जूते- कुंदन यादव की कहानी
डाक्टरी की लंबी पढ़ाई और इंटर्नशिप आदि पूरी करने और दिल्ली के एक बड़े निजी अस्पताल में दो साल की प्रैक्टिस करने के बाद सरकारी डॉक्टर के तौर पर सार्थक की पहली तैनाती आगरा की बाह तहसील के एक ग्रामसभा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हुई। उसके साथ ही उसकी सहपाठी और अब मंगेतर डॉ नेहा ने भी पास के ब्लॉक के अस्पताल में अपनी तैनाती ले ली थी। सप्ताह में एकाध बार दोनों मिलते और अन्य डॉक्टरों के साथ लंच और कुछ न कुछ खेलकूद या पार्टी वगैरह का आयोजन करते। एक दिन पास के सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य और दो शिक्षक उसके दफ्तर में आए। वे शिक्षक दिवस के दिन सार्थक को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करना चाहते थे। सार्थक ने सहर्ष स्वीकृति दे दी । शिक्षक दिवस के दिन स्कूल के कार्यक्रम में उसे बच्चों के बीच बहुत आनंद आया। उसने देखा कि अब सरकारी स्कूल काफी बदल चुके थे । अब मिड डे मील के साथ वर्दी और कॉपी किताब भी सरकार देती है। कार्यक्रम समाप्ति के बाद वापिस आते हुए गाड़ी में उसने अखबार उठा लिया जिसमें एक खबर थी कि फीरोजाबाद की एक काँच फैक्टरी से बीस बाल मजदूर छुड़ाए गए और साथ ही नोबल विजेता व बाल अधिकारों के कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी का वक्तव्य छपा था। खबर पढ़ते हुए वह पचीस साल पुरानी अपनी यादों में खो गया जब उसके पिता डॉ भुवन चंद्र का तबादला पहली बार गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर हुआ था।
डॉ भुवन चंद्र पिछले दस सालों से जिला अस्पताल में फिजीशियन के तौर पर सफलतापूर्वक कार्यरत थे। और विभागीय स्थानांतरण नियमावली के अनुसार शहर में चिकित्सा अधिकारी का कार्यकाल लगातार अधिकतम दस वर्षों का हो सकता था। इसलिए उन्हें सुदूर गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर जाना पड़ा। वैसे तो डॉक्टर साहब को कोई परेशानी नहीं लेकिन स्थानांतरण की खबर सुनते ही पत्नी परेशान सी हो गईं। एक तो किटी पार्टी की सहेलियों का साथ छूटना, दूसरा यह कि मिर्जापुर अपने आप में बहुत बड़ा जिला था और उसमें भी सुदूर बिहार और मध्यप्रदेश बॉर्डर के पास विंढमगंज कस्बे के भी आगे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर तैनाती का मतलब था दूर-दूर तक जंगल, पहाड़, नदियां और आदिवासी। डॉक्टर साहब ने पहले योजना बनाई कि परिवार मिर्जापुर में ही रहेगा और वह स्वयं हफ्ते में एक बार रविवार को आ जाया करेंगे लेकिन पत्नी अच्छे से जानती थी कि लगभग एक सौ अस्सी किलोमीटर का यह सफर वह भी एक तरफा, उत्तर प्रदेश राज्य की सड़कों को देखते हुए इतना आसान नहीं था।
विंढमगंज से रेलवे लाइन जो जाती थी उसमें भी एकाध ट्रेनों का ही आवागमन था। उसके साथ-साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी, कि डॉक्टर साहब कई बार जनसेवा में इस कदर मशगूल हो जाते कि खाना पीना सब छोड़ कर मरीजों का इलाज करने में लगे रहते। रविवार, छुट्टी, रात दिन की परवाह नहीं करते। ऐसे में यह निश्चय हुआ कि दो साल की बात है तो वही चल कर परिवार सहित रहा जाए। दोनों बच्चे सार्थक और स्वाति अभी छठी और दूसरी कक्षा में हैं ,छोटे ही हैं इसलिए स्कूल से ज्यादा घर पर पढ़ा दिया जाएगा । बाद में शहर के किसी कानवेंट में दाखिला करा दिया जाएगा। इस योजना के साथ ट्रांसफर ऑर्डर से करीब पंद्रह दिनों बाद डॉक्टर साहब जिला अस्पताल से कार्यमुक्त होकर विंडम नगर पहुंचे जहां निवर्तमान चिकित्सक महोदय उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। डॉक्टर पाठक का पहुंचना ही था कि निवर्तमान डॉक्टर साहब तुरंत चार्ज देकर घंटे भर में वहां से रवाना हो गए। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में अभी इमारतें कुछ साल पहले ही बनी थी इसलिए थोड़े ही साफ सफाई के बाद उन्होंने चिकित्सक वाला बंगला तैयार करा लिया। आगे पीछे काफी जगह थी जिसमें उन्होंने सब्जियां लगवा दी और बगल की चारदीवारी के साथ-साथ की खाली जमीन पर एक बैडमिंटन कोर्ट की पैमाइश कराकर उसमें दो लट्ठे गड़वा दिए। सब तैयारी के बाद डॉक्टर साहब मिर्जापुर आए और अपने कुछ सहायकों की मदद से सारा सामान पहले भेज दिया फिर अगले दिन सपरिवार वहां पहुंच गए।
विंढमगंज पहुंचते ही पत्नी और बच्चों का चेहरा लटक गया। दिन भर बिजली गायब रहती थी और रात में ही आती थी। पत्नी ने कहा भी कि यह क्या माजरा है जो इलाका पूरे प्रदेश को बिजली देता है वहीं पर अंधेरा। डॉक्टर साहब चुटकियां लेकर कहते, ऐसा मत कहिए अंधेरा होते होते तो आ जाती है। दिन में भले ही लोड शेडिंग हो। पत्नी ने कहा ऐसे तो फ्रिज का सामान खराब हो जाएगा। डॉक्टर साहब जवाब देते कोई भी चीज ऐसी नहीं है जिसे फ्रिज की जरूरत पड़े। पीछे गांव से ताजा दूध सुबह शाम आ जाया करेगा और सब्जियां भी कुछ गांव से कुछ अपने ही किचन गार्डन से मिल जाया करेंगी , और तुम जानती हो कि आयुर्वेद में ठंडा पानी पीना मना है। इसलिए दो बढ़िया सुराहियां मंगवा रखी हैं अब बताओ क्या रखना चाहती हो फ्रिज में पत्नी फिर निरुत्तर हो जातीं।
कभी-कभी बच्चे भी रोने लगते कि यहां से चलो हम यहां नहीं रहेंगे लेकिन डॉक्टर साहब फिर उनको जरा मना कर पास के झरने पहाड़ आदि दिखाने की कोशिश करते। लेकिन बच्चों को तो शहर का वातावरण चाहिए था जिसका यहां नामोनिशान न था। उन्होंने फिर पत्नी से कहा कि बच्चों को समझाइए कि यह भी हमारा ही देश है यही गांव मोहल्ले खेत खलिहान हमारी देश की पहचान है, लेकिन बच्चों को कोई फर्क पड़ना मुश्किल था। लगभग रोजाना बच्चे जिद करते यहां नहीं रहना है। ऐसे में डॉक्टर साहब ने एक युक्ति निकाली
उन्होंने गहराई से महसूस किया कि अगर बच्चों में संवेदनशीलता ना पैदा हुई तो यहाँ तकलीफ होने वाली है और वैसे भी हफ्ते दस दिन बाद जुलाई में स्कूल खुलने वाले हैं। ऐसे में इन्हें इस जगह के प्रति लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना जरूरी है। अगली सुबह ओपीडी में जाते हुए बेटे को भी अपने साथ ले गए। बोले चलो आज तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं ताकि तुम्हें भी बड़ा होकर डॉक्टर बनना है तो अभी से थोड़ी ट्रेनिंग शुरू करें। पत्नी को थोड़ा अटपटा लगा लेकिन उन्होंने कहा अच्छा ले जाइए।
इस बीच उन्होंने रात में टीवी पर बच्चों को एक फिल्म दिखाई, जिसमें किसी मंहगे प्राइवेट अस्पताल में पैसे के अभाव में मरीज का इलाज नहीं होता और वह दम तोड़ देता है। यह देख कर उनके दोनों बच्चे काफी भावुक हो गए। डॉक्टर साहब समझ गए कि यही वक्त है उसे अपने साथ सुबह स्वास्थ्य केंद्र में ले जाने का।
अगली सुबह बेटे सार्थक को लेकर वे अपने कक्ष में पहुंचे जहां लगभग पचास लोग अपनी अपनी पर्ची लेकर लाइन में खड़े थे। वार्ड बॉय एक-एक करके नाम बुलाता और एक से एक गरीब तबके का व्यक्ति स्त्री पुरुष उनके सामने आता। डॉक्टर साहब बड़े प्यार से उसका सारा हाल पूछते, जांच करते और दवा लिखकर आश्वासन देते कि घबराओ मत सब कुछ ठीक हो जाएगा, मरीज हाथ जोड़कर ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए चले जाते। कुछ तो डॉक्टर साहब के पैरों पर गिर पड़ते कि हमारी जिंदगी बचा लीजिए। डॉक्टर साहब मरीज के उम्र के अनुसार जवाब देते, घबराओ मत अम्मा या चाचा। सबकी मदद करने वाला भगवान है। हम तो बस आपके सेवक हैं और इस तरीके से दोपहर तक उन्होंने ओपीडी के सारे मरीज देखे, फिर भोजन के लिए अपने घर चले आए।
घर आकर सार्थक ने पहला सवाल उनसे किया कि पापा आप उन गरीब लोगों से कितनी फीस लेते हैं ?डॉक्टर साहब ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया बेटा अभी तक तो कुछ नहीं लेता हूं क्योंकि सरकार तनख्वाह देती है। अगर तुम कहो तो कल से लेना शुरू कर दूंगा और जो तुम लोग कहोगे वह सब ले आऊंगा सारे खिलौने ,तुम्हारे गेम्स नए कपड़े और जो मरीज पैसे नहीं देगा उसको भगा दूंगा।
बोलिए आपको मंजूर है ऐसा करना? बेटे ने छूटते ही कहा नहीं पापा हमें कुछ नहीं चाहिए जब आप लोगों का इलाज करते हैं और वह आपको थैंक्यू बोलते हैं तो हमें अच्छा लगता है। डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी को आभास हो गया कि तीर सही निशाने पर बैठा है। फिर उसके बाद उन्होंने बच्चों को समझाया कि देखो तुम्हारे पापा यहां इसीलिए आए हैं कि अगले दो साल तक लोगों की सेवा कर सकें। और सेवा करना अच्छी बात है ना छोटी बिटिया ने तुरंत कहा यस पापा मैडम ने भी बताया था कि सब की हेल्प करनी चाहिए।
धीरे-धीरे बच्चों का मन वहां लगने लगा। जुलाई में पास के ही स्कूल में प्रवेश मिला। पहले दिन बड़े बेटे ने स्कूल में देखा कि क्लास के सहपाठी बहुत ही गरीब तबके से हैं। उन दिनों मिड डे मील नहीं हुआ करता था और ना ही सर्व शिक्षा अभियान के तहत बच्चों को कपड़े मिलते थे। इसलिए छठी क्लास के बयालीस बच्चों में से लगभग आधे नंगे पांव थे। पैंट-शर्ट जैसी कोई भी पोशाक नहीं थी। सबने मारकिन के फटे- पुराने पजामे या ढीला कच्छा पहन रखा था। और जिन सहपाठियों के पास चप्पल थी उनमें से कोई ऐसी न थी जिन पर दो चार पैच न लगे हों या सिलाई ना हुई हो। कमीजों का भी यही हाल था । शायद ही किसी की कमीज़ बिना पैबंद की थी। स्कूल बैग तो एकाध बच्चे के पास था वरना पुरानी गंदी बोरी और सब्जी लाने वाली झोले में सब अपना कॉपी किताब ले आते। इस इलाके में अभी भी कलम दवात और नरकट की रोजाना चाकू से तराशने वाली कलम का चलन था । कुछ लोगों के पास पेंसिल भी थी । स्कूल में पक्के कमरे सिर्फ दो तीन ही थे। बाकी हर जगह टीन शेड लगा हुआ था। पहले दिन स्कूल जाते हुए डॉक्टर साहब की पत्नी ने सार्थक को नहला धुलाकर पाउडर लगाया फिर अच्छी सी पैंट-शर्ट पहनाई और पॉलिश किया हुआ जूता तथा बैकपैक में करीने से काफी किताबें रखी साथ में एक पानी का बोतल भी दिया।
सार्थक ने जब कक्षा में प्रवेश किया उसी समय से उसने अपने आप को असहज पाना शुरू कर दिया। सभी बच्चे उसे अजनबी की तरह देख रहे थे। वह कभी उसे देखते, कभी उसकी पानी की बोतल को, कभी उसके जूते की तरफ, कभी उसकी पोशाक की तरफ तो कोई उसके बस्ते को छूकर देखता। अंत में योगेश ने पूछ ही लिया पानी की बोतल काहे लाए हैं। यहां तो सब लोग चापाकल से ताजा पानी पीते हैं। यह पानी तो रखे रखे बासी हो जाएगा। सार्थक के पास इसका कोई जवाब नहीं था। उसने इतना ही कहा कि पहले शहर में ले जाते थे इसलिए आदत पड़ी है। पानी पीने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा क्लास में बैठे-बैठे पानी पी लूंगा। इस पर कई सहपाठियों ने एक साथ ठहाका लगाया। विनोद बोला ए भाई इनका बोतल छिपा दीजिए नहीं तो मास्टर साहब पानी पीने के लिए जाने ही नहीं देंगे। सब हंसने लगे सार्थक भी हंसने लगा। दोपहर में उसने देखा कि खाने की छुट्टी में आधे बच्चे अपने घर भाग कर चले गए और खाना खाकर दौड़ते हुए वापस भी आ गए। कुछ एक बच्चे बिना खाना खाए मैदान में खेलते रहे और पूछने पर उन्होंने बताया कि सुबह खाकर आए हैं फिर शाम को ही मिलेगा। जैसे ही उसने पूछा कि सुबह नाश्ते में क्या खाते हो? अजय ने उत्तर दिया यह भाई नाश्ता और खाना में हमारे यहां कोई फर्क नहीं है। सवेरे सवेरे साग- भात खा कर स्कूल आ गए रात को रोटी सब्जी। बस यही नाश्ता है यही खाना है।
शाम को छुट्टी के बाद उसने देखा कि स्कूल से एक फुटबॉल लेकर कई बच्चे खेल रहे हैं लेकिन किसी के पैरों में जूते नहीं है। इस बीच अभिषेक ने उसे गन्ने का एक टुकड़ा पकड़ा दिया और कहा कि इसको चूसो। सार्थक ने दो बार कोशिश की लेकिन कामयाब ना हो सका फिर उसे अभिषेक ने गन्ने चूसने की युक्ति बताई और सार्थक को बड़ा मजा आया।
एक दो दिन बाद सार्थक ने जानबूझकर अपनी पानी की बोतल घर पर छोड़ दी और पानी पीने के बहाने कक्षा से निकलकर बगल के तालाब पर जाकर पानी पर कुछ मुरमुरे डाले। मछलियां जल्दी-जल्दी ऊपर आकर सब खाती और भाग जातीं। इसके अलावा उसने धान के खेत में रोपाई देखी। थोड़ी दूर पर एक कुएं में कुछ मेंढक इधर से उधर उछल रहे थे। मेंढकों के बगल में कंकड़ फेंक कर मजा लिया और रहट की सिंचाई में ताजे पानी से अपने पैर धोए। लौटते समय स्कूल के पास ही एक अमरुद के पेड़ पर चढ़कर कुछ कच्चे और ताजे अमरूद भी खाए। फिर स्कूल लौट आया। इतना मजा उसे कभी भी शहर के स्कूल में नहीं आया था। इस तरह धीरे धीरे उसका मन लगने लगा।
कुछ दिनों बाद अंग्रेजी जी की कक्षा में विश्वनाथ सिंह मास्टर साहब बच्चों से स्पेलिंग और उसकी हिंदी मीनिंग पूछते थे। कुछ बच्चे नहीं बता सके उनको दो-दो छड़ी की सजा मिली। सार्थक ने सब बता दिया वैसे भी उसे अंग्रेजी मैं कोई दिक्कत नहीं थी, क्योंकि शहर के अंग्रेजी स्कूल से पढ़कर आया भी था और घर पर ट्यूटर भी लगा हुआ था । उसने महसूस किया कि बहुत से बच्चों के पास सभी किताबें नहीं है, क्योंकि कई बार विभिन्न कक्षाओं में किताब ना होने की दशा में बच्चों को कक्षा से बाहर कर दिया जाता है। वह समझ गया कि बच्चों के पास किताबें क्यों नहीं है? क्योंकि जब पूछता कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं? तो लगभग हर बच्चा यही बोलता कि, मजदूरी करते हैं, पत्तल दोना बनाते हैं, धान रोपते हैं, फसल काटते हैं , गड्ढा खनते हैं, तरकारी बेचते हैं, मोची हैं, साइकिल का पंचर बनाते हैं आदि आदि। उसे समझ में आने लगा था कि सभी के पास पूरी किताबें क्यों नहीं है।
उसने यह भी महसूस किया कि जब दोपहर में वह अपनी टिफिन खोलकर खाता है तो कुछ नजरें उसे देखती हैं। कुछ ललचाई नजरों से। कुछ अपने आप पर तरस खाती हैं। कुछ किसी शून्य में न जाने क्या तलाशती हैं और कुछ तो उस का डिब्बा खोलने से पहले चुपचाप बाहर चली जाती हैं। जब उसने अगल-बगल वालों से लंच शेयर करने का प्रयत्न किया तो कुछ ने तो लपक कर लिया और कुछ ने कहा कि सुबह बहुत खा कर आए हैं पेट भरा हुआ है। लेकिन उन नजरों ने मुंह से निकले कथन का साथ नहीं दिया। सार्थक समझ गया कि कुछ नजरें मजबूर हैं कुछ लालसा पूर्ण हैं, कुछ तरसी हुई हैं, कुछ खुद्दारी से भरी हुई हैं। इसका असर यह हुआ कि जब मम्मी कभी कचौड़ी, ढोकला, सैंडविच, फिंगरचिप्स, बर्गर, ब्रेड या किसी पकवान के लिए उसकी इच्छा जानने की कोशिश करतीं, वह रात में या छुट्टी के दिन खा लेता लेकिन स्कूल के लंच में यह सब ले जाने के लिए साफ मना कर देता। अब उसने जिद करके पराठा अचार या रोटी सब्जी रखवाना शुरू कर दिया। डॉक्टर साहब की पत्नी सार्थक में आ रहे इस परिवर्तन को देख कर कुछ हैरान थीं। अब वह न तो बहुत महंगे कपड़े या खिलौनों की मांग करता और कई बार उन्होंने गौर किया कि स्कूल जाते समय वह जूते नहीं पहन कर घरेलू स्लीपर या चप्पल में चला गया।
शहर में पली बढ़ी होने तथा एक माँ होने के नाते सार्थक की मम्मी चाहती थीं कि वह सुंदर स्वच्छ और सोबर कपड़े पहन कर स्मार्ट दिखे। स्कूल और आसपास सब जानते हैं कि सार्थक डॉक्टर साहब का बेटा है और वह उसे अच्छे से तैयार करके रखना चाहती थीं कि स्कूल में अच्छे कपड़े पहन कर वह जाए। लेकिन उधर सार्थक था कि जब भी उसे प्रैस किए हुए साफ सुथरे कपड़े और पॉलिश किए हुए जूते पहनकर स्कूल भेजा जाता तो उसे लगता कि वह सबसे अलग हो गया है। उसके सहपाठी भी कुछ बुझे बुझे से नजर आते। जब कोई नंगे पांव आने वाला सहपाठी हसरत भरी निगाहों से उसके जूते की तरफ देखता तो सार्थक थोड़ी सी शर्म और एक अपराध बोध से बेचैन हो जाता। उसको लगता है कि यह चमकता हुआ जूता वास्तव में इतनी चकाचौंध पैदा कर रहा है कि वह अपनी मित्रता की सहजता को नहीं देख पा रहा और इसी प्रकार जब कोई अच्छा स्पोर्ट्स ड्रेस पहना कर उसे खेलने के लिए भेजा जाता तो उसे कुछ अजीब सा महसूस होता जैसे कि वह टीम का सदस्य नहीं है। क्योंकि जिस इलाके में तन ढंकने के लिए दो जोड़ी कपड़ा जुटाना ही मुश्किल हो वहाँ खेलकूद के लिए अलग ड्रेस की बात कल्पना के भी परे था। धीरे-धीरे उसने अपने को साधारण बनाना शुरु कर दिया और अपने जूते का एक रास्ता निकाल लिया।
घर से निकलते ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रांगण में कर्मचारियों के दफ्तर में बड़े बाबू की मेज के पास वह अपना जूता छोड़कर एक हवाई चप्पल पहनकर स्कूल चला जाता और लौटते समय जूता पहन कर घर मे वापस आता। इन सब कोशिशों से कुछ दिन में उसने महसूस किया कि उसके और अन्य सहपाठियों के बीच में एक अनचाही दीवार टूट चुकी है। वह पूरी मस्ती से अपने बाल सखाओं के बीच विद्यालय के दौरान पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद कर रहा है। कभी कबड्डी खेल रहा है तो कभी खो-खो, कभी ओल्हा-पाती तो कभी आइस-पाइस, कभी नंगे पांव फुटबॉल तो कभी गुल्ली डंडा। कभी वह किसी सहपाठी के खेत में गन्ने चूसता, कभी ताजा गुड़ खाता, कभी किसी के घर से आई दही या मट्ठा आदि का स्वाद लेता। कभी शाकाहारी होते हुए भी तालाब में मछली मारने वालों की डंडी पकड़ कर बैठता तो कभी पुआल के ढेर पर उछलता कूदता या किसी पेड़ पर चढ़कर फल खाता।
स्कूल में खाने के लिए वह कभी दाल-भात कभी रोटी-अचार कभी पराठा- सब्जी ले जाता। यदि उसकी मम्मी कभी कुछ ऐसा देना चाहती जो कि ग्रामीण पृष्ठभूमि में खानपान में शामिल नहीं है तो वह उसे लेकर स्कूल नहीं जाता। एक दो बार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के कुछ कर्मचारियों ने डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी से कहा कि, भैया स्कूल में सबके साथ खेलते हैं, उसमें कोई दिक्कत नहीं लेकिन कल मेरे बेटे ने बताया कि वह एक कम जात के बेटे के साथ अपना टिफिन बांट कर खा रहे थे। डॉक्टर साहब ने इस तरह की शिकायत करने वालों की अच्छी खबर ली और बोला कि मेरा बेटा इंसानों के बेटों के साथ खाता पीता है और मैं चाहता हूं कि वह इंसान ही रहे।
लगभग दस दिनों बाद अक्षय नवमी के दिन बहुत सी महिलाएं विद्यालय के प्रांगण में ही स्थित आंवले के पेड़ के नीचे धागा बांधने और पूजा करने सुबह से ही आ रही थीं। सार्थक की मम्मी भी अक्षय नवमी को आंवले के पेड़ के परिक्रमा के लिए अपने कर्मचारियों से पूछताछ कर रही थीं, तो पता चला कि सार्थक के स्कूल में ही आंवले का एक बड़ा पेड़ है। उन्होंने स्वास्थ केंद्र के ही स्टाफ की पत्नी को साथ लिया और पूजा की थाली वगैरा लेकर घंटे भर में स्कूल की तरफ चली गई। पूजा आदि करने के बाद उन्होंने देखा कि तब तक स्कूल में खाने की छुट्टी हो चुकी है और सार्थक स्कूल के मैदान में ही नंगे पांव फुटबॉल खेल रहा है। अचानक उन्होंने देखा कि सार्थक उन्हें देखते ही छुपने की कोशिश कर रहा है। फिर वह सीधे आंवले के पेड़ से उठकर स्कूल की तरफ आई और आवाज देकर उसे बुलाया । उनकी आवाज़ लगाते ही स्कूल का चपरासी और अन्य छात्र जो कि उन्हें पहचानते थे कि डॉक्टरनी साहिबा हैं, उन सब ने सार्थक को खबर देकर सामने हाजिर कर दिया है। उसके आते ही सबसे पहले मम्मी ने पूछा व्हेयर इस योअर शू ? यह नंगे पांव क्यों ? यू आर वियरिंग हूज स्लीपर ? सार्थक चुप। मम्मी ने फिर पूछा बोलते क्यों नहीं किस की चप्पल पहन कर घूम रहे हो? सार्थक फिर चुप। इस बार मम्मी ने क्रोध करते हुए पूछा यह क्या हाल बना रखा है? बिखरे हुए बाल स्याही लगी हुई शर्ट और जूते भी गायब? व्हाइ डोंट यू रिप्लाई? डिड समबडी स्टोल इट? अबकी सार्थक ने कहा कि यहां सब पढ़ने आते हैं चोरी करने नहीं। यद्यपि माँ-बेटे की अङ्ग्रेज़ी बातचीत के प्रभाव से लोग दूर खड़े थे, फिर भी मम्मी ने क्रोधित होकर एक चपत लगाई, बोलीं, एक तो ठीक तरीके से रहते नहीं हो जूता गायब कर दिया और ऊपर से बहस कर रहे हो। मामला टालने के इरादे से सार्थक ने झूठ बोल दिया कि मम्मी आते हुए जूते का तला थोड़ा निकल गया था, इसलिए हॉस्पिटल में ही छोड़ कर प्रभु चाचा की चप्पल पहनकर आ गया। तब तक छुट्टी का समय खत्म हो चुका था । पांचवी घंटी की आवाज सुनते ही सार्थक मम्मी को कुछ कहे बगैर अपनी क्लास में भाग गया। डॉक्टर साहब की पत्नी घर आई और शाम को उन्होंने देखा कि सार्थक जूता पहन कर वापस आया और कहीं भी तले में कोई दिक्कत नहीं है।
उन्होंने जैसे ही दोपहर में जूता ना पहने होने की बात की, सार्थक अचानक तेजी से शौच का बहाना बनाकर भाग गया। अभी उनकी तहकीकात कुछ और चलती लेकिन तब तक पड़ोस की एक महिला आ गई और वह उससे बातचीत करने बाहर चली गई। रात में जब डॉक्टर साहब आए सार्थक की मम्मी ने सारा वाकया उन्हें सुनाया। डॉक्टर साहब ने अंदाजा तो लगा ही लिया था लेकिन सार्थक को प्यार से बुलाया और पूछा, क्या बात है बेटा जूता क्यों नहीं पहनते? आंखों में आंसू भर के सार्थक ने इतना ही कहा कि पापा मेरे क्लास में कोई नहीं पहनता इसलिए मुझे बहुत शर्म आती है। डॉक्टर साहब कुछ बोलते की उससे पहले पत्नी बोल पड़ीं , यह तो पानी की बोतल नहीं ले जाता। सबके सामने इसको शर्म आती है। हैंडपंप से पानी पीता है। कहीं डायरिया वगैरह हो गया तो भगवान मालिक है।और तो और दूसरे बच्चों के साथ टिफिन शेयर करता है। डॉक्टर साहब ने आंखों ही आंखों में उन्हें चुप रहने का इशारा किया। वह अभी कुछ सोच ही रहे थे कि पत्नी फिर से बोल पड़ी कि देखो तुम इस तरह से जाओगे दूसरे बच्चों की तरह तो लोग क्या सोचेंगे कि डॉक्टर साहब के बच्चे ठीक से साफ सुथरे होकर नहीं रहते। हर मां बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छा खाएं अच्छा पहने तो इसमें क्या बुराई है?
सार्थक चुपचाप खड़ा रहा कुछ बोला नहीं। फिर डॉक्टर साहब ने कह दिया कोई बात नहीं बेटा तुम जाओ सो जाओ। उसके बाद डॉक्टर साहब की पत्नी और उनके बीच बहुत देर तक बहस चलती रहीं। वे बोलीं कि देखिए जब से यहां आया है इसकी लैंग्वेज चेंज हो गई है। अंकल की जगह चाचा, मैं की जगह हम कह कर बात करता है और अंग्रेजी तो बिल्कुल बोलता ही नहीं किसी से। ना हमसे ना आपसे। आखिर जब हम यहां से जाएंगे तो शहर में किस तरह से दूसरे बच्चों से कंपटीशन कर पाएगा? कहीं सभी इसे भौंदू ,देहाती और गँवार न समझने लगें। बताइए जूता बड़े बाबू के कमरे में निकाल कर वहां से चप्पल पहनकर तब स्कूल जाता है। और आप हैं कि उसको डांट तक नहीं रहे हैं बल्कि समाजवादी बनाने पर लगे हैं। पता नहीं क्या हो गया है बाप बेटे को? डॉक्टर साहब ने सिर्फ इतना ही कहा है देखो कोई उसे देहाती या गँवार समझे, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि वह इंसानियत समझे। फिर भी पत्नी डॉक्टर साहब के इस तरफ से संतुष्ट नहीं हुई और देर तक भुनभुनाती रहीं।
लगभग महीने भर बाद बड़े दिन की छुट्टियां शुरु हो गईं। स्कूल बंद था और डॉक्टर साहब भी दो-तीन दिनों के लिए अपने पुश्तैनी घर हो आना चाहते थे। लखनऊ जाने के लिए चोपन से शाम को त्रिवेणी एक्सप्रेस मिलती थी जो अगले दिन लखनऊ पहुँचती थी और चोपन के लिए विंढमगंज से सवारी गाड़ी जाती थी। उन्होंने हफ्ते भर पहले ही बता दिया था कि इस बार दादा जी के साथ नया साल मनाने सार्थक और स्वाति को हम लखनऊ ले जाएंगे। दादा-दादी के साथ क्रिसमस केक और निमिष मिठाई और चौक की चाट खाने की कल्पना भर से दोनों बच्चे बड़े खुश थे और दिन गिन रहे थे कि कब लखनऊ रवाना हों। विंढमगंज से दोपहर बाद एक सवारी गाड़ी चोपन तक जाती थी। नियत तिथि पर दोपहर के खाने के बाद डॉक्टर साहब सपरिवार स्टेशन पहुंचे सामान आदि पहुंचाने के लिए अस्पताल के दो कर्मचारी भी साथ आए थे जो चोपन के रहने वाले थे । उनमें से एक ने कहा, साहब हम वहां तक साथ चलेंगे और आपको ट्रेन में बैठा कर फिर अपने गांव चले जाएंगे। रात का खाना डॉक्टर साहब की पत्नी ने बनाकर टिफिनदान में पैक कर लिया और ढाई बजे तक स्टेशन पहुंच गए। सवारी गाड़ी लगभग आधा घंटा लेट थी। इस बीच प्लेटफॉर्म पर एक बेंच पर डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी बैठे। सार्थक और स्वाति पहले साथ बैठे फिर इधर उधर घूमते रहे। फिर सार्थक ने मम्मी से पाँच का एक नोट मांगा और थोड़ा आगे प्लेटफॉर्म पर कुछ खरीदने के लिए जाने लगा। एक अस्पताल का कर्मचारी भी उसके साथ साथ ही था कि अचानक डॉक्टर साहब की पत्नी ने देखा कि सार्थक दौड़ता हुआ वापस आकर उनके पीछे लगभग छिपते हुए बीच में बैठ गया। वह कुछ समझतीं तब तक देखा कि फटे पुराने कपड़ों में एक आठ-नौ साल का बच्चा एक हाथ में पॉलिश और दूसरे में ब्रश लिए दौड़ता हुआ आया और बोला, ए सार्थक भाई गांव जा रहे हो, तो लाओ न तुम्हारा जूता चमका दें। हम बहुत बढ़िया चमकाते हैं।
सार्थक को जैसे काठ मार गया था। वह डबडबाई आंखो से इस बच्चे को देख ही रहा था कि साथ आए अस्पताल के कर्मचारी ने वहां आकर उस लड़के से कहा, ऐ लड़के चलो यहाँ से हटो, अपना काम करो। वह आगे बढ़ता कि सार्थक खड़ा हुआ बोला, अंकल यह मेरे क्लास में पढ़ता है। मेरा दोस्त अमर है और उसके बाद अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करने लगा। अमर उसको देखते हुए चुपचाप खड़ा था। डॉक्टर साहब सब कुछ समझ गए थे और उनकी पत्नी भी जैसे अवाक रह गईं। डॉक्टर साहब उठे और उस बच्चे से बोले तुम बेटा यहां क्या कर रहे हो? बच्चे ने जवाब दिया, नमस्ते चाचाजी। आजकल क्रिसमस का छुट्टी है न, इस समय ज्यादा लोग स्टेशन पर आते जाते हैं तो काम में बाबूजी का हाथ बटाने के लिए हम चले आते हैं और थोड़ी दूर बैठे एक मोची की तरफ इशारा करते हुए उसने कहा देखिए वह हमारे बाबूजी बैठे हैं। हम तो सार्थक को देख कर दौड़ के आ गए कि गांव जा रहा है तो कम से कम इसका जूतवा तो चमका दें, हमरे तरफ से क्रिसमस का गिफ्ट लेकिन पता नहीं ये हमको देख के भाग काहे रहा है !!
सार्थक अपनी डबडबाई आंखों में आँसू रोक न पाया और सिसक सिसक कर रोने लगा। अब मम्मी अच्छी तरह समझ चुकी थी कि वह जूते पहनकर स्कूल क्यों नहीं जाता। डॉक्टर साहब ने अमर को सीने से लगाया और बोली कि नहीं बेटा तुम सार्थक के साथ बैठ कर बात करो, सार्थक अपना जूता खुद पॉलिश करेगा। तुम दोनों यहाँ बैठो, मैं आता हूँ तुम दोनों के लिए बिस्कुट लेकर। और फिर उसके पिता के पास जाकर बोले, भाई साहब मैं आपकी मजबूरी समझ सकता हूं। आपको कभी कोई दिक्कत हो। मेरे लायक कोई काम हो तो बेहिचक मेरे पास आइए , जो भी बन पड़ेगा मैं कोशिश करूंगा, लेकिन इस बच्चे से उसका बचपन मत अलग कीजिए। अमर की फीस और किताबों का जिम्मा मेरा रहा। अमर के पिता की भी आँखों में आँसू आ गए। रूँधे गले से उन्होने डॉ साहब के पाँव पकड़ लिए। डॉ साहब ने उन्हें सीने से लगा लिया और लगभग पाँच मिनट बाद वे वापिस आए। स्वाति ने अमर भैया को एक चॉकलेट दी। ट्रेन आ चुकी थी। सार्थक अमर से गले मिलकर गाड़ी में बैठा। रेलगाड़ी अब गति पकड़ चुकी थी। डॉक्टर साहब की पत्नी सोच रही थीं कि अभी तो एक अमर ही दिखा है, सार्थक के स्कूल के जाने कितने अमर कहीं मजदूरी कर रहे होंगे या कहीं अपने बचपन का सौदा करने को मजबूर होंगे। वे भीतर तक आर्द्र हो उठीं और सार्थक की तरफ देखा। सार्थक खिड़क से बाहर देख रहा था लेकिन दृग कोरकों में तरलता भरी हुई थी। उसकी नम आँखें देखकर मम्मी ने कहा, बेटा दिल छोटा मत करो, हम लखनऊ में तुम्हारे दादाजी के साथ शिक्षामंत्री जी से मिलकर सबको छात्रवृति दिलाने की कोशिश करेंगे। पापा ने भी कहा हाँ बेटा मम्मी सही कह रहीं हैं। शिक्षामंत्री जी दादाजी के साथ पढे हैं और उनके दोस्त हैं। हम पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी बच्चा तुम्हारे स्कूल में नंगे पाँव नहीं आएगा। यह सुनकर सार्थक मम्मी के गले से लिपट गया।
तब तक घर आ चुका था। गाड़ी रुकते ही सार्थक का ध्यान भंग हुआ। उसने गहराई से बचपन के अमर की निश्छल मित्रता का अनुभव करते हुए महसूस किया कि विंढमगंज के वे दिन उसकी जिंदगी के कितने सार्थक दिन थे।
September 14, 2018 @ 10:02 pm
हृदयस्पर्शी रचना के लिए कुंदन यादव सर का आभार एवं बधाई । कुंदन सर की रचनाओं ने एक बार फिर से हिन्दी साहित्य की तरफ पाठकों का रूझान शुरू कर दिया है । रचना में प्रयुक्त शब्दावली पूर्णत भाव बिभोर करने वाली है। समाज के आसपास घटने वाली घटनाओं का ऐसा सजीव वर्णन कथा साहित्य को निश्चित ही नवीन ऊचाईयां प्रदान करेगा। एक बार पुनः कुंदन सर का आभार ??
September 14, 2018 @ 11:07 pm
भावुक कर दिया इस कहानी ने ?
बहुत प्यारा कहानी दिल को छुने वाली
??????
September 14, 2018 @ 11:47 pm
बेहतरीन, हृदयस्पर्शी कहानी, …कोतवाल रामलखन सिंह, और फूलचंद पढ़ने के बाद से मैं कुंदन जी की भाषाई पकड़ का तो पहले ही कायल था लेकिन आज की कहानी ने तो इनकी लेखनी का मुरीद बना दिया, मानवीय संवेदनाओं पर इनकी इतनी गहरी पकड़, कमाल है, गाव गिराव के माहौल का इतना सूक्ष्म विवेचन करते है कि पढ़ने वाला खुद को वही पाता है, इस कहानी में भी कई जगह मैंने अपना बचपन सार्थक के साथ जिया, मजा आ गया…???
September 14, 2018 @ 11:54 pm
एक ही शब्द निशब्द। कुंदन जी से आग्रह है की वो अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर लिखते रहें।
September 15, 2018 @ 7:24 am
मार्मिक । अंत ने रुला दिया। इतनी सुंदर कहानी के लिए बधाई स्वीकार करे।
September 15, 2018 @ 9:51 am
लगभग चार पांच साल पहले की बात है जब मैंने गोरखपुर स्टेशन पर एक 9-10 साल के बच्चे को बूट पॉलिश करते हुए देखकर बहुत दर्द महसूस किया था और फिर उससे भी ज्यादा दर्द इस कहानी को पढ़कर महसूस किया। इस कहानी के भीतर खत्म हो रही मानवीय संवेदना और मूल्यों को दोबारा जागृत करने की क्षमता है। आजकल के बच्चे जहां अपने क्लास में कपड़े जूते आदि का दम भरते हैं वहां सार्थक कि अपने दोस्तों के प्रति संवेदनशीलता अत्यंत प्रेरणादाई है। कुंदन जी से आग्रह है कि लगातार लिखते रहें और हिंदी साहित्य की समृद्धि में योगदान करते रहें। न जाने क्यों लग रहा है कि यह कहानी बहुत लंबे समय तक याद की जाएगी।
September 15, 2018 @ 10:29 am
Bahut-e-badhiya
September 15, 2018 @ 3:09 pm
मर्मस्पर्शी कहानी….. आदमी को इंसान बनने के लिये यथार्थ के रूखे मरुस्थल से गुज़रना होता तभी उसमें संवेदना के नखलिस्तान उभरते हैं.
बधाई.
September 16, 2018 @ 8:26 pm
मर्मस्पर्शी कहानी। सभी अभिवभावकों को यह चहिये कि वह अपने बच्चों को यथार्थ से परिचित करवाएं। इसी से मन मे संवेदनशीलता जागेगी। अगर ऐसा होता है तो एक संवेदनशील समाज जरूर बनेगा।
June 11, 2023 @ 6:30 pm
बहुत ही सुंदर कहानी। आखरी में रुला दिया।