हाँ जी! ठीक पढ़ा आपने सार्वजनिक शौचालय! सफ़ेद संगमरमर से बने कतारबद्ध ‘एल शेप’ ओटले में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कमोड जैसे छेद बने हुए हैं, इन ओटलों के सहारे पत्थर की बनी दीवार जिस पर पीठ और सिर टिकाकर आराम से पैर जमीन से टेककर बैठा जा सकता था। पैरों तले साफ पानी की नाली बहती रहती थी! बीच में पानी का कुंड था। इससे आसानी से कयास लगाया जा सकता है कि हाजत के बाद तब सफाई के लिए पानी का प्रयोग होता था। ऊपर धूप बारिश से बचाव के लिए लकड़ी की छत बनी हुई थी।

इस शौचालय के इस्तेमाल के लिए शुल्क देना होता था। इससे ये अंदाजा लगा सकते हैं कि सारे लोग तो इसका इस्तेमाल नहीं ही करते होंगे, तो क्या बाकी के लोग हमारे गाँव वासियों की तरह दिशा जंगल?

इस शौचालय से जुड़ा एक बहुत ही मज़ेदार पहलू है। ये कि कुछ रसूखदार लोग जाड़े के दिनों में शौचालय इस्तेमाल करने के लिए अपने जाने से पहले अपने गुलामों को वहाँ भेज, थोड़ी देर बिना काम बिठाते थे, ताकि ठंड से संगमरमर की ठंडीगार हो गई उनकी हाजत-ए-बैठक गर्म हो जाये और फिर वो आराम से बैठकर फारिग हो सकें! जो इतने अमीर नहीं थे कि दास रखने की हैसियत रखते, उनकी सुविधा के लिए वहाँ के गरीब गुरबों द्वारा आपदा में अवसर तलाशते हुए एक व्यवस्था ईज़ाद कर ली गई थी कि वो कुछ पैसा लेकर उन मध्यमवर्गीय लोगों के लिए बैठक गर्म करने का ये महान काम कर देते थे। ऐसे गरीब वहाँ इन आसामियों की ताक में टहलते रहते थे। चौघड़िया साथ दे देता था तो दोनों का भला हो जाता था! एक की सीट गर्म हो जाती थी, दूसरे की जेब।

पन्द्रह लोग एक साथ बैठ कर अपने आप को हल्का कर सकते थे। पेट की सफाई के साथ हल्की-फुल्की गपशप, हँसी-ठठ्ठे, गंभीर वार्ताएँ, आगामी योजनाएँ, एक दूसरे के कारे (बुराई) चुगली, छिद्रान्वेषण, अपने सुख-दुख के बँटवारे.. क्या कुछ नहीं निपट जाता होगा एक साथ। सार्वजनिक शौचालय एक पंथ ढेर काज का सुखद ठिया हुआ करता होगा। नाम क्या रखा होगा उन्होंने इसका?

‘राहतखाना’?

बड़ी हैरत होती है ये सोच कर कि अपने मतलब और सुख के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरता इंसान! कैसी-कैसी युक्तियों को खोज लेता है! वो हमेशा का ही जुगाड़ू रहा है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भले ही जुगाड़ू शब्द अभी जोड़ा गया हो पर दुनिया में तो दुनिया बनने के साथ ही नमूदार हो गया था उसका जुगाड़ूपन।

इसके ठीक बगल में दो मंजिला स्नानागार बना हुआ है। शौचालय से निपटकर नहाने के लिए इस स्नानागार की ओर लोग कूच करते होंगे। पुरानी परंपराएँ अपने मूल  रूप में कमोबेश एक सी ही रहीं विश्व भर में।

स्नानागार, जिन्हें हम्माम कहने का चलन था, के निचले तल में दो विशालकाय तंदूरों की सहायता से पानी गरम होता था। ये तंदूर खस्ताहाल अभी भी वहाँ मौजूद हैं। उनमें पानी गर्म कर पास बने हम्माम के कुंड में टेराकोटा की नालियों द्वारा पहुँचाया जाता था। उसी हम्माम में स्नान करने की व्यवस्था थी। स्नान भी सामूहिक होता था। ‘हम्माम में सब नंगे’ ये कहावत ऐसे ही थोड़ी बन गई थी। हम्माम के तीन तरफ छोटे-छोटे कक्ष बने हुए है जो स्नान के पश्चात कपड़े पहनने के लिए प्रयुक्त होते थे।

उसी गर्म पानी के हम्माम से गरम पानी टेराकोटा के बने पाइपों के सहारे ऊपरी तल के कक्ष में लाकर उस कक्ष की दीवारों में बने छिद्रों के द्वारा भाप के रूप में छोड़ा जाता था और उससे सोना बाथ का आनंद लिया जाता था! आराम से बैठ कर सोना बाथ का मज़ा ले सकें इसके वास्ते इस कक्ष में बैठने के लिए पत्थरों की कई मेजें बनाई गयी थीं। सौ की सीधी बात कि एफ़ेसस वासियों द्वारा असली मौज के साथ ज़िंदगी का भरपूर मज़ा उठाया जाता था।

इन सारे क्रियाकलापों पर गौर करें तो एक बात खुलकर सामने आती है कि रोमन लोग सामाजिकता और सामूहिकता में बहुत गहरे यकीन करते रहे होंगे। जहाँ दैनंदिन कार्य भी एक साथ किये जाते हो वहाँ संशय की कोई गुंजाइश भी तो नहीं रह जाती।

यहाँ से घूमकर लाइब्रेरी के आगे दायीं ओर चले जाने पर एफ़ेसस का बाज़ार आता है।

बीच में बड़ी सी खाली जगह है उसके तीन तरफ़ पत्थरों की बनी पक्की दुकानें है। आज भी अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि कैसी चहल-पहल और रौनक हुआ करती होगी उस समय यहाँ। ख़ूबसूरत जगह, ख़ूबसूरत लोग। चारों ओर छितराई हुई ख़ूबसूरती ही ख़ूबसूरती! गोया बाज़ार नहीं ख़ूबसूरतखाना हो कोई।

कुछ ही दूर संगमरमरी पत्थर का एक बड़ा सा स्तंभ सिर उठाये खड़ा है और उसके आस-पास छोटे-बड़े उन्हीं पत्थरों के कई और अवशेष जहाँ-तहाँ मुँह लटकाये खड़े हैं या हाथ-पैर पसारे औंधे से पड़े हुए हैं। इन्हें कम आँकने की गलती करते हुए आगे बढ़ जाते तो कैसे पता चल पाता कि ये विश्व के प्राचीन सात आश्चर्यों में से एक, आर्टेमिस देवी का मंदिर है जो डायना के नाम से भी जानी जाती थी। यह उस पुरातन काल में संगमरमर का बना पहला मंदिर था। वो भी भव्यता के सारे पैमानों को ध्वस्त करता हुआ।

संगमरमर के छप्पन इंच की मोटाई और तेरह मीटर की ऊँचाई वाले सौ स्तंभों पर ये मंदिर खड़ा हुआ था। इसकी छत ठोस नक्काशीदार आबनूस की लकड़ी की बनी हुई थी। कई स्तनों वाली आर्टिमिस देवी की शानदार शृंगारिक विशालकाय मूर्ति भी आबनूसी लकड़ी से निर्मित थी। अपने मूल  रूप में ये मंदिर ही एफ़ेसस शहर का केंद्र बिंदु था। इसी विशाल मंदिर के चारों ओर शेष बसाहट निर्मित की गई थी। अपनी देवी को विशेष सम्मान देते हुए। अपने पूरे जीवनकाल में भीषण बाढ़, भूकंप और हेरोस्ट्राटस द्वारा की गई आगजनी के कारण तीन बार ये मंदिर नष्ट हुआ। किंतु अपनी देवी की आन-बान-शान में एफ़ेसस वासियों द्वारा हर बार पहले से ज्यादा भव्य तरीके से इसका पुनर्निर्माण किया गया।

अपना सर्वस्व अपनी देवी पर लुटाने वाले एफ़ेसस वासियों द्वारा इन प्राकृतिक, मानवीय आपदाओं का सीना तान कर सामना कर इस मंदिर को जीवनदान देते रहने से तो मंदिर ने अपनी चाल ढाल ना बदली पर काल की गति से पार ना पा सका। कालांतर में ना लोग रहे, ना उनका मंदिर, ना उसमें विराजित देवी। सब काल कवलित हुए। सौंदर्य और चिर कुमारित्व की देवी के उपासना स्थल की ये दुर्दशा और जर्जरावस्था। हकीकत नग्न  रूप में सामने खड़ी है। उसके सामने सिर झुकाए खड़े होने के अलावा और कोई उपाय नहीं। समय की बेरहम मार से दैवीय ठिकाने भी बच ना सके ये देख कर हैरानी से आँखें फटी जा रही हैं। कभी कैसा आलीशान वक्त रहा था और आज कितना बदहाल।

आसपास ही चलते जाने पर मारनास, सेबस्टोई मंदिर, ईसाबे मस्ज़िद, ऑगस्टस का गेट, बेसिलिका ऑफ सेंट जॉन के भग्नावशेष यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। निश्चय ही आप भूले तो नहीं होंगे कि एफ़ेसस में गोथ्स, यूनानी, रोमन, ऑटोमन सभी कौमों ने वक्त-वक्त पर अपनी दीप्ति बिखेरी है तो स्वाभाविक है उन सभी का ही असर यहाँ स्थित इमारतों में नज़र आता है।

एक और चीज़ जिसने हमारा ध्यान विशेष  रूप से खींचा, वो थे शहर भर में पानी की आपूर्ति के लिए बनाए गये छः विशाल एक्वाडॅक्ट।

हर लिहाज़ से देखें तो एफ़ेसस पूर्ण योजनाबद्ध और वास्तु सम्मत तरीके से नियोजित एक समृद्ध शहर था। हालांकि वर्तमान में कुछ भी साबुत नहीं बचा है पर इसका अतीत में क्या जलवा रहा होगा इसका अंदाज़ा आख़िर में एफ़ेसस पुरात्तत्व संग्रहालय में जाकर वहाँ मौजूद सभी इमारतों, मूर्तियों की रेपलिकाओं, चित्रों और अवशेषों से लगाया जा सकता है। ठीक उस तरह जैसे कि हम भी अपने जीवन की क्रमिक दशाओं, भावों, कल्पनाओं, इच्छाओं को तस्वीरों में ढाल लेते हैं बाद में कभी फुरसत में बैठकर उन्हें खंगालने और उनमें गुम हो जाने के लिए, जब वो वास्तव में अपना होना खो देती हैं। तब ये चित्र ही हमारे बीते दौर का आईना बन जाते हैं।

इस आधार पर ही कहना चाहती हूँ कि हालिया हाल पर क्या ही जाना! आज का ऐश्वर्य आने वाले कल का भग्नावशेष है, आज का ध्वंसावशेष गुज़रे कल की बुंलदी थी! बिलावजह क्या तो इठलाये और क्या ही हालात के हिसाब से गोटियाँ बिठाये जब सब कुछ फ़ना ही हो जाना है।

कुल जमा बात ये कि जीवन जीने के लिए ही है। वक्त रहते, वक्त पर सब कर लिया जाए लेकिन करते हुए ये ना भूल जाएँ कि कितने भी साजो-सामान के बीच ऐश कर रहे हों, एक दिन सब मटियामेट हो जाना है। पीछे जो छूटा रह जाता है वो अपनी कहानी सुनाने के लिये काफ़ी है। तो पीछे वही छूटे जो धारा प्रवाह वो कहानी सुनाए और दोहराए जो ख़ुशगवार हो।

वीभत्स भुतहा किस्से भला कितनों की पसंद होते है?

कब्र में पैर लटकाये बैठा है ये बूढ़ा एफे़सस पर इसका कहन सुनने दूर-दूर से लोग खिंचे चले आते हैं! ऐसी कश़िश और कहाँ?

बुजुर्गियत का सलवटों भरा शांत, कान्तिवान, गरिमामयी और अनुभवी सौंदर्य। वरना आज एफ़ेसस लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा होता?

दिन भर में पूरे एफ़ेसस की ख़ाक छान मारी है। वीरान पड़े शहर के साथ और कितनी देर दिल बहलाया जा सकता है? रूई की भांति हल्का मन लेकर गये थे, आहत भावनाओं में भीगकर उल्टा मनों भारी हो गया है।

बुलंदी भी किस तरह ढह जाती है! अब शाम भी ढलने को है।

चलाचली की बेला आ गई है!

हम भी निढाल से अपनी गाड़ी में सवार हो वापस अपने मुकाम कुसादासी की ओर कूच करने निकल पड़े हैं। लेकिन लौटते हुए सीधे वहाँ न जाकर हम एफ़ेसस से सात किलोमीटर दूर बसे ‘हाउस ऑफ द वर्जिन मेरी’ पर जाकर ठहरे हैं। ये प्रारंभिक ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र माना गया था। यहूदी ईसाई पॉल ने यहीं पर बपतिस्मा की शुरुआत की। ऐसी मान्यता है कि वर्जिन मैरी (माँ मरियम) चौंसठ वर्ष की अपनी मौत की उम्र तक यहीं रही थी। अपने प्रभु यीशु की माँ के घर से पवित्र और प्यारा क्या होगा भावुक इंसान के लिए? इस जगह जाकर पाया कि उन विदेशियों की आस्था भी अपनी मान्यताओं और उपासकों को लेकर उतनी ही प्रगाढ़ हैं जैसी हमारी होती हैं। उस पवित्र घर में प्रवेश करते ही मानो सब ‘माँ मरियम’ की गोद में ही समा जाते हैं। उनकी भाव दशा ऐसी महसूस होती है जैसे माँ मरियम उन्हें अपनी बाँहों में भरकर सीने से लगा माथे को चूम रही हो।

कई-कई लोगों को हमने भाव विह्वल होकर सजल नेत्रों से बाहर आते देखा है। बाहर आकर पैड़ी पर बैठ ध्यानस्थ और भावभीनी अवस्था में एकटक उस घर को ताकते हुए भी। ऐसे अद्भुत नज़ारे वहाँ कम ही देखने को मिले, पर अभी जब ये सामने आँखों के सामने बीता वो हमारी सोच से परे था। घर के बाहर बह रहे प्राकृतिक सोते के शीतल जल को भी वे लोग पवित्र और दैवीय मानते हैं। माँ मरियम ने उसी सोते के जल का तो बरसों उपयोग किया था इसलिए वो उनके लिए पवित्र है। उनका ‘होली वाटर’। वे श्रद्धा से उसका आचमन करते हैं, और ठीक गंगाजल की तरह बोतलों में भरकर अपने साथ भी ले जाते हैं। जाने के पहले यहाँ की दीवार पर मन्नतों की डोरी बाँधना भी नहीं भूलते हैं। पूरी दीवार मन्नतों की कतरनों से लदी हुई है। माँ मरियम सारी इच्छाएँ पूरी करें, अपनी कृपा बनाये रखें इस कामना के साथ। कहाँ अलग हैं इंसान? हर जगह तो वो ही उद्भाव है, वैसे ही उद्गार, वो ही श्रद्धा, वो ही आस्थाओं का सैलाब। हम समझते हैं ये धार्मिक आस्थाएँ और उनके प्रबल प्रकटीकरण सिर्फ़ हमारे देश में ही होते हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

तत्क्षण मेरे मन में एक ख़याल कौंधता है। दूर से किसी को भी जानने, पहचानने और समझने का दावा करना एकदम गलत होता है। नज़दीक जाकर ही तो वास्तव में किसी की हकीकत जानी जा सकती है। नाहक़ ही क्यों लोग बिना जाने किसी के बारे में धारणाएँ कायम कर लेते हैं और उन्हें ही सच भी मान लेते हैं? क्या ये किसी शख़्स को उसके कद से ओछा या विराट साबित करने, उसके व्यक्तित्व को कुचलकर ख़त्म करने या झूठ-मूठ चोटी पर बिठाने जैसा नहीं हैं? मन में घमासान मचाती इन बहुत सी उथल-पुथल को साथ लेकर हम यहाँ से वापसी के सफ़र पर चल पड़े।

सारी राह इसी ऊहापोह में उलझे डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम अंततः कुसादासी पहुँच गये।

होटल जाकर फ्रेश होकर हम डिनर लेने अपने रूफटॉप रेस्तरां में गये हैं। खाने की हर टेबल पर धीमी रोशनी बिखेरती मोमबत्तियाँ टिमटिमा रही हैं।

सामने ही समंदर एक लय में गाता हुआ लहरा रहा है। ठंडी-ठंडी हवा के झोंके माहौल में और मादकता भर रहे हैं। कैंडल लाइट डिनर का एक उपयुक्त समाँ निर्मित है। सामने समंदर में अभी-अभी हुए सूर्यास्त के बाद की लालिमा की ओढ़नी दूर तक फैली हुई है। धीमी आवाज़ में तुर्किश गाने बज रहे हैं। नशे के लिये इतना ही काफ़ी है हम जैसे ना पीने वालों के लिए।

मर्काइम सूप (मसूर की दाल का), नर्किम (भुना पनीर पुदीना), दोल्मा (चावल, सब्जियां एवं दही का हर्ब, मसाला युक्त मिश्रण बेल के पत्ते में भरा और जैतून तेल में भुना), बुलगुर पिलाव, पुलाव नहीं (उबले पके हुए गेंहू बींस, छोला, टमाटर, लहसुन, प्याज की बनी परंपरागत डिश) और इरिस्ते (पास्ता)! इस ठेठ शाकाहारी तुर्किश खाने का आज लुत्फ़ उठाया है। डेज़र्ट्स में स्थानीय पकवान सरमा मंगाया है जो चावल, अंजीर, चेरी, किशमिश, ब्लैक बेरी और बेल पत्ते से बनता है। बहुत ही लज़ीज़ डिश। काफ़ी समय तक स्वाद मुँह में घुला रहा। हालांकि तुर्की आने के बाद से कमोबेश तुर्की व्यंजन ही खाएँ हैं, पर आज पहली बार इतना स्वाद लेकर खाया। यही अंतर है हड़बड़ी में या ध्यान कहीं और हो तब खाना खाने में और शांत मन आराम से बैठ कर भोजन करने का आनंद उठाने में।

पूरा वक्त लेकर खाना खाने के बाद हम नीचे उतरे हैं और होटल से दस कदम दूर फैले समंदर के पैरों से ‘फुटसी’ करने चल पड़े हैं। तक़रीबन एक-डेढ़ घंटे आती-जाती लहरों के साथ जी भरके अठखेलियाँ करने के बाद साढ़े ग्यारह बजे वापस होटल में अपने कमरे में जाकर आज के दिन को मन ही मन दोहराते हुए सोने की कोशिश कर रहे हैं, पर नींद है कि एफ़ेसस की अलगनी में ही अटक के रह गई है। एक गाढ़ी नींद जरूरी है, कल के दिन को जीने के लिये। कितनी ही कोशिशें कर रहे, किंतु नींद को उस अलगनी से उतारकर अपनी आँखों पर नहीं ओढ़ पा रहे। घड़ी की ओर बरबस नज़र गई है, उसने सवा बारह बजने की सूचना दी है। रिवायती तौर पर तारीख़ बदल गई है। एक दूसरा दिन शुरु हो गया है पर हमारी रात ही नहीं आ रही आज की!

पता नहीं करवटें बदलते कितना समय बीत गया दोनों तारीखों के बीच! फिर ना जाने कब आँख लग गई।

दिल की खिड़की में टँगा तुर्की

दिल की खिड़की में टँगा तुर्की

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कृष्ण मोहन कुमार

बेजोड़ लेख! मन आनंद से भर गया. चित्र सजीव हो रहे थे. एक झोंके में पूरा पढ़ डाला, इतना आकर्षण पाया लेखनी में. शुभकामनाएं!