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जनकवि नागार्जुन

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जिस तरह प्रसाद ,पंत,महादेवी और निराला छायावाद के चार स्तंभ थे उसी प्रकार केदार नाथ अग्रवाल,त्रिलोचन,शमशेर और नागार्जुन प्रगतिवादी कविता के चार स्तंभ माने जा सकते हैं। इनमें नागार्जुन की न सिर्फ काव्ययात्रा सबसे लंबी रही है,बल्कि उनका काव्य संसार भी काफी वैविध्यपूर्ण रहा है। जनता से जुड़े हर सवाल पर जनता का साथ देकर नागार्जुन ने जनकवि की उपाधि पाई। नागार्जुन की प्रतिबद्धता सदियों से दलित,शोषित और उत्पीड़ित रही जनता के साथ थी। इसकी स्पष्ट घोषणा करते हुए वे कहते हैं-
“प्रतिबद्ध हूँ,जी हाँ,प्रतिबद्ध हूँ
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त”

कवि अपने आप को शोषित-पीड़ित जनता से अलग करके नहीं देखता,बल्कि अपने को उन्हीं में से एक समझता है-“मैं दरिद्र हूँ
पुश्त-पुश्त की यह दरिद्रता
कटहल के छिलके जैसे खुरदरी जीभ से
मेरा लहू चाटती आई
मैं न अकेला
मुझ जैसे तो लाख-लाख हैं
कोटि-कोटि हैं ”
शोषित जनता के साथ खड़ा कवि निश्चय ही व्यवस्था का अंध समर्थन नहीं कर सकता। धूमिल की पंक्तियाँ हैं- “वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर सबके सब
व्यवस्था के पक्ष में चले गये हैं
और विपक्ष में केवल कविता है ”
नागार्जुन की कविता इसी विपक्ष की कविता है। व्यवस्था से सतत टकराव ने नागार्जुन की कविताओं को एक राजनीतिक तेवर प्रदान किया है। परन्तु,एक जनकवि को तो यह खतरा उठाना ही पड़ता। राजनीति नागार्जुन के लिये अस्पृश्य कभी नहीं रही, जैसी उनके समकालीन कई कवियों के लिये थी । कई ऐसे कवि थे जो राजनीति को साहित्य के लिये घातक समझते थे । ऐसे ही कवियों पर प्रहार करते हुए नागार्जुन कहते हैं-
‘साहित्य क्या है-गंगा का जल है?
राजनीति क्या है-विष्ठा है,मल है?’
नागार्जुन को जहाँ कहीं यह महसूस हुआ है कि राजनीति और व्यवस्था जनता के विरोध में हैं,वे उस जनविरोधी राजनीतिक व्यवस्था पर टूट पड़ते हैं। हृदय परिवर्त्तन के गाँधीवादी दृष्टिकोण पर नागार्जुन को विश्वास नहीं। उन्हें नहीं लगता कि गाँधी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त शोषक पूँजीपतियों के हृदय में बदलाव ला पायेगा।उस पर, स्वतंत्रता के बाद तो गाँधी के अनुयायियों ने गाँधी के विचारों की भी परवाह नहीं की-
“बापू के भी ताऊ निकले
तीनों बंदर बापू के
सकल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनों बंदर बापू के”
शोषितों और पीड़ितों की यही पक्षधर्मिता उन्हें नेहरू के सामने खड़ा कर देती है-
‘तुम रह जाते दस साल और
तन जाता भ्रम का जाल और’
शास्त्री जी को प्रधानमंत्री बनते ही जनकवि नागार्जुन की चेतावनी का सामना करना पड़ता है- ‘लाल बहादुर,लाल बहादुर
मत बनना तुम गाल बहादुर’
आपातकाल का दमन भी नागार्जुन को खामोश नहीं कर सका और उन्होंने इंदिरा जी से अपना सवाल बेधड़क पूछ ही लिया,चाहे इस सवाल की कीमत उन्हें जेल जाकर चुकानी पड़ी हो- ‘इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में भूल गयी बाप को’
एक सच्चे जनकवि के रूप में नागार्जुन हर राजनीतिक हलचल को अपनी पैनी नज़र से देखते हैं और अपनी कविताओं के माध्यम से उस पर बे्लाग टिप्पणियाँ करते है। उनकी पैनी नज़र जैसे घटनाओं की आहट पहले भाँप लेती थी। अपनी एक कविता में तो जैसे उन्होंने आपातकाल की भविष्यवाणी सी कर दी थी-
“अबकी अष्टभुजा का होगा खाकी वाला वेश
श्लोकों में गूँजेंगे अबकी फौज़ी अध्यादेश”
कांग्रेस की पराजय के बाद बनी जनता पार्टी सरकार से लोगों को ढेर सारी उम्मीदें थी,परन्तु नागार्जुन की दूरदृष्टि सच्चाई को बेहतर समझ रही थी। उन्होंने इस परिवर्त्तन को ‘खिचड़ी विप्लव’ की संज्ञा दी,जहाँ राजनेता ‘एक दूसरे का गुह्यांग सूँघ रहे’ हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि नागार्जुन की आशंका पूर्णतया सत्य सिद्ध हुई।व्यंग्य नागार्जुन का सबसे मारक हथियार है। उनके व्यंग्य का प्रबल आघात अच्छे अच्छों को घुटने टेकने पर मज़बूर कर देता है। मार्क्सवादी विचारधारा के होते हुए नागार्जुन उन मार्क्सवादियों पर व्यंग्य करने से नहीं चूकते,जिनके लिये भारत से ज़्यादा महत्वपूर्ण रूस और चीन हैं-‘जी हाँ, चीन में मेरे नाना रहते है’। वस्तुतः नागार्जुन की प्रतिबद्धता किसी भी विचारधारा से ज़्यादा दमित जनता के प्रति थी और इस कारण कई बार उन्हें अपने सहधर्मियों की भी आलोचना का शिकार होना पड़ता था। परन्तु ये आलोचनाएँ भी उस कवि को विचलित नहीं कर पाती थीं,जिसकी कविता का स्थायी भाव ही शोषकों और जनविरोधियों के प्रति प्रतिहिंसा थी-
“प्रतिहिंसा ही स्थाई भाव है मेरे कवि का
जन-जन में जो उर्ज़ा भर दे,मैं उद्गाता हूँ उस रवि का”।

यत्र तत्र हिंसक क्रान्ति का समर्थन करने के बावज़ूद नागार्जुन की जनतंत्र मे अदम्य आस्था है,इसलिये लोकतांत्रिक व्यवस्था में मूल्यहीनता का प्रवेश उन्हें क्षुब्ध करता है।राजनीति पर पूंजीवाद के प्रभाव ने इसे एक व्यवसाय का रूप दे दिया है। चुनाव ज़ीतना जनसेवा के लिये नहीं आत्मसेवा के लिये है-
“स्वेत-स्याम-रतनार अँखियाँ निहार के
सिंडीकेटी प्रभुओं की पग धूर झार के
लौटे हैं कल दिल्ली से टिकट मार के
खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के”
‘जयति नखरंजिनी’ नामक कविता में उनका व्यंग्य फ़ैशन की मारी उन युवतियों को निशाना बनाता है,जो हाथों में दाग लगने के डर से मतदान ही नहीं करतीं-‘तीन वोट रह गये फ़ैशन के नाम पर’। लोकतंत्र के नाम पर जनता को बेवकूफ़ बनाने वाले चुनावों को वे प्रहसन की संज्ञा देते हैं,जहाँ जाति और धर्म के नाम पर वोट माँगे जाते हैं,बूथ लूटे जाते हैं-‘अब तो बन्द करो हे देवि,यह चुनाव का प्रहसन’।
जनहितों के लिये प्रतिबद्ध जनकवि नागार्जुन की भाषा भी जनता की अपनी भाषा है। आम बोलचाल की भाषा को काव्यात्मक संस्कार देने वाले कवियों में नागार्जुन अग्रगण्य हैं।सीधे सादे बोलचाल के शब्द नागार्जुन के व्यंग्य की सान पर चढ़ कर तेज़ धार हथियारों से भी घातक असर करते हैं। नागार्जुन लोक की भाषा ही इस्तेमाल नहीं करते बल्कि लोकगीतों की शैली का भी सार्थक-सृजनात्मक प्रयोग उनके काव्य में मिलता हैं। निश्चय ही,स्वतंत्र भारत में अगर कोई जनकवि होने का अधिकारी है,तो वे हैं हमारे बाबा नागार्जुन,जिन्हें उचित ही नामवर सिंह ने ‘आधुनिक कबीर’ की संज्ञा दी है।

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ravikumarswarnkar

नागार्जुन सी सहज और सरल भाषा और बिंब…सरोकार…आम जन से सीधा संवाद…प्रतिबद्धता…आदि..आदि…
वे पूरे विश्वविद्यालय हैं…