कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या। पूर्व और अपार समुद्र – महोदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड‘ कहा जाय तो गलत क्यों है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे ‘शिवालिक‘ श्रृंखला कहते हैं। ‘शिवालिक‘ का क्या अर्थ है? ‘शिवालक‘ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर हैं, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्य महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्य महोदव […]
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पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नहीं जानता? आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते हैं। स्वदेशी आन्दोलन के दिनों में आपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों में भी आपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तक़दीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त में आपने एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—‘इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटाते मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्यादान देने का क्या फल मिला, जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूँ?’ धर्मपत्नी ने चिन्तित होकर कहा—‘भोजन का भी तो कोई सहारा चाहिए?’ मोटेराम —‘तुम्हें जब देखो, पेट ही की फिक्र पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हों, और चाहे कोई निन्दा ही करे, पर मैं परोसा लिये बिना नहीं आता […]
गोदान में प्रेमचन्द के नारी सम्बन्धी विचार अक्सर चर्चा और विवाद के विषय बनते रहे हैं। गोदान में प्रेमचन्द के विचारों के मुख्य स्रोत मेहता के वक्तव्य रहे हैं। अधिकांश आलोचक मेहता को ही उपन्यास में लेखक का प्रोटागोनिस्ट (विचारवाहक) मानते हैं। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार, अगर होरी और मेहता को मिला दिया जाय तो हमारे सामने प्रेमचन्द की आकृति उभर आती है। लेकिन, अपूर्वानन्द जैसे कुछ आलोचक इस धारणा से सहमत प्रतीत नहीं होते। अपूर्वानन्दजी ने कसौटी पत्रिका में एक लेख लिखकर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि मेहता के विचारों को प्रेमचन्द के विचार मानना उचित नहीं है। उनके अनुसार लेखक उपन्यास में कई विचारों को सामने लाकर एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयत्न करता है। इनमें से किसी एक विचार को लेखक का विचार मान लेना तब तक उचित नहीं है, जब तक लेखक स्वयं ऐसे संकेत न दे। अपूर्वानन्दजी को गोदान में मेहता […]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मलिक मो. जायसी को सूफ़ी कवि मानते हुए उन्हें प्रेमाश्रयी : सूफ़ी काव्य धारा के अन्तर्गत रखा है. आचार्य शुक्ल के अनुसार जायसी महदियां सूफ़ी सम्प्रदाय में दीक्षित भी थे. यद्यपि शुक्लजी से पूर्व ग्रियर्सन जायसी को मुस्लिम सन्त बता चुके थे, तथापि शुक्लजी के बाद लगभग सभी आलोचकों ने जायसी को सूफ़ीवाद के चश्में से देखना शुरू किया और जायसी सूफ़ी सन्त तथा पद्मावत सूफ़ी काव्य के रूप में रूढ़ होकर रह गये. इसका परिणाम वह हुआ कि जायसी की कवि प्रतिभा, उनकी मौलिकता इस सूफ़ीवाद के नीचे दबकर रह गयी. आलोचकों ने अपना सम्पूर्ण ध्यान पद्मावत के मार्मिक स्थलों की खोज करने की बजाय उसमें सूफ़ी तत्व खोजने पर लगा दिया. इससे न सिर्फ पद्मावत बल्कि साहित्य की अपूरणीय क्षति हुयी. प्रेम की पीड़ा की मार्मिक गाथा महज एक सूफ़ी काव्य बन कर रह गयी. जायसी और महदी संप्रदाय जायसी को सूफ़ी या […]
एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। […]
दोपहर को ज़रा आराम करके उठा था। अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा-खड़ा धीरे-धीरे सिगार पी रहा था और बड़ी-बड़ी अलमारियों में सजे पुस्तकालय की ओर निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर देखने की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान ही महान नज़र आए। कहीं गेटे, कहीं रूसो, कहीं मेज़िनी, कहीं नीत्शे, कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ, कहीं डिकेंस, सपेंसर, मैकाले, मिल्टन, मोलियर—उफ़! इधर से उधर तक एक-से-एक महान ही तो थे! आखिर मैं किसके साथ चंद मिनट मनबहलाव करूँ, यह निश्चय ही न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान सा हो गया। इतने में मोटर की पों-पों सुनाई पड़ी। खिड़की से झाँका तो सुरमई रंग की कोई ‘फिएट’ गाड़ी दिखाई पड़ी। मैं सोचने लगा – शायद कोई मित्र पधारे हैं, अच्छा ही है। महानों से जान बची! जब नौकर […]
पन्त जी की भारतमाता ग्रामवासिनी की स्मृति में लिखी गयी कविता धरती का आँचल है मैला फीका-फीका रस है फैला हमको दुर्लभ दाना-पानी वह तो महलों की विलासिनी भारत पुत्री नगरवासिनी विकट व्यूह, अति कुटिल नीति है उच्चवर्ग से परम प्रीति है घूम रही है वोट माँगती कामराज कटुहास हासिनी भारत पुत्री नगरवासिनी खीझे चाहे जी भर जान्सन विमुख न हों रत्ती भर जान्सन बेबस घुटने टेक रही है घर बाहर लज्जा विनाशिनी भारत पुत्री नगरवासिनी
भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आँचल, गंगा यमुना में आँसू जल, मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी। दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन, अधरों में चिर नीरव रोदन, युग युग के तम से विषण्ण मन, वह अपने घर में प्रवासिनी। तीस कोटि संतान नग्न तन, अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन, मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन, नत मस्तक तरु तल निवासिनी। स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित, धरती सा सहिष्णु मन कुंठित, क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित, राहु ग्रसित शरदेन्दु हासिनी। चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित, नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित, आनन श्री छाया-शशि उपमित, ज्ञान मूढ़ गीता प्रकाशिनी। सफल आज उसका तप संयम, पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम, हरती जन मन भय, भव तम भ्रम, जग जननी जीवन विकासिनी।
सोज़े वतन यानि देश का दर्द …नवाब राय के इस इस कहानी संग्रह की सारी कहानियों में क्रांति की जो चिंगारी थी , उसने अंग्रेजी हुकूमत को विवश किया इस पर प्रतिबंध लगाने के लिए और नवाब राय को विवश किया प्रेमचंद बनने के लिए. उसी संग्रह की एक और कहानी ….. आज पूरे साठ बरस के बाद मुझे अपने वतन, प्यारे वतन का दर्शन फिर नसीब हुआ। जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ और क़िस्मत मुझे पच्छिम की तरफ़ ले चली, मेरी उठती जवानी थी। मेरी रगों में ताज़ा ख़ून दौड़ता था और सीना उमंगों और बड़े-बड़े इरादों से भरा हुआ था। मुझे प्यारे हिन्दुस्तान से किसी ज़ालिम की सख़्तियों और इंसाफ़ के ज़बर्दस्त हाथों ने अलग नहीं किया था। नहीं, ज़ालिम का जुल्म और क़ानून की सख्तियाँ मुझसे जो चाहें करा सकती हैं मगर मेरा वतन मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं। यह मेरे बुलन्द इरादे और […]
‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ प्रेमचंद की पहली कहानी मानी जाती है. यह पहली बार 1907 में उर्दू पत्रिका ज़माना में प्रकाशित हुई थी. 1908 में यह सोजे वतन संकलन में प्रकाशित हुई, जिसे हमीरपुर के कलेक्टर के आदेश पर प्रतिबंधित कर दिया गया और सारी उपलब्ध प्रतियाँ जला दी गयीं. इसी घटना के बाद शासन के कोप से बचने के लिए लेखक नवाब राय को प्रेमचंद नाम रखना पड़ा. दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेश में माशूक़ियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फ़िदाइयों में जो जंगल और पहाड़ों से सर टकराते हैं और फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर […]
1 हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है । लाओं, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे । मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली-तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगें। अभी नहीं । मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियॉं देगा। बला से जाड़ों मे मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम हल्कू एक क्षण अनिशिचत दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया, कम्बल के बिना हार मे रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। म डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे दे, गला तो छूटे ।कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचँगा । मुन्नी उसके पास […]
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़ें, कुछ बालक झंडियां और झंडे लिये बंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है। शंभुनाथ ने दूकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा-सब के सब काल के मुँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा। दीनदयाल ने कहा—महात्मा जी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो अब तक कब का मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो—लौंड़े, लफंगे, सिरफिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं। मैकू चिटिटयों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाये खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुन कर हंसा। शंभू ने पूछा—क्यों हंसे मैकू? आज रंग चोखा मालूम होता है। मैकू—हंसा इस बात पर जो तुमने कहीं कि कोई बड़ा आदमी जुलूस […]
1 हमारे कस्बे के इनायत अली कल तक नौमुसलिम थे। उनका परिवार केवल सात वर्षों से खुदा के आगे घुटने टेक रहा था। इसके पहले उनके सिर पर भी चोटी थी, माथे पर तिलक था और घर में ठाकुरजी थे। हमारे समाज ने उनके निरपराध परिवार को जबर्दस्ती मन्दिर से ढकेलकर मसजिद में भेज दिया था। बात यों थी : इनायत अली के बाप उल्फत अली जब हिन्दू थे, देवनन्दन प्रसाद थे, तब उनसे अनजाने में एक अपराध बन पड़ा था। एक दिन एक दुखिया गरीब युवती ने उनके घर आश्रय माँगा। पता-ठिकाना पूछने पर उसने एक गाँव का नाम ले लिया। कहा – “मैं बिलकुल अनाथ हूँ। मेरे मालिक को गुजरे छह महीने से ऊपर हो गए। जब तक वह थे, मुझे कोई फिक्र न थी। जमींदार की नौकरी से चार पैसे पैदा करके, वही हमारी दुनिया चलाते थे। उनके वक्त गरीब होने पर भी मैं किसी की चाकरी […]
जैनेंद्र कुमार आज तीसरा रोज़ है. तीसरा नहीं, चौथा रोज़ है. वह इतवार की छुट्टी का दिन था. सबेरे उठा और कमरे से बाहर की ओर झांका तो देखता हूं, मुहल्ले के एक मकान की छत पर कांओं-कांओं करते हुए कौओं से घिरी हुई एक लड़की खड़ी है. खड़ी-खड़ी बुला रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.” कौए बहुत काफ़ी आ चुके हैं, पर और भी आते-जाते हैं. वे छत की मुंडेर पर बैठ अधीरता से पंख हिला-हिलाकर बेहद शोर मचा रहे हैं. फिर भी उन कौओं की संख्या से लड़की का मन जैसे भरा नहीं है. बुला ही रही है, “कौओ आओ, कौओ आओ.” देखते-देखते छत की मुंडेर कौओं से बिल्कुल काली पड़ गयी. उनमें से कुछ अब उड़-उड़कर उसकी धोती से जा टकराने लगे. कौओं के खूब आ घिरने पर लड़की मानो उन आमंत्रित अतिथियों के प्रति गाने लगी- “कागा चुन-चुन खाइयो…” गाने के साथ उसने अपने हाथ की […]
आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था।-देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अञ्चल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखायी पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा। प्रभात की हेम-किरणों से अनुरञ्जित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंका स्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनि की। रथों, हाथियों और अश्वारोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढिय़ों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े। महाराज के मुख पर मधुर मुस्क्यान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययन किया। स्वर्ण-रञ्जित हल की मूठ पकड़ […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…