“उड़ते खग जिस ओर मुंह किएसमझ नीड़ निज प्याराबरसाती आंखों के बादलबनते जहां करुणा जललहरें टकराती अनंत की,पाकर जहाँ किनारा ,अरुण यह मधुमय देश हमारा”
कॉर्नेलिया ने जब ये बात प्रसाद की कविता में कही थी तब से अब बहुत कुछ बदल गया ।अरुण शेखर का कविता संग्रह “मेरा ओर न छोर” भी उनके अपने रचे मधुमय संसार की सैर आपको कराएगा।
अपना संसार हर कोई मधुमय ही रचना चाहता है लेकिन क्या ये सम्भव है कि कवि सिर्फ मधुमय,हरा-भरा वातावरण ही पेश करे ,फिर चीखें,पुकार और सिसकियाँ भी इसी मधु के इर्द -गिर्द मिलेंगी ,जिससे कवि भाग नहीं सकता।
कवि ने ये संग्रह अपने पिता (बप्पा)को समर्पित किया है ।बस कुछ किलोमीटर की दूरी पर रह रहा बेटे को उनके गुजर जाने की खबर जब अंत्येष्टि के बाद पता लगती है ,तो वो टीस जीवन की एक स्थायी पीड़ा बनकर रह जाती है ,पिता को काव्य संग्रह समर्पित करते हुए भावुक पुत्र अपने पिता को याद करते हुए “वो गेंद” कविता में कहता है –
“मुझे ढूंढनी है वो गेंदजो पिता जी लाये थेमेरे सपनों कोअपनी आंखों में भरकर “
इसी कविता में वो अपने गांव और निमकौरी के मेले को याद करते हैं जिससे उनके बचपन का सहज ग्रामीण परिवेश बिम्बों में खूबसूरती से उभर कर सामने आता है ,एक ऐसे दौर में जब आधुनिक हिंदी साहित्य में गांव का मतलब सिर्फ दुःख, दरिद्रता और पिछड़ापन है और गांव पर लिखना ट्रेंड के बाहर है ।
गांव अरुण शेखर से कभी नहीं निकला ही नहीं ,भले ही वो मुम्बई महानगर की अट्टालिकाओं के बीच जीवन बिताते हों लेकिन गांव में अपने मिट्टी का घर उनको नहीं भूला है ,उनके लिये जननी और जन्मभूमि एक (जिस घर में उनका जन्म हुआ) दूसरे के पूरक हैं।माँ कविता में अरुण शेखर लिखते हैं –
“नंगी दीवारउस पर तेज बारिशऔर उससे कटती है जो मिट्टीवो माँ है “
अल्प आयु में घर छूट जाने का दुख और एकाकीपन लेखक में बहुत गहरे तक कहीं धँसा है ,जिन एकाकी,सूने दिनों को लेखक ने वर्षों तक जिया है ,चेहरे पर मुस्कान समेटे रहने के बावजूद कवि का वो दुख “एक दिन “कविता में अचानक उभर कर सामने आता है कि –
“इसी दिन पता नहीं कैसेखूंटी पर टँगी दुखों की पोटलीझलक गयीऔर उसने फिर सेछा लिया मुझे “
गौरतलब है कि कवि अरुण शेखर बरसों तक रेडियो पर खुशियां बांटने वाले संगीतमयी कार्यक्रम देते रहे हैं ,एक दौर में वे विविध भारती मुम्बई के प्रमुख प्रस्तोताओं में से एक थे ,लेकिन अपनी बात कविताओं के मार्फ़त कहने में उन्होंने तीन दशक से ज्यादा का समय लगाया ।उनके इस चुप चाप कवि कर्म पर कविवर अज्ञेय की पंक्तियाँ समीचीन हैं कि –
“मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो”।
कवि को जानना शायद कविता को जानने जितना भी जरूरी हो जाता है ।मूलरूप से अभिनेता अरूण शेखर कविता में कोई अभिनय नहीं करते ,यहां वो बिम्बों औऱ प्रतीकों से अपनी बात शब्दों के फूलों में पिरोकर ,शब्दों की ही बर्छी चलाते हुए अपनी कविता अभिनय में कहते हैं –
“किरदार जियोमंच में एक किरदार में ढलनाउसे पूरी शिद्दत से जीनायह विश्वास दिला देनाकि वह वही हैजो दिख रहा हैवह वही हैजो कर रहा है “
इस काव्य संग्रह का जिस तरह नाम है मेरा ओर न छोर ,वैसे ही कवि की कविता भी एक ओर से यात्रा करते हुए दूसरे छोर तक पहुंचती है ,काफी दिनों तक व्यंग्य लेखन लिखने वाले कवि अरुण शेखर अपनी कविता कुर्सी में वर्तमान राजनीति में तंज करते हुए लिखते हैं –
“कुर्सी के सम्पर्क में आते हीआदमी में कुछ होने लगता हैजैसे आता है किसी में प्रेतजैसे होता है परकाया प्रवेशवैसे ही कुर्सी प्रवेश करने लगती हैआदमी के अंदर धीरे -धीरे “
इसी कविता संग्रह में अगर गांव का मेला है तो मुम्बई की बरसात की इंद्रधनुष का रंग भी है ।साल्ट एन्ड पेपर “कविता में कवि लिखता है
“कुछ चढ़ते ,कुछ कुछ ढलान मेंचढ़ते तीर में थोड़ा सा हैथोड़ा खिंची हुई कमान मेंइंद्र धनुष है साल्ट एन पेपर”
कवि ने प्रेम को स्त्री का पर्याय माना है ,दुष्यंत कुमार की भांति बिम्बों का भी प्रयोग किया है ,विशुद्ध महानगरीय होते हुए भी उन्होंने स्त्री के सौंदर्य की अनूठी उपमा दी है ,कविवर अपनी कविता स्त्री में कहते हैं –
“धूप जो पकाती फसल कोउसका ताप होयादों की पुरवाई बन टीसती होझुरमुटों में फंसा है जो भुआहवा में हिलता हैनिकलकर उड़ नहीं पातावही हो तुम “
प्रेम की यही अभिलाषा जब महानगर के शोर में कहीं अनसुनी रह जाती है तो कविवर “अधूरापन “कविता में कहते हैं –
“हर सुरंग कहीं न कहीं खुलती होजरूरी नहीं,न जाने कितनी रहस्यमयी सुरंगें होती हैंहमारे भीतरअधूरेपन का सन्नाटा रह रह के बजता है “,प्रेम के दूसरे आयाम में कवि खिलदण्ड होकर कहता है –खबर रहती है तेरे अफ़सानों कीहवाओं से जो दोस्ती कर लीइसी अलौकिक प्रेम का जब कवि आश्वासन देता है तो कहता है लड़की कविता में कि“आस हैप्यास हैलड़की जीवन का मधुमास है “,
लेकिन प्रेम के पथ पर चलकर आप प्रेम पा सकें ये सदैव सम्भव नहीं है ,प्रेम को लेकर कवि सजग करता है कि
“सदियों पीछे जा सकती है दुनियाइसलियेपरोक्ष रूप से भी मत सोचनाप्रेम के विषय में “
कवि ने प्रेम किया,प्रेम जिया ,प्रेम की पैरवी की तो उसे इस बात का कुछ दंड तो भोगना ही पड़ेगा,
“बुरा आदमी” कविता में कविवर लिखते हैं –
“आसमान से परी उतरकरजैसे बच्चों के सपनों में आती हैवैसे ही प्रेम कविताओं से निकलकरमुझमें समा गया हैइतने ही प्रमाण बहुत हैंकिसी को भी बुरा सिद्ध करने के लिये “।
अरुण शेखर की कविताओं में कच्चापन है ,मगर सोंधापन भी है ।पाषाण जैसे जीवन पर कविता वही रोल प्ले करती है जो धूप से तपी-झुलसी मिट्टी पर पानी की बूंदे पड़ने पर होता है ।तीन दशक के व्यापक कविताई अनुभव के बावजूद कवि ने कविता में शिल्प की बहुत अधिक परवाह नहीं की है और अपनी कहन के लिये सहजता को ही चुना है ।एक ऐसे दौर में जब कविता शिल्प की हथकड़ी और बिम्बों की बमबारी सहकर आम जन मानस से दूर हो चुकी है ,तब कवि अपनी कहन के लिये पारम्परिक और आधुनिक तरीकों को चुनता है ,शायद इसीलिये किताब में दो लाइनों की कविता से लेकर लम्बी कविताई की कशिश मौजूद है ।लेकिन ये भी कहना समीचीन होगा कि कविता के मोती को पाने के लिये कवि को विचारों के और गहरे पानी में आखेट करना होगा ।कुछ कविताएं परिमार्जित होकर और भी प्रभावी हो सकती थीं ।
पुस्तक की साज -सज्जा और छपाई आकर्षक है ,वर्तनी का दोष नगण्य है ।जिस प्रकार प्रेमपूर्वक पुस्तक लिखी गयी है उसी प्रकार सम्पूर्ण मनोयोग से ये पुस्तक प्रकाशित भी की गयी है ।
इस प्रेम में पगे काव्य संग्रह हेतु कवि को मैं बधाई देता हूँ ,आशा है अगला संग्रह और भी उत्कृष्ट और परिमार्जित होगा ।
इति शुभम भवति।
किताब का नाम -मेरा ओर न छोर
प्रकाशक -इंडिया नेट बुक्स,नोयडा ,
मूल्य-250 रुपये
लेखक-अरुण शेखर
समीक्षक-दिलीप कुमार
बढिया!!