मलिक मुहम्मद जायसी – एक कुजात सूफ़ी
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मलिक मो. जायसी को सूफ़ी कवि मानते हुए उन्हें प्रेमाश्रयी : सूफ़ी काव्य धारा के अन्तर्गत रखा है. आचार्य शुक्ल के अनुसार जायसी महदियां सूफ़ी सम्प्रदाय में दीक्षित भी थे. यद्यपि शुक्लजी से पूर्व ग्रियर्सन जायसी को मुस्लिम सन्त बता चुके थे, तथापि शुक्लजी के बाद लगभग सभी आलोचकों ने जायसी को सूफ़ीवाद के चश्में से देखना शुरू किया और जायसी सूफ़ी सन्त तथा पद्मावत सूफ़ी काव्य के रूप में रूढ़ होकर रह गये. इसका परिणाम वह हुआ कि जायसी की कवि प्रतिभा, उनकी मौलिकता इस सूफ़ीवाद के नीचे दबकर रह गयी. आलोचकों ने अपना सम्पूर्ण ध्यान पद्मावत के मार्मिक स्थलों की खोज करने की बजाय उसमें सूफ़ी तत्व खोजने पर लगा दिया. इससे न सिर्फ पद्मावत बल्कि साहित्य की अपूरणीय क्षति हुयी. प्रेम की पीड़ा की मार्मिक गाथा महज एक सूफ़ी काव्य बन कर रह गयी.
जायसी और महदी संप्रदाय
जायसी को सूफ़ी या पद्माावत को सूफ़ी काव्य मानने से पहले तथ्यों पर एक नजर डालना ज़रूरी है. जायसी को शुक्लजी ने महदिया सम्प्रदाय में दीक्षित सूफ़ी सन्त कहा है, इस तथ्य का कोई स्पष्ट प्रमाण कहीं नहीं मिलता. सूफ़ी परम्परा में महदी सम्प्रदाय को हिन्दू-मुस्लिम एकता का विरोधी माना जाता है. जायसी के पद्मावत में हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एक्य की जो सायास चेष्टा मिलती है, उसके साथ इस तथ्य की संगति बैठाना कठिन हो जाता है. शुक्लजी और अन्य अलोचकों का मानना है कि जायसी ने पद्मावत के प्रारम्भ में सूफ़ी गुरूओं की वन्दना की है, इसलिए उनको सूफ़ी मानना उचित है. यहाँ मुल्ला दाउद, उस्मान और कुतुबन जैसे सूफ़ी कवियों से जायसी की तुलना दृष्टव्य है. जायसी को छोड़कर इन सभी कवियों ने किसी न किसी एक सूफ़ी सन्त की वन्दना की है, जबकि जायसी कई सूफ़ी सन्तों की वन्दना करते हैं. अगर जायसी किसी खास सूफ़ी सिलसिले से जुड़े होते तो कई अलग-अलग और परस्पर विरोधी मतों को मानने वाले सन्तों की वन्दना का कोई औचित्य नहीं था. स्पष्ट है कि जायसी किसी खास सूफ़ी सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं थे. इतना जरूर हो सकता है कि उनकी सूफ़ीवाद में थोड़ी बहुत आस्था रही हो. उल्लेखनीय है कि सूफ़ीवाद का उद्भव इस्लाम के कट्टरता के विरोध में हुआ था और विभिन्न सूफ़ी परम्पराओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता के कई चिन्ह देखे जा सकते हैं. ऐसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के हामी किसी मुसलमान कवि का सूफ़ीवाद के प्रति आस्था रखना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता. विजयदेव नारायण साही मानते हैं कि ‘जायसी यदि सूफ़ी थे तो कुजात सूफ़ी थे.
पद्मावत और सूफी मत
जायसी को सूफ़ी मानना या न मानना एक बात है और पद्मावत को सूफ़ी काव्य मानना दूसरी बात. एक सूफ़ी कवि द्वारा रचित कोई रचना अनिवार्यतया सूफ़ीवाद के प्रचार के लिए लिखी गई हो – यह जरूर नहीं. परन्तु , हिन्दी आलोचना ने आम तौर पर पद्मावत को सूफ़ी काव्य के रूप में ही देखा है इसका आधार ‘तन चितउर मन राजा कीन्हा‘ और गुरू सुवा.. जैसी कुछ अन्योक्तिपरक पंक्त्तियां हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसी पंक्तियां पूरे पद्मावत में गिनी चुनी है. इनमें से भी ‘तन चितउर‘ वाले कड़वक को डॉ माता प्रसाद गुप्त ने प्रक्षिप्त माना है. डॉ गुप्त के अनुसार ‘‘ इस छन्द को प्रमाणिक मान लेने के कारण जायसी के रूपक निर्वाह के विषय में शुक्लजी ने और उनके पीछे के आलोचकों ने कितना बड़ा वितण्डावाद खड़ा किया.’’ स्पष्ट है कि चंद प्रक्षिप्त अंशों के आधार पर सम्पूर्ण पद्मावत को सूफ़ी कांव्य कहना हठधर्मिता ही है. अगर इन अंशों को प्रक्षिप्त न भी माने तो भी ये अंश इतने कम है कि इनको रचना की मूल सम्वेदना कहना गलत है.ये रचना के अंश हो सकते हैं अंशी नहीं.
आलोचकों का कहना है कि जायसी ने पद्मावती पर रूहानी नूर का आरोपण किया है. यही कारण है कि रत्नसेन पद्मावती का प्रथम दर्शन पाते ही मूर्च्छित हो जाता है. अगर इस तर्क को स्वीकार करें तो यह मानना पड़ेगा कि जायसी ने बादल की नववधू और सिंहल की वेश्याओं पर भी अलौकिक नूर का आरोपण किया है क्योंकि इनके दर्शन करने वाले भी उसी तरह मूर्च्छित हो जाते हैं, जिस तरह रत्नसेन मूर्च्छित हो जाता है. वस्तुतः यह सौन्दर्यवर्णन की एक अतिशयोक्तिपरक परिपाटी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.
पूरे पद्मावत को गौर से देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुत थोड़े से ऐसे स्थल हैं, जिन्हें खींचतान कर सूफ़ीवाद से जोड़ा जा सकता है. जायसी का कहना है कि यह कहानी ‘प्रेम के पीर’ की है और जो भी इसे सुनेगा उसकी आँखों में आंसू आ जायेंगे. जायसी ने इसे अपने रक्त की लेई से लिखा है. इसके विपरीत मुल्ला दाऊद घोषणा करते हैं कि उन्होंने अपनी कविता में गूढ़ अर्थ भर रखा है. तुलसी दास भी अपनी कविता को सूरसरी (गंगा) के समान मंगलकारी कहते हैं तथा उसका प्रभाव पापों को नष्ट करने वाला बताते हैं. दूसरी ओर, जायसी ऐसा कोई दावा नहीं करते. पूरा पद्मावत हिन्दू पौराणिक प्रसंगो, उपमानों और प्रतीकों से भरा हुआ है. जायसी को अगर पद्मावत के द्वारा सूफ़ीवाद की स्थापना करनी होती तो रत्नसेन की मदद के लिए शिव और पार्वती के स्थान पर शेख बुरहान या सैयद राजे भी आ सकते थे. यह समझना कठिन है कि इस कथा को पढ़ने के बाद कोई पाठक सूफ़ीवाद की ओर कैसे आकर्षित होगा.
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पद्मावत प्रेम की मार्मिक अभिव्यंजना है. उसमें कुछ आध्यात्मिक तत्व हो सकते हैं, पर ये तत्व इतने प्रभावी नहीं हैं कि कथा की मूल संवेदना पर असर डाल सकें.