(1)
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दु:ख रे भेल साओन मास॥
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दु:ख दारुन रे जग के पतिआए॥
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥
(2)
सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए॥
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल॥
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल॥
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि॥
लाख लाख जुग हिअ-हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल॥
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख॥
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक॥
(3)
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपइ कान।।
माधब, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा।।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ, पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि हेरि
नयन गरए जल-धारा।।
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँद-समान।
भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति
लखिमादेइ-रमान।।