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जाड़े की धुंध भरी घुप्प अंधेरी रात से ज्यादा गहरी रात और कोई नहीं होती, आज वैसी ही एक रात थी। ट्रेन रात के ग्यारह बजे की थी। कैलाश अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर नौ बजे ही स्टेशन पहुँच गया। काठगोदाम स्टेशन यूँ तो चहल-पहल वाला स्टेशन है, पर जाड़े की रात जब गहरी होती है तो यहाँ एक अजीब सा सन्नाटा ला देती है। बच्चा अभी छोटा था सिर्फ दस महीने का, अतः कैलाश को समय से एक-दो घंटे पहले पहुँचना ही लाज़िमी लगा। वो काफी खुश था, ज़्यादा खुश इस वजह से था कि अनीता को नैनीताल काफी पसंद आया था। अनीता कैलाश की पत्नी थी। उसकी कई गुजारिशों के बाद कैलाश उसे घुमाने लेकर निकला था। क़रीब पाँच साल पहले दोनों की शादी हुई थी। यह हनीमून के बाद दूसरा मौका था जब दोनों कहीं बाहर घूमने निकले थे।

पूछताछ केंद्र से कैलाश वह खबर भी ले आया जिसकी उसे उम्मीद थी। उनकी ट्रेन लगभग आधे घंटे लेट चल रही थी। उसने अपने चारों तरफ नज़र घुमाई; हर इंसान शॉल, कंबल लपेटे हुए खुद को खुद में समेटे हुए था। कुछ लड़के-लड़कियाँ, जो उम्र के हिसाब से जवानी की दहलीज़ पर थे, जैकेट या स्वेटर पहने ठंड से लड़ रहे थे। कुछ को गर्मी मोबाइल की रोशनी से आ रही थी। ट्रेन की आवाज दूर से ही सुनाई दे जाती थी। चाय की एक-दो स्टॉल खुली हुई थी। अस्सी के दशक के कुछ मधुर गानों की आवाज़ उन्हीं स्टॉल पर बजते रेडियो से आ रही थी। वेटिंग रूम के बाहर लाल रंग के टेप बंधे पड़े थे। पूछने पर पता चला कि अंदर अभी मरम्मत का कार्य चल रहा है। आखिरकार हर कोने और ओट को टटोल लेने के बाद कैलाश ने एक जगह को अपने परिवार के आराम के लिए मुफीद पाया। वो जगह दरअसल एक ठेले वाले की थी जो उसे बंद कर जा चुका था। एक तरफ ठेला, दूसरी ओर दीवार, इस ओट में ही कैलाश ने अपनी चादर बिछाई। अनीता अपने बच्चे को छाती से चिपकाये वहीं लेट गई। कैलाश भी वहीं बैठ गया और अपनी पीठ दीवार के सहारे टिका दी। उसने एक मोटा सा कम्बल अनीता और बच्चे पर डाल दिया और खुद उसने एक खादी की चादर लपेट ली।

घर पर हमेशा कैलाश ही पहले सोता था पर बाहर उसकी जिम्मेदारी उसे सोने नहीं दे रही थी। आखिर उसी के भरोसे तो अनीता और उसका प्यारा सा बेटा इस ठंड में प्लेटफॉर्म पर सो रहे थे। कैलाश ने अपनी पत्नी और बच्चे को निहारा, कान में स्कार्फ बांधे अनीता काफी सुन्दर लग रही थी। उसके सीने से चिपका हुआ उसका बेटा एक अनमोल खजाना सा लग रहा था। कैलाश का जी चाहा बच्चे को एक बार चूम ले पर उसकी नींद न टूट जाए यह सोच कर दूर से ही अपने होंठों को बिचका लिया।

पटना, बिहार की राजधानी में गलियों का एक जाल था, नाम था राजेंद्र नगर। राजेंद्र नगर में ही कैलाश का आशियाना था। उसी इलाके में उसका सॉफ़्टवेयर सोल्यूशन नाम से कम्प्यूटर सेंटर था। उसने ख़ुद कम्प्यूटर ऐप्लिकेशन में बैचलर डिग्री हासिल कर रखी थी। अनीता घर का कामकाज सम्भालती थी। दोनों अपनी दुनिया में काफी खुश थे। जिंदगी सामान्य सी थी, लोग सामान्य से थे। कोई बड़ी ख्वाहिश नहीं, कोई ऊँचा अरमान नहीं। एक सीधी-सादी सी ज़िन्दगी की तमन्ना थी जिसमें मूलभूत ज़रूरतें ही शामिल थी, पर जिंदगी के अपने नियम कायदे होते हैं और वह कब किसकी सुनती है। इंसान के उसूलों और उसके आदर्शों की परख जिंदगी अपने इम्तिहानों में ले ही लेती है, इससे कोई भी अछूता नहीं है। वह सामने अंजाना खजाना रख लालच का इम्तिहान लेती है। धन देकर सामने वासनाएँ रख देती है। चुपचाप देखती है कि इंसान क्या कर रहा है? फिर उसकी तकदीर तय होती है। और सबसे बड़ा इम्तिहान तो तब होता है जब परिस्थितियाँ बिल्कुल विपरीत होती हैं, दुर्घटनाएँ होती हैं। इंसान का संबल, धैर्य सब टूटने की नोक तक पहुँच जाता है।

कैलाश पत्नी-बच्चे को सुला कर खुद जाग रहा था। समय सारणी सामने डिस्प्ले बोर्ड पर बार-बार आ रही थी जिसे देख कर सतर्क रहना उसकी ज़िम्मेदारी थी। कैलाश यह भी सोच रहा था कि गाड़ी आने से पहले उसे यह भी पता कर लेना होगा कि उसकी बोगी किधर लगेगी। ज़रूरत पड़ने पर वह कुली भी कर लेगा। इन्हीं सब उधेड़बुन में वो खोया हुआ था तभी एक आवाज़ काफी करीब से उसके कानों में लगी।

“चाय पीएंगे साहब।” – एक पंद्रह-सोलह साल का नौजवान लड़का चाय की केतली और कुल्हड़ वाले कप की लड़ी के साथ खड़ा था।

“नहीं” – कैलाश ने उसे एक बार ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा।

“पी लीजिए साहब, गाड़ियाँ काफी लेट चल रही हैं। आपकी कौन सी है दस बजे वाली या साढ़े ग्यारह बजे वाली।”

“नहीं पीना भाई! तुम जाओ।”, कैलाश ने सतर्कता को ध्यान में रखते हुए उससे ट्रेन की जानकारी साझा नहीं की।

“जी ठीक है साहब! बस बता दूँ कि दस बजे वाली अब बारह बजे आएगी और साढ़े ग्यारह बजे वाली डेढ़ बजे। इस ठंडी शुष्क रात में समय काटने के लिए चाय से बेहतर और कुछ नहीं।”

कैलाश ने सामने लगे डिस्प्ले बोर्ड की तरफ नज़र घुमाई। उस लड़के की बात सही थी, ट्रेन और लेट हो चुकी थी। कैलाश ने सोचा लड़के ने ठीक बात कही है, समय काटने और नींद टालने के लिए फिलहाल गरम चाय से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। उसने लड़के को ध्यान से देखा, उसे वह एक संघर्षशील नौजवान लगा। आखिर इस ठंडी में वह पेट पालने के लिए घूम-घूम कर चाय बेच रहा था।

“ठीक है पिला दो चाय।”, उसने आगे जाने के लिए मुड़ चुके उस लड़के को रोकते हुए कहा।

“यह हुई ना बात साहब। ठंड की सुनसान रात में स्टेशन ही एक ऐसी जगह है जहाँ पूछ-पूछ कर चाय पिलाई जाती है और आप है कि मना कर रहे थे।”

“दुकान किधर है तुम्हारी? या सिर्फ घूम-घूम कर ही चाय बेचते हो।”

“है ना साहब, स्टेशन के बाहर मेन गेट पर चाय की दुकान हैं। माँ-बाप चाय बनाते हैं और मैं बेचता हूँ। वैसे बना मैं भी लेता हूँ पर माँ की बनाई चाय का जवाब नहीं। यह माँ की बनाई हुई चाय है साहब, लीजिए।”

कैलाश ने कुल्हड़ भरी चाय हाथ में ले ली।

“कितना हुआ।”

“जी पाँच रुपये।”

कैलाश ने जेब से दस का नोट निकाल उसे दे दिया।

वो लड़का वहीं बैठ कर कमाए सिक्कों को निकालकर पाँच रुपये लौटाने के लिए चुनने लगा।

कैलाश ने तब तक चाय पीना शुरू कर दिया था।

“तो दिन में इधर ही रहते हो।” कैलाश ने पूछा।

“नहीं साहब। दिन में और भी धंधे हैं। दरअसल दिन में चाय की बिक्री कम होती है और चाय बेचनेवालों की भीड़ ज़्यादा होती है।”

“सिर्फ धंधे में ही लगे रहते हो या स्कूल भी जाते हो?”, अचानक कैलाश को अपने सामाजिक दायित्व का ख्याल आया।

“स्कूल? स्कूल जाकर क्या करूँगा?”, वह हल्की मुस्कान के साथ बोला।

“अरे पढ़ाई लिखाई ज़रूरी नहीं क्या?”, कैलाश ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

“ना साहब! जो सीखना है वो माँ सिखा देती है साहब।”

“क्या सिखाती है? मुझे भी बताओ ज़रा।”

“माँ ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं साहब पर जिंदगी का तजर्बा बहुत है उसके पास। जिंदगी जीने के गुर सिखाती रहती है। आप जान कर क्या करोगे? बकवास लगेगा आपको।”, लड़के ने पैसे वापस करते हुए कहा।

कैलाश के मन में उत्सुकता जगी। लड़का वैसा न था जैसा उसने सोच लिया था।

“फिर भी बताओ तो ज़रा! कुछ हम भी तो सीखें।” कैलाश ने ज़िद की।

“अच्छा। अब जैसे देखो साहब जाड़े की ये धुंध भरी अंधेरी रात क्या बताती है?”

“क्या?”

“माँ कहती है जाड़े की रात यह बताती है कि जब जिंदगी में ठंड पड़ी हो सुकून हो तो साथ में एक धुंध भी होती हैं। जो उस धुंध के पार नहीं देख पाते हैं न साहब, वो खतरे में पड़ जाते हैं। सो जाड़े की रात से सावधान रहना सीखो साहब। ज़िन्दगी में जब सुकून हो तो ज़्यादा सावधान रहना साहब। धुंध रहती है धुंध।”, इतना कहकर वह चेहरे पर कठोर भाव लिए वहाँ से चला गया।

कैलाश ने उसे जाते हुए देखा। उसने फिर चाय खत्म की और कुल्हड़ बगल में रख दिया। ट्रेन आने में अभी देर थी। उसके जेहन में कुछ विचार उठने लगे। कैलाश उस लड़के के बारे में सोचने लगा। वो लड़का कुछ विचित्र था। जिस मुस्कुराहट के साथ चाय बेचने आया था उसके उलट कठोर भाव लिए चला गया। शायद जिंदगी की कठिनाइयों ने उसे कठोर बना दिया होगा।

“कैलाश-कैलाश! उठो! उठो!”, एक तेज़ आवाज गूँजी। कैलाश हड़बड़ा कर उठा। सामने अनीता थी। वो लगातार उस पर चिल्लाये जा रही थी। कैलाश ने देखा हल्की सुबह हो रही थी। पर वो ठीक से सुन समझ नहीं पा रहा था कि अनीता उसे चिल्ला-चिल्ला कर क्या कह रही थी? फिर उसने अगल-बगल देखा, कुछ लोग जमा हो गए थे। उसमें से एक ने उसे पानी दिया। कैलाश अब पूरी तरह होश में आया।

“मेरा बच्चा कैलाश! मेरा बच्चा कहाँ है?”, होश में आते ही पहली बात यही थी जो उसके कानों से होते हुए उसके दिमाग तक पहुँची।

और यह बात उसे पूरी तरह होश में लाने के लिए काफी थी।

“कैलाश अपना बच्चा चोरी हो गया। कोई उठा ले गया।”, अनीता इतना कह कर दहाड़ें मार कर रोने लगी। कैलाश सुन्न सा हो गया। एक पल के लिए उसे ऐसा लगा जैसे ये कोई बुरा सपना है। ना-ना यह कोई सपना है। अभी नींद खुल जाएगी। सब ठीक हो जाएगा।

हकीकत सपना बन जाए ऐसा चाहना इंसान की बेबसी बताती है। कैलाश ने बाईं ओर देखा, कुल्हड़ टूटा पड़ा था। उसे रात की घटना याद आ गई। एक चाय ने उसकी दुनिया लूट ली थी। उसका बच्चा चोरी हो चुका था। पत्नी विक्षिप्त सी हो रही थी। इन सब का जिम्मेदार खुद को मान रहा था। उसे जाड़े की धुंध नहीं दिखी थी।

“तुम-तुम सो कैसे सकते हो कैलाश? इतना बड़ा धोखा! इतनी बड़ी गलती! मेरा बच्चा ला दो कैलाश मैं मर जाऊँगी। मेरा…मेरा बच्चा ढूंढो कैलाश हम बर्बाद हो जाएंगे।”, कैलाश अनीता की बातें सुनकर जाड़े की सुबह में पसीने-पसीने हो रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था वो क्या करें?

“भाई साहब कुछ याद है कैसे हुआ? आप कब तक जगे थे?”, भीड़ से किसी एक ने पूछा।

“वो…वो चाय वाला…”

“कौन चाय वाला?”, उसी सज्जन ने पूछा।

“रात करीब दस बजे तक मैं जगा था, फिर एक पन्द्रह-सोलह साल का नौजवान चाय बेचने आया। मैंने ले ली। फिर कुछ याद नहीं रहा…”

“अरे भाई साहब! इतनी लापरवाही! सरकार इतना कह रही है स्टेशन आदि जगहों पर अनजान लोगों से चीजें ना ले फिर भी आप लोग ऐसी गलती करते हैं। खैर रेलवे पुलिस में चलकर शिकायत दर्ज कराइए। यहाँ सीसीटीवी भी लगी हुई है। पुलिस देखेगी तो शायद कुछ मदद करेगी।”

“हाँ कैलाश। पुलिस के पास चलो। जल्दी चलो!”, अनीता एकदम बदहवास सी उठी और बिना जाने किधर जाना है बायीं ओर बढ़ने लगी।

“मैडम उधर कहाँ? उधर नहीं, इधर चलिए।” उस सज्जन ने दायीं ओर हाथ दिखाते हुए कहा।

कैलाश सामान समेटने लगा। दो बैग थे उसमें सामान भरने लगा। अनीता तब तक उस आदमी के साथ आगे बढ़ चुकी थी। कैलाश जब तक सामान समेटता अनीता आँखों से ओझल हो चुकी थी। तभी भीड़ से एक महिला ने कहा, “अब सामान की फिक्र छोड़िए, आपकी औरत अकेले किसी के साथ बढ़ी जा रही है, उनके साथ जाइए। बच्चा चोरी हो गया और आप इस कपड़े-लत्ते के फेर में पड़े हैं। जाइए जल्दी, हम लोग हैं यहाँ पर। आपका सामान सुरक्षित है।”

कैलाश का दिमाग ठनका! बच्चा चोरी हो गया, पत्नी अनजान के साथ बढ़ती जा रही है कहीं उसके साथ भी कुछ उलटा हो गया तो? नहीं…नहीं वो सज्जन आदमी ऐसा नहीं करेंगे। पर वह नौजवान भी तो…आगे कैलाश कुछ सोच नहीं सका। उसने सामान छोड़ा और अनीता के पीछे भागा।

भागते हुए उसे सिर्फ यही ख्याल आ रहा था कि किसी तरह अनीता दिख जाए। उसका दिमाग सुन्न सा होता जा रहा था। वो बुदबुदाने लगा, “हे भगवान! मदद करो। अनीता मिला दो मुझे।”, सब कुछ लुट जाने का वह ख्याल बड़ा ही भयावह होता है। उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। आँसू सूख जाते हैं। कलेजा पत्थर सा हो जाता है। दुनिया भूल-भुलैया सी लगने लगती है। मन विचलित हो जाता है। कुछ ऐसा ही कैलाश के साथ हो रहा था। जिंदगी पर वज्रपात शायद इसे ही कहते हैं। भागते-भागते उसे एक बोर्ड दिखा जिसे देख उसकी जान में जान आई। बोर्ड रेलवे पुलिस का था। वहीं पुलिस स्टेशन भी था। अनीता अंदर ही होगी यह सोचकर वह अंदर घुस गया वह स्टेशन में घूम-घूम कर अनीता को वैसे ही ढूंढ रहा था जैसे अनीता अपने खोये बच्चे को ढूंढ रही थी। बच्चा तो चोरी हो ही चुका था, वह नहीं चाहता था कि होश में रहते हुए पत्नी भी उठा ली जाए। हे भगवान रहम कर! उसका मन बार-बार यही गुहार लगा रहा था। तभी एक पुलिस वाले ने उसके पीठ पर हाथ रखा।

“कहाँ इधर-उधर घूम रहे हो? कौन हो?”, उसने कड़क आवाज में पूछा।

“वो मेरी पत्नी…उसे ढूंढ रहा था। मेरा बच्चा चोरी हो गया है।”, कैलाश ने दिमाग पर जोर देकर उस स्थिति में कुछ शब्द जैसे तैसे उगले।

“बच्चा चोरी हो गया…पत्नी ढूंढ रहा हूँ; क्या बोल रहा है? पागल है क्या? बैठ उधर।”, पुलिसवाले ने उसे वाकई पागल समझ कड़ी आवाज़ में कहा।

कैलाश फौरन जवाब देने की स्थिति में नहीं था। कैलाश ने थोड़ी देर कोने में पड़ी बेंच पर बैठ अपने विचलित मन को कुछ संयत किया, फिर पुलिस वाले के पास गया।

“सर, यह मेरा परिचय पत्र है। मेरा नाम कैलाश है। हम नैनीताल घूमने आए थे…वापस घर जा रहे थे। रात 11:00 बजे की ट्रेन थी, पर रात में ही मुझे चाय वाले ने नशीला पदार्थ पिला दिया। मेरा बच्चा चोरी हो गया। अभी-अभी मेरी पत्नी एक शख्स के साथ आपके पास रिपोर्ट लिखाने आई थी; मैं थोड़ा पीछे रह गया।”, कैलाश काँपते हुए रुंधे गले से बोला।

“यहाँ आई थी? पर यहाँ तो कोई नहीं आया।”, पुलिस वाले ने उसकी बात को बकवास मानते हुए कहा।

“क्या? कोई नहीं आया? सर मेरी मदद कीजिए, पता नहीं मेरी पत्नी कहाँ गई? मेरा बच्चा भी चोरी हो गया। मैं बर्बाद हो गया।”, कैलाश की आवाज फट पड़ी। वो सिसक-सिसक कर रोने लगा।

उसे रोते देख पुलिस वाला थोड़ा गंभीर हुआ। उससे तफतीश शुरू की। कैलाश ने उसे उस जगह चलने को कहा जहाँ ये सब घटा था।

थोड़ी देर में कैलाश और पुलिस वाले उस जगह पर पहुँचे जहाँ कैलाश रात में रुका था।

“मेरा सामान!”, कैलाश चिल्लाया। उस जगह के अगल-बगल हड़बड़ा कर देखने लगा।

ना कोई आदमी आसपास था, ना उसका सामान। वो सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया। इतनी निर्दयी दुनिया, इतनी बेरहम। मुसीबत में फँसे को भी लूट लेते हैं। एक नौजवान चाय वाले पर इंसानियत दिखाई तो मेरा बच्चा चोरी हो गया। उसकी बदहवासी में खोया और एक सज्जन पर भरोसा किया तो पत्नी गायब हो गई। पत्नी के पीछे गया तो सामान चोरी हो गया। उसे पागलों सी हँसी आ गई। वो ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। दोनों हाथों से चेहरे को बार-बार सहलाते वो जोर-जोर से हँसता रहा। उसका रुदन पहली बार इस रूप में बाहर आ रहा था।

पुलिस ने सीसीटीवी में रात से लेकर सुबह तक रिकॉर्डिंग देखी। वो एक गैंग था। वो नौजवान लड़का, सज्जन सा दिखता वो बूढ़े उम्र का आदमी और अधेड़ उम्र की औरत तीनों ने मिलकर कैलाश के परिवार का शिकार किया था। सब सुनियोजित तरीके और सटीकता से किया गया था। उस चाय वाले ने कैलाश को बेहोश करने के बाद अनीता को भी नशीली चीज रुमाल से सुंघाई फिर बच्चे को उसकी गोद से निकाल कर अपने कंधे पर रख लिया और वहाँ से निकल गया। अनीता को वह सज्जन दिखने वाला आदमी पुलिस स्टेशन ले जाने के बहाने बाहर की ओर ले गया और फिर वह नहीं दिखी। उधर कैलाश के जाने के थोड़ी देर बाद वृद्ध महिला ने कुली को बुलाया और सामान उठाकर बाहर ले गई। पुलिस यह सब देखकर हैरान थी। वह तुरंत इस गैंग की खोज में लग गई। गैंग यहाँ का नहीं था। ज़रूर बाहर से आया था। घूम-घूम कर शिकार कर रहे थे। चीजें जिस हिसाब से सुनियोजित थी पुलिस के लिए भी तफ़तीश आसान न थी।

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