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10 Comments

  1. विकास जेफ
    September 14, 2018 @ 10:02 pm

    हृदयस्पर्शी रचना के लिए कुंदन यादव सर का आभार एवं बधाई । कुंदन सर की रचनाओं ने एक बार फिर से हिन्दी साहित्य की तरफ पाठकों का रूझान शुरू कर दिया है । रचना में प्रयुक्त शब्दावली पूर्णत भाव बिभोर करने वाली है। समाज के आसपास घटने वाली घटनाओं का ऐसा सजीव वर्णन कथा साहित्य को निश्चित ही नवीन ऊचाईयां प्रदान करेगा। एक बार पुनः कुंदन सर का आभार ??

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  2. विक्की
    September 14, 2018 @ 11:07 pm

    भावुक कर दिया इस कहानी ने ?
    बहुत प्यारा कहानी दिल को छुने वाली
    ??????

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  3. Digvijay singh
    September 14, 2018 @ 11:47 pm

    बेहतरीन, हृदयस्पर्शी कहानी, …कोतवाल रामलखन सिंह, और फूलचंद पढ़ने के बाद से मैं कुंदन जी की भाषाई पकड़ का तो पहले ही कायल था लेकिन आज की कहानी ने तो इनकी लेखनी का मुरीद बना दिया, मानवीय संवेदनाओं पर इनकी इतनी गहरी पकड़, कमाल है, गाव गिराव के माहौल का इतना सूक्ष्म विवेचन करते है कि पढ़ने वाला खुद को वही पाता है, इस कहानी में भी कई जगह मैंने अपना बचपन सार्थक के साथ जिया, मजा आ गया…???

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  4. Puneet
    September 14, 2018 @ 11:54 pm

    एक ही शब्द निशब्द। कुंदन जी से आग्रह है की वो अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर लिखते रहें।

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  5. Paramjit
    September 15, 2018 @ 7:24 am

    मार्मिक । अंत ने रुला दिया। इतनी सुंदर कहानी के लिए बधाई स्वीकार करे।

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  6. संदीप कुमार शर्मा
    September 15, 2018 @ 9:51 am

    लगभग चार पांच साल पहले की बात है जब मैंने गोरखपुर स्टेशन पर एक 9-10 साल के बच्चे को बूट पॉलिश करते हुए देखकर बहुत दर्द महसूस किया था और फिर उससे भी ज्यादा दर्द इस कहानी को पढ़कर महसूस किया। इस कहानी के भीतर खत्म हो रही मानवीय संवेदना और मूल्यों को दोबारा जागृत करने की क्षमता है। आजकल के बच्चे जहां अपने क्लास में कपड़े जूते आदि का दम भरते हैं वहां सार्थक कि अपने दोस्तों के प्रति संवेदनशीलता अत्यंत प्रेरणादाई है। कुंदन जी से आग्रह है कि लगातार लिखते रहें और हिंदी साहित्य की समृद्धि में योगदान करते रहें। न जाने क्यों लग रहा है कि यह कहानी बहुत लंबे समय तक याद की जाएगी।

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  7. Hitesh Rohilla
    September 15, 2018 @ 10:29 am

    Bahut-e-badhiya

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  8. रवीन्द्र सिंह यादव
    September 15, 2018 @ 3:09 pm

    मर्मस्पर्शी कहानी….. आदमी को इंसान बनने के लिये यथार्थ के रूखे मरुस्थल से गुज़रना होता तभी उसमें संवेदना के नखलिस्तान उभरते हैं.
    बधाई.

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  9. विकास नैनवाल
    September 16, 2018 @ 8:26 pm

    मर्मस्पर्शी कहानी। सभी अभिवभावकों को यह चहिये कि वह अपने बच्चों को यथार्थ से परिचित करवाएं। इसी से मन मे संवेदनशीलता जागेगी। अगर ऐसा होता है तो एक संवेदनशील समाज जरूर बनेगा।

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  10. Bhavesh
    June 11, 2023 @ 6:30 pm

    बहुत ही सुंदर कहानी। आखरी में रुला दिया।

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