सवर्ण ईसाई बनाम दलित ईसाई
हिंदुस्तान में जब भी जातिवाद व जाति व्यवस्था पर चर्चा होती है तो हिन्दू वर्ण व्यवस्था की ही बात सामने आती है और अमूमन हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी कौम, मजहब व सम्प्रदाय का हो, उच्च जाति के लोगों पर निम्न जाति के लोगों के विरूद्ध अत्याचार, अन्याय व अपमान के आरोप लगते रहते हैं। इसमें काफी हद तक सत्यता भी है। इस कुरीति व अन्यायपूर्ण व्यवस्था को लेकर अनेक समाज सुधारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा हिन्दू समाज से जातिवादी संकीर्णता को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं।
इन्हीं संकीर्णताओं के कारण ही एक विद्रोह स्वरूप बौद्ध धर्म का उदय हुआ और अब भी इस व्यवस्था से प्रताड़ित होने पर निम्न वर्ग के हिन्दू समुदाय यदा-कदा इस्लाम धर्म अथवा ईसाई धर्म में शामिल होने के लिए हिन्दू संगठनों को धमकाते रहते हैं, यह एक तरह का ब्लैकमेलिंग या यों कहें भयादोहन ही है।
किन्तु बहुत कम लोगों को पता है कि जातिवाद की यह कुप्रथा सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं भारत के अन्य धर्मों में भी व्याप्त है। ईसाई धर्मावलम्बियों को देखकर अन्य धर्म के लोगों को लगता है कि ईसाईयों में जातिवाद की परम्परा नहीं होती तथा इस धर्म में इसका कोई स्थान नहीं है, व वे इस कुरीति से मीलों आगे निकल गए हैं, परन्तु यह दुःखद रूप से भ्रामक तथ्य है। भारतीय ईसाई समाज में भी जातिवाद की कुरीति व्याप्त है। ईसाई समाज में व्याप्त कुरीतियों का अध्ययन करना हो तो दक्षिण भारत के ईसाई समाज का अवलोकन करना होगा। दक्षिण भारत में काफी पुराने समय से लोग ईसाई धर्म के अनुयायी हैं।
ईसा के शिष्य सेंट थॉमस सन् 52 ई. में मुजिरिस वर्तमान केरल राज्य आए और ईसाई धर्म का प्रचार किया। एक जनश्रुति के अनुसार उन्होंने वहाँ के ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ किया। ब्राह्मणों ने ईसा को विष्णु का अवतार मान लिया और अनेक ब्राह्मण व उच्च वर्ग के हिन्दू ईसाई धर्म के अनुयायी बन गए। यह स्थिति लम्बे समय तक यानी यूरोपीय लोगों के आगमन तक बनी रही। डच, जर्मन, पोर्तुगीज लोगों ने हिन्दू वर्ण व्यवस्था में निम्न तबके में शामिल लोगों को ईसाई बनाना आरम्भ किया, तब पहले से ही हिन्दू उच्च वर्ग से ईसाई धर्म में शामिल लोगों के कान खड़े हो गए।
हिन्दू वर्ण व्यवस्था की मानसिकता ऊॅंची जाति के ईसाइयों से मिट नहीं पाई। आज भी उच्च जाति के ईसाई निम्न वर्ग से ईसाई बने लोगों से भेदभाव करते हैं, व उन्हें तुच्छ भाव से देखते हैं। दक्षिण भारत में ऊंची जाति का हिन्दू जो ईसाई बन चुका है, उसे ही चर्च के सारे अधिकार प्राप्त हैं। निचली जाति से बने बिशप व पादरी भी इस अमानवीय भेदभाव व वर्ण व्यवस्था के शिकार हैं, एकदम से विश्वास करना कठिन है, परन्तु सत्य यही है।
ईसाई धर्मोपदेशों के समानता, भाईचारा व ईसाई धर्म के मूल्यों से प्रभावित होकर दलितों ने ईसाई धर्म अपनाना हिन्दू वर्ण व्यवस्था से मुक्ति का मार्ग समझा। वे इस कुरीति से हमेशा-हमेशा के लिए आजादी चाहते थे, और इस फेर में उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया भी। पर यहां भी हिन्दू वर्ण व्यवस्था ने उनका पीछा नहीं छोड़ा बल्कि यहाँ उन्हें दो और नई पहचान मिली एक तो ’’दलित’’ और दूसरा ’’दलित ईसाई।’’
यह सत्य है कि ईसाई धर्म जाति व्यवस्था का घोर विरोधी है, मानव कल्याण, मानव सेवा, आपसी प्रेम व विश्व बन्धुत्व ही उनका मूलसार है, पर भारतीय उप महाद्वीप में निम्न जाति के ईसाइयों के लिए ये सब बातें बेमानी है। भारत जैसी यही स्थिति कमोबेश नेपाल, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में भी है। इस्लाम में भी दलित हिन्दू से मुस्लिम बने अनुयायियों को मुजाहिर या अर्जल का दर्जा हासिल है। पर यहाँ हम दलित ईसाइयों की सामाजिक व धार्मिक स्थिति का अध्ययन व विश्लेषण कर रहे हैं।
दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में विशेषकर आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु व केरल में दलित ईसाइयों ने विरोध स्वरूप कहीं-कहीं अपना एक अलग चर्च भी बना लिया है-जो सिर्फ दलित ईसाइयों के लिए है, पर यह स्थिति हिन्दू धर्म में घुसपैठ नहीं कर पाई है। सामाजिक और धार्मिक असमानता, भेदभाव और विषमता, अपमान जैसे विखण्डनकारी तत्व जहाँ, मौजूद हों तो ऐसा हो जाना कोई आश्चर्य नहीं है।
भारत की जनगणना 2011 के अनुसार ईसाईयों की आबादी 2.3% है। ईसाई आबादी विभिन्न राज्यों मे छिटपुट रूप से हर जगह विद्यमान है। विभिन्न धर्मों के लिंगानुपात पर दृष्टिपात करें तो ईसाई महिलाओं की स्थिति अन्य धर्मों के पुरूषों से कहीं बेहतर है। छोटा नागपुर क्षेत्र तथा पूर्वोत्तर भारत में ईसाई धर्मावलम्बी 90% से अधिक जनजातीय समूहों से हैं जबकि शेष भारत की 60% से 70% ईसाई आबादी दलित ईसाई है और ईसाई बनाम दलित ईसाई की समस्या भी यहीं है।
भारत के विभिन्न राज्यों से हिन्दू दलितों का ईसाई धर्म स्वीकार करने की घटना होती रही है परन्तु इसके ठीक विपरीत आन्ध्रप्रदेश व तेलंगाना के उच्च वर्ग के हिन्दू ओं यथा रेड्डी, कम्मा और कापू समुदाय का ईसाई धर्म अपनाना आश्चर्यजनक है। ईसाई धर्म के प्रति इनका आकर्षण अब भी बरकरार है, संभवतः ये जातियां ईसाई धर्म को एक सुअवसर के रूप में लेती हैं। अविभाजित आन्ध्रप्रदेश का भागौलिक चित्रण तटीय आन्ध्रप्रदेश, रायलसीमा व तेलंगाना के रूप में किया जा सकता है।
तटीय आन्ध्रप्रदेश तथा तेलंगाना के अधिकांश दलित हिन्दू, ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके हैं जिसमें अधिकांशतः माला व मदिगा जाति के लोग हैं। इनका मुख्य पेशा क्रमश: बुनकरी तथा चमड़े से सम्बन्धित था। गुंटुर तथा कृष्णा जिले के ईसाई उच्च वर्ग कम्मा जाति से आते हैं जो मूलरूप से इन क्षेत्रों के जमींदार हैं।
रायलसीमा क्षेत्रों से ईसाई रेड्डी समुदाय से हैं, जो जमींदार होने के साथ-साथ दबंग व उग्र प्रवृत्ति के हैं। इसी तरह कापु जाति जिनका पेशा कृषि व व्यापार है-मुख्यतः ईस्ट गोदावरी, वेस्ट गोदावरी, विजयनगरम व श्रीकाकुलम में निवासरत है, जो ईसाई धर्म की ओर उन्मुख होते जा रहे हैं। एक अनुमान के आधार पर रेड्डी, कम्मा या चैधरी और कापु समुदाय के लगभग 15 से 20% लोग ईसाई धर्म अपना चुके हैं। आन्ध्रप्रदेश के ईसाई ब्राह्मणों की यह संख्या लगभग 1% से 2% के मध्य है।
भारत की संवैधानिक व्यवस्था के तहत दलित हिन्दू ओं द्वारा सिख अथवा बौद्ध धर्म अपनाने पर भी उनके लिए विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण की व्यवस्था है-साथ ही उनके विरूद्ध अत्याचार, अपराध आदि को रोकने के लिए पृथक कानून लगाये गए हैं। केन्द्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा व्यापक दिशा-निर्देश बनाए गए हैं, जिनमें निवारक उपाय भी दिए गए हैं। परन्तु दलित हिन्दू से ईसाई बने दलित ईसाईयों और मुस्लिमों को ये सुविधा हासिल नहीं है। उनके विरूद्ध होने वाले अत्याचार, ’’अनुसूचित जाति व जनजाति एक्ट’’ की परिधि में नहीं आते।
विभिन्न ईसाई संगठनों, चर्चों में भेदभाव को लेकर ये दलित ईसाई लगभग विवश ही हैं। एक तरह देखा जाए तो दलित ईसाइयों की संस्कृति, उनके परिवेष और सामाजिक-आर्थिक स्थिति में इतनी भिन्नता है जितने कि हिन्दू जाति व्यवस्था में। सवर्ण ईसाई और दलित ईसाइयों के सांस्कृतिक, सामाजिक रीति-रिवाज, जीवनशैली, सामाजिक प्रथाएं भी ऐसे कारक हैं जिनके फलस्वरूप सवर्ण ईसाई निम्न वर्ग से धर्मांतरित ईसाइयों से भेदभाव करते हैं। उन्हें पता है कि उनके परम्परागत मूल पेशे क्या थे, और ऐसा जाति आधारित पेशा जिसे हिन्दू उच्च वर्ग भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।
दक्षिण भारत के दलित इसाईयों के साथ-साथ इस वर्ग से बने बिषप व पादरी भी भेदभाव के शिकार हैं, मसलन इनके द्वारा चर्चों में प्रार्थना कराए जाने पर उच्च वर्ग के ईसाइ शामिल नहीं होते। कुछ चर्चों में इनका प्रवेश भी वर्जित है। दलित ईसाइयों से चर्चों में ये भी अपेक्षा की जाती है कि ईसाई धर्म में धर्मविधि के दौरान बाँटे जाने वाले परमप्रसाद (होली कम्युनियन) सवर्ण ईसाइयों के बाद ही ग्रहण करें साथ ही चर्च की पिछली पंक्तियों में ही बैठें। कमोबेश ये स्थितियाँ दक्षिण भारत के अधिकांश चर्चों में विद्यमान है।
ईसाई परम्परानुसार मृतक के शव को दफनाने के पूर्व चर्च के अंदर लाकर प्रार्थना की जाती है, परन्तु दलित ईसाइयों के पार्थिव शरीर चर्च के बाहर रखकर प्रार्थना कराई जाती है। ऐसा अमानवीय, क्रूरतापूर्ण व्यवहार व भेदभाव कल्पना से परे लगते हैं। जिस तरह हिन्दू धर्म के विभिन्न जातियों में राजनीतिक व आर्थिक मामलों में एकता तो है, परन्तु धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक, प्रथाओं में नहीं। कमोबेश दलित ईसाई व सवर्ण ईसाईयों के बीच यही स्थिति है, परन्तु जनजातीय समूहों से ईसाई बने लोगों के मध्य नहीं।
भारत के कैथोलिक तथा प्रोटेस्टंट सम्प्रदाय के बड़े आकाओं ने इन सब भेदभाव से निजात दिलाने के लिए 9 दिसम्बर 2012 को ’’दलित लिबरेशन संडे’’ का आयोजन किया और दलित ईसाईयों के लिए ’’कुरीति को तोड़ो और समानता की दुनिया जोड़ो’’ के नारे दिए, पर हालात में परिवर्तन नहीं हुए हैं, स्थितियां ज्यों के त्यों बनी हुई है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के मकड़जाल में दलित ईसाई भी उलझकर रह गए हैं। हिन्दू जाति व्यवस्था से, आजादी के लिए उठाये गए ये कदम उनकी सामाजिक व धार्मिक दशा में कोई परिवर्तन नहीं ला सके। बहरहाल, दलित ईसाइयों के विरूद्ध उत्पीड़न व भेदभाव कब तक चलेगा यह समय के गर्भ में है।
May 5, 2020 @ 7:01 pm
वस्तुत: हम सामाजिक भेदभाव का गलत आधार ढूंढ़कर उसपर प्रहार कर रहे हैं। यह सत्य है कि भारत में जाति की व्यवस्था है किन्तु हमारे पूर्वजों ने जाति या वर्ण व्यवस्था किसी भेदभाव को जन्म देने के लिए नहीं बनाई, इसके निर्माण का आधार विशुद्ध रूप से श्रम विभाजन है । जाति व्यवस्था में कोई दोष भी नहीं है क्योंकि वर्तमान में इसका किसी कार्य विशेष से कोई संबंध नहीं किसी भी जाति का कोई भी व्यक्ति कोई भी कार्य कर सकता है। प्राचीन काल में किसी भी वर्ण का व्यक्ति किसी भी कार्य को अपनाकर वर्ण परिवर्तित कर सकता था। दोष है तो जाति के आधार पर अस्पृश्यता जैसे विचारों में किन्तु यदि हम पूर्वाग्रह मुक्त होकर विचार करेंगे तो पाएंगे कि अस्पृश्यता का आधार स्वच्छता है न कि जाति, एक ही जाति एक क्षेत्र में अस्पृश्य मानी जाती है और दूसरे क्षेत्र में स्पर्श्य। कुम्हार, लुहार खाती जैसी जातियां वर्ण के विचार से शूद्र ठहरती है किन्तु कोई इनके साथ छुआछूत का व्यवहार नहीं करता वही महब्राह्मन ब्राह्मण वर्ण में होने पर भी अस्पृश्य माने जाते हैं सभी सुधीजन मेरे उपनाम को देखकर ही पूर्वाग्रह न बना लें।
November 20, 2020 @ 11:24 am
बेहतर होगा अगर आप फ़ेस बुक पर भी अपने लेखों को अपलोड करें।
November 21, 2020 @ 11:18 pm
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