इश्क़ दी जात
जनवरी की एक सर्द सुबह थी। बर्फ़ीली हवा हड्डियों से गुजर खून जमा देने पर उतारू थी। स्टॉप पर खड़े सभी यात्री अपने-अपने तरीक़े से ठंड से बचाव किए हुए थे। वो दोनों भी गर्म कपड़ों से ख़ुद को इस ढंग से समेटे हुए थे कि केवल आँखें ही बाहर झाँक रही थी। दोनों कई दिनों से उसी बस स्टॉप से बस पकड़ते थे। आस-पास के अलग-अलग गांव से आते थे और वहाँ भीड़ का हिस्सा बन बस का इंतज़ार करते और एक ही बस से अपने-अपने गंतव्य तक जाते थे।
इस सिलसिले के बावजूद अभी तक एक-दूसरे से सर्वथा अनजान थे, लेकिन अब ना जाने कैसे उन्हें एक-दूसरे में रुचि पैदा हो गयी थी, आभास भी ना हुआ था। बरबस ही एक आकर्षण, एक उत्सुकता-सी पनपने लगी थी दोनों के मध्य। कोई चुम्बकत्व की अनबूझ-सी पहेली थी जो शायद उन्हें एक दूसरे को देख हल करनी थी। सदा कनखियों की डोर से एक-दूसरे की ओर देखने के असफल प्रयास में तत्पर रहने लगे थे।
उस रोज़ भी बस आयी तो दोनों की जाड़े से ठिठुरती निगाहें इत्तेफ़ाकन टकराई थी। अचानक ही हुए इस नज़री-एक्सीडेंट से घबराकर दोनों ही झेंपकर रह गए थे, हया से दोबाला हुई लड़की पिछले जबकि लड़का झिझकता-सा अगले दरवाज़े से बस में चढ़ा था। चलती बस में एक बार फिर मिली नज़रें बिना कुछ कहे नज़रों ही नज़रों में बेचैनी का कोई अनजाना-सा संदेश दे गयी थी।
सीटें खाली होने की वजह से दोनों दूर-दूर बैठे एक-दूसरे की झलक पाने के अनथक प्रयास में रहे। इसी हेरफेर के दरमियान उसका स्टॉप आ गया और वो उसे ना देखने का असफल प्रयास करती हुई झुकी पलकों के साथ नीचे उतर गयी और पीछे छोड़ गयी थी उसे हसीन ख़्वाबों में डूबे अगली सुबह के इंतज़ार में।
अगली सुबह फिर दोनों स्टॉप पर लोगों की भीड़ में अकेले थे। बाहर से शांत परंतु अंदर एक खलबली-सी लिए एक-दूसरे को किसी न किसी बहाने देखने के प्रयास में मशगूल थे। दिल एक-दूसरे को देखने, नज़रें मिलाने, मुस्कराने, बतियाने को लालायित था।
इज़हार-ए-मुहब्बत इश्क़ की राह का सबसे मुश्किल पग होता है दिल कहता है,”पग आगे धर”, लेकिन हिम्मत है कि पग को ज़मीन से उठने नहीं देती है। डर और शर्म की कशमकश के बीच जाने कितने रोज़ इसी पहल के इंतज़ार में गुज़र जाते हैं और कितनी ही मुहब्बतें गुमनामी के सागर में डूबकर ज़िन्दगी की कसक बनी रह जाती है।
इन्हीं सोचों के अंधेरों में जुगनू-सी टिमटिमाती, मुहब्बत की बस आ थमती है और दोनों थोड़ी हिम्मत करके कुछ पल के लिए एक-दूसरे को देखते हैं थोड़ा सा मुस्काते हैं और..और एक ही दरवाज़े से बस में चढ़ने को पग आगे बढ़ाते हैं। लड़की सीट पर बैठी है और लड़का थोड़ी दूर मासूमियत से उसकी नज़रों का निशाना लगाने के लिए पोजीशन लिए है। इश्क़ का एक और फ़साना अब आगाज़ को तैयार था।
दोनों की रातें सहर होने को तड़पने लगी थी। किसी अबूझ-सी जल्दबाजी में रहने लगे थे। कदम थे कि स्टॉप पर पहुँचने को उतावले होने लगे थे। बस-स्टॉप पर भी अक्सर जल्दी आने लगे थे। एक के ना पहुँचने पर दूसरा परेशान और आशंकित होने लगता था, डर व निराशा की मिली जुली बेबसी साफ़ चेहरे पर झलकने लगती थी।
अब तो बस मिस करके इंतज़ार भी किया जाने लगा था। प्रेम की पींगें, ख़्वाबों के हिंडोले संग झूलने लगी थी। एक-दूसरे को देख चेहरे का रंग अब परिवर्तित होने लगा था। होंठों पर एक मुस्कान और आँखों में अनुराग के भाव तैरने लगे थे। अपने आसपास को दोनों ही भुलाने लगे थे। सब से बेख़बर ख़ुद में ही मशगूल वे दोनों आँखों में दिल रखकर एक-दूसरे को देखते रहते थे और बस की सवारियाँ थोड़ा हँसते दाँत दिखाते हुए उन्हें देखती रहती थी।
अब वो दो पंछी प्रेम की नीड़ पर घोंसला बनाने को बिल्कुल तैयार हो चुके थे। इश्क़ उनकी ज़िंदगी में क़दम रख चुका था और उन्हें गिरफ़्तार कर चुका था ऐसे मोह पाश में जिसकी क़ैद में दर्द व आनंद था तो रिहाई में बेचैनी व रंग-बिरंगे सपने। बस का सफ़र उनकी ज़िंदगी का वो लम्हा बन गया था जो कुछ ही पल में बीत जाता था और सदियों में दोबारा आता था। दोनों केवल उसी लम्हे में जीते रहना चाहते थे।
यूँ ही एक रोज़ लड़के ने बड़ी हिम्मत जुटा उस लड़की को एक काग़ज़ की पर्ची थमा दी। दोनों का चेहरा शर्म, डर और झिझक की लाली लिए था, कंपकंपाती सर्दी में भी माथे पर हल्का पसीना चुहचुहा आया था, धड़कनें पैंडुलम-सी बज रही थीं और नज़रें थीं कि अनायास ही किसी गुनाह के होने की चुगली कर रही थी।
“प्रेम एकमात्र वो ताक़त है जो बहादुर से बहादुर को डरपोक व डरपोक को कब बहादुर बना दे, किसी को ज्ञात नहीं।”
लड़की ने हिम्मत करके पूछ ही लिया था,”क्या है ये?”
“ — आप खुद ही देख लीजिएगा!”
कुछ नहीं, बस प्यार का पहला ख़त था जिसकी तहरीर थी….
” आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो! मैं आपसे प्यार करता हूँ।”
अगले ही रोज ख़त का जवाब भी आया…
“आप भी मुझे बहुत अच्छे लगते हो, मैं भी आपसे बहुत प्यार करने लगी हूँ,आपके बिना अब जीना मुश्किल है।”
ख़त दर ख़त सिलसिला चल निकला था। प्रेम अपने यौवन पर था। तहरीरें लंबी होने लगी थी और ख़त महकने लगे थे। पंछी जहाँ को भूल दूर आसमां की गहराइयों में खोने लगे थे। आप से कब तू हो गए थे उन्हें गुमान भी ना हुआ। चाँद-तारों के ख़्वाब बुने जाने लगे थे और इश्क़ का नग़मा चाहत के साज़ पर गुनगुनाया जाने लगा था।
दोनों ही खुशफ़हमी पाले थे कि उन के बीच क्या है किसी को पता नहीं लेकिन पागल थे जो नहीं जानते थे कि, “इश्क़ अंधेरी रात में जलती वो शमां है जो ख़ुद ही दूर-दूर तक अपनी रोशनी बिखेरती है, अपने होने का आभास देती है और ना चाहते हुए भी दूसरों की निगाहों का मरकज़ बनती है।”
ज़िन्दगी इत्तेफ़ाकों की दास्तां होती है सो उनकी इस दास्तां में भी होना था और ये इत्तेफ़ाक कुछ यूं हुआ कि दोनों को उस रोज़ एक साथ, एक ही सीट पर बैठने का मौक़ा मिल गया। कुछ देर तक तो दोनों खुशी और अविश्वास के अर्ध मिश्रित शून्य में ही ताकते रहे फिर उसकी स्नेहिल मुस्कान से लड़के की हिम्मत बढ़ी और थोड़ा सकुचाते हुए उसने लड़की से पूछा, “आपका नाम क्या है?”
— लड़की (धीरे से लजाते हुए) सुमन..सुमन ठाकुर!
“सुमन ठाकुर! बहुत प्यारा नाम है आपका।”
लड़की (बिना नज़रें मिलाए), ” और आपका क्या नाम है?”
— मुश्ताक़… मेरा नाम मुश्ताक़ अली है।
” मु..मु..मुश्..मुश्ताक़..अली!
—– जी! क्यों पसंद नहीं आया आपको?
“त…अ.. तु…तुम मुसलमान हो?”
—– हाँ ! मुसलमान हूँ! कोई बात हुई क्या?
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दोनों के बीच पसरे उस बोझिल से सन्नाटे के बीच ही वो मुहब्बत की बस, स्टॉप पर थमती है और लड़की बिना कुछ बोले, बिना नज़रें मिलाए, नीचे उतर जाती है।
पीछे रह जाती है मुश्ताक़ की असमंजस भरी नम आँखें व किसी निरपराध बालक-सी मासूमियत लिए निराश नज़रें जो अब भी चलती बस के साथ स्टॉप की ओर घूम रही थीं……अचेतन मन में कहीं गुरदास मान के बोल गूँज रहे थे…
“नींद ना वेक्खे बिस्तरा, ते भुक्ख ना वेक्खे मांस,
मौत ना वेक्खे ऊमर नूं, ते इशक ना वेक्खे जात।
…….जिन्हा दे रात्ति यार बिछड़े …….”
March 18, 2020 @ 10:59 am
बेहतरीन कहानी..लेखक ने बेहद खूबसूरती से प्यार की हिचकिचाहट, शर्म, झिझक को उकेरा है..
March 23, 2020 @ 2:27 pm
बढ़िया???