एक बड़े भारी बरगद की छाया में फौजदारी इजलास बैठा है। धनुषाकार पड़ी हुई पाँच कुर्सियों पर कोतवाल साहब, फौजदार साहब, हीरासिंह, हरप्रकाशलाल और बलदेवलाल बैठे हैं, कुछ दूर अलग एक तख्त पर लम्बी दाढ़ीवाला फतेहउल्ला बैठा है। एक तरफ जमादार, चौकीदार आदि दारोगा और दलीपसिंह, जगन्नाथ सिंह और कई चपरासी खड़े हैं।
कोतवाल ने कहा-“सब लोग आ गये, अब कारवाई शुरू करनी चाहिये।”
फतेहउल्ला ने पाँच मल्लाहों को सामने लाकर हरप्रकाशलाल की तरफ ऊँगली दिखाते हुए पूछा- “इन मुंशीजी को तुम लोग उस दिन नाव में ले गये थे?”
एक मल्लाह ने कहा-“हाँ, धर्मावतार।”
दरोगा-“इनके साथ और कौन था?”
मल्लाह- “यह जगन्नाथ और दलीपसिंह थे।”
दरोगा- “और कोई नहीं था।”
मल्लाह – “हाँ एक औरत थी।”
दरोगा- “वह मुंशी की कौन थी?”
मल्लाह- “सरकार! यह हम नहीं जानते।”
दारोगा – “अच्छा मुंशीजी कहाँ जाते थे?”
मल्लाह – “आरे जाने को कहा था।”
दारोगा – “लेकिन वहाँ जाना नहीं हुआ?”
मल्लाह – “नहीं जाना हुआ सरकार?”
दारोगा-“क्यों नहीं जाना हुआ?”
मल्लाह – “बक्सर के पास आते ही मुंशी जी ने कहा- ‘वह जो एक नाव जा रही है उसको पकड़ो।'”
दलीप सिंह ने दाँत पीसकर कहा – “साला ठीक उल्टा कह रहा है। धर्म के रू से कह।”
दारोगा- “तुम अभी चुप रहो। हाँ फिर?”
मल्लाह – “फिर हमने वह नाव पकड़ी। दलीपसिंह, जगन्नाथ और मुंशीजी उस नाव पर जाकर मार-पीट करने लगे।”
जगन्नाथ-“नहीं नहीं यह बात नहीं है। हमने कुछ नहीं किया, हम तो नदी में गिर पड़े।”
मल्लाह – “हाँ धक्कमधुक्की में नदी में गिर पड़ा था।”
दरोगा- “फिर?”
मल्लाह- “फिर उस नाव के दो डाँड़ खेनेवाले और एक गुमास्ता नदी में कूद पड़े, तुरंत ही बन्दूक की आवाज हुई, एक मल्लाह नाव में लोट गया और उसके मुँह से लहू बहने लगा।”
दा-“कह चलो।”
म- “फिर मुंशीजी और दलीप सिंह ने उस नाव के मल्लाह अबिलाख को बाँध लिया और हमसे कहा कि तुमलोग अपनी नाव इस नाव के पीछे बाँधकर बक्सर ले चलो।”
दा-“तो मुंशीजी आरे नहीं गये?”
म-“नहीं गये सरकार! उन्होंने नाव बक्सर में लगाने को कहा, हमने वहीं नाव लगाई।”
दा- “फिर?”
म- “फिर लालाजी ने अबिलाख को और उस मुसहर की लाश को थाने में पहुँचवाकर नाव पीछे लौटाने को कहा। जब हम चौसा पहुँचे तो मुंशीजी के हुक्म से एक कोड़ी पाँच गाँठ रेशम बैलगाड़ी में लदवा दिया। मुंशीजी ने हमारा भाड़ा चुका दिया हमलोग चले गये। जो नाव लूटी थी वह अभी हमारे ही पास है।”
दारोगा-“तुम सब लोग यही बात कहते हो न?”
सब मल्लाह- “हाँ सरकार।”
दा-“अच्छा तुम लोग बैठो। दलीपसिंह किसका नाम है?”
दलीप- “मेरा नाम है।”
कोतवाल-“भयानक चेहरा है, इसने जरूर खून किया होगा।”
दलीप ने दाँत पीसते हुए हथकड़ी पहने हाथों को कोतवाल की तरफ फैलाकर कहा- “और इसने जरूर घूस खाया होगा।”
दलीप के मुँह से घूस का नाम सुनते ही फतेहउल्ला ने उसको तमाचा लगाया। कृतज्ञ दलीप तमाचा खाकर चुप रहनेवाला जीव नहीं था उसने उसी वक्त बँधे हुये हाथों को मियाँ साहब के सिर पर जोर से पटककर सलाम किया। तीन-चार चौकीदारों ने दौड़कर फतेहउल्ला के सिर पर कपड़ा भिगोकर बाँधा और दलीप के दोनों हाथ दोनों पाँवों के साथ बाँधकर उसे वहीं बिठा दिया।
कोत- “सब आपने सुन ही लिया और माल भी मेरे सामने इस लाला के मकान से बरामद हुआ। अब इसका अपराध साबित होने में क्या कसर है?”
फौज – “कुछ नहीं। खासा सबूत मिला है।”
कोत – “तो इसको हिरासत में रखना चाहिये?”
फौजदार – “जरा ठहरो, मैं हीरासिंह से दो एक सवाल करूँगा।”
हीरा- “फरमाइये।”
फौजदार ने अँगरखे के जेब से एक कागज (लतीफन का इजहार) निकालकर पढ़ते-पढ़ते पूछा- “परसों चार घड़ी रात जाने पर कोई आपके गोदाम की चाबी माँगने आया था?”
हीरा-“नहीं तो।”
फौजदार-“खूब याद करके कहिये।”
हीरा-“मुझे तो कुछ भी याद नहीं आता।”
फौज-“अच्छा मैं याद दिला देता हूँ। जब वह आदमी चाबी माँगने आया उस वक्त आप लतीफन बीबी से बातचीत कर रहे थे?”
हीरा-“लतीफन तो परसों सवेरे ही मेरे यहाँ से विदा हो गई थी।”
फौज- “नहीं नहीं, उस वक्त तक आपने लतीफन को विदा नहीं किया था, उसके समाजियों को इस दुनिया से बिदा कर दिया था।”
हीरा- “आपकी बात मेरी समझ में नहीं आती।”
फौज- “धीरे-धीरे आवेगी। लतीफन के गहनों का सन्दूक कहाँ रक्खा है? चपरासी! उस औरत और दुखिया को यहाँ बुलाओ तो?”
चपरासी के साथ गूजरी और दुखिया सामने आये।
फौजदार ने कोतवाल से कहा-“यह वही चुड़ैल है जिसको देखकर आप डर गये थे। यह वही भूत है जिसने लतीफन की जान बचाई थी। इसके साथ जाइये , जाकर अपने आँखों से वह भयानक स्थान धर्मात्मा हीरासिंह का कीर्तिस्तंभ देख आइये।”
कोत-“जब आपने देख लिया है तब मेरे देखने की क्या जरूरत है?”
फौज- “नहीं नहीं, आप जाकर देख आइये और खुद मुंशीजी तथा लतीफन के सन्दूक उठवा लाइये। आप के साथ मेरे और आपके चार-चार सिपाही जायें।”
कोतवाल साहब आठ आदमियों को साथ लेकर गूजरी के बताये रास्ते से पातालपुरी की ओर गये। उनके जाने पर फौजदार ने दुखिया को सामने बुलाकर कहा-“देखो, सब भेद खुल गया है अब कुछ छिपाना फिजूल है। तुम अगर मेरे सवालों का जवाब सही-सही दोगे तो तुम्हें बहुत कम सजा होगी यहाँ तक कि छोड़ भी दे सकता हूँ।”
दुखिया- “मैं क्या जानता हूँ सरकार?”
फौज -“तुम जो जानते हो वही तुमसे पूछूँगा। अच्छा बताओ तो परसों पहर भर रात गये तुम हीरासिंह से रेशम के गौदाम की चाबी माँगने गये थे या नहीं?”
दुखिया-“सरकार!”(चुप)
फौ- “डर क्या है? बोलो, बोलो।”
दु-“सरकार! अब क्या कहूँ।”
फौ- “तुमने वह चाबी लेकर क्या किया?” इस पर दुखिया ने सारा हाल बता दिया।
दु-“पच्चीस गाँठ रेशम निकालकर चाबी मालिक को दे आया।”
फौ-“तुमने रेशम लेकर क्या किया?” इस अर दुखिया ने सारा हाल बता दिया।
इसी वक्त भीड़ के भीतर से एक साधू ने सामने आकर हीरासिंह से कहा-“सब भेद तो खुल ही गया, अब कुछ उपाय नहीं है। चारो ओर से हथियारबन्द सिपाहियों ने तुमको घेर रखा है। अब तुम जन्मभर का कमाया हुआ पाप स्मरण कर दिल से पश्चताप करो। एक बार पश्चताप करके करुणा निधान भगवान से दया की प्रार्थना करो।”
“तुमने भी मुझे छोड़ दिया” धीरे से कहकर हीरासिंह ने सिर नीचे कर दिया।
फौजदार ने साधु से पूछा-“तुम कौन हो?”
साधु ने कहा- “भोलाराय।”
फौ- “भोलाराय।”
भोला- “मैं वही भोला पंछी हूँ जिसके डर से तीन जिले के आदमी रात को सोते नहीं थे।”
नाम सुनकर फौजदार साहब सहम गये।
भोला ने फिर कहा – “मैंने ही बलदेवलाल और हरप्रकाश के मकान पर डाके डाले थे। मैं अपनी इच्छा से हाजिर हुआ हूँ, मुझे गिरफ्तार करें। आज से आरा, बलिया और गाजीपुर का डर मिट गया।”
इतने में कोतवाल साहब गूजरी सहित दो सन्दूक लिबाये वहाँ पहुँचे। फौजदार साहब ने उनको लतीफन का इजहार और दुखिया का बयान पढ़कर सुनाया और कहा-“अब आप क्या कहते हैं? हीरासिंह को आरा चालान करना चाहिये?”
कोत- “बेशक! मुंशीजी के बेकसूर होने में कुछ भी शक न रहा। अबिलाख, दुखिया और सागर पाँडे को भी चालान करना होगा।”
“और मशहूर डाकू भोला पंछी को छोड़ दीजिएगा? कोतवाल से यह बात कहकर फौजदार ने गूजरी की तरफ मुँह करके भोलाराय की तरफ इशारा करते हुए’तुम इसको पहचानती हो?'”
गूजरी-“उनको ही नहीं पहचानती?”
भोला-“मैंने उसके घर में आग लगाई थी! वह मुझको ही नहीं पहचानती?”
गूजरी – ‘वे गाजीपुर जिले के शेरपुर गाँव के शीतलराय सूबेदार के लड़के हैं। अच्छे पढ़े-लिखे हैं। घर-वर अच्छा देखकर वीरपुर के शिवलखनराय ने अपनी लड़की उनसे ब्याह दी। वे ब्याह करके ही घर से निकल गये थे फिर कभी स्त्री का मुँह नहीं देखा। तबसे हीरासिंह के दल में आ मिले।’
फौजदार ने कोतवाल से कहा-“यही महशूर डाकू भोला पंछी है?”
को-“यह देखने में तो डाकू नहीं जान पड़ता।”
गूजरी ने धीरे से फौजदार से कुछ कहा। फौजदार ने चौंक कर एक बार उसके मुँह की तरफ देखा , फिर कोतवाल से कहा -“भोला ने खुद यहाँ हाजिर होकर सब बातें कबूल की है और यह औरत जिसकी मदद से इस विकट मामले का सारा भेद खुला है, उसको छोड़ देने की प्रार्थना करती है इसलिये मैं उसको छोड़ देने का हुक्म देता हूँ।”
को-“बहुत खूब।”
फौजदार ने मुंशी से कहा-“तुम अपना सन्दूक पहचानकर ले लो।”दूसरा सन्दूक एक चपरासी के हवाले करके कहा-“यह सन्दूक सम्हालकर रखना”, फिर हवालदार को बुलाकर कहा -“इस सन्दूक में बहुत कीमती जेवर हैं, तुम भी इसको संभालकर रखना। अब सिंहजी को गिरफ्तार करके आरे ले चलने का बन्दोबस्त करो।” (मुंशीजी से )”और मुंशीजी, इस असाधारण गुणवती स्त्री की सहायता से ही तुमने आफत से छुटकारा पाया और अपना माल भी वापस पाया। इसलिये ऐसा बन्दोबस्त करना जिससे यह जन्म भर सुख से रहे। हारा हुआ दुश्मन भोलाराय अब तुम्हारा मुँह ताकता है इस पर भी मेहरबानी रखना।”
उस दिन तीसरे पहर फौजदार और कोतवाल मय आसामियों के दल बल सहित आरे को रवाना हो गये। बलदेवलाल, दलीपसिंह, जगन्नाथ, मुंशीजी, गूजरी और भोलाराय सरेंजा की तरफ चले।
गूजरी भोलाराय की विवाहता पत्नी थी, वह पति को पाकर निहाल हो गई। जेवर पाकर मुंशीजी और पार्वती के आनन्द का पार न था। हीरासिंह के कुकर्मों के परिणाम के बारे में पाठक स्वयं अनुमान करेंगे।
समाप्त