ट्यूलिप
ट्रेन के सेकंड एसी के उस कूपे में वह बोरियत भरी खामोशी नहीं थी जो आमतौर पर ऐसे कूपों में पाई जाती है। मानसी अपनी बर्थ पर चुपचाप बैठी, निरंतर सहयात्रियों का अवलोकन कर रही थी। हास्य की एक क्षीण रेखा उसके होंठों पर खेल रही थी। कारण ?
उसके सामने की बर्थ पर एक वृद्ध दंपति बैठे थे जो बात-बात पर तकरार कर दूसरे यात्रियों को मनोरंजन की पर्याप्त सामग्री मुहैया करा रहे थे। पति की सीट किसी अन्य कूपे में थी और वह शायद इस अनवरत कलह से विश्रांति पाने की मंशा से…अपनी सीट पर जाने को बेकरार दिख रहे थे। मगर उनकी पत्नी भी उन्हें इस सुख का उपभोग करने से वंचित रखने पर तुली हुई थीं।
उनके बीच की आखिरी तकरार इसी मुद्दे पर हो चुकी थी और वे दोनों मुंह सुजाए…खिड़की से बाहर देखने का उपक्रम कर रहे थे। मानसी कौतुक से उन्हें निहार रही थी।
उन तने हुए चेहरों के पीछे…अनगिनत बरसों के साथ का इतिहास छुपा हुआ था। वार्धक्य की उन झुर्रियों में …एक दूसरे के साथ होने के आश्वासन
की कहानी लिखी हुई थी। दोनों निरंतर झगड़ रहे थे
पर वैसे ही जैसे बहुत पुराने करीबी दोस्त हों और आश्वस्त हों कि ” यह तो अपना यार है…कहाँ जाएगा ! ”
सुदीर्घ दांपत्य के ये खट्टे-मीठे झगड़े…खट्टी-मीठी गोलियों की तरह होते हैं जिन्हें चुभलाते, इनके स्वाद
में खोये ये वयोवृद्ध युगल…दिन प्रतिदिन शेष होते जा रहे जीवन और आसन्न विछोह के भय की तरफ से पीठ फेरे रहते हैं।
” यह सुख भी आखिर कितनों के हिस्से में आ पाता है ! ” मानसी ने एक दीर्घ निःश्वास भरा।
अचानक मानसी की आँखों के सामने वह सफेदवसना, गौरांग भव्य मूर्ति तैर उठी। बेटी के स्कूल के केयरटेकर मुखर्जी बाबू की माँ की स्मृति आज भी वैसी ही अमिट है मानसी के स्मृति-पटल पर।
कई बरस पहले…बेटी ने स्कूल के समय के बाद, अपराह्न में वॉलीबॉल की प्रैक्टिस के लिए स्कूल जाना शुरू किया था। यद्यपि जाड़े की उन दुपहरियों की क्षणिक मीठी नींद का लोभ संवरण करना आसान नहीं था, फिर भी स्कूल में अपराह्न के एकांत में बेटी को प्रैक्टिस के लिए अकेले भेजने को मानसी का दिल न माना। सो वह भी अलसाये बदन पर शॉल लपेटे, हाथ में अखबार थामे बेटी के साथ
हो लेती। वहीं वॉलीबॉल कोर्ट के पास एक कुरसी डाले वह धूप में अखबार पढ़ती रहती। वहीं पास में स्कूल के केयरटेकर मुखर्जी बाबू का आवास था। अक्सर वहाँ एक वृद्धा …जाड़े की क्षणस्थायी धूप में लकड़ी की एक पुरानी बेंच पर बैठी दिखती थीं। नितांत अकेली… एकटक शून्य में देखती रहतीं।
कभी-कभार दोनों की नजरें मिल जातीं तो मुस्कुराहटों और अभिवादनों का आदान-प्रदान हो जाता।
एक दिन मानसी धीमे कदमों से टहलती हुई , उनके समीप जाकर खड़ी हो गई ” नमस्कार ! आप हर समय अकेली बैठी क्या सोचा करती हैं माँ ? ”
” अहा ! कितना मधुर बोलती है तू ! आ आ बैठ न!
मेरे पास बैठ। ” वह वृद्धा गदगद कंठ से बोल उठीं।
मानसी हँसती हुई उसी बेंच पर बैठ गई। स्नेह से उसके हाथ थामे, वह वृद्धा पूछने लगीं ” यहीं पास में रहती हो ? तुम्हारे पति शायद बड़े अधिकारी हैं ..”
फिर मानसी के चेहरे पर तिर आए संकोच को ताड़ कर ठठा कर हँस पड़ीं ” रोज तुम माँ-बेटी को बड़ी सी सरकारी गाड़ी छोड़ने आती है न! इसी से मैंने अंदाजा लगाया। वैसे भी संभ्रांत परिवारों की स्त्रियाँ तो अपने रहन-सहन और व्यवहार से पहचान ही ली जाती हैं।”
उस दिन देर तक दोनों उसी काठ के बेंच पर बैठी बतियाती रहीं। बेटी की प्रैक्टिस खत्म होने पर मानसी ने उनसे विदा ली।
फिर यह नित्य का क्रम बन गया। शरद ऋतु की उस ढलती धूप में…दो स्त्री-हृदय जैसे एक अनकहे स्नेह की गरमाहट में नहा उठते।
मुखर्जी बाबू की माता, अक्सर मानसी के समक्ष अपने जीवन के पृष्ठ खोल कर बैठ जातीं। उनके पति बहुत पहले गुजर चुके थे। दो कर्मठ और आज्ञाकारी पुत्रों की माता का घर-गृहस्थी में स्थान अच्युत था। ना सेवा-शुश्रूषा में कमी थी ना ही आदर-जतन में।
फिर भी उनका मन बैरागी बना, अतीत की गलियों में यादों की खंजड़ी बजाता फिरता।
जब तब उनकी आँखों से अश्रु ढुलकने लगते ” मेरे मालिक मुझसे बहुत स्नेह करते थे। बहुत मान देते थे। मेरे बना एक पल भी नहीं रह पाते थे। रंग से काले, भद्दे नैननक्श…कुरूप कहे जाने योग्य। और मैं ठहरी अपरूप सुंदरी! पर उनके अंतस् का रूप मेरे बाह्य सौंदर्य पर भारी था। हमारा दांपत्य प्रेम से परिपूर्ण था क्योंकि हमारे हृदयों का मेल था।
उनकी बीमारी में मैंने उनकी शिशुवत देखभाल की।उनकी जीवनसंगिनी नहीं उनकी माँ बनकर उनकी सेवा की। मेरी हर साँस उन्हें समर्पित थी। ऐसी सेवा…ऐसा जतन कि लोग देख कर दाँतों तले अंगुलियाँ दबाते। पर काल के आगे मेरा सौभाग्य हार गया। मेरे कपाल का सिंदूर टीका मिट गया बेटी ! ”
वह फूट फूट कर रो पड़ीं। मानसी सजल नेत्रों से देखती रही। उम्र के नौ दशक पार चुकीं, मुखर्जी बाबू की वह पतिप्रिया…अपने सफेद आँचल से मुंह ढांपे बिलख रही थीं ” हे ईश्वर ! किसी से उसका जीवनसाथी न छीनना…”
आज भी यह दृश्य मानसी की स्मृति में ज्यों का त्यों गड़ा है…किसी रूपहले जेवर की तरह।
इसीलिए आज ट्रेन में इस वृद्ध दंपति की अद्भुत कलहप्रियता में भी उसे जीवन का वही शाश्वत सत्य
झांकता हुआ दिखा जिसकी तस्वीर उस दिन…उस वृद्धा के आँसुओं ने उकेरी थी।
मानसी ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर अन्य सहयात्रियों की तरफ दृष्टि फेरी। कूपे की साइड की दो बर्थों पर दो औरतें संभवतः एक साथ सफर कर रही थीं। एक साठ-पैंसठ बरस की बीमार सी दिखती महिला थी और दूसरी थी बीस-बाईस वर्ष की सुंदर नवयुवती।
युवती उस महिला का बहुत खयाल रख रही थी। कभी उसे सलीके से कंबल ओढ़ाती, कभी खाने के बाद उसका मुंह पोंछती तो कभी फल काट कर उसे आग्रहपूर्वक खिलाती। यह देख कर मानसी ने अनुमान किया कि ये दोनों माँ-बेटी हैं।
उस युवती का मिलनसार चेहरा जैसे बार-बार मानसी से आग्रह करने लगा कि वह बातचीत का सिरा उसकी ओर बढ़ाए। सो मानसी ने धीमे स्वर में पूछा ” तुम्हारी माँ बीमार हैं क्या ? ”
वह लड़की थोड़ी चुप सी हो आई। फिर कहा ” मेरी माँ नहीं सास हैं। बरसों हो गए, बीमार रहती हैं।”
मानसी चौंकी। पहली बार उसे गौर से देखा। फुरतीली काया, शालीन पहनावा और सुंदर आनंदी चेहरा। माँग में सिंदूर की हलकी सी रेखा और ललाट पर गहरी कत्थई बिंदी ने उसके अल्हड़ चेहरे पर एक बेवजह सी गंभीरता मल दी थी।
पर उसकी मुस्कुराती हुई आँखें…इस थोपी हुई गंभीरता को जैसे धो-पोंछ कर बहा देने पर आमादा थीं।
मानसी ने बातचीत का सिलसिला बढ़ाने की गरज से उसका नाम पूछा तो वह उत्फुल्ल मुख से कहने लगी ” मेरा नाम ट्यूलिप है। प्रेम की अमरता का प्रतीक हैं ट्यूलिप के सुंदर पुष्प ! माँ ने कहीं पढ़ा था। बस रीझ गईं इन पर । तभी मेरा जन्म हुआ था। सो तपाक से उन्होंने मेरा नाम ट्यूलिप रख दिया। ”
मानसी ने कहा ” बहुत सुंदर नाम है तुम्हारा। तुम वास्तव में ट्यूलिप के पुष्प सरीखी ही हो।”
ट्यूलिप गंभीर हो आई। कहा ” भाग्य ने मेरे साथ जो छल किया है, उसके बाद यह नाम निरर्थक हो चुका है। अगर मेरी माँ मेरा भाग्य देख पातीं तो मेरा यह नाम कभी न रखतीं। ”
मानसी दुविधा में पड़ गई ” शायद इस बच्ची के घाव ताजे हैं…उन्हें छेड़ना सही होगा ?”
पर ट्यूलिप अपने घावों को उघाड़ कर …मानसी को दिखाते हुए तनिक भी न सकुचाई। तटस्थ भाव से कहती रही ” मेरे विवाह को दो वर्ष हुए। पति शक करते हैं। यूँ कहूँ कि यह उनका प्रेम प्रकट करने का तरीका है।
शुरू से ही हँसमुख रही हूँ। विवाह के बाद यह मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण बन गया।
हर समय चेहरे पर यह मुस्कान कैसी ! निगाहें नीची क्यों नहीं ! परपुरूष से बातें करने का यह कैसा नशा ! यूँ बेवजह सजने-संवरने की कैसी तुक !
इतनी हिदायतें, इतनी मनाहियाँ,इतने इंकार, इतने नियम-कायदे कि मेरी साँसों में आग सुलगने लगती है।
मैंने बहुत कोशिश की। प्यार से, धीरज से, मनुहार से…
बहुत यत्न किया कि मेरी शादीशुदा जिन्दगी की नींव प्रेम और विश्वास पर हो पर यहाँ तो अविश्वास का दलदल है। इस दलदल पर प्रेम का वह महल कैसे खड़ा होगा जिसके सपने हर स्त्री देखती है।
मैंने हार मान ली है। हर रोज अपने आत्मसम्मान की चिंदियां उड़ते नहीं देख सकती। इसलिए ससुराल वालों को सब कुछ बताया। देखते हैं ! ”
” तुम्हारी सास क्या कहती हैं ? ” मानसी ने रोष से कहा।
” वह बहुत भली हैं। बेटे से लड़ बैठीं। कहा कि यह अब मेरी बेटी बन कर मेरे साथ रहेगी। मैं इसे अपने साथ लिए जा रही हूँ। जिस दिन सुधर जाओगे, आकर इसे ले जाना। ”
” तो तुमने क्या सोचा है ? अपना सारा जीवन ऐसे ही आशा-निराशा के बीच झूलते हुए बिता दोगी ? ”
” नहीं आँटी ! अभी कुछ दिन देखूँगी। देखूँगी कि समय हमारे रिश्ते के लिए कौन सी राह चुनता है ! पर अधिक प्रतीक्षा नहीं करूँगी। मेरी सास मुझे बाँध रही हैं पर मैं बंधूँगी नहीं। जिस रिश्ते में प्रेम नहीं, सम्मान नहीं… उस रिश्ते से मुझे बाँध कर कोई नहीं रख सकेगा। मेरी माँ जैसी सास भी नहीं। ” ट्यूलिप सहसा सख्त हो उठी।
मानसी अब जाकर जैसे ट्यूलिप का असली सौंदर्य देख पा रही है। यह रूप तो आँखों में समा नहीं रहा।
अचानक जैसे बेखयाली में मानसी बोल पड़ी
” आजकल तो विवाह के पहले सभी मिलते जुलते हैं। तुम लोग भी मिले होगे। कभी आभास नहीं हुआ ? ”
ट्यूलिप क्षुब्ध सी हँसी ” मिले थे आँटी ! पर भावी पत्नी को अपना दिमागी मर्ज बताने वाले दिलेर पुरूष आपने कहीं देखे हैं ?
हाँ…एक घटना ने चौंकाया जरूर था। कॉलेज खत्म होने को था। कई सहेलियों के विवाह की तिथि पक्की हो गई थी। साथ के दिन गिनती के बचे थे। सो हम सभी एक नियत दिन…शहर के प्रसिद्ध मंदिर के प्रांगण में बैठे गपशप कर रहे थे, तस्वीरें खिंचा रहे थे। कल दुर्लभ हो जाने वाले साथ के इन पलों को सहेज रहे थे। तभी मेरे भावी पति का फोन आया। मेरा उल्लसित स्वर उन्हें सशंकित बना गया था ” कहाँ हो ? कहीं बाहर में हो ? ”
मैंने सादगी से उन्हें बता दिया। वह कुछ पल चुप रहे। फिर बोले ” इस दोपहर में कौन सा मंदिर खुला
होता है? जरा मंदिर की घंटी बजा कर सुनाओ तो !”
मानसी इस नीचता से हतप्रभ सी हो उठी। बमुश्किल बोल फूटे ” तो तुमने मंदिर की घंटी बजाई थी ? ”
ट्यूलिप दृढता से बोली ” नहीं आँटी ! मैंने तुरंत फोन काट दिया था। घर आकर माँ से यह सब बताया और कहा कि मैं यह विवाह नहीं करना चाहती।
पहले तो माँ भी चिंतित हुईं फिर मुझे समझाने लगीं कि कुछ मर्द स्वभाव से ही शक्की होते हैं पर अच्छी लड़कियाँ उन्हें विवाह के बाद संभाल लेती हैं। तुम्हारा सुलझा हुआ व्यक्तित्व देखकर यह लड़का भी बदल जाएगा। ”
मानसी और ट्यूलिप के बीच एक बोझिल मौन पसर आया था।
मानसी का गंतव्य आने वाला था।सामान सहित वह ट्रेन के दरवाजे पर आ खड़ी हुई। ट्यूलिप भी करीब खड़ी थी।
दोनों औरतें एक दूसरे की आँखों में सीधे देख रही थीं। न जाने जीवन के कौन से पथ पर कब मिलना हो !
दोनों की ही आँखें उमड़ने को आतुर थीं।
मानसी ने रूंधे गले से कहा ” उस रोज तुमने मंदिर की घंटी नहीं बजाई थी पर उस रोज एक और घंटी बजी थी। तुम्हारी माँ ने उसे सुन कर भी अनसुना कर दिया था। उनकी वह गलती तुम्हारे जीवन की दिशा नहीं निर्धारित कर सकती। अब जब तुम्हारे जीवन की राहें उलझ गई हैं तो तनिक सुस्ता लो।
यही बुद्धिमत्ता है।
थोड़ा ठहर जाना पर रूकना नही। अपने रिश्ते को समय देना पर इतना नहीं कि समय चुक जाए। ”
सहसा ट्यूलिप कातर हो उठी ” आँटी ! तलाक तो हो सकता है न ! ”
जैसे कोई थका हारा मुसाफिर पूछ रहा हो ” सही राह तो मिलेगी न ! ”
मानसी ने ट्यूलिप को अपने अंक में भींच लिया है
और कहे हैं कुछ शब्द….
” ट्यूलिप का एक और अर्थ होता है ’पुनर्जन्म ‘। यह कभी नहीं भूलना। ”
ट्रेन चल दी है। दरवाजे के फ्रेम में ट्यूलिप…तस्वीर जैसी दिख रही है। धीरे-धीरे यह तस्वीर धुंधली होती जा रही है। आँखों में पानी आने के कारण या ट्रेन के दूर चले जाने के कारण…मानसी तय नहीं कर पा रही है।
पनियाली आँखों में एक अक्स उभर आया है…मुखर्जी बाबू की माँ का।
मानसी क्षमा माँगती है उस स्नेहिल स्मृति से।
कहती है ” आप मृत्यु के पार भी…अपने स्वामी के साथ उस अनश्वर गाँठ से बंधी रहीं। क्योंकि आपका दांपत्य प्रेम से आलोकित था…खरे सोने सा प्रेम।
समझ लें कि आप बड़ी भाग्यवान थीं। कुछ भाग्यहीनों का जीवन आपकी तरह समृद्ध नहीं होता। उन्हें किस मुंह से उस अनश्वर गांठ की महिमा समझाऊँ ? सो क्षमा।