कवित्त (1) बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ। कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै, अब ना घिरत घनआनँद निदान कौ। अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसौ […]
सरस्वती वंदना बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ, ऐसी मति उदित उदार कौन की भई। देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तपवृद्ध, कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई। भावी भूत वर्तमान जगत बखानत है, ‘केसोदास’ कयों हू ना बखानी काहू पै गई। पति बर्नै चार मुख पूत बर्नै पाँच मुख, नाती बर्नै षटमुख तदपि नई नई॥ पंचवटी-वन-वर्णन […]
(1) के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास। हिए नहि सहए असह दु:ख रे भेल साओन मास॥ एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दु:ख दारुन रे जग के पतिआए॥ मोर मन हरि […]
राघौ! एक बार फिरि आवौ। ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।। जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे। क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले ! ते अब निपट बिसारे।। भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे। तदपि दिनहिं दिन होत झावरे मनहुँ कमल हिममारे।। सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो […]
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे़ | नीरज नयन नेह जल बाढे़ || कहब मोर मुनिनाथ निबाहा | एहि तें अधिक कहौं मैं कहा || मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊ | अपराधिहु पर कोह न काऊ || मो पर कृपा सनेहु बिसेखी | खेलत खुनिस न कबहूँ देखी || सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू | कबहुँ […]
तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती को हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये ऊसर बंजर तोड़ो ये चरती परती तोड़ो सब खेत बनाकर छोड़ो मिट्टी में […]
जैसे बहन ‘दा’ कहती है ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक?) पर कोई चिड़िया कुऊकी चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराए पाँव तले ऊँचे तरुवर से गिरे बड़े-बड़े पियराए पत्ते कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो— खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई। ऐसे, फुटपाथ पर चलते […]