ओम प्रकाश सहित वहाँ उपस्थित सभी इंस्पेक्टर की बात सुनकर चौक गए। “मतलब आप जानते है की चोरी किसने की है?”, ओम प्रकाश ने इंस्पेक्टर से पूछा। “जी, बिलकुल, और उसने ही बाहर पेड़ पर वह पुतला भी लटकाया था।“ “फिर देर किस बात की है, जल्दी बताइए कि यह किसकी करतूत है।“ “आप अपना अपराध स्वयं स्वीकार करेंगे या हमें आपके कमरे कि तलाशी लेनी पड़ेगी?” इंस्पेक्टर ने करण रस्तोगी की तरफ देखते हुए कहा। सबकी आश्चर्यपूर्ण निगाहें करण की तरफ मूड़ गई। करण इस अचानक हमले से बौखला गया। “यह कैसा मज़ाक है इंस्पेक्टर?” “मतलब आप इस सबूत को झुठला सकते है?” कहते हुए इंस्पेक्टर ने एक पालिथीन की थैली दिखाई जिसमे पुतले से उतारे हुए कपड़े रखे हुए थे। इंस्पेक्टर शर्ट के पॉकेट को इंगित कर रहा था। “मुझे देखने दीजिए”, कहता हुआ करण इंस्पेक्टर के पास आ गया। “क्या है इसमें? मुझे तो कुछ भी नहीं […]
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अल्का लाम्बा की घड़ी ने २ बजे का अलार्म बजाया तो उसने बहुत मुश्किल से अपनी आँखे खोली। उसे डॉक्टर की सख्त हिदायत थी की वह अपनी दवाइयां वक्त से खाया करे। उसे हर 6 घंटे पर दवाई खाना पड़ता था। जब वह अपने घर पर होती थी तो अलार्म लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी क्यूंकि घर के एक ख़ास नौकर ने उसको जगाने की ड्यूटी बजानी होती थी। उसने बेडसाइड टेबल पर रखी हुई दवाई निकाली और पानी के ग्लास को उठा कर उस खिड़की की तरफ मुड़ी जो उसके बेड के सिरहाने की तरफ से चाँद का प्रकाश कमरे में पहुंचा रहा था। अचानक उसके हाथ से पानी का ग्लास छूट गया और इतनी तेज़ चीख निकली की रात के स्तब्ध वातावरण में उसने एक बम के धमाके सा काम किया। वह अपने कमरे से सीधे निकल कर सीढियों के रास्ते पहले पहले फ्लोर पर पहुंची फिर […]
पाठक साहब के सभी सैदाइयों को दिल से नमस्कार। आप सभी ने कई बार देखा होगा और गौर भी किया होगा की सुनील जब भी मौकायेवारदात पर पहुँचता है तो वहां देखे गए तथ्यों के अनुसार क़त्ल के होने का सूरत-ए-अहवाल या खाका खींच देता है। वह यह बात या तो रमाकांत को बताता है या प्रभुदयाल को। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है की पुलिस की लाइन ऑफ़ एक्शन और सुनील की लाइन ऑफ़ एक्शन एक ही रही हो। ऐसा ही आप सभी ने देखा होगा की, सुनील हर उपन्यास के अंत में तथ्यों, तर्कों और विश्लेषणों के आधार पर एक कहानी सुनाता है जो की तर्कपूर्ण लगता है, जिससे कि हत्यारा या मुजरिम आसानी से पकड़ा जाता है। इस कहानी में सुनील अपनी खोजबीन और तहकीकात को तो शामिल करता ही है साथ ही कल्पनाओं के आधार पर कुछ बातें उस बिंदु से आगे की भी कह […]
1. कोज़ी क्राइम ( Cosy Crime) – क्राइम फिक्शन जेनर की यह शाखा बहुत ही प्रसिद्द है। अमूमन एक छोटे से शहर में इसकी कहानी को प्लाट किया जाता है जहाँ एक हत्या के केस को हल करने के लिए पुलिस या प्राइवेट डिटेक्टिव काम करते हुए नज़र आते हैं। इसमें जुर्म का कोई ग्राफ़िक वर्णन नहीं किया जाता है। जब केस सोल्वे हो जाता है तो सब कुछ आम जनजीवन जैसा ही हो जाता है क्यूंकि अपराधी पकड़ा जा चूका है। सुधीर सीरीज और थ्रिलर सीरीज के कई उपन्यास इस श्रेणी में आते हैं। 2. लॉक्ड रूम मर्डर मिस्ट्री – क्राइम फिक्शन जेनर की इस शाखा में जुर्म एक असंभव से माहौल में किया जाता है जहाँ लेखक अपनी बुद्धिमता से रीडर के लिए एक जाल तैयार करता है। इसमें कानून का चैलेंज, कोई गवाह नहीं, मीना मर्डर केस, काला कारनामा आदि उपन्यास आते हैं। 3. हार्ड बॉयल्ड – […]
1954 में मैला आंचल के प्रकाशन को हिन्दी उपन्यास की अद्भुत घटना के रूप में माना जाता है। इसने आंचलिक उपन्यास के रूप में न सिर्फ हिन्दी उपन्यास की एक नयी धारा को जन्म दिया, बल्कि आलोचकों को लम्बे समय तक इस पर वाद-विवाद का मौका भी दिया। अंग्रेजी में चौसर के ‘केन्टरवरी टेल्स’ और अमेरिकी साहित्य में शेरवुड एंडरसन के ‘बाइंसबर्ग ओहियो’ की तरह रेणु मैला आंचल के साथ हिन्दी में आंचलिकता के ताजे झोंके को लेकर आते हैं। गांव की मिट्टी की सोंधी महक, गांव के गीत, नृत्य और संगीत की मधुर धुन, विदापन और सारंगा सदाबृज की तान हिन्दी उपन्यास के लिए बिल्कुल नयी चीज थे। इस नयेपन ने बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उपन्यास की भूमिका में ही रेणु ने इसे आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी है- ‘‘यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। इसमें शूल भी हैं फूल […]
प्रेमचन्द के बाद हिन्दी में ग्राम कथा पर आधारित धारा अवरूद्ध सी हो जाती है। बलचनमा (नागार्जुन.1952) और गंगा मैया (भैरव प्रसाद गुप्त.1952) जैसे उपन्यास लिखे तो गये, परन्तु प्रेमचन्द जैसी व्यापक संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टि के अभाव में यथोचित प्रभाव नहीं छोड़ पाए। ऐसे में 1954 में मैला आंचल का आना एक सुखद आश्चर्य की तरह लगता है। हवा का एक ताजा झोंका जैसे प्रेमचन्द के काल से गुजरता हुआ रेणु तक आ पहुँचता है। कथ्य की दृष्टि से देखें तो मैला आँचल, गोदान का ही तार्किक विस्तार प्रतीत होता है। आदर्शवादी नवयुवक डॉ. प्रशान्त विदेश जाने के अवसर को ठुकरा कर मेरीगंज जैसे अंचल में आता है मलेरिया पर अनुसंधान करने, परन्तु कुछ ही दिनों के अनुभव से वह समझ जाता है कि गांव वालों की असली समस्या मलेरिया नहीं है- ‘‘उसने गाँव के रोग के वास्तविक कारण को पहचान लिया है। उसकी नजर में गाँव के […]
किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने […]
इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के वनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है। एक दिन वह नदी में […]
दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई : मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्यान-मग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता। मैंने पास जाकर कहा, “मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक […]
बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींधकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी।‘ ‘हटो भाईजी।‘ ‘ठहरना भाई जी।‘ ‘आने दो लाला जी।‘ ‘हटो बाछा।‘ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और […]
स्वतंत्रता के पश्चात राजनीति को आधार बनाकर लिखे गये उपन्यासों में मैला आंचल, रागदरबारी और महाभोज सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। मन्नू भण्डारी का महाभोज, प्रेमचन्द का ‘गोदान’ और फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’ तीनों ही मोहभंग जनित परिस्थितियों की उपज हैं। प्रेमचन्द के मोहभंग का कारण तत्कालीन स्वाधीनता आन्दोलन का सामन्ती चरित्र था तो रेणु के मोहभंग का कारण आजादी से जुड़ी आशाओं-आकांक्षाओं का खण्डित होना था। लोगों ने जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन से बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। उम्मीद थी कि सत्ता का चेहरा बदलेगा, शोषण और भ्रष्टाचार का निरंकुश रथ थमेगा, लेकिन चन्द ही दिनों में ये सारी उम्मीदें धूल धूसरित हो गयीं। लोगों ने देखा कि नयी व्यवस्था में न चेहरे बदले और न उनका वास्तविक चरित्र। शोषण और भ्रष्टाचार का रथ द्विगुणीत रफ्तार से चलता रहा। यही मोहभंग ‘महाभोज’ की आधार भूमि है। महाभोज का अर्थ है किसी की मृत्यु पर होने वाली दावत! यहाँ […]
चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूँ , जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब […]
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण; तनये, ली कर दृक्पात तरुण जनक से जन्म की विदा अरुण! गीते मेरी, तज रूप-नाम वर लिया अमर शाश्वत विराम पूरे कर शुचितर सपर्याय जीवन के अष्टादशाध्याय, चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण कह – “पित:, पूर्ण आलोक-वरण करती हूँ मैं, यह नहीं मरण, ‘सरोज’ का ज्योति:शरण – तरण!” अशब्द अधरों का सुना भाष, मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर ज्योतिस्तरणा के चरणों पर। जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार — “जब पिता करेंगे मार्ग पार यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम, तारूँगी कर गह दुस्तर तम?” — कहता तेरा प्रयाण सविनय, — कोई न था अन्य भावोदय। श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार शुक्ला प्रथमा, कर गई पार! धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका! जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर हारता रहा मैं स्वार्थ-समर। शुचिते, पहनाकर चीनांशुक रख सका न तुझे अत: दधिमुख। […]
आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह! राजा ने आसन दिया। कहा : ‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप। भरोसा है अब मुझ को साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!‘ लघु संकेत समझ राजा का गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा, साधक के आगे रख उस को, हट गए। सभी की उत्सुक आँखें एक बार वीणा को लख, टिक गईं प्रियंवद के चेहरे पर। ‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से –घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी- बहुत समय पहले आयी थी। पूरा तो इतिहास न जान सके हम : किंतु सुना है वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था- उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने, कंधों पर बादल सोते थे, उस की करि-शुंडों-सी डालें हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण, कोटर में भालू बसते थे, केहरि उस के वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे। और-सुना है-जड़ उस की जा […]
अगर मैं गोदान लिखता? लेकिन निश्चय है मैं नहीं लिख सकता था, लिखने की सोच भी नहीं सकता था। पहला कारण कि मैं प्रेमचंद नहीं हूँ, और अंतिम कारण भी यही कि प्रेमचंद मैं नहीं हूँ। वह साहस नहीं, वह विस्तार नहीं। गोदान आसपास ५०० पृष्ठों का उपन्यास है। उसके लिए धारणा में ज्यादा क्षमता चाहिए, और कल्पना में ज्यादा सूझबूझ। वह न होने से मेरा कोई उपन्यास ढाई सौ पन्नों से ज्यादा नहीं गया। मैं लिखता ही तो गोदान करीब दो सौ पन्नों का हो जाता। गोदान का एक संक्षिप्त संस्करण भी निकला है और मानने की इच्छा होती है कि उसमें मूल का सार सुरक्षित रह गया है। यानी दो सौ-ढाई सौ में भी गोदान आ सकता था। और क्या विस्मय, मोटापा कम होने से उसका प्रभाव कम के बजाय और बढ़ जाता, अब यदि फैला है तो तब तीखा हो जाता। पुस्तक जब शुरु में निकली […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…