कुंअर आनन्दसिंह के जाने के बाद इन्द्रजीतसिंह देर तक उनके आने की राह देखते रहे। जैसे-जैसे देर होती थी, जी बेचैन होता जाता था। यहां तक कि तमाम रात बीत गई, सवेरा हो गया, और पूरब तरफ से सूर्य भगवान दर्शन देकर धीरे-धीरे आसमान पर चढ़ने लगे। जब पहर भर से ज्यादा दिन चढ़ गया, तब इन्द्रजीतसिंह बहुत ही बेताब हुए और उन्हें निश्चय हो गया कि आनन्दसिंह जरूर किसी आफत में फंस गये। कुंअर इन्द्रजीतसिंह सोच ही रहे थे कि स्वयं चलके आनन्दसिंह का पता लगाना चाहिए कि इतने ही में लाडिली को साथ लिए हुए कमलिनी वहां आ पहुंची। इन्हें देख कुमार की बेचैनी कुछ कम हुई और आशा की सूरत दिखाई देने लगी। कमलिनी ने जब कुमार को उस जगह अकेले और उदास देखा तो उसे ताज्जुब हुआ, मगर वह बुद्धिमान औरत तुरत ही समझ गई कि इनके छोटे भाई आनन्दसिंह इनके साथ नहीं दिखाई देते, जरूर […]
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ऐयारों को जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ थे, बाग के चौथे दर्जे के देवमन्दिर में आने-जाने का रास्ता बताकर कमलिनी ने तेजसिंह को रोहतासगढ़ जाने के लिए कहा और बाकी ऐयारों को अलग-अलग काम सुपुर्द करके दूसरी तरफ बिदा किया। इस बाग के चौथे दर्जे की इमारत का हाल हम ऊपर लिख आए हैं और यह भी लिख आये हैं कि वहां असली फूल-पत्तों का नाम-निशान भी न था। यहां की ऐसी अवस्था देखकर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने कमलिनी से पूछा, “राजा गोपालसिंह ने कहा था कि ‘चौथे दर्जे में मेवे बहुतायत से हैं खाने-पीने की तकलीफ न होगी’ मगर यहां तो कुछ भी दिखाई नहीं देता! हम लोगों को यहां कई दिनों तक रहना होगा, कैसे काम चलेगा’ इसके जवाब में कमलिनी ने कहा, “आपका कहना ठीक है और राजा गोपालसिंह ने भी गलत नहीं कहा। यहां मेवों के पेड़ नहीं हैं मगर (हाथ का इशारा करके) उस […]
अब वह मौका आ गया है कि हम अपने पाठकों को तिलिस्म के अन्दर ले चलें और वहां की सैर करावें, क्योंकि कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तथा मायारानी तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा विराजे हैं जिसे एक तरह तिलिस्म का दरवाजा कहना चाहिए। पिछले भाग में यह लिखा जा चुका है कि भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ और राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ रवाना करने के बाद इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तेजसिंह, तारासिंह, शेरसिंह और लाडिली को साथ लिए हुए कमलिनी तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुंची और उसने राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार देवमन्दिर में, जिसका हाल आगे चलकर खुलेगा, डेरा डाला। हमने कमलिनी और कुंअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह को दारोगा वाले मकान के पास के एक टीले पर ही पहुंचाकर छोड़ दिया था और यह नहीं लिखा कि वे लोग तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में किस राह से पहुंचे या वह रास्ता किस […]
1 मन्दाकिनी के तट पर रमणीक भवन में स्कन्द और गणेश अपने-अपने वाहनों पर टहल रहे हैं। नारद भगवान् ने अपनी वीणा को कलह-राग में बजाते-बजाते उस कानन को पवित्र किया, अभिवादन के उपरान्त स्कन्द, गणेश और नारद में वार्ता होने लगी। नारद-(स्कन्द से) आप बुद्धि-स्वामी गणेश के साथ रहते हैं, यह अच्छी बात है, (फिर गणेश से) और देव-सेनापति कुमार के साथ घूमते हैं, इससे (तोंद दिखाकर) आपका भी कल्याण ही है। गणेश-क्या आप मुझे स्थूल समझकर ऐसा कह रहे हैं? आप नहीं जानते, हमने इसीलिए मूषक-वाहन रखा है, जिसमें देव-समाज में वाहन न होने की निन्दा कोई न करे, और नहीं तो बेचारा ‘मूस’ चलेगा कितना? मैं तो चल-फिर कर काम चला लेता हूँ। देखिये, जब जननी ने द्वारपाल का कार्य मुझे सौंप रखा था, तब मैंने कितना पराक्रम दिखाया था, प्रमथ गणों को अपनी पद-मर्यादा हमारे सोंटे की चोट से भूल जाना पड़ा। स्कन्द-बस रहने दो, यदि […]
आज से कुल आठ-दस दिन पहले मायारानी इतनी परेशान और घबड़ाई हुई थी कि जिसका कुछ हिसाब नहीं। वह जीते जी अपने को मुर्दा समझने लगी थी। राजा गोपालसिंह के छूट जाने के डर, चिन्ता, बेचैनी और घबड़ाहट ने चारों तरफ से उसे घेर लिया था, यहां तक कि राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्ष वालों और कमलिनी का ध्यान भी उसके दिल से जाता रहा था जिनके लिए सैकड़ों ऊटक-नाटक उसे रचने पड़े थे और ध्यान था केवल गोपालसिंह का। कहीं ऐसा न हो कि गोपालसिंह का असल भेद रिआया को मालूम हो जाय, इसी सोच ने उसे बेकार कर दिया था। मगर आज वह भूतनाथ की बदौलत अपने को हर तरह से बेफिक्र मानती है, आई हुई बला को टला समझती है, और उसे विश्वास है कि अब कुछ दिन तक चैन से गुजरेगी। अब उसे केवल यही फिक्र रह गई कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के हाथ से तिलिस्म […]
ऊपर के बयान में जो कुछ लिख आये हैं उस बात को कई दिन बीत गये, आज भूतनाथ को हम फिर मायारानी के पास बैठे हुए देखते हैं। रंग-ढंग से जाना जाता है कि भूतनाथ की कार्रवाइयों से मायारानी बहुत ही प्रसन्न है और वह भूतनाथ को कद्र और इज्जत की निगाह से देखती है। इस समय मायारानी के सामने सिवाय भूतनाथ के कोई दूसरा आदमी मौजूद नहीं है। मायारानी – इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुमने मेरी जान बचा ली। भूतनाथ – गोपालसिंह को धोखा देकर गिरफ्तार करने में मुझे बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आज दो दिन से केवल पानी के सहारे मैं जान बचाये हूं। अभी तक तो कोई ऐसी बात नहीं हुई जिससे कमलिनी या राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्ष वाले किसी को मुझ पर शक हो। राजा गोपालसिंह के साथ केवल देवीसिंह था जिसको मैंने किसी जरूरी काम के लिए रोहतासगढ़ जाने की सलाह दे […]
दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुंचा। इस समय नागर आराम से सोई न थी बल्कि न मालूम किस धुन और फिक्र में मकान की पिछली तरफ नजरबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह हंसती हुई पास आई और बोली – नागर – कहो, कुछ काम हुआ? भूतनाथ – काम तो बखूबी हो गया, उन दोनों से मुलाकात भी हुई और जो कुछ मैंने कहा दोनों ने मंजूर भी किया। कमलिनी की चिठ्ठी जब मैंने गोपालसिंह के हाथ में दी तो वे पढ़कर बहुत खुश हुए और बोले, “कमलिनी ने जो कुछ लिखा है मैं उसे मंजूर करता हूं। वह तुम पर विश्वास रखती है तो मैं भी रखूंगा और जो कुछ कहोगे वही करूंगा।” नागर – बस सब काम बखूबी बन गया, अच्छा अब क्या करना चाहिए? भूतनाथ – जाकर किवाड़ बन्द करके सो रहो और सिपाहियों को भी […]
रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा के मकान के अन्दर फर्श पर नागर बैठी हुई और उसके पास ही एक खूबसूरत नौजवान आदमी छोटे-छोटे तीन-चार तकियों का सहारा लगाये अधलेटा-सा पड़ा जमीन की तरफ देखता हुआ कुछ सोच रहा है। इन दोनों के सिवाय कमरे में कोई तीसरा नहीं है। नागर – मैं फिर भी तुम्हें कहती हूं कि किशोरी का ध्यान छोड़ दो क्योंकि इस समय मौका समझकर मायारानी ने उसे आराम के साथ रखने का हुक्म दिया है। जवान – ठीक है मगर मैं उसे किसी तरह की तकलीफ तो नहीं देता फिर उसके पास मेरा जाना तुमने क्यों बन्द कर दिया? नागर – बड़े अफसोस की बात है कि तुम मायारानी की तरफ कुछ भी ध्यान नहीं देते! जब भी तुम किशोरी के सामने जाते हो वह जान देने के लिए तैयार हो जाती है। तुम्हारे सबब से वह सूखकर कांटा हो […]
अपनी बहिन लाडिली, ऐयारों और दोनों कुमारों को साथ लेकर कमलिनी राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार मायारानी के तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में कुछ दिन रहेगी। वहां रहकर ये लोग जो कुछ करेंगे, उसका हाल पीछे लिखेंगे, इस समय तो भूतनाथ का कुछ हाल लिखकर हम अपने पाठकों के दिल में एक प्रकार का खुटका पैदा करते हैं। भूतनाथ कमलिनी से विदा होकर सीधे काशीजी की तरफ नहीं गया, बल्कि मायारानी से मिलने के लिए उसके खास बाग (तिलिस्मी बाग) की तरफ रवाना हुआ और दो पहर दिन चढ़ने के पहले ही बाग के फाटक पर जा पहुंचा। पहरे वाले सिपाहियों में से एक की तरफ देखकर बोला, “जल्द इत्तिला कराओ कि भूतनाथ आया है।” इसके जवाब में उस सिपाही ने कहा, “आपके लिए रुकावट नहीं है आप चले जाइए, जब दूसरे दर्जे के फाटक पर जाइएगा तो लौंडियों से इत्तिला कराइयेगा।” भूतनाथ बाग के अन्दर […]
राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ और भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ रवाना करके कमलिनी अपने साथियों को साथ लिए हुए मायारानी के तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुई। इस समय रात नाममात्र को बाकी थी। प्रायः सुबह को चलने वाली दक्षिणी हवा ताजी खिली हुई खुशबूदार फूलों की कलियों में से अपने हिस्से की सबसे पहली खुशबू लिए हुए अठखेलियां करती सामने से चली आ रही थी। हमारे बहादुर कुमार लोग भी धीरे-धीरे उसी तरफ जा रहे थे। यद्यपि मायारानी का तिलिस्मी बाग यहां से बहुत दूर था, मगर वह खूबसूरत बंगला जो चश्मे के ऊपर बना हुआ था और जिसमें पहले-पहल नानक और बाबाजी (मायारानी के दारोगा) से मुलाकात हुई थी, थोड़ी ही दूर पर था, बल्कि उसकी स्याही दिखाई दे रही थी। हमारे पाठक इस बंगले को भी भूले न होंगे और उन्हें यह बात भी याद होगी कि नानक रामभोली को ढूंढ़ता हुआ चश्मे […]
1 आगरा कालेज के मैदान में संध्या-समय दो युवक हाथ से हाथ मिलाये टहल रहे थे। एक का नाम यशवंत था, दूसरे का रमेश। यशवंत डीलडौल का ऊँचा और बलिष्ठ था। उसके मुख पर संयम और स्वास्थ्य की कांति झलकती थी। रमेश छोटे कद और इकहरे बदन का, तेजहीन और दुर्बल आदमी था। दोनों में किसी विषय पर बहस हो रही थी। यशवंत ने कहा- मैं आत्मा के आगे धन का कुछ मूल्य नहीं समझता। रमेश बोला- बड़ी खुशी की बात है। यशवंत- हाँ, देख लेना। तुम ताना मार रहे हो, लेकिन मैं दिखला दूँगा कि धन को कितना तुच्छ समझता हूँ। रमेश- खैर, दिखला देना। मैं तो धन को तुच्छ नहीं समझता। धन के लिए 15 वर्षों से किताब चाट रहा हूँ, धन के लिए माँ-बाप, भाई-बंद सबसे अलग यहाँ पड़ा हूँ, न-जाने अभी कितनी सलामियाँ देनी पड़ेंगी, कितनी खुशामद करनी पड़ेगी। क्या इसमें आत्मा का पतन न होगा […]
रात आधी जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, हवा भी एकदम बन्द है, यहां तक कि किसी पेड़ की एक पत्ती भी नहीं हिलती। आसमान में चांद तो नहीं दिखाई देता, मगर जंगल मैदान में चलने वाले मुसाफिरों को तारों की रोशनी जो अब बहुतायत से दिखाई दे रहे हैं, काफी है। ऐसे समय में गंगा के किनारे-किनारे दो मुसाफिर तेजी के साथ जमानिया की तरफ जा रहे हैं। जमानिया अब बहुत दूर नहीं है और ये दोनों मुसाफिर शहर के बाहरी प्रान्त में पहुंच चुके हैं। अब ये दोनों आदमी शहर के पास पहुंच गये। मगर शहर के अन्दर न जाकर बाहर-ही-बाहर मैदान के उस हिस्से की तरफ जाने लगे जिधर पुराने जमाने की आबादी का कुछ-कुछ निशान मौजूद था। यहां बहुत-से टूटे-फूटे मकानों के कोई-कोई हिस्से बचे हुए थे जो बदमाशों तथा चोरों के काम में आते थे। यहां की निस्बत शहर के कमजोर दिमाग […]
दिन दो पहर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका है मगर मायारानी को खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं है। पल-पल में उसकी परेशानी बढ़ती ही जाती है। यद्यपि बिहारीसिंह, हरनामसिंह और धनपत ये तीनों उसके पास मौजूद हैं परन्तु समझाने-बुझाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं। उसे कोई भी नहीं दिलासा देता, कोई धीरज भी नहीं बंधाता और कोई भी यह विश्वास नहीं दिलाता कि तुझ पर आई हुई बला टल जायेगी, यहां तक कि किसी के मुंह से यह भी नहीं निकलता कि सब्र कर, हम लोग ऐयारी के फन में होशियार हैं, कोई-न-कोई काम अवश्य करेंगे। ऊपर के बयानों को पढ़कर पाठक समझ ही गये होंगे कि मायारानी की तरह उसकी सखी धनपत और उसके दोनों ऐयार बिहारीसिंह तथा हरनामसिंह किसी भारी पाप के बोझ से दबे हुए हैं और ऊपर की घटनाओं ने उन तीनों की भी जान सुखा दी है। ये तीनों ही बदहोश और परेशान […]
कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लापरवाही के साथ बड़े-बड़े कदम भरता जा रहा था। उसे दो बातों की खुशी थी, एक तो उन कागजों को वह अपने हाथ से जलाकर खाक कर चुका था जिनके सबब से वह मनोरमा और नागर के आधीन हो रहा था और जिनका भेद लोगों पर प्रकट होने के डर से अपने को मुर्दे से भी बदतर समझे हुए था। दूसरे, उस तिलिस्मी खंजर ने उसका दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, और ये दोनों बातें कमलिनी की बदौलत उसे मिली थीं, एक तो भूतनाथ पहले ही भारी मक्कार ऐयार और होशियार था, अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था, दूसरे आज खंजर […]
मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रंज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जबकि यह आवाज उसने सुनी, “बेशक मायारानी की मौत आ गई!” इस आवाज ने मायारानी को हद्द से ज्यादा बेचैन कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगी मगर कुछ मालूम न हुआ कि यह आवाज कहां से आई। आखिर वह लाचार होकर धनपत को साथ लिये हुए वहां से लौटी और जिस तरह वहां गई थी उसी तरह बाग के तीसरे दर्जे से होती हुई कैदखाने के दरवाजे पर पहुंची जहां अपने दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़ गई थी। मायारानी को देखते ही बिहारीसिंह बोला – बिहारीसिंह – आप हम लोगों को यहां व्यर्थ ही छोड़ गईं! मायारानी – हां, अब मैं भी यही सोचती हूं क्योंकि अगर तुम दोनों को अपने साथ ले जाती तो इसी समय टण्टा तै हो जाता। यद्यपि धनपत मेरे साथ थी और तुम […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…