कवित्त
(1)
बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे,
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ।
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब ना घिरत घनआनँद निदान कौ।
अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥
(2)
आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौ लौं
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै।
मौन हूँ सों देखिहो कितेक पन पालिहौ जू
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घनआनंद यौं मोहिं तुम्हैं पैज परी
जानियेगो टेक टरें कौन धौं मलोलिहै।
रुई दिये रहौगे कहा लौं बहराइबे की?
कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलिहै॥
(1)
तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दु:ख दोष भरे॥
घनआनंद मीत सुजान बिना सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे अब आनि कै बीच पहार परे॥
पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
ताही के चारु चरित्र विचित्रनि यौं पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ।
ऐसो हियो हितपत्र पबित्र जु आन-कथा न कहूँ अबरेख्यौ।
सो घनआनंद जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ॥