जल्दी जयपुर पहुँचने के चक्कर में जवाद इब्राहिम ने मुख्य मार्ग से न जाकर, जंगल से हो के जाने वाला ये छोटा रास्ता चुना था। हालाँकि उसकी पत्नी रुख़सार ने एतराज़ भी किया था। शाम का धुँधलका हो रहा था कि अचानक उसकी कार घुर्र-घुर्र कर बंद हो गयी। बस रुख़सार ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, “मैं कह रही थी कि मुख्य मार्ग से चलो, पर तुम्हें तो जल्दी पहुँचना था। वाह! कितनी जल्दी पहुँच गये।”, रुख़सार ने तंज़ कसते हुए कहा, “जाने कौन सा इलाका है, अँधेरा भी हो रहा है।”
रुख़सार को बड़बड़ाता छोड़ जवाद गाड़ी से उतरा और अपनी लंबी शक्तिशाली टॉर्च की रोशनी इधर-उधर डाली। सड़क के दाहिनी ओर एक लाल बजरी वाला रास्ता था। किनारे पर लगे तीर के निशान के साथ बोर्ड पर लिखा था “संगमहल”। उसने कार में बैठी रुख़सार से कहा, “फ़िक्र न करो। हम सन्दलगढ़ की हवेली के आस पास के इलाके में हैं। मैं बोनट खोल के देखता हूँ क्या गड़बड़ है।”
इधर जवाद ने बोनट खोल के कार के इंजन का निरीक्षण करना शुरू किया, उधर रुख़सार ने फिर से बड़बड़ाना।
“अब चुप भी हो जाओ ताकि मैं कुछ सोच सकूँ।”
“जो कुछ सोचना हो जल्दी सोचो। एक तो वैसे ही सुनसान डरावना इलाका है। अँधेरा भी हो रहा है। ऊपर से हमने दुश्मन भी बहुत बना रखे हैं।”
“रुख़सार इब्राहिम! जिस दिलेरी से दुश्मन बनाये थे, उसी दिलेरी से उनका सामना करना भी सीखो।”, जवाद ने हँसते हुए कहा।
“मैं अपने नहीं तुम्हारे दुश्मनों की बात कर रही थी। मेरे दुश्मन तो बिज़नेस करने वाली औरतें हैं और मैं उनके इतने राज़ जानती हूँ कि वो क्या खाकर मुझसे बैर मोल लेंगी। और अगर लेंगी तो उनसे निबटने के लिए मैं तैयार हूँ।”
“वैसे अगर तुम चाहो तो इस मामले में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।” जवाद के चेहरे पर शैतानी मुस्कुराहट थी।
“वो कैसे?”
“उन्हें गले से लगा के।” इतना कहकर वो ठहाका मार के हँस पड़ा।
“जी शुक्रिया, मुझे आपकी मदद नहीं चाहिए। आप अपनी फिक्र करें। सारे माफिया डॉन दुश्मन बना रखे हैं। ऊपर से पुलिस…।”
“पहली बात उनमें से किसी को पता नहीं है कि मैं यहाँ हूँ लेकिन अगर पता हो भी तो वो लोग उधर पैर करके भी नहीं सोते जिस इलाके में जवाद इब्राहिम होता है।”, जवाद ने बात काटते हुए कहा। उसके स्वर में घमंड साफ झलक रहा था।
“कहीं तुम्हारी ये ख़ुश-फ़हमी ही तुम्हें न ले डूबे।”
“यार! जवाद इब्राहिम की बीवी होकर तुम कैसी डरपोक लोगों की तरह बातें करती हो।”
“मैं सिर्फ़ आगाह कर रही हूँ। क्योंकि अगर कुछ हुआ तो मुझे ही तुम्हें बचाना पड़ेगा और ख्वामखाह तुम्हारी किरकिरी होगी।” रुख़सार की आँखों में शैतानी चमक थी।
“ओह! तो आप मुझे बचायेंगी भला वो कैसे ?”
“वैसे ही, जैसे तुम मुझे बचा रहे थे, यानी उन्हें गले लगाकर।” इस बार ठहाका रुख़सार ने लगाया।
इससे पहले कि जवाद कुछ जवाब देता, किसी शक्तिशाली टॉर्च की रोशनी उन पर पड़ी और भारी गम्भीर आवाज आयी, “गाड़ी खराब हो गयी है क्या?”
टॉर्च की रोशनी और रोबीली आवाज़ से दोनों की रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गयी। एक पल को तो उन्हें लगा कि कहीं सचमुच ही तो नहीं किसी दुश्मन को उनकी भनक लग गयी। अभी तक एक-दूसरे से मज़ाक कर रहे जवाद और रुख़सार के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लेकिन वो जवाद इब्राहिम था। अपने आप पर क़ाबू पा बिजली की तेजी से उसका हाथ जेब में पड़े रिवाल्वर पर पहुँचा और अगले ही पल रिवाल्वर उसके हाथ में था। हाथ में रिवाल्वर आते ही वो किसी भी परिस्थिति से निबटने के लिए चाक चौबन्द नज़र आने लगा। उसने दाहिनी एड़ी और बाएँ पंजे पर तेजी से घूम कर पीछे देखा। वहाँ एक लम्बा, अपनी आवाज़ जैसी ही रोबीली दाढ़ी मूँछ वाला, अधेड़ लेकिन मजबूत नज़र आ रहा व्यक्ति खड़ा था।
“जी हाँ, आप कौन?” जवाद ने सवाल किया।
“मैं हरनाम सिंह, सन्दलगढ़ रियासत का मैनेजर और आप?”
“जी, मैं जवाद इब्राहिम।” जवाद ने रिवाल्वर जेब में रखते हुए कहा और दोनों हाथ जोड़ के नमस्कार किया।
“अरे! आप, आप वो रुख़सार इंटरप्राइसेस वाले जवाद इब्राहिम हैं न?”
“जी हाँ, रुख़सार जी यानी मेरी पत्नी भी साथ ही हैं।” जवाद ने रुख़सार की ओर इशारा किया।
“ओह! मुआफ़ कीजियेगा। अँधेरे की वजह से मैं पहचान नहीं सका। देखिये अब इस समय कोई मिस्त्री तो मिलने से रहा, और अगर मिल भी गया तो इस अँधेरे में वो शायद ही कुछ कर पाएगा। वैसे भी आप जैसे शख्सियत का पत्नी के साथ यहाँ इस वीराने में इस तरह खड़े रहना अच्छा नहीं लगता। ये तो अच्छा है कि मैं रोज़ रियासत के मुआयने पर इस समय इधर आता हूँ। हमारे राजा साहब को आपसे मिल के ख़ुशी होगी। मेरे ख़याल से तो आप अभी मेरे साथ चल कर उनकी मेहमानी कुबूल फ़रमाएँ। संगमहल पास ही है। आज रात आप वहीं आराम करें। मैं मिस्त्री को ख़बर करवा देता हूँ, वो सुबह आ के देख लेगा।”
एक लम्हे को जवाद इब्राहिम व रुख़सार की नज़रें मिलीं। फिर जवाद वापस घूम कर बोला, “आप ठीक कह रहे हैं।”
“बस एक घड़ी की मोहलत दें, मैं गाड़ी मँगवा लेता हूँ।” हरनाम ने मोबाइल निकालते हुए कहा। देखा देखी जवाद को भी अपने जयपुर वाले कारोबारी दोस्त का ख़याल आ गया, जिससे कि वो मिलने जा रहा था। सोचा कि उसे बता देना चाहिए कि वो कल पहुँचेगा। इसलिए अपना मोबाइल निकाल उसका नम्बर मिलाने लगा।
***
हरनाम सिंह ने जवाद और रुख़सार को कलात्मक मूर्तियों से सजे संगमहल की शानदार बैठक में बिठाते हुए कहा, “आप लोग तशरीफ़ रखें। मैं बस राजा साहब को ख़बर कर हाज़िर होता हूँ।”
“जी जरूर।”
हरनाम सिंह के जाते ही जवाद घूम-घूम कर बैठक की साज सज्जा देखने लगा जो कि किसी को भी दंग कर देने के लिए काफ़ी थी। बगल में गागर रखे एक बैठी हुई स्त्री की प्रतिमा को देख वो ठिठक कर रुक गया। स्त्री की उठी हुई ठुड्डी उसकी लम्बी गर्दन को और भी सुंदर आकार दे रही थी। वो बायीं ओर रखी गागर पर हाथ इस तरह से टेके हुए थी, जैसे जिस्म का सारा बोझ उस गागर पर डालकर उसी के सहारे बैठी हो। होंठों पर सपनीली मुस्कान, पर आँखें बंद थीं। जैसे किसी ख़्वाब में हो। तभी पीछे से आवाज़ आयी, “पनघट की याद।”
जवाद ने पीछे घूम के देखा तो वहाँ जतिन जागीरदार को मुस्कुराता खड़ा पाया।
“इस मूर्ति का नाम है, “पनघट की याद।” उसने मिलाने के लिए हाथ बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया, “जतिन, हालाँकि लोग जतिन जागीरदार कहते हैं।”
“आपके और यामिनी जी के बनाये बुतों से सन्दलगढ़ का क्या सारे हिन्दुस्तान का नाम रौशन है। आपको कौन नहीं जानता राजा साहब। हाँ ये दीगर बात है कि आज से पहले कभी मुलाक़ात की ख़ुशकिस्मती हासिल नहीं हुई थी। मुझे जवाद इब्राहिम कहते हैं।” जवाद ने हाथ मिलाते हुए कहा।
“पहचान के तो आप भी मोहताज़ नहीं इब्राहिम साहब। आये दिन अख़बार में आपके बारे में पढ़ते रहते हैं।”
“अरे जाने दीजिये, ये अख़बार, ये मीडिया तो यों ही आसमान सर पे उठाए रहते हैं। आज हमें पनाह देने के लिए हम आपके बेहद शुक्रगुज़ार हैं।” रुख़सार ने आगे बढ़ हाथ जोड़ते हुए कहा।
“इस शुक्रिया के तकल्लुफ़ की कोई ज़रूरत नहीं रुख़सार जी। दरअसल ये तो अच्छा हुआ कि हरनाम चाचा उधर आ निकले वरना न जाने कितनी देर आप लोग वहाँ खड़े रहते। क्योंकि उनकी बातों से मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे आप लोग इस इलाके से वाकिफ़ नहीं हैं।”
“हाँ, मैं इस रास्ते पहली बार आया हूँ।” जवाद ने स्वीकारा।
तभी यामिनी ने प्रवेश किया। उसके अप्रतिम सौंदर्य को देख जवाद का मुँह खुला का खुला रह गया। रुख़सार ने उठकर उनका अभिवादन किया तो उसे होश आया और हड़बड़ाकर वो भी हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उनके अभिवादन का उत्तर देते हुए यामिनी ने कहा, “बैठिये। फिर दरवाजे की ओर मुँह कर आवाज़ दी, “रतन चाय ले आओ।”
यामिनी की आवाज़ के साथ ही रतन कई नौकरों के साथ चाय-नाश्ते की ट्रे उठाये कमरे में दाखिल हुआ।
चाय के दौरान जवाद ने जतिन और यामिनी के बनाए पत्थर के बुतों का ज़िक्र एक बार फिर छेड़ा, “रानी साहिबा, आपको देख कर कोई जल्दी विश्वास नहीं करेगा कि आप पत्थर पर छेनी हथौड़ी चला सकती हैं। संगतराशी में आप दोनों को कमाल हासिल है। आपके बनाए बुतों को देख के लगता है, जैसे अभी बोल पड़ेंगे।”
“शुक्रिया! आप जिस बुत “पनघट की याद” को गौर से देख रहे थे, उसके बगल में ही एक धनुष पे डोरी चढ़ाते भील का बुत रखा है। ‘जीवन संघर्ष’ नाम के इस बुत को यामिनी जी ने बनाया था। इन दोनों को संयुक्त रूप से अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।” जतिन ने उत्साह से बताया।
ये सुनकर जवाद अपना चाय का कप लिए हुए ही उठा और जतिन के बताये बुत के पास चला गया। थोड़ी देर तक उसे ध्यान से देखता रहा फिर वापस आ के बोला, “वाह रानी साहिबा। सचमुच आपके हाथों में भी कमाल का जादू है। डोरी खींचने में लगी ताकत के कारण भील की भुजाओं की उभरी मांसपेशियाँ, खिंचा हुआ जबड़ा, चेहरे की एक-एक शिकन, डोरी का तनाव सभी कुछ कमाल का है।”
“जी शुक्रिया।” प्रसन्नता के कारण जतिन और यामिनी के मुँह से एक साथ निकला।
एक तो व्यापारी ऊपर से दो नम्बरी, जवाद इब्राहिम ने उन्हें प्रसन्न देखा तो गरम लोहे पर चोट की, “गुस्ताख़ी मुआफ़ हो तो एक बात कहूँ राजा साहब?”
“जी कहिये।”
“देखिये मैं जानता हूँ कि आपको धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। भगवान का दिया आप के पास सब कुछ है। भगवान आपके पिता सहित पुरखों को जन्नत बख्शे, क्योंकि वो तरक्की के रास्ते पर चले। उन्होंने जमींदार होने के बावजूद इस धन दौलत, ज़मीन जायदाद को ख़र्च करने के बजाय आने वाली पीढ़ी के लिए बढ़ाया। मैं सिर्फ़ आपके लिए ही नहीं कह रहा हूँ। मेरा परिवार भी इसी रास्ते पर चला। कहने का मतलब ये कि अब अपने बापदादों के नक़्श-ए-क़दम पर चलने और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए तरक्की करने की बारी हमारी है। लेकिन अब ज़माना बदल गया है, इसलिए हमारे पुराने तौर तरीकों से तरक्की कर पाना नामुमकिन न भी हो तो भी बेहद मुश्किल जरूर है। मैं ये नहीं कहता कि आप जागरूक नहीं है। आप अमेरिका में बड़े हुए और पढ़े हैं। अपनी जायदाद की आमदनी बढ़ाने के लिए जो भी आधुनिकीकरण आवश्यक होगा आपने किया ही होगा। परन्तु एक व्यापारी के नज़रिये से मुझे कुछ नज़र आया है, जहाँ अभी तरक्की की गुंजाइश है। अगर इजाज़त हो तो अर्ज़ करूँ?
“हाँ-हाँ कहिए भाई, पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं।” जतिन ने हँस कर हौसला बँधाया।
“ठीक है, देखिये मैं जानता हूँ कि आपकी मूर्तियों की, कला के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी साख है और आपको इनकी अच्छी कीमत भी मिलती है। ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि सब ठीक है। लेकिन जब किसी प्रतियोगिता में आपको पुरस्कार मिलता है या आपकी पुरस्कृत कलाकृति को कोई पारखी बेहद ऊँचे दाम लगा के खरीद लेता है तो मीडिया उसे खूब प्रचारित करता है। उस प्रचार का फ़ायदा जानते हैं किसे होता है?”
“पुरस्कार देने वाली संस्था और खरीदार को, उन्हें शोहरत हासिल होती है। साथ ही हमें दोहरा फायदा होता है यानी शोहरत के साथ साथ हमारी मूर्तियों के दाम का पैमाना भी ऊँचा उठता जाता है, जिससे अगली बार और ऊँचा दाम लगने की गुंजाइश बनती है।” जतिन ने बेहिचक जवाब दिया।
“एक चौथा व्यक्ति भी है, जिसे शोहरत तो नहीं मिलती लेकिन पैसे के हिसाब से उसे आप से ज्यादा फ़ायदा होता है।” जवाद ने शगूफ़ा छोड़ा।
“वो कौन?”
“कालाबाज़ारी, जो कि मशीनों से आपकी मूर्ति की सैकड़ों की तादात में मिलती जुलती नकल बनाकर, उन्हें सीधे सादे लेकिन पैसे वाले अमीरों को असल बताकर कम दाम में बेच कर उन पर अहसान जताते हैं। या यों कहें कि ठगते हैं।”
जवाद के इस खुलासे से एक लम्हे को सन्नाटा छ गया। फिर जतिन ने चुप्पी तोड़ी, “ये तो गैरकानूनी है। पुलिस…।”
“इन लोगों की पहुँच इतने ऊपर तक है कि पुलिस भी इनसे डरती है। आप कह सकते हैं कि ये पुलिस को अपनी जेब में रखते हैं।”
“इस सारी बात से तो ये लगता है कि हम बेबस हैं।”
“मेरे रहते हुए अगर आप आप बेबस हों तो ये मेरे लिए डूब मरने की बात है। बस ये समझ लीजिये कि अगर ये लोग पुलिस को जेब में रखते हैं तो आपकी दुआ से आपका ये भाई यानी मैं, इन्हें अपनी जेब में रखता हूँ। इसे ऐसे समझें कि अपने रास्ते पर मेरी मौजूदगी जान ये रास्ता बदल लेते हैं।”
“ठीक है, जरा खुल कर बतायें कि हमें क्या करना चाहिए?”
“जहर को जहर से मारना होगा। आप अपनी मूर्तियों के त्रिआयामी(Three Dimensional) चित्र हमें मुहैया करायेंगे। उनकी मदद से मैं मशीनों द्वारा डुप्लीकेट मूर्तियाँ बनवाऊँगा, जिन्हें आप अपनी छेनी हथौड़ी के जादू से, असली से कुछ मिलता-जुलता सा रूप दे देंगे। फिर हम उन्हें बाज़ार में उतारेंगे। साथ ही मैं अपनी पहुँच का इस्तेमाल कर प्रचार करूँगा कि असली हमारी है, बाकी लोगों की नकली है। अब चूँकि हमारी मूर्तियाँ दूसरे काला बाज़ारियों की मूर्तियों से बेहतर होंगी इसलिए लोगों को भरोसा भी होगा। हमारी मूर्तियों के हमें अच्छे दाम भी मिलेंगे। यानी इससे दो फायदे होंगे। एक तो ये कि कालाबाजारियों का धंधा बंद होगा। दूसरा आपके हुनर, आपकी मेहनत का जो मुनाफ़ा उन्हें हो रहा था वो आपको होगा।” जवाद ने एक ही साँस में बात खत्म की और अपनी बात का असर जानने के उद्देश्य से एक सरसरी सी नज़र सब पर डाली फिर बोला, “कहिए कैसी लगी मेरी योजना?”
“हमें सोचने का थोड़ा वक़्त दें।” जतिन ने विनम्रता से जवाब दिया।
“जरूर, इसी सिलसिले में और भी कई हिकमतें या तरीके हैं मेरे दिमाग में, जो कि अमल में लाये जा सकते हैं। जैसे कि आपके और यामिनी जी की छेनी हथौड़ी के जादू से “पनघट की याद” को राधा और यामिनी जी की “जीवन संघर्ष” को अर्जुन का रूप दिया जा सकता है और फिर इन्हें केमिकलों की मदद से खुदाई में निकली पुरानी मूर्ति का रूप देकर और भी महंगे दामों में बेचा जा सकता है।”
तभी रतन ने आ कर ख़बर दी, “खाना तैयार है।”
“ठीक है, खाना लगवाओ।” यामिनी ने उसे आदेश दिया और वापस घूम कर बोली, “बातों ही बातों में इतना समय बीत गया कि भोजन का समय हो गया। आइये भोजन करते हैं, बातें तो होती ही रहेंगी।”
भोजन के दौरान जतिन ने चुप्पी तोड़ी, “जवाद साहब, अभी आपने बताया कि ज़ाहिरा तौर पर जो बुतों का कारोबार है, उसके समानान्तर और उससे बड़ा पर्दे के पीछे चलता है। मुझे लगता है कि अगर पत्थर के बुत जैसी वस्तु में ऐसा मुमकिन है, तो बाक़ी वस्तुओं में तो और भी आसान होना चाहिए। इस हिसाब से जो कारोबार दुनिया को दिखता है वो सिर्फ़ मुखौटा है। असल कारोबार तो मुखौटे के पीछे होता होगा और उसकी आम आवाम को भनक तक नहीं होगी।”
“आपका अन्दाज़ा बिलकुल दुरुस्त है। मिसाल के तौर पर दवाओं को ले लें। बाज़ार में दवायें तीन तरह की आती हैं। पहली असली, दूसरी कम असली और तीसरी नकली।”
“मैं कुछ समझा नहीं।”
“मैं समझाता हूँ। देखिये असली तो आप समझते ही हैं वो एक्सपोर्ट, वी आई पी, खास लोगों वगैरह या यों कहिए कि जहाँ फ़ँसने का खतरा होता है, वहाँ भेजी जाती हैं। क्योंकि सप्लाई कम होने के कारण इन सब को ही पूरा पड़ जाये तो बहुत है। बाकी को सप्लाई होती है कम असली यानी वो दवा जिसमें दवा का केमिकल तो वही होता है, लेकिन उसकी पोटेन्सी यानी मात्रा कम होती है, इसलिए कभी खाने वाले को लगता है कि फ़ायदा हो रहा है और कभी लगता है कि शायद नहीं हो रहा। तीसरी श्रेणी बिलकुल नकली दवाओं की है जो न फायदा करती हैं न नुकसान। गरीब तबका किस्मत के भरोसे वही खाता रहता है। यही हाल खाने की और दूसरी चीजों…।”
“आप इतने दावे से कैसे कह सकते हैं। अगर ये सच होता तो अब तक गरीब तबके की आबादी काफी कम हो चुकी होती।” जतिन ने आश्चर्य जताया।
“आपका इस तरह शुबह करना बिलकुल लाज़मी है, लेकिन हुज़ूर ज़िंदा तो अल्लाह रखता है। दवा दारु तो उस ऊपर वाले की एक नियामत या बचाने का बहाना है। मैं जानता हूँ आपको ताज्जुब हो रहा होगा, साथ ही ये सब मानने को आपका दिल नहीं कर रहा होगा। लेकिन ऐसी बहुत सी अजीब लगने वाली बातें हैं जिन्हें मानने को दिल गवारा नहीं करता लेकिन वो भी सच हैं। मिसाल के तौर पर यहाँ ड्रग्स का ख़ास सरगना कौन है, जानते हैं?”
“मैं भला कैसे जानूँगा? कौन है?”
“अगर आप अपने तक ही रखें तो मैं आपके कान में बता सकता हूँ?”
“अपनी रिआया की भलाई के ख़याल से अगर ये बात मुझे मालूम रहेगी तो मैं कम से कम ख़बरदार तो रहूँगा ही। आप बेफिक्र रहें, आपकी बात मेरे कान तक ही रहेगी।”
जवाद ने दोनों औरतों को इस राज़ में शामिल न करने के लिए माफ़ी माँगी, “आप दोनों मोहतरमायें मेरी इस बेअदबी के लिए मुझे मुआफ़ करें। ये जानकारी आपको न ही मिले तो बेहतर है। क्योंकि ये शख़्सियत इतनी खतरनाक और बेरहम है कि उसे जैसे ही पता चलता है कि उसका भेद किसी शख्स पर उजागर हो गया है तो वो उसे तुरन्त मरवा देता है।” इतना कहकर वो सोफ़े से उठा और जतिन के करीब पहुँचकर उसके कान में बेहद धीरे से फुसफुसाया, लेकिन उसने अपने होंठों को अपनी हथेली की आड़ में कर रखा था, ताकि कोई होंठों का हिलना भी न देख सके।
जतिन ऐसे चौंका जैसे उसने भूत देख लिया हो। उसके मुँह से निकाला, “नामुमकिन! आप मुझे बना रहे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है?”
“हो सकता का सवाल ही नहीं है। ये बात सोलह आने, बावन तोला पाव रत्ती सच है। अब सवाल है कि मैं इतना सब कैसे जानता हूँ तो इसके जवाब में अर्ज़ करना चाहूँगा कि इस कान में बताये शख़्स को छोड़ बाकी सब का सरगना मैं ही हूँ। इस काम का इसलिए नहीं, क्योंकि ये काम कच्चा है। एक तो इसमें रोज फुटकर फेरीवालों को पुलिस पकड़ लेती है। उन्हें बचाओ तो बदनाम होने का खतरा, न बचाओ तो रोज नए चाहिए। दूसरे इस काम को करने से मेरे दूसरे कामों का हर्ज़ होता है। ख़ैर, मेरा ये सब बताने का मकसद बस इतना था कि अब आपको अपने ज़ाती इस्तेमाल के लिए किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो कारिंदे को बाज़ार दौड़ाने के बजाए अपने इस भाई को इत्तला करवा दें। असली और बेहतरीन सामान आपके दौलतखाने पर या जहाँ आप हुकुम करें पहुँचा दिया जाएगा।”
“जी शुक्रिया, ऐसा लगता है कि जैसे आपकी कार, भगवान ने आपको मुझसे मिलवाने के लिए ही ख़राब करवाई थी।” जतिन ने मुस्कुरा के कहा, तो उसकी इस बात पर ज़ोर का ठहाका लगा। इसी ठहाके के बीच जतिन और यामिनी की नज़रें मिली और एक पल को उन दोनों की आँखों में एक अजीब सी चमक उभरी जिसे कोई न देख सका।
सभी लोग भोजन समाप्त कर चुके थे। जतिन ने विदा लेते हुए कहा, “मेरा ख़याल है कि रात बहुत हो चुकी है। आज की बैठक को यहीं विराम देते हैं। आप लोग भी आराम करें, रतन आपको आपके कमरे तक पहुँचा देगा। अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेहिचक उसे बता दें।”
“जी बहुत-बहुत शुक्रिया।”
इधर जतिन और यामिनी अपने सोने के कमरे की तरफ चले, उधर जवाद रतन से मुखातिब हुआ, “चलिये रतन बाबू, बताइये हमें कहाँ जाना है।”
रतन ने उन्हें मेहमानों का कमरा दिखाया। जवाद ने उसका शुक्रिया अदा कर रुख़सत किया। रतन के जाते ही इतनी देर से भरी बैठी रुख़सार जवाद पर चढ़ दौड़ी, “पहली ही मुलाक़ात में अपना सारा कच्चा चिट्ठा खोल के रख देने की क्या ज़रूरत थी?”
“यार वो यामिनी जी के रूप के जादू से बाहर आने की बौख़लाहट में जाने क्या-क्या बक गया।” जवाद ने सकपका कर कहा।
“ये क्यों नहीं कहते कि उस पर अपना जादू चलाने के लिए शेख़ी बघार रहे थे।” रुख़सार ने सुलग कर दाँत पीसे।
“यार जब जानती हो तो पूछती क्यों हो।” जवाद की आँखों में शैतानी थी।
“क्या तुमने जतिन जागीरदार जैसा बाँका छैला जवान आज से पहले कहीं देखा है?” रुख़सार का स्वर गंभीर हो उठा था।
“क्यों? तुम्हारा दिल फ़िसल रहा था क्या?” जवाद का लहज़ा अभी भी मज़ाकिया ही था।
“क्यों? क्या ये हक सिर्फ़ तुम मर्दों को ही है?”
“तुम तो यार बात का बतंगड़ बना रही हो।”
“नहीं, बल्कि जो देखा वो ही बयान कर रही हूँ।”
“देखो तुम्हें कुछ…।”
“नहीं मुझे कोई गलतफहमी नहीं हुई है। मैं एक औरत हूँ और मर्दों की नज़रें खूब पहचानती हूँ। यामिनी जैसे पत्नी के होते हुए भी जनाब राजा साहब बहाने-बहाने से मेरे जिस्म को आँखों से ही पी जाना चाह रहे थे।”
“अच्छा?” जवाद का मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया।
“जी हाँ। तुम्हें ये याद दिलाने की शायद ज़रूरत नहीं कि मैं ठाकुरों के इलाके में पैदा हुई, पली बढ़ी हूँ, इसलिए इनके बारे में मैं तुम से ज्यादा जानती हूँ। अब जरा सोचो, हम न सिर्फ़ उनकी रियासत यानी उनके इलाके में हैं, बल्कि उनकी हवेली में हैं। अगर उनके किसी नौकर को भी तुम्हारे छिछोरेपन की जरा सी भी भनक या शक हो जाता तो जानते हो क्या होता?”
“क्या?”
“खाने की मेज़ पर ही तुम्हारा सर धड़ से अलग होता। फिर तुम्हारी लाश और तुम्हारी कार को ऐसे गायब कर दिया जाता, जैसे तुम यहाँ कभी आये ही नहीं थे। और मैं अगर उसकी नज़रों की ज़बान सही पढ़ रही हूँ तो इस समय वो मेरे बदन से अपना बिस्तर गरम कर रहा होता।”
अपनी बात खत्म कर रुख़सार ने जवाद की ओर देखा। उसका घबराहट से खुला मुँह और उड़ा हुआ रंग देखकर पुकारा, “जवाद!”
“अऽहाँ!” जवाद जैसे नींद से जागा।
जवाद की हालत देख उसे हँसी आ गयी, “घबराओ नहीं, कुछ हुआ नहीं है लेकिन हो सकता था। यानी हमें सावधान रहने की ज़रूरत थी और है।” इतना कहकर माहौल को हल्का करने के लिहाज से जवाद की जाँघ पर हाथ मार के मज़ाकिया अंदाज़ में बोली, “वैसे मेरे तो मजे हो जाते तुम्हारी गैर मौजूदगी में सारा कारोबार तो मैं वैसे भी सँभालती ही हूँ। तब और बढ़िया से सँभालती क्योंकि तुम्हारे सारे दोस्त और दुश्मन मेरे आशिक हैं। उस सूची में एक सबसे सुंदर सबसे प्यारा आशिक और जुड़ जाता जतिन जागीरदार।” कहते हुए रुख़सार ने जवाद की तरफ होंठ दबा कर आँख मारते हुए एक दिलकश अंगड़ाई ली।
इस सब से जवाद के चेहरे की घबराहट कम हुई और वो भी मुस्कुरा पड़ा। तभी उसकी नज़र कमरे के बन्द दरवाज़े पर पड़ी। दरवाजे के नीचे की दरार से ऐसा लगा, जैसे दूसरी ओर परछाई सी गुज़री हो। अगले ही पल वो बला की फुर्ती से बेआवाज पलंग से कूद कर दरवाज़े पर ऐसे पहुँचा जैसे पैरों में स्प्रिंग लगे हों। बिना एक पल गँवाए उसने दरवाज़ा खोल कर चारों तरफ नज़र दौड़ाई। आँगन में चाँदनी बिखरी थी। उसे कोई नज़र तो नहीं आया, लेकिन ऐसा लगा कि आँगन के दूसरी ओर जो कमरा है उसका पर्दा शायद हल्का सा हिला था। ऐसे जैसे कोई अभी अभी अन्दर गया हो। दरवाज़ा ठीक से बन्द कर वो वापस पलंग पर लौट आया। चेहरे पर बेचैनी और धौंकनी सी चलती साँस देख रुख़सार ने पूछा, “क्या हुआ?”
“शायद कोई दरवाज़े पर खड़ा हमारी बातें सुन रहा था।”
“तुम्हें यों ही शक़ हुआ होगा।”
“जो भी हो हमें चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।”
“घबराओ नहीं, अगर कुछ होना होता तो अब तक हो चुका होता। दरवाज़ा बन्द है और दरवाज़ा तोड़ मेहमान खाने पर धावा बोलने की ठाकुरों की फ़ितरत नहीं। आराम से सो जाओ, यहाँ कोई नहीं आयेगा।”
इसके बाद दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। रुख़सार तो आराम से सो गयी, लेकिन जवाद ने आँखो में रात काट दी। जब सुबह चिड़ियों की आवाज़ आई तो उसकी जान में जान आई और उसकी आँख लग गयी। उसी के कुछ देर बाद रुख़सार जगी और जवाद को गहरी नींद में सोता देख आहिस्ते से उठ गुसलखाने में चली गयी।
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जवाद इब्राहिम को गुनाह का दलदल विरासत में मिला था। कभी शिद्दू भाई के नाम से जाना जाने वाला लोकल गुंडा और कोई नहीं जवाद का बाप शादाब इब्राहिम ही था। वक़्त के साथ लोग उसकी गुंडागर्दी और गुनाह भूल गए हैं और उसे जवाद का बूढ़ा लाचार बाप मान तरस खाते हैं। शिद्दू एक बड़े माफिया किंग लंगड़ा पठान के लिए काम करता था। ठाकुरों के इलाके में पैदा हुआ और पला बढ़ा लंगड़ा पठान इतना मिलनसार और व्यवहार कुशल था कि उसको हर कौम का समर्थन प्राप्त था। कहते हैं कि तमाम हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद और मुस्लिम सम्प्रदाय के समझाने पर भी उसने मुस्लिम मोहल्ले में जा कर रहने से इन्कार कर दिया था और अपनी मौत के दिन तक, ठाकुरों के मकानों से घिरे, अपने पुश्तैनी मकान में उनके साथ मिलजुल के रहता था। उसके तमाम असामी वो थे जो ज़ाहिरा तौर पर तो बाज़ार में उसी की दुकानों पर छोटे-मोटे धन्धे करते थे, मगर उसके पीछे दरअसल लंगड़ा पठान के कानूनी ढंग से चलने वाले गैरकानूनी धन्धे करते थे। शादाब इब्राहिम यानी शिद्दू का काम उनसे हर महीने आमदनी लेने जाना था। लोग उसे इन आसामियों के पास आते-जाते देखते थे। एक दिन उसे एक आसामी के यहाँ से लौटते-लौटते दोपहर के दो बज गये थे। उसे भूख लग आई थी। सामने एक साफ-सुथरा होटल नज़र आया तो वो खाना खाने के लिए घुस गया। उसे देख काउंटर पर बैठा आदमी हड़बड़ा के खड़ा हो गया। उसे बड़ा अजीब लगा पर इस बात पर ज्यादा तवज्जोह न दे वो एक खाली मेज़ पर जा बैठा। काउन्टर वाले ने खुद आ के उसका ऑर्डर लिया। खाना खाने के बाद जब शिद्दू ने बिल माँगा तो काउंटर वाला हाथ जोड़ के बोला, “आपने हमारे होटल में खा के हमें इज्ज़त बख्शी शिद्दू भाई। हमें आपसे भुगतान लेने की होटल मालिक की तरफ़ से मनाही है।”
“अपने मालिक को बुलाओ।” शिद्दू का स्वर गम्भीर और ताज्जुब से भरा था।
कुछ ही मिनटों में हाथ जोड़े होटल का मालिक हाज़िर था।
“क्या बात है भाई? तुम्हारा मैनेजर पैसे क्यों नहीं ले रहा?”
“शिद्दू भाई, ये होटल लंगड़ा पठान भाई की मेहरबानी से बना है। आप ही का दिया खाता हूँ। अब मैनेजर बेचारा आप से आप ही के होटल में पैसे कैसे ले सकता है।”
शिद्दू वहाँ से लौट जब लंगड़ा पठान के पास पहुँचा और इस बात का ज़िक्र किया तो वो हँस पड़ा, “अबे पैसे दे के वहाँ मेरा नाम डुबोयेगा क्या? वो सब मेरा ही दिया खाते हैं, तुझसे पैसे कैसे ले सकते हैं? थोड़ा दिमाग इस्तेमाल किया कर। जा ऐश कर।”
फिर तो शिद्दू इतना समझदार हो गया कि लंगड़ा पठान की आड़ में उसकी अपनी दादागिरी भी आप से आप जम गयी। बचपन से नवजवान होने तक जवाद ने अपने बाप के दबदबे का पूरा लुत्फ़ उठाया। जब छोटा था तो माँ सामान लाने बाज़ार भेजती। दुकानदार सामान तो दे देते पर पैसे न लेते। यही नहीं चॉकलेट भी खिलाते। थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल से आने के बाद बाप के काम में भी हाथ बँटाने लगा। जिस दिन शिद्दू को आलस आता या किसी असामी से शाम को मिलना होता तो वो अपनी जगह जवाद को भेज देता। जवान होते-होते या यों कहें कि बी ए पास करते-करते ज़हीन जवाद ने बाप का लगभग पूरा काम सम्भाल लिया था। ये देख बूढ़े हो चले शिद्दू ने एक दिन उसे लंगड़ा पठान से मिलवाया। लंगड़ा पठान ने, शिद्दू की इल्तिजा पर उसे नौकरी से फारिग़ कर जवाद को उसी काम पर लगा लिया। लंगड़ा पठान के कोई लड़का नहीं था सिर्फ़ एक बड़ी ज़हीन और बाप के काम में बराबर से हिस्सा लेने वाली लड़की थी रुख़सार। उसकी ज़हानत देख लंगड़ा पठान को फिक्र रहती कि इसके मुक़ाबले का लड़का कहाँ मिलेगा। जल्द ही जवाद के ज़हन का जादू लंगड़ा पठान के सर चढ़ कर बोलने लगा। चालाक जवाद ने अपनी मेहनत और अपने मोहब्बत भरे बर्ताव से बाप-बेटी दोनों का दिल जीत लिया। बाप को उसमें अपना वारिस और बेटी को सरताज़ नज़र आने लगा। लंगड़ा पठान ने बेटी की रजामंदी देख उसका हाथ और अपनी माफिया सल्तनत दोनों जवाद को सौंप दीं। नए जमाने के जवाद और रुख़सार ने लंगड़ा पठान की मौत के बाद उसकी सब जायज नाजायज मिल्कियत को, रुख़सार इन्टरप्राइज़ेस के नाम से रजिस्टर करा के एक जायज कारोबार का रूप दिया। दोनों ने शैतान की खोपड़ी पायी है, इसीलिए आज वो कालाबाज़ारी की दुनिया के बेताज बादशाह बने बैठे हैं।
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जवाद की आँखें खुलीं, गुसलखाने से नहा-धो के निकली रुख़सार के गुनगुनाने से। उसने घड़ी पर नज़र डाली तो पाया कि वो करीब दो घंटे बाद जागा था और काफ़ी तरोताज़ा महसूस कर रहा था।
“गुसलखाने हो आओ, नाश्ते के लिए कोई बुलाने आता ही होगा, गाड़ी की भी तो फिक्र करनी है, क्योंकि जयपुर पहुँचना भी जरूरी है।” रुख़सार ने याद दिलाया।
बिना कोई उत्तर दिये जवाद गुसलखाने में घुस गया। जल्दी-जल्दी नहा-धोकर जब वो निकला तो रुख़सार बोली, “अभी अभी रतन नाश्ते के लिए बुला के गया है।”
“मैं तैयार हूँ, चलो।”
“तुम्हारे चेहरे को देख ऐसा लग रहा है जैसे या तो जंग लड़ने जा रहे हो या हार के लौटे हो, इसलिए चलने से पहले जरा मुस्कुराने की कोशिश करो, जिससे चेहरे के हाव-भाव दुरुस्त हों।”
“ठीक है।” जवाद खिसियायी मुस्कुराहट के साथ बोला, “आओ चलें।”
रुख़सार की हिदायत से इतना फायदा तो हुआ ही कि नाश्ते के दौरान जवाद मुस्कुराने की भले ही नाकाम, मगर कोशिश तो करता ही रहा। इसी दौरान हरनाम सिंह ने ख़बर भिजवाई कि गाड़ी बिलकुल दुरुस्त और सफ़र के लिए तैयार कर दी गयी है। रुख़सार ने महसूस किया कि ये ख़बर सुनकर जवाद के चेहरे की सारी बेचैनी जाती रही और सुकून नज़र आने लगा। नाश्ता खत्म होते ही उसने बिना देर किये जतिन से इजाज़त माँगी, “राजा साहब, आपकी और यामिनी जी की मेहमान नवाज़ी की तारीफ़ के लिए हमारे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं। आप दोनों की बेमिसाल संगतराशी और दिलचस्प ख़यालात से अभी और रूबरू होना बाक़ी है, लेकिन मजबूरी है क्योंकि आज जयपुर पहुँचना ज़रूरी है, इसलिए हमें इजाज़त दीजिये।”
“जी ज़रूर, हम फिर मिलेंगे और इसी बीच मैं आपके कारोबार वाली तज्वीज़ पर ग़ौर कर आपको इत्तला भी करता हूँ।”
रुख़सार ने महसूस किया कि दुआ सलाम के बाद गाड़ी में बैठते ही जवाद ने यों गाड़ी दौड़ाई जैसे कि उसके पीछे भूत लगे हों। वो रास्ते में कहीं चाय-पानी के लिए भी नहीं रुका। उसने सीधे जयपुर अपने कारोबारी दोस्त इम्तियाज़ के यहाँ पहुँच के ही दम लिया। इन्हें इतनी जल्दी आया देख इम्तियाज़ को भी आश्चर्य हुआ, “अरे बड़ी जल्दी आ गए, मैं तो समझ रहा था कि दोपहर तक आओगे।”
“पीछे भूत जो लगे थे भाई साहब।” रुख़सार ने बुरा सा मुँह बनाते हुए फब्ती कसी।
“जवाद भाई तो ख़ुद सबसे बड़े जिन्न हैं। इन्हें अपने से बड़ा कहाँ से मिल गया!” इम्तियाज़ ने हँसते हुए रुख़सार की बात में अपना सुर मिलाया।
“अबे तूने अभी तक चाय पानी तो दूर, बैठने तक को नहीं पूछा और पुलिसिया तहक़ीक़ात पहले शुरू कर दी।” जवाद झल्लाया।
“अरे आओ आओ, मुआफ़ करना भाई। दरअसल तुम्हारे आने का जो अमूमन वक़्त सोचा था, उससे पहले तुम्हें देख ताज्जुब हुआ, उसी वजह से भूल गया।”
चाय-नाश्ते के बीच रुख़सार ने हँस-हँस कर सारा क़िस्सा कह सुनाया। अपनी झेंप मिटाने के लिए जवाद बीच-बीच में टोका टाकी करता जा रहा था। पूरी बात सुनकर इम्तियाज़ ने चुटकी ली, “जवाद भाई, फर्ज़ करो अगर राजा साहब तुम्हारे साथ कारोबार करने को राज़ी हो गए तो क्या करोगे?”
“वैसे हालात में मेरे ख़याल से इन्हें यामिनी जी से राखी बँधवा लेनी होगी।” जवाब जवाद की जगह रुख़सार ने दिया।
“उससे क्या फ़ायदा होगा?” इम्तियाज़ ने ताज्जुब से पूछा।
“ज़ाहिर है, उन्हें घूरने से तो ये बाज़ आएँगे नहीं, लेकिन राखी बँधवा लेने के बाद बहन को घूरने पर भी कम से कम राजा साहब को तो शक़ नहीं ही होगा और जान बची रहेगी।”
एक ज़ोर के ठहाके के साथ इस बारे में बातचीत खत्म हुई।
राजा साहब का, कारोबार के मुतअल्लिक़, रुख़ जानने की नौबत ही नहीं आयी, क्योंकि इसके अगले हफ्ते ही दोनों मियाँ-बीवी यानी जवाद और रुख़सार अपने बिस्तर पर मरे पाये गये। दोनों में से कोई न तो दमा का मरीज़ था, न ही गला घुटने या किसी तरह की हाथापाई का कोई चिन्ह था। लेकिन मौत का कारण आक्सीजन की कमी।
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