भोजपुर की ठगी : अध्याय 23 : लतीफन का इजहार
आरा में बड़ी धूमधाम से रामलीला हो रही है। आज नवमी को मेघनाथ वध होगा, बड़ी भीड़ है। शहर भर के लोग टूट पड़े हैं। चार बजे का समय है। भीड़ ‘राजा रामचन्द्र की जय’ शब्द से आकाश गुँजा रही है। इतने में खबर आई कि नहर के किनारे चार लाशें पड़ी हुई हैं। यह सुनते ही भीड़ मेला छोड़कर लाश देखने चली। नहर के पास पहुँच कर लोगों ने देखा कि अंगाटोपी पहने चार मरे मुसलामानों को घेर कर दारोगा, जमादार और चौकीदार खड़े हैं और एक मुसलमान बुढ़िया छाती पीटती चिल्ला-चिल्ला कर रो रही है। भीड़ बहुत बढ़ गई। बहुतेरों ने मरे मुसलामानों को पहचाना। हौरा मचा कि लतीफन बीबी कहीं नाचने गई थी, लौटते समय नाव डूब जाने से समाजियों के साथ डूब गई। चारो मुसलमान उसी के समाजी हैं।
बुढ़िया रो रही है, कितने ही आदमी कितनी तरफ की बातें कर रहे हैं। इसी बीच में एक नाव आकर वहीं पर लगी और एक बड़ी खूबसूरत स्त्री नाव से उतरी। “लतीफन आई” का हल्ला मचा। बड़ा शोर मचा और धक्कम-धुक्की होने लगी।
“मेरी लतीफन कहाँ है?” “मेरी लाड़ली कहाँ” कहती बुढ़िया ने दौड़कर बेटी को छाती से लगाया और उसका सिर चूमने लगी। माँ-बेटी आँसुओं की धारा से एक दूसरे की छाती भिगोने लगीं। यह देखकर कितनों ही कि आँखें भर आईं।
जमादार ने लतीफन से पूछा – “तुम्हारी जान कैसे बची? नाव कहाँ डूबी?”
लतीफन – “खुदा ताला ने मेरी जन बचाई है। नाव डूबती कैसे?”
दारोगा – “तो क्या ये लोग पानी में डूबकर नहीं मरे? जरा इधर आकर तुम इन लोगों को पहचानों तो?”
लतीफन अपने समाजियों की लाश देखकर कुछ देर तक बदहवास हो गई, पीछे आँचल से आँखें पोंछकर बोली-“मुझे खूब याद है नाव डूबने से ये लोग नहीं मरे। शैतानों ने इन लोगों को मारकर पानी में फेंक दिया है। अम्मा, तूने ऐसे घर मुझे नाचने के लिये भेजा था? मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं जीती-जागती घर वापस आऊँगी।”
बुढ़िया -” ऐं क्या? अरे तेरे जेवर क्या हुए?”
लतीफन – “जेवर के लिये ही तो यह कयामत बरपा हुई।”
बुढ़िया – “अरे तो क्या मैंने शैतान के यहाँ लड़की भेजी थी? मैं क्या जानती थी कि हीरासिंह डाकू है।”
दारोगा-“मुरार का हीरासिंह?”
लतीफन – “हाँ।”
दारोगा – “हीरासिंह ने इनलोगों को मार डाला है?”
“मुझे बड़ी तकलीफ मालूम हो रही है; इस वक्त मुझसे कुछ बोला नहीं जाता।” कहकर लतीफन ने नहर से एक चिल्लू पानी उठाकर पी लिया।
दारोगा के हुक्म से एक चौकीदार दो इक्के भाड़े करके लाया। एक पर लतीफन माँ-बेटी और दूसरे पर दारोगा और जमादार बैठे। दारोगा ने हुक्म दिया – “महाजन टोली ले चलो।” इक्के खड़खड़ाते दौड़े गये और दो लाशों के पास रहे।
सबके-सब लतीफन के मकान पहुँचे। वहाँ आध घण्टा सबके आराम करने पर दारोगा ने लतीफन को बुलवाया। वह माँ के साथ दारोगा के पास आई। दारोगा ने उससे कहा-“तुमने जरा आराम कर लिया। अब बताओ क्या माजरा है तुम्हारे बदन पर कितने के जेवर थे?”
बुढ़िया -“हुजूर! माँ-बेटी ने जन्म बार नाच-गाकर जो कुछ कमाया था वह सब इस मकान में और उन जेवरों में लगा दिया था।”
दारोगा – “हीरासिंह ने तुम्हारे सब जेवर चुरा लिये हैं?”
लतीफन – “मैं सब हाल बयान करती हूँ आप सुनिये। मैं कल सबेरे कोई आठ बजे हीरासिंह के मकान में सब जेवर उतारकर नहाने की तैयारी कर रही थी कि इतने में उनके एक नौकर ने आकर कहा -‘तुम अपने सब कपड़े-लत्ते लेकर मेरे साथ चलो। यहाँ और कई आदमी आकर ठहरेंगे।’ मैंने कहा -‘ मेरे सब आदमी बाहर चले गये हैं। यह सब सामान कौन उठा ले जायगा? इस वक्त तो मैं कहीं नहीं जा सकती।’ उसने कहा -‘तुम सिर्फ यह सन्दूक लेकर मेरे साथ चलो। मैं तुमको जहाँ ठहरना होगा वहाँ बिठाकर धीरे-धीरे सब चीजें पहुँचा दूँगा।’ मैं और कुछ न कहकर सिर्फ जेवरों का सन्दूक लिये उसके साथ हो ली। कई चक्कर काटकर हम एक झाड़ी के पास पहुँचे । वहाँ हीरा सिंह एक पत्थर की चौकी पर बैठा था। हमारे वहाँ पहुँचते ही उसने न जाने क्या इशारा किया। इशारा करते ही उस नौकर ने मेरा गला पकड़ा और हीरासिंह मेरी सन्दूक छीनकर उस झाडी के भीतर का एक पत्थर उठाकर एक सुरंग के अन्दर घुस गया। नौकर मुझे भी उसके अन्दर ले गया। उसने वहाँ ले जाकर मुझे छोड़ दिया। वहाँ बड़ी खौफनाक जगह थी, जान पड़ा कि मैं दोजख में चली आई। नौकर चला गया, सिर्फ मैं और हीरासिंह वहाँ रह गये। मैं सोचने लगी कि मुझे यहाँ क्यों लाया? मेरा जेवरों का सन्दूक क्यों ले लिया ? क्या मुझे मार डालेगा? मैं बहुत डरी और रोने लगी। हीरासिंह ने मेरी पीठ पर हाथ घुमाकर कहा -‘तुम रोती क्यों हो?’ मैंने रोते-रोते कहा -‘मैं घर जाऊँगी माँ के लिये मेरा जी घबरा रहा है।’ हीरासिंह ने कहा-‘तुम घर जाओगी तो तुम्हारे लिये मेरा जी घबरायेगा। जीते जी मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।’ मैं नाउम्मीद होकर ‘मुझे जाने दो’ कहती हुई उसके पैर पकड़ कर रोने लगी। इतने में जान पड़ा कि बाहर कोई बाजा बजा रहा है। ‘इस वक्त तुम यहाँ रहो, दूसरे वक्त आकर तुमसे मुलकात करूँगा।’ ‘कहकर हीरासिंह चला गया। तब मुझे कुछ हिम्मत हुई, मैं कपड़ा सम्हालकर भागने का रास्ता ढूँढने लगी लेकिन कही रास्ता नहीं मिला। हीरासिंह जिधर से गया था उधर से भी निकलने का रास्ता नही पाया। धीरे-धीरे घना अँधेरा छा गया, चारों ओर से डरावनी आवाजें आने लगीं। मुझे बड़ा डर लगा। मैं आँखें मूँदकर चुपचाप पड़ी रही। धीरे-धीरे मुझे नींद सी आ गई। इतने में किसी के पैर की आवाज़ आई, मैं काँप उठी। आँखें खोलकर देखा कि हीरासिंह अकेले एक चिराग लिये आ रहा है। मैंने उसको देखकर फिर आँखें मूँद ली। हीरासिंह ने पास आकर मेरे बदन पर हाथ रक्खा। मैं सारे बदन में कपड़ा लपेटकर उठ बैठी। हीरासिंह ने कहा-‘देखो लतीफन! तुम्हारे जेवर मेरी आँखों में गड़ गये थे उन्हें मैंने ले लिया है। तुम पर कुछ मोह हो गया है इसी से तुम्हें अभी तक जीती छोड़ रखा है, नहीं तो अब तक तुम्हें कब्र में गाड़ देता।’ ‘मुझमे दया-माया नहीं है। तुम्हारी उमर बहुत थोड़ी है, तुम बड़ी खूबसूरत हो और तुम्हारे ऐसा गला कभी किसी का नहीं देखा था, इसी से तुम्हारी जान लेने को जी नहीं चाहता। तुमको जन्म भर यहीं रहना होगा। तुम्हे कुछ तकलीफ नहीं होने पावेगी, मैं सब इंतजाम कर दूँगा।’ यह सुनते ही मेरा कलेजा सूख गया। मैं रोने लगी। इतने में एक हट्टाकट्टा काला आदमी हाँफता हुआ वहाँ पहुँचा। हीरासिंह ने उसे देखकर कहा-‘क्यों रे दुखिया! क्या खबर है?’ उसने कहा – ‘रेशम के गोदाम की चाबी चाहिये। राय जी ने मुझे भेजा है। वे मुंशी हरप्रकाश के मकान पर हैं।’ यह सुनकर हीरासिंह उसके साथ चला गया। फिर उस दोजख में अँधियारी छा गई। मैं बेहोश हो गई। पीछे जब होश हुआ तो देखा कि मैं गंगाजी के किनारे एक औरत की गोद में सिर रखकर सोई हुई हूँ। सबेरा हो गया था, मैं चौंककर उठ बैठी। उस औरत ने कहा-‘डरो मत।’ मुझसे कुछ बोला नहीं गया, सिर्फ उसके पैर पर सिर रखकर रोने लगी। उस काली बिखरे बाल वाली हँसमुख औरत ने मुझे एक नाव पर चढ़ा दिया जिसके सहारे मैं यहाँ पहुँची।”
बुढ़िया ने आँखों में आँसू भरकर कहा-“बेटी! वह औरत कौन थी? तुमने उससे कुछ पूछा नहीं?”
लतीफन-“अम्मा, उस वक्त मेरे होश-हवास ठिकाने थे?”
दारोगा साहब यह सब इजहार लिखकर दल-बल सहित वहाँ से चले गये।