खूनी औरत का सात खून – बारहवाँ परिच्छेद
दो सज्जन
उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक ( दियानत हुसैन ) तो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण। बातों ही बातों में उन दोनों को मैंने अपनी सारी ‘रामकहानी’ सुना दी, जिसे सुन कर वे दोनों बेचारे बहुत पछताने लगे और यों कहने लगे कि,–“दुलारी, जो खून तुम्हारे घर में हो गए हैं, उनके कसूर में आश्चर्य नहीं कि तुम्हीं सजा पा जाओ और वह कसूर तुम्हारे ही गले मढ़ा जाये; पर कुछ पर्वा नहीं; जन्म लेकर कोई बार-बार नहीं मरता। तुम्हारा धर्म जो नारायण ने बचा दिया, उसके मुकाबिले में फांसी की तखती कोई चीज ही नहीं है। यदि धर्म और परमेश्वर कोई चीज हैं, तो वे दोनों तुम्हें अच्छी गति देंगे और परलोक या दूसरे जन्म में तुम सुख पाओगी। फिर यह भी बात है कि यदि तुमने सचमुच खून न किए होंगे, तो भगवान तुम्हें बचा भी सकते हैं।
आहा! मैं उन दोनों भले चौकीदारों की हमदर्दी से भरी और सच्ची बातें सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई और कहने लगी,– “हां, भाइयों! मैं मरने से नहीं डरती, इसीलिये तो आप ही आप यहाँ आकर हाजिर हो गई हूँ, पर यह खून मैंने नहीं किए हैं।”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“पर जो तुम यहाँ न आकर गंगा में डूब मरतीं, तो कहीं अच्छा होता; क्योंकि जिस धरम को बचाकर तुम यहाँ आई हो, वही धरम तुम यहाँ कभी न बचा सकोगी, क्योंकि यह थानेदार ऐसा कमीना है कि तुम्हें अछूती कभी न छोड़ेगा और तुम्हारी आबरू बिगाड़ कर तब दम लेगा। इस शैतान ने अब तक न जाने कितनी औरतों की इज्जत हुर्मत बिगाड़ डाली है और बराबर बिगाड़ता ही रहता है। इस गाँव के लोगों का नाकों में दम आ गया है, पर बेचारे लाचार हो रहे हैं, क्योंकि इस नालायक की किसी तरह यहाँ से बदली भी नहीं होती। इसका साथी हींगन भी एक ही शैतान है और इन दोनों बदमाशों ने इस गाँव में तहलका मचा दिया है। मेरी सरकार बहादुर तो अपनी रियाया की भलाई के वास्ते पुलिस का महकमा खोल बैठी है, पर इस महकमे में बाजे-बाजे ऐसे कमीने घुस आते हैं कि जिनसे रियाया को उल्टा और परेशान होना पड़ता है।”
बेचारे दियानत हुसैन की बातें सुनकर मैं मन ही मन बहुत ही डरी कि, ‘हाय, अब मैं किस बला में आ फँसी! अस्तु मैंने उनसे यों कहा,– “भाईसाहब! तो यहाँ मैं क्या करूँगी? हाय, क्या आप लोग मुझ अनाथ लड़की को नहीं उबार सकते?”
मेरी बात सुनकर रामदयाल मिश्र ने दियानत हुसैन से कहा,-“भाई, यह लड़की साक्षात् सिंहवाहिनी दुर्गा है; सो, यह अपने सतीत्व के बल से आप अपना धर्म बचा सकेगी। रही हमलोगों की बात, सो भला हमलोग इसकी कौन सी सहायता कर सकते हैं?”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा, “हाँ, भाई साहब! यह तो ठीक बात है, क्योंकि हमलोग एक महज मामूली चौकीदार हैं। ऐसी हालत में हमलोग एक कैदी औरत को उस ऐयाश और बदकार अब्दुल्ला थानेदार से क्योंकर बचा सकते हैं। हाँ, अगर यह औरत कैद न होती और योंही यहाँ आ फँसी होती, तो हमलोग इसे चुपचाप भगा दे सकते थे; पर जब कि यह नौजवान लड़की खुद यहाँ आकर फँस गई है, तब भला इसे हमलोग कैसे छोड़ सकते हैं! भाई, अपनी-अपनी जान सभी को प्यारी होती है, इसलिये इसे हमलोग कैसे यहाँ से भगा दें।”
चौकीदार दियानत हुसैन की बात सुनकर रामदयाल ने कहा,-“हां,भाई! ये सब बातें तो तुम ठीक कह रहे हो।”
बाद इसके, मेरी तरफ घूमकर उन्होंने मुझसे यों कहा,–“बहिन दुलारी, अब तुम केवल भगवती का ध्यान करो; क्योंकि उसके अलावे अब्दुल्ला थानेदार से तुमको कोई भी नहीं बचा सकता।”
यह सुनकर मैंने यों कहा,– “सुनो भाइयों, मैं यहाँ से भागना नहीं चाहती और न यही चाहती हूँ कि तुमलोग मुझे यहाँ से भगा कर खुद आफत में फँसो। अजी, जो मुझे भागना ही होता, तो मैं आप ही आप यहाँ आती ही क्यों? सो मैं, भागना नहीं चाहती और न फाँसी से ही डरती हूँ। परन्तु हाँ, मैं अपने धर्म के लिये अवश्य घबरा रही हूँ कि कहीं मेरा वही अमूल्य धन (सतीत्व) न जाता रहे। हाय, जिस सतीत्व की रक्षा के लिये मैं यहाँ आई, वही सतीत्व थानेदार अब्दुल्ला के हाथों गँवाना पड़ेगा! अच्छा, आपलोग मेरे लिये कोई चिन्ता न करें, क्योंकि अब मैंने यह बात भली भाँति समझ ली कि भगवती की जो इच्छा होगी, वही होगा।”
यों कहकर मैं फूट-फूट कर रोने लगी और रामदयाल तथा दियानत हुसैन मुझे ढाढ़स देगे लगे। घंटे डेढ़ घंटे के पीछे मैं कुछ शान्त हुई और रामदयाल और दियानत हुसैन के साथ थानेदार अब्दुल्ला के चाल-चलन के विषय में बातचीत करने लगी। उन दोनों ने उसके अत्याचार की बहुतेरी कहानियाँ मुझे सुनाई, जिन्हें मैंने खूब मन लगाकर सुना।
सब कुछ सुन लेने पर मैंने उन दोनों की ओर देखकर यों कहा,–“तो, क्यों भाइयों! इस गाँव के लोग ऐसे बदमाश थानेदार की रिपोर्ट सरकार में क्यों नहीं करते?”
इसपर उन दोनों ने पारी-पारी से यों कहा,–“दुलारी! भला, बेचारे गाँव के गरीब आदमियों में इतनी हिम्मत कहाँ है!”
बस, इतनी बातचीत होने के बाद रामदयाल मिश्र एक लोटा भर कर दूध ले आए और मुझसे बोले,–“यह चंडाल थानेदार तुम्हें खाने-पीने के लिये कुछ भी न देगा। इसलिए यह गाय का दूध मैं लाया हूँ, इसे तुम पी लो।”
यह सुन कर मैंने बहुत कुछ नाहीं-नुकर किया पर उन्होंने इतना आग्रह किया कि फिर मैं जादे हठ न कर सकी और उस लोटे में भरे हुए सारे दूध को गटर-गटर पी गई। मैंने उस कोठरी के जंगले के पास आकर अपने मुँह से अंजुली लगाई और बाहर से एक पत्ते में धार बाँध कर रामदयाल ने मुझे दूध पिलाना प्रारंभ किया। यों जब मैं सब दूध पी गई, तब उन्होंने कुएँ का ताज़ा पानी लाकर मेरा हाथ-मुँह धुला दिया। फिर वे दोनों घूम-घूम कर मेरी कोठरी की चौकसी करने लगे और मैं अपने पिता की शोचनीय मृत्यु और उनका योंही बहा दिया जाना स्मरण करके फूट-फूट कर रोने लगी।
मुझे वे (दियानत हुसैन और रामदयाल) दोनों बार-बार समझाते थे, पर जब नदी का बाँध हट जाता है, तब क्या उसकी धारा का वेग रुक सकता है?
खैर, इसी तरह मैं घंटों तक रोया की, फिर आप ही आप धरती में लुढ़क गई और नींद ने मुझे अपनी गोद में सुला लिया। यहाँ पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि मैं जिस कोठरी में बन्द की गई थी, उसकी धरती में पुआल बिछ रहा था, इसलिए मुझे कोई कष्ट न हुआ और मैं देर तक बेखबर पड़ी-पड़ी सोया की।