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6 Comments

  1. शोभित गुप्ता
    January 23, 2019 @ 4:44 pm

    ऐतिहासिक घटनाओं पर एक अच्छी कहानी

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  2. आनंद
    January 23, 2019 @ 4:46 pm

    अद्भुत… कहानी में पाठक स्वयं को उस पल में पाता है। लेखिका ने पात्रों को जीवंत कर दिया।

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  3. मनु दुग्गल
    January 23, 2019 @ 8:39 pm

    अदभुत! सम्पूर्ण धर्म का सारांश इस एक वाक्य में लिख दिया-“स्वप्न की व्यर्थता का स्मरण तो जागृतावस्था में ही हो पाता है!” किसी को अतिशयोक्ति लगे तो लगे मगर सच यही है इस एक कथा के बदले में हम अपना आज तक का लिखा सब दे सकते हैं। बोधित्सव और यशोधरा का यह संवाद मानो बुद्ध के सम्पूर्ण प्रवचनों का सार है।

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  4. Sukhvinder Grewal
    January 23, 2019 @ 11:25 pm

    I read Light Of Asia long time back.I have forever sided with Yashodra.I can never understand Budha ‘s point of view.Try to imagine for a fraction of a second:Your husband , father of your child abandoned you while you were asleep! No moksha no spiritual attainment can make up for the loss a Mother And Child could have endured.PERIOD.

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  5. Mukesh Devrani
    January 24, 2019 @ 12:35 am

    स्वयम्बर से लेकर गठबंधन तक….प्रथम मिलन से लेकर प्रणय बंधन तक…पुत्र जन्म से लेकर दारुण विछोह तक जैसे गूढ़ दार्शनिक विचारों को लेकर चलती कहानी का चरम स्वप्न की व्यर्थता का स्मरण तो जागृत अवस्था में ही हो पाता है जैसे सार वाक्य में है।एक उत्कृष्ठ कहानी के लिए मीनाक्षी जी को बधाई।

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  6. चन्द्रमोहन पोखरियाल
    January 24, 2019 @ 10:01 pm

    Introduction
    “स्वप्न में मनुष्य कब जान पाता है देवी की वह स्वप्न में हैं”। मीनाक्षी चौधरी द्वारा रचित, ‘धरोहर’ नाम की इस लघु कथा को पढ़ते समय ठीक ऐसा ही अहसास हुआ। तनिक भी अहसास नही हुआ कि मैं और कहानी पृथक हैं। मैं कथानक में इस तरह खिंचा चला गया जैसे मैं कपिलवस्तु के राजमहल के द्वार पे खड़ा स्वयं इस घटना का साक्षी हूँ। किंवदंती पर आधारित इस उपाख्यान के वर्णन में शास्त्रीय लेखन शैली का अति सुंदर अनुसरण किया गया है। इस विषय विशेष पर रचित हज़ारों रचनाओं के बावजूद ‘धरोहर’ एक ताज़ा हवा के झौंके सी प्रतीत होती है।
    Summary
    कहानी राजकुमार सिद्धार्थ के भिक्षु बनने के पश्चात, पहली बार अपनी पत्नी राजकुमारी यशोधरा और पुत्र राजकुमार राहुल से मुलाक़ात की घटना की पृष्टभूमि पर आधारित वृत्तांत है। कहानी उनके इस मिलन के माहौल की बोझिलता, पात्रो के अंतर्मन में सैकडों प्रश्नों और एक सन्यासी के शांत और एकाग्रचित्त अवस्था को कुशलता से बयान करती है।
    Critical comments
    कई बार कला की विशिष्टता उसके विपरीत भी जा सकती है। मीनाक्षी चौधरी का अनलंकृत भाषा और संवादों में बौद्ध दर्शन का उपयोग जहाँ इस वृत्तांत को रोचक और सुंदर बनाता है वहीं विलक्षण भी। परंतु इस रचना की विशिष्ठता पाठकों की संख्या या रुचि को सीमित कर सकती है।
    भाषा और चरित्रों के भावभंगिमा पर लेखिका की पकड़, छोटे चुटीले संवाद, बिना धाराप्रहाव तोड़े कहानी को एक नाटकीय धार प्रदान करते हैं। लेखिका ने संवाद के दौरान पात्रों के बीच असहज मौन को भी अत्यंत सूक्ष्म रूप से चित्रित किया है। यह उनके मँजे हुए लेखक होने का प्रमाण है।
    Personal reflection
    हालाँकि हल्की फुल्की कहानी पढ़ने वाले पाठको को शायद यह भारी भरकम महसूस हो परन्तु किसी भी ऐतिहासिक या पौराणिक घटनाक्रम पर अपना परिपेक्ष्य कहानी के तौर पर लिखना साहसिक भी होता है और विशिष्ट भी। मीनाक्षी चौधरी ने बुद्ध की कहानी के इस महत्वपूर्ण घटना अंश को लिखने का न केवल साहस किया है बल्कि पात्रों के आंतरिक और ब्राह्म द्वंद बहुत कौशल से बौद्ध दर्शन की बारीकियों से ओतप्रोत भी कर दिखाया है।
    उन्होंने मुख्य पात्रों से बिना ध्यान हटाए, अन्य नागरिको की हृदयव्यथा को भी अपने लेखन कौशल से चित्रित किया है। कहानी के पर्दापण में दासी के आंखों में आंसू और यशोधरा का भावहीन प्रतिक्रिया मानव मन के भावों के सम्पूर्ण रंगावली का चित्रण करती है।
    एक लोकप्रिय राजकुमार का राजपाट के कर्तव्य के निर्वाह से मुँह मोड़ कर अपने व्यक्तिगत विकास के लिए भिक्षुक बनना, निजी और पारिवारिक एवं सार्वजनिक जीवन के बीच का द्वंद्व का सजीव चित्रण के लिए लेखिका को बधाई। पाठक के तौर पर मुझे आनंद आया।

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