धरोहर
“प्रभु आये हैं द्वार पर साम्राज्ञी और प्रथम भिक्षा वे आप से ही चाहते हैं आज!”
दासी की आवाज़ भर्राई हुयी थी और आँखों से आंसू टप टप टपक रहे थे मगर वो ये देख कर मन ही मन आश्चर्यचकित भी थी कि रानी यशोधरा की आँख में एक भी आंसू न था. हाँ कहीं कहीं एक अग्निशिखा सी चमक जाती क्षण भर को. मुख भी एकदम तमतमाया सा! पास ही एक कोने में आठ वर्षीय राजकुमार राहुल भी सहमे से खड़े थे.
इस एक क्षण में ही मन में दबी कितनी ही स्मृतियाँ फिर से जीवंत हो उठीं. शाक्य वंश के सम्राट सुशोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ से विवाह से लेकर बोधित्सव के आज कपिलवस्तु में आने तक की प्रत्येक स्मृति मानो फिर से जीवन पा गई. स्वयंवर से लेकर गठबंधन तक….प्रथम मिलन से लेकर प्रणय बंधन तक….पुत्र जन्म से लेकर दारुण विछोह तक! एक भी स्मृति तो ऐसी न थी जो समय के साथ धूमिल हुई हो.
“महाराज सुशोधन से मिल जाएगी भिक्षा उन्हें ! मेरे पास है ही क्या उन्हें देने को?”
रानी यशोधरा ने कह तो दिया मगर दासी की जगह बोधित्स्व को सामने देख कर क्षण भर को तो जैसे स्पंदित हृदय ही नहीं सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही पाषाण शिला हो गया.
इन सात वर्षों में सिद्धार्थ कितने बदल गए थे? मगर ये अंतर न तो गेरुए वस्त्रों का था और न ही समय के साथ परिवर्तित हुई काया का. न तो मुखाकृति का और न ही मन की सूक्ष्म तरंगों का. फिर ये कैसा अंतर था और क्या…न तो यशोधरा समझ पा रही थी और न ही उस का उद्विग्न हृदय.
कौन जाने कितने समय तक और यशोधरा पाषाण बन बुद्ध को देखती रहतीं यदि स्वयं बोधित्सव ही “एकांत” का आग्रह न करते. अधिक जन थे भी कहाँ? बुद्ध संग आये दो भिक्षु और रानी यशोधरा की कुछ विशेष दासियाँ. सभी ने बुद्ध के आग्रह का सम्मान किया और प्रणाम कर चल दिए.
“मुझ से बात करने हेतु आपको अभी भी एकांत की आवश्यकता पड़ती है आर्य?
तथागत बस मुस्कुरा दिए.
…मुझ से बात करने की आवश्यक्ता ही कया है आपको? जब करनी चाहिये थी तब तो आप बिन बताये चले गये थे हम दोनों को निद्रा मग्न छोड़ कर! किसी कायर की भांति! अब क्या लेने आये हैं? भिक्षा? वो तो आपको कहीं भी मिल जाती. बोधित्सव को भिक्षा देने से भला कौन मना कर सकता है? सम्पूर्ण भारतवर्ष में बुद्ध को भिक्षा दे कर कौन अनुगृहीत न होना चाहेगा. कहीं आप ये देखने तो नहीं आये कि हम आपके बिना जीवित कैसे हैं आर्य?”
वर्षों से एकत्रित क्रोध और आवेग आज छलक ही पड़े थे मगर तथागत के निर्विकार मुख पर उनकी चिरपरिचित मुस्कान के अतिरिक्त और कुछ न था.
“ओह! आप तो ये दिखाने आये लगते हैं कि आप ने वो पा लिया जिसे पाने के लिए आप हम सभी को त्याग कर चले गए थे या फिर ये कि जो आपने पाया है वो संसार के उपलब्ध सभी सुख व ऐश्वर्यों से ही नहीं आपकी पत्नी और पुत्र से भी श्रेष्ठ है. इस संसार के सम्पूर्ण ऐश्वर्य से श्रेष्ठ.”
अश्रु बाँध तोड़ चुके थे कब के और भावनाएं भी. कपिलवस्तु की महारानी यशोधरा कब भार्या यशोधरा में परिवर्तित हुयी थी स्वयं समय भी देख न पाया था.
“और आर्य अगर आप क्षमा मांगने आये हैं तो आपको वो भी न मिलेगी यहाँ पर….
….केवल एक बार मुझ से पूछ कर जाते तो क्या मैं मना कर देती आर्य? संभवत: आपके साथ ही वन गमन करती, आपकी तपश्चर्या में आपको यथासंभव सहायता प्रदान करती और आपके मार्ग का अनुसरण कर स्वयं को कृतार्थ ही मानती…..एक बार बताने योग्य भी न जाना आपने यशोधरा को? आपको क्षमा न मिलेगी आर्य! कदापि न मिलेगी!”
यशोधरा कहते-सुनाते बोधित्सव के गले लग कर रोये जा रही थी मगर तथागत जानते थे कि ये भी स्थायी न था. चिरस्थायी तो केवल महाशून्य ही होता है. जैसे बाँध टूटने पर बहा पानी लौट नहीं पाता ठीक वैसा ही यशोधरा के मन के साथ भी होने वाला था. सम्पूर्ण आवेग जब अश्रूधारा संग बह गए तो मन सूखी नदी सा रिक्त हो गया.
बोधित्सव जानते थे कि रिक्त को शून्य की ओर प्रशस्त करने का यही अवसर था. यही एक अवसर था….उनके लिए नहीं अपितु यशोधरा के लिए. इसी क्षण के लिए तो उन्होंने एकांत माँगा था. वो जानते थे कि किसी भी अन्य की उपस्थिति में यशोधरा रानी यशोधरा अथ्वा कपिल्वसतु के सम्राट सुशोधन की पुत्रवधु यशोधरा बनी रहती मगर केवल यशोधरा मात्र न बन पाती. दुःख पीड़ा आवेश हताशा प्रेम सभी विकार मन में विषाक्त से हुए पड़े रहते. अब यही उचित अवसर था.
“समय का भान नहीं देवी मगर मैं बहुत काल से एकांत में ही हूँ अथवा अन्य शब्दों में कहूँ तो एकांत मुझ में है. शब्दों में कहना असंभव है मगर सच जानो मैं स्वयं भी कहीं नहीं हूँ. केवल एकांत ही है. एकांत का अर्थ जानती हो यशोधरा! कोई एक भी नहीं है अब. मैं भी नहीं. है अब तो केवल महाशून्य!
…और मेरे कथन को केवल सुनो मत यशोधरा. समझो! बोधित्स्व न तो यहाँ सिद्धार्थ के लिए आये हैं और न ही तुमसे क्षमा अथवा भिक्षा मांगने. ध्यान से देखोगी तो जान पाओगी कि सिद्धार्थ कब का जा चूका और उसके स्थान पर कोई आया ही नहीं. अब है तो केवल एक रिक्तता एक महाशून्य और वो इस बोधित्सव को जहाँ ले जाना चाहता है वो चल देते हैं.”
यशोधरा मौन हो कर सुन रही थी. देव मौन हो कर सुन रहे थे. काल मौन हो कर सुन रहा था.
“तुम्हारे समस्त आवेग, समस्त भाव उस व्यक्ति के लिए हैं जो अब है ही नहीं. तुमने उन सभी आवेगों को उस पर उड़ेला है जो अतीत और भविष्य दोनों से परे जा चूका है. काल के अस्तित्व में आने से पहले और समय के नष्ट होने के पश्चात भी जो महाशून्य रहेगा….आवेश में तुम देख न पायी कि अपने समस्त आवेग तुमने उसी महशून्य में उड़ेल दिए हैं.”
तथागत पल भर को रुके तो जो यशोधरा उनके कहे शब्दों को आत्मसात कर पाये और फिर प्रथम बार बुद्ध ने यशोधरा की आँखों में देखा…..और प्रथम बार यशोधरा ने जाना कि तथागत सत्य कह रहे थे. सिध्दार्थ कब के जा चुके थे और अब वहां पर अनंत महशून्यता के अतिरिक्त और कुछ न था.
स्वप्न तिरोहित होना प्रारम्भ हो चुका था और सत्य जाग्रत होना भी. इन क्षणों को परिभाषित कर पाना असंभव था. सम्भवत: स्वयं ईश्वर के लिए भी.
शून्य जैसे स्वयं ही उतरा. यशोधरा को प्रथम समाधि का बोध हुआ. तत्क्षण यशोधरा ने बोधित्सव के पाँव छुए. महाशून्य के निर्विकार चेहरे पर अब मुस्कान की जगह परम शान्ति थी. वो जानते थे कि अब महाशून्य की .बारी थी. महाशून्य भी शून्य के पाँव छूने को हुआ मगर उसे रोक दिया गया.
“आवश्यकता नहीं बोधित्सव! केवल एक प्रश्न का उत्तर दें तो…….”
शून्य तो महाशून्य से पहले ही मूक संवाद कर चूका था. सो ये प्रश्न भी बोधित्सव जानते थे.
“आप ने जो वन जाकर पाया वो क्या आप यहाँ रह कर न पा सकते थे ?”
यशोधरा की प्रधम समाधि के गर्भ से यही प्रश्न अस्तित्व लेगा बोधित्सव जानते थे और इसका उत्तर भी.
“सत्य है देवी! इस में असत्य जैसा कुछ भी नहीं। सत्य ही जो पाया वो यहाँ पर भी पाया जा सकता था. सत्य ही जो विलीन हुआ वो यहाँ पर भी विलीन हो सकता था. प्रथम समाधि के इस पल को संभाल कर रखियेगा!”
“क्या बोधित्सव अंतिम प्रश्न से बच रहे हैं?”
अंतिम प्रश्न भी तथागत जानते थे. “निर्वाण यदि यहीं पर संभव था तो वन गमन क्यों?”
बोधित्सव का उत्तर सुनने को देवलोक ही नहीं मानो सम्पूर्ण सृष्टी थम गई.
“स्वप्न में मनुष्य कब जान पाता है देवी कि वह स्वप्न में है. स्वप्न की व्यर्थता का स्मरण तो जागृतावस्था में ही हो पाता है!”
अंतिम से अंतिम प्रश्न का उत्तर भी दिया जा चूका था. इतने वर्षों में यशोधरा के मुख पर प्रथम बार गहन शांति के भाव जैसे उसकी मनोदशा का प्रमाण स्वयं ही दे रहे थे.
“राहुल के लिए क्या कोई आज्ञा है प्रभु?”
बोधित्स्व ने तत्काल ही अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया। यशोधरा ने नन्हें राहुल के सर पर हाथ फेरा और भावावेश में उसे गले लगा लिया.
“जाओ राहुल! अपनी धरोहर ग्रहण करो. तुम्हारे पिता नहीं अपितु स्वयं तथागत तुम्हें संघ में दीक्षित करने आये हैं.”
तीनों लोकों में यशोधरा की ओजपूर्ण वाणी गूँज उठी. सम्राट सुशोधन तक जब ये समाचार पहुंचा तो वे आघात से मूर्छित हो गए मगर यशोधरा और राहुल अब बोधित्सव के चरणो में थे जहाँ से अन्य कोई मार्ग कहीं और न जाता था.
भगवे वस्त्रों में राहुल…..नहीं नहीं राहुल नहीं….भिक्खु राहुल जब तथागत और संघ के अन्य भिक्खुयों के साथ कपिलवस्तु की गलियों में भिक्षा मांगने निकला तो स्वयं देवगण भी मानो जड़ हो पुष्पवर्षा करनी भूल गए. चहुँ ओर एक ही महामंत्र गूँज रहा था.
“बुद्धम शरणम गच्छामि!”
“धम्मं शरणम गच्छामि!”
“संघम शरणम गच्छामि!”
January 23, 2019 @ 4:44 pm
ऐतिहासिक घटनाओं पर एक अच्छी कहानी
January 23, 2019 @ 4:46 pm
अद्भुत… कहानी में पाठक स्वयं को उस पल में पाता है। लेखिका ने पात्रों को जीवंत कर दिया।
January 23, 2019 @ 8:39 pm
अदभुत! सम्पूर्ण धर्म का सारांश इस एक वाक्य में लिख दिया-“स्वप्न की व्यर्थता का स्मरण तो जागृतावस्था में ही हो पाता है!” किसी को अतिशयोक्ति लगे तो लगे मगर सच यही है इस एक कथा के बदले में हम अपना आज तक का लिखा सब दे सकते हैं। बोधित्सव और यशोधरा का यह संवाद मानो बुद्ध के सम्पूर्ण प्रवचनों का सार है।
January 23, 2019 @ 11:25 pm
I read Light Of Asia long time back.I have forever sided with Yashodra.I can never understand Budha ‘s point of view.Try to imagine for a fraction of a second:Your husband , father of your child abandoned you while you were asleep! No moksha no spiritual attainment can make up for the loss a Mother And Child could have endured.PERIOD.
January 24, 2019 @ 12:35 am
स्वयम्बर से लेकर गठबंधन तक….प्रथम मिलन से लेकर प्रणय बंधन तक…पुत्र जन्म से लेकर दारुण विछोह तक जैसे गूढ़ दार्शनिक विचारों को लेकर चलती कहानी का चरम स्वप्न की व्यर्थता का स्मरण तो जागृत अवस्था में ही हो पाता है जैसे सार वाक्य में है।एक उत्कृष्ठ कहानी के लिए मीनाक्षी जी को बधाई।
January 24, 2019 @ 10:01 pm
Introduction
“स्वप्न में मनुष्य कब जान पाता है देवी की वह स्वप्न में हैं”। मीनाक्षी चौधरी द्वारा रचित, ‘धरोहर’ नाम की इस लघु कथा को पढ़ते समय ठीक ऐसा ही अहसास हुआ। तनिक भी अहसास नही हुआ कि मैं और कहानी पृथक हैं। मैं कथानक में इस तरह खिंचा चला गया जैसे मैं कपिलवस्तु के राजमहल के द्वार पे खड़ा स्वयं इस घटना का साक्षी हूँ। किंवदंती पर आधारित इस उपाख्यान के वर्णन में शास्त्रीय लेखन शैली का अति सुंदर अनुसरण किया गया है। इस विषय विशेष पर रचित हज़ारों रचनाओं के बावजूद ‘धरोहर’ एक ताज़ा हवा के झौंके सी प्रतीत होती है।
Summary
कहानी राजकुमार सिद्धार्थ के भिक्षु बनने के पश्चात, पहली बार अपनी पत्नी राजकुमारी यशोधरा और पुत्र राजकुमार राहुल से मुलाक़ात की घटना की पृष्टभूमि पर आधारित वृत्तांत है। कहानी उनके इस मिलन के माहौल की बोझिलता, पात्रो के अंतर्मन में सैकडों प्रश्नों और एक सन्यासी के शांत और एकाग्रचित्त अवस्था को कुशलता से बयान करती है।
Critical comments
कई बार कला की विशिष्टता उसके विपरीत भी जा सकती है। मीनाक्षी चौधरी का अनलंकृत भाषा और संवादों में बौद्ध दर्शन का उपयोग जहाँ इस वृत्तांत को रोचक और सुंदर बनाता है वहीं विलक्षण भी। परंतु इस रचना की विशिष्ठता पाठकों की संख्या या रुचि को सीमित कर सकती है।
भाषा और चरित्रों के भावभंगिमा पर लेखिका की पकड़, छोटे चुटीले संवाद, बिना धाराप्रहाव तोड़े कहानी को एक नाटकीय धार प्रदान करते हैं। लेखिका ने संवाद के दौरान पात्रों के बीच असहज मौन को भी अत्यंत सूक्ष्म रूप से चित्रित किया है। यह उनके मँजे हुए लेखक होने का प्रमाण है।
Personal reflection
हालाँकि हल्की फुल्की कहानी पढ़ने वाले पाठको को शायद यह भारी भरकम महसूस हो परन्तु किसी भी ऐतिहासिक या पौराणिक घटनाक्रम पर अपना परिपेक्ष्य कहानी के तौर पर लिखना साहसिक भी होता है और विशिष्ट भी। मीनाक्षी चौधरी ने बुद्ध की कहानी के इस महत्वपूर्ण घटना अंश को लिखने का न केवल साहस किया है बल्कि पात्रों के आंतरिक और ब्राह्म द्वंद बहुत कौशल से बौद्ध दर्शन की बारीकियों से ओतप्रोत भी कर दिखाया है।
उन्होंने मुख्य पात्रों से बिना ध्यान हटाए, अन्य नागरिको की हृदयव्यथा को भी अपने लेखन कौशल से चित्रित किया है। कहानी के पर्दापण में दासी के आंखों में आंसू और यशोधरा का भावहीन प्रतिक्रिया मानव मन के भावों के सम्पूर्ण रंगावली का चित्रण करती है।
एक लोकप्रिय राजकुमार का राजपाट के कर्तव्य के निर्वाह से मुँह मोड़ कर अपने व्यक्तिगत विकास के लिए भिक्षुक बनना, निजी और पारिवारिक एवं सार्वजनिक जीवन के बीच का द्वंद्व का सजीव चित्रण के लिए लेखिका को बधाई। पाठक के तौर पर मुझे आनंद आया।