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आषाढ़ का एक दिन: शिल्प

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आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश का ही श्रेष्ठ नाटक नहीं है,बल्कि यह हिन्दी के सार्वकालिक श्रेष्ठ नाटकों में से एक भी है। जिस नाटक को रंगमंच से जोड़कर भारतेंदु ने जन आंदोलन के एक उपकरण के रूप में विकसित करने का प्रयत्न किया था,वह प्रसाद तक आते आते रंगमंच से पूरी तरह कट जाता है।प्रसाद के साहित्यिक नाटक रंगमंच पर लगातार विफलता स्वीकार करते रहे। मोहन राकेश ने न सिर्फ नाटकों की साहित्यिकता बरकरार रखी,बल्कि नाटक और रंगमंच के बीच की खाई को भी सफलतापूर्वक पाटा। भारतेंदु के नाटक रंगमंच के लिये थे,दर्शकों के लिये थे।साहित्यिकता का मुद्दा वहाँ नहीं था। जयशंकर प्रसाद के नाटक पाठक के लिये है। प्रसाद ने तो घोषणा ही कर दी कि, ‘नाटक रंगमंच के लिये नहीं होते बल्कि रंगमंच नाटक के लिये होता है’।रंगमंच के प्रति पूर्वग्रह के कारण प्रसाद के नाटक पाठकों की नज़र में तो श्रेष्ठ है,परन्तु दर्शकों को ये ज़्यादा नहीं रुचे। आषाढ़ का एक दिन में साहित्यिकता और रंगमंचीयता का अपूर्व संतुलन है।

                                                      आषाढ़ का एक दिन कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर एक नयी चेतना का उन्मेष करता है।रचना वस्तुत: अपने शिल्प को अपने भीतर से ही ढालती है। अन्य विधाओं की तुलना में नाटक के शिल्प को दो तत्वों को एक साथ लेकर चलना पड़ता है-एक आत्माभिव्यक्ति और दूसरे उस अभिव्यक्ति का दर्शक तक संप्रेषण । समूचे नाटक में पिरोयी हुई रंग दृष्टि, नाटकीय स्थितियों का चयन,भाषा का उतार चढ़ाव,बिंबो और प्रतीकों की सूक्ष्मता आषाढ़ का एक दिन के शिल्प को वैशिष्ट्य प्रदान करती है।नाटक की भूमिका में ही राकेश ‘भारतीय रंगतत्व’ के खोज की बात करते हैं।पश्चिमी नाटक और रंगमंच की नकल पर हिन्दी नाटक और रंगमंच के विकास का उन्होंने हमेशा विरोध किया है। आषाढ़ का एक दिन का महत्व इसी बात में है कि यह रंगमंच को भारतीय रंगपरंपरा से जोड़ता है। राकेश के पहले यह माना जाता था कि नाटक लिखने के साथ ही नाटककार की भूमिका समाप्त हो जाती है। आषाढ़ का एक दिन के माध्यम से राकेश ने नाटककार को रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाटक का यह पहला उदाहरण है, जहाँ नाटक के साथ समग्र नाटकीय परिकल्पना सामने आती है।रंगमंच का समूचा जीवन्त वातावरण जैसे नाटककार के मस्तिष्क में मूर्त्त चित्र की तरह अंकित है और उसी के अनुसार नाटक ढलता चला जाता है। यहाँ रंगमंच नाटक के प्रदर्शन का माध्यम भर नहीं है,बल्कि नाटक का अनिवार्य अंग है।
मोहन राकेश नाटक को दृश्य काव्य मानते हुए भी मूलत: श्रव्य माध्यम मानते हैं।उनके अनुसार शब्दों के संयोजन,ध्वनि और लय से ही नाटक में दृश्यत्व पैदा होना चाहिये, न कि बाह्य और स्थूल उपकरणों से। ध्वनि के लय और शब्दों के संयोजन से भावाभिव्यक्ति का अपूर्व प्रयोग आषाढ़ का एक दिन में मिलता है। घोड़े के टापों की आवाज़ व्यवस्था की निष्ठुरता और मल्लिका के मन की आशंका को एक साथ व्यक्त करती है।इन टापों की आवाज़ मल्लिका ने पहले भी सुनी थी,जब राजपुरुष दंतुल का ग्राम प्रांतर में आगमन हुआ था।उस वक्त ये टाप कालिदास को अपने साथ ले गये थे। अब फिर ये टाप मल्लिका के मन को आशकाग्रस्त् कर रहे हैं।घोड़े के टापों द्वारा मल्लिका,अंबिका और विलोम की अलग अलग स्थितियों का प्रस्तुतीकरण नाट्य प्रभाव को तीव्र करता है। इसी तरह वर्षा की बूँदो की आवाज़ पहले दृश्य में मल्लिका के मन के उल्लास को व्यक्त करती है,वहीं तीसरे दृश्य में उसका सारा अवसाद,उसकी पीड़ा,उसकी प्रतीक्षा वर्षा की बूंदों में घुल मिल के सामने आती है। पहले दृश्य में मल्लिका इन बारिश की बूंदों को अपने हृदय में भर लेना चाहती है,परन्तु तीसरे दृश्य में यही बूंदें मल्लिका को और ज़्यादा अवसादग्रस्त कर रही हैं।मेघगर्जन की ध्वनि पहले दृश्य में एक रोमांटिक वातावरण की सृष्टि करती है तो कालिदास के कश्मीर जाते समय मेघगर्जन,बिजली की कौंध और गहरा अँधेरा न सिर्फ मल्लिका और कालिदास की बेचैनी को सामने लाते हैं,बल्कि एक गहरे अवसादग्रस्त वातावरण की सृष्टि भी करते हैं।
आषाढ़ का एक दिन के संवादों में राकेश ने एक नयी नाट्य भाषा की खोज़ की है।यह भाषा जयशंकर प्रसाद की भाषा से बिल्कुल अलग है। ये संवाद न तो चलताऊ भाषा में हैं और न ही कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ तत्सम भाषा में। लिखित भाषा और नाट्य भाषा का अंतर पहली बार हिन्दी नाटक में दिखाई देता है। क्लिष्ट तत्सम शब्द यहाँ भी हैं, लेकिन ये भावानुकूल ध्वनि संयोजन,अभिनय की विविध भाव भंगिमाओं और बदलते लय टोन से युक्त हैं।साहित्यिक और बोलचाल की भाषा का अनूठा समन्वय आषाढ़ का एक दिन में है। कालिदास और दन्तुल, कालिदास और विलोम जैसे विरोधी व्यक्तित्व वाले चरित्रों का टकराव अनुकूल भाषा संयम और लय नियोजन से ही प्रभावी बन पड़ा है।संवादों से न सिर्फ पात्रों के व्यक्तित्व का पता चलता है,बल्कि उनकी मानसिक अवस्थाओं को भी ये संवाद चित्रित करते हैं।पात्रों की व्यक्तिगत विशेषताओं,उनकी उलझनों,द्वन्द्वों,मानसिक जटिलताओं,विचारों और सोचने के ढंग का पूरा पता संवादों से मिलता है। मल्लिका के संवादों में भावुकता है,तन्मयता है और साथ में है एक अंतहीन प्रतीक्षा की पीड़ा। इसी प्रकार अंबिका के संवादों एक माँ की ममता के साथ साथ जीवन के यथार्थ अनुभव से उपजी व्यावहारिकता भी है।प्रथम दृश्य में कालिदास के संवादों में जो भावुकता दिखायी देती है,आखिरी दृश्यों में वह एक लिजलिजेपन में परिवर्तित हो जाती है। अनुस्वार और अनुनासिक के संवादों में लय संयोजन द्वारा ही भिन्न भिन्न अर्थ पैदा होते हैं। एज़रा पाउँड के अनुसार ‘काव्य जब श्रेष्ठता के स्तर पर पहुँचता है तो नाटकीय हो जाता है और नाटक जब श्रेष्ठता की ऊँचाइयों को छूता है तो काव्यात्मक हो जाता है’। आषाढ़ का एक दिन की भाषा ही काव्यात्मक नहीं है,बल्कि काव्य पूरे नाटक की बनावट के अनिवार्य तत्व के रूप में सामने आता है।प्रसाद के नाटकों की तरह यह अलग से आरोपित प्रतीत नहीं होता।
आषाढ़ का एक दिन में मोहन राकेश ने नाट्य भाषा को शारीरिक क्रिया और पात्रों की मनःस्थिति से जोड़ा। भाषा और क्रिया का नियोजन आषाढ़ का एक दिन के आंतरिक गठन में मौज़ूद है।मल्लिका का ग्रंथ उठाना और रखना, अंबिका का धान फटकना और विलोम का अग्निकाष्ठ जलाना य-ये सभी क्रियाएँ न सिर्फ पात्रों की मनोवृत्ति और मनःस्थिति का पता देती हैं बल्कि नाटकीय संभावनाओं से भी भरपूर हैं। कई स्थानों पर तो शब्द का अभाव भी काफी कुछ कह जाता है। मौन की अर्थव्यंजकता का सजग प्रयोग राकेश ने आषाढ़ का एक दिन में किया है।
पूरा आषाढ़ का एक दिन एक ही दृश्यबंध में रचा गया है।इब्सन और चेखव के यथार्थवादी रंगशिल्प का हिन्दी में यह नया प्रयोग था। अंबिका और मल्लिका का प्रकोष्ठ ही घटनाओं का केन्द्रीय स्थल है। पात्रों के साथ साथ इस प्रकोष्ठ की भी नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका है। द्वितीय और तृतीय अंक में स्थितियों के बदलने के साथ साथ न सिर्फ प्रकोष्ठ का दृश्य बदल रहा है,बल्कि स्थितियों का विसादृश्य भी अभिव्यक्त हो रहा है। आखिरी अंक में कुंभों के तीन-चार से घटकर एक रह जाना मल्लिका के जीवन में आने वाले रिक्तता को दर्शाता है। यहाँ एक दीपक का जलना भी एक साथ कई अर्थ देता है-अंबिका की मृत्यु,मल्लिका का अकेलापन और उसका आत्मदहन।
इस प्रकार आषाढ़ का एक दिन ने हिन्दी नाटक के प्रति पूरे दृष्टिकोण को बदलने का कार्य किया हैं। हिन्दी नाटक और रंगमंच के सर्जनात्मक आंदोलन की भूमिका भी यहीं से बनती है।गिरीश रस्तोगी के शब्दों में कहें तो आषाढ़ का एक दिन ने ‘हिन्दी रंगमंच को सक्रियता ही नहीं दी,नाटक को सही माने में रंगमंच से जोड़ा,प्रचलित नाट्य रूढ़ियों को तोड़कर आधुनिक रंगमंच की कल्पना को,विकसित रंगमंच की कल्पना को या प्रयोगशील रंगमंच की कल्पना को साकार किया।
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Manu Yadav

आपाढ का एक दिन शिल्प के तोर पर जबरदस्ती रचना है जिसमे छोटी छोटी चीजो से , तथा वाक्य संबंध एक दुसरे पात्र के मुख से बुलवाकर , आसान भाषा मे, तथा भावो से भी अभव्य्कित कि झलक प्रदर्शित करना सुन्दर नाटक है । मोहन राकेश की अनपुम कृति है ।

Kauntey Dadheech

I believe it is a well balanced understanding about "Ashadh ka ak Din". love to read about more such kind of "Natak"… i will be grateful if u provide such kind of explanation on novels too…

Kaviraaj

बहुत अच्छा ।

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Kaviraaj

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