जम्बक की डिबिया
इस जम्बक की डिबिया से मैंने एक आदमी का खून जो कर डाला है, इसलिए मैं इससे डरता हूँ। मैं जानता हूँ कि यही जम्बक की डिबिया मेरी मौत का कारण होगी-प्रोफेसर साहब ने कहा और कुर्सी पर टिक गए। उसके बाद हम सभी लोगों ने उनसे पूछा-जम्बक की डिबिया से मनुष्य की हत्या आखिर हो ही कैसे सकती है?
सिगरेट बुझाकर ऐश-ट्रे पर फेंकते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा-बात उन दिनों की है जब मैं बी.ए. फाइनल में पढ़ता था। केठानी हमारे घर का पुराना नौकर था, बड़ा मेहनती, बड़ा ईमानदार। महीनों हमारी माँ जब घर के बाहर रहती थी, वह सारे घर की देखभाल करता था।
एक चीज भी कभी इधर से उधर न हुआ था। एक बार यही बरसात के दिन थे। मेरी छोटी बहिन के शरीर पर लाल-लाल दाने से उठ आए थे और उसके लिए मैं एक जम्बक की डिबिया खरीद लाया। मेरी माँ मशीन के सामने बैठी कपड़े सी रही थी। आसपास बहुत से कपड़े पड़े थे। वहीं मैंने वह डिब्बी खोली। बहिन के दानों पर जहाँ-तहाँ लगाया और डिब्बी माँ के हाथ में दे दी। पास
ही केठानी खड़ा-खड़ा धुले हुए कपड़ों की तह लगा रहा था। जब मैं बहिन के दानों पर जम्बक लगा चुका तब केठानी ने उत्सुकता से पूछा- “काय भैया! ई से ई सब अच्छो हुई जई हैं?”
मैंने कहाँ- हाँ खाज़, फोड़ा, फुंसी, जले-कटे सब जगह यह दवा काम आती है। इसके बाद केठानी अपने काम में लग गया और मैं बाहर चला गया।
शाम को जब मैं घूम कर लौटा तो देखा घर में एक अजीब प्रकार की चहल-पहल है। माँ कह रही थी- बिना देखे कैसे किसी को कुछ कहा जा सकता है। कहाँ गई? कौन जाने।
बड़ी बहिन कह रही थी- उसे छोड़कर और ले ही कौन सकता है। कल उसकी भावज आई थी न। उसके लड़के के सिर में भी बहुत सारी फुंसियाँ थीं।
पिताजी कह रहे थे- कहीं महराजिन न ले गई हो। अखिल उससे कह रहा था यह गोरे होने की दवा है। लड़के भी तो तुम्हारे सीधे नहीं हैं। पास हीं बैठा अखिल पढ़ रहा था। पिताजी की बात में दिलचस्पी लेते हुए वह बोला- बापू, महराजिन तो हमेशा गोरे होने की ही फिकर में रहती है। फिर मुझसे पूछा कि यह क्या है, सो मैंने भी कह दिया कि गोरे होने की दवा है।
केठानी अपनी कोठरी में रोटी बना रहा था। उसे बुलाकर पूछा गया तो उसने कहा- जब भैया लगाई हती आपने तो तबै देखी रही, फिर हम नहीं देखन सरकार।
मुझे क्रोध आ गया, बोला- तो डिबिया पंख लगाकर उड़ गई? केठानी ने मेरी तरफ़ देखा, बोला- भैया…
मैंने कहा चुप हो! मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। सुबह मैं डिब्बी लाया और इस समय गायब हो गई। यह सब तुम्हीं लोगों की बदमाशी है।
केठानी कुछ न बोला वहीं खड़ा रहा और मैं अपने कमरे में चला गया। मैंने सुना- वह माँ से कह रहा था- मालकिन चल के मोर कोठरी खोली देख लेई-मैं का करिहौं दवाई ले जाई के? फिर जऊन चीज लागी मैं मांग न लईहौं सरकार से?
मैं कोट उतार रहा था। न जाने मुझे क्यों क्रोध आ गया और कमरे से निकल कर बोला- चले जाओ अपना हिसाब लेकर- हमे तुम्हारी ज़रूरत नहीं है– आखिर माँ ने बहुत समझाया पर हम सब भाई-बहिन न माने और माँ ने केठानी को बहुत रोकना चाहा और वह यही कहता रहा- जब तक भैया माफ़ न कर देंगे, अपने मुँह से मुझसे रुकने को न कहेंगे, मैं न रहूँगा।
और मैंने न केठानी से रुकने को कहा न वह रुका, हमारे घर की नौकरी छोड़कर वह चला गया। पर घर के सब लोगों को वह प्यार करता था। वह गया ज़रूर पर तन से गया मन से नहीं। माँ को भी उसका अभाव बहुत खटका और मुझे तो सबसे ज्यादा उसका अभाव खटका।
वह मेरे कमरे को साफ रखता था, सजाकर रखता था, फूलों का गुलदस्ता नियम से बनाकर रखता था। मेरी जरूरते बिना बताये समझ जाता और पूरी करता था, पर जिद्दी स्वभाव के कारण चाहते हुए भी मैं माँ से कह न सका कि केठानी को बुला लो जो कि मैं हृदय से चाहता था।
एक दिन माँ ने कहा कि केठानी रायसाहब के बंगले पर गारा-मिट्टी का काम करता है।मैंने सुना, मेरे दिल पर ठेस लगी। बूढ़ा आदमी, डगमग पैर, भला वह गारा-मिट्टी का काम कैसे कर सकेगा? फिर भी चाहा की यदि माँ कहे की केठानी को बुला लेती हूँ तो मैं इस बार ज़रूर कह दूंगा कि हाँ बुला लो, पर इस बार माँ ने केवल उसके गारा-मिट्टी ढोने की खबर भर दी और उसे फिर से नौकर रखने का प्रस्ताव न किया।
एक दिन मैं कॉलेज जा रहा था। देखा केठानी सिर पर गारे का तसला रखे चाली पर से कारीगरों को दे रहा है। चालीस फुट ऊपर चाली पर चढ़ा बूढ़ा केठानी, खड़ा काम कर रहा था। मेरी अंतरात्मा ने मुझे काटा। यह सब मेरे कारण है और मैंने निश्चय कर लिया कि शाम को लौट कर माँ से कहूँगा अब केठानी को बुला लो। वह बहुत बूढ़ा और कमजोर हो गया है। इतनी कड़ी सजा उसे न मिलनी चाहिए।
दिन भर मुझे उसका ख्याल बना रहा। शाम ज़रा जल्दी लौटा। रास्ते पर ही रायसाहब का घर था। मजदूरों में विशेष प्रकार की हलचल थी। सुना कि एक मजदूर चाली पर से गिरकर मर गया। पास जाकर देखा वह केठानी था। मेरा हृदय एक आदमी की हत्या के बोझ से बोझिल हो उठा। घर आकर माँ से सब कुछ कहा- “माँ उसके कफ़न के लिए कोई नया कपड़ा निकाल दो!”
माँ अपने सिलने वाली पोटली उठा लायीं। नया कपड़ा निकलने के लिए उन्होंने ज्योंहि पोटली खोली, जम्बक की डिबिया खट से गिर पड़ी।
April 29, 2020 @ 7:54 am
बिना सोचे विचारे हुवा काम में वाकई एक आदमी की जान गयी …
April 29, 2020 @ 12:20 pm
Kai baar jindagi ki aapa-dhapi me ham kisi k chritra ka mulyankan uski haisiyat se kar baithe hain.
Sacchai pataa Lange k baad siwaye kachot k hamaare paas kuch nahi bachta.
July 3, 2020 @ 11:03 pm
चीजें भी हमारे ख़िलाफ षडयंत्र किया करती हैं। जिस चीज़ की आवश्यकता होती है, मौक़े पर वही ग़ायब होती है। फिर हम अनदेखे ही घर के सबसे दुर्बल सदस्य का गला दबोच बैठते हैं। हद तो यह है कि एक दिन सहसा ही बागी वस्तु किसी डिब्बे या अलमारी के कोने से सहसा ही प्रकट हो जाती है और याद आता है कि इसे तो खुद ही उस जगह पर रखा था। तब हमारी आत्म ग्लानि की सीमा नही होती है। बहुत ही मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी कहानी।?