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भोजपुर की ठगी : अध्याय 29 : भेद की बात

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तड़के उठकर प्रातः क्रिया करने के बाद बूढ़े कोतवाल साहब फौजदार के डेरे पर आये। वहाँ एक चपरासी से पूछा- “फौजदार साहब कहाँ हैं?”
चपरासी ने उत्तर दिया-“वे अभी सोकर नहीं उठे हैं।”
कोतवाल-“रात को कै बजे आये थे?”
चपरासी- “कोई तीन बजे।”
इतने में फौजदार साहब वहाँ आ गये और कोतवाल के साथ चौकी पर बैठ गये। और उनसे कहा-“आप तो खूब सबेरे उठे हैं?”
कोतवाल- “आपके लिये बड़ी फ़िक्र हो रही थी! मैं तो जाते-जाते रास्ता ही भूल गया। लाचार लौट आया। कहिये उस चुड़ैल से कैसे पीछा छूटा?”
फौजदार ने मुस्कराकर कहा-“वह तो न चुड़ैल थी न पगली बल्कि एक अजीब औरत थी। उसने मुझे जो कुछ दिखाया और जो कुछ सुनाया वह कभी देखा और सुना नहीं था।”
कोतवाल- “वह आपको कहाँ ले गयी थी?”
फौजदार – “नरक में! आदमी जो बात सोच नहीं सकता वहाँ वही बात देखी।”
कोतवाल- “ऐं! ऐसी बात देखी?”
फौजदार-“हाँ दिल्लगी न मानिये, सच कहता हूँ।”
इतने में हीरासिंह ने वहाँ पहुँचकर कहा – “दोनों साहबान यहीं हैं? आदाब अर्ज।”
फौजदार साहब ने उसको बैठने का इशारा किया। उसने कहा-“जी, जरा एक जरूरी काम करके मैं नौ बजे तक हाजिर होता हूँ। मुंशी हरप्रकाश की इस करतूत का फैसला जितनी जल्दी हो जाय उतना ही अच्छा है।” यह कहकर हीरासिंह ने एक बार तिरछी निगाह से फौजदार की तरफ ताका। देखा कि वे भी उसकी ओर ताक रहे हैं। फिर बोला-“मुझे मालूम नहीं था कि मुंशीजी आपके रिश्तेदारों में से हैं।”
फ़ौज- “हाँ, मुंशीजी मेरे एक दामाद के दामाद हैं; लेकिन इससे पहले उनसे मेरी मुलाकात-बात नहीं थी। मैंने सिर्फ उनका नाम सुना था और जानता था कि वे एक अंग्रेज के कारपरदाज हैं।”
हीरा-“लेकिन बड़े अफ़सोस की बात है कि उन्होंने इतने बड़े आदमी होकर ऐसे काम में हाथ डाला।”
फौज – “अफसोस की बात तो है ही। मेरी समझ में अभी तक नहीं आता कि उन्होंने क्यों ऐसा काम किया। मैं यही देखने के लिये यहाँ आया हूँ कि उनका कुसूर कहाँ तक साबित होता है। आप जानिये अगर वे सचमुच अपराधी होंगे तो रिश्तेदार होने से मैं उनकी तरफदारी हर्गिज नहीं करूँगा बल्कि इसमें पूरा-पूरा इन्साफ होगा। मुंशीजी एक अंग्रेज के बड़े नौकर हैं, उनका मुकदमा बड़ी अदालत तक जरूर जायगा।”
हीरा- “यह मामला आपही के सामने मिट जाये तो अच्छी बात है, मैं मुंशीजी को हैरान करना नहीं चाहता।”
इसके बाद फौजदार से विदा लेकर कोतवाल साहब हीरासिंह के साथ चले गये।
फौजदार साहब ने रात के तीन बजे डेरे पर लौटकर ही एक चपरासी को चिट्ठी देकर आरे भेजा। उससे कहा कि यह चिट्ठी हवलदार को देना। मैंने उसमें कुछ सिपाही लेकर उसे यहाँ आने को लिखा है। तुम भी उनलोगों के साथ चले आना। तेजी के साथ जाना और आना जिसमें दस बजे तक यहाँ पहुँच जाओ।
इस समय फौजदार साहब अपने खेमे के सामने घास पर टहलने लगे इतने में बलदेवलाल उनकी तरफ जाने लगे। एक चपरासी ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ा और पूछा-“कहाँ जाते हो?”
बलदेव-“क्यों फौजदार साहब! मैं भी कैदी हूँ क्या?”
फौजदार ने मुसकुराकर कहा-“बिलफेल हैं। आप भीतर जाइये।”
बलदेवलाल ने गुस्से से काँपते-काँपते कहा – “क्या मैं कैदी हूँ? तुम मुझे बुढ़ापे में बिना अपराध मेरा जी दुखाते हो, तुम्हारा भला नहीं होगा।”
फौजदार ने दृढ़ता के साथ कहा – “भाई साहब! मैं अपना फर्ज जरूर अदा करूँगा। आप चाहे मुझे हजार कोसिये। अब आप अपने जगह पर जाइये।” बल्देव्लाल अधिक बेइज्जती के डर से चुपचाप रावटी में चले गये।
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