काजर की कोठरी खंड-11
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आज हम फिर हरनंदन और उनके दोस्त रामसिंह को एक साथ हाथ में हाथ दिए उसी बाग के अंदर सैर करते देखते हैं जिसमें एक दफे पहिले देख चुके हैं। यों तो उन दोनों में बहुत देर से बातें हो रही हैं, मगर हमें इस समय की थोड़ी-सी बातों का लिखना जरूरी जान पड़ता है।
रामसिंह : ईश्वर न करे कोई इन कमबख़्त रंडियों के फेर में पड़े! इनकी चालबाजियों को समझना बड़ा ही कठिन है। रास्ते में चलनेवाले बड़े-बड़े धूर्तों और चालाकों को मुँह के बल गिरते मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ।
हरनंदन : ठीक है, मेरा भी यही कौल है, मगर मेरे बारे में तुम इस तरह बदगुमानियों को दिल में जगह न दो। कोई बुद्धिमान और पढ़ा-लिखा आदमी इन लोगों के हथकंडे में पड़कर बरबाद नहीं हो सकता, चाहे वह अपनी खुशदिली के सबब इन लोगों की सोहबत का शौकीन ही क्यों न हो!
रामसिंह : कभी नहीं, मेरा दिल इस बात को नहीं मान सकता, यद्यपि यह हो सकता है कि तुम उसकी मुट्ठी में न आओ, क्योंकि सोहबत थोड़े दिन की और दूसरे ख्याल से है, तिस पर मैं डंडा लिए हरदम तुम्हारे सर पर मुस्तैद रहता हूँ, मगर जो आदमी अपना दिल खुश करने की नीयत से इनकी सोहबत में बैठेगा, वह बिना नुकसान उठाए बेदाग नहीं बच सकता, चाहे वह कैसा ही चालाक क्यों न हो। और जिस पर रंडी आशिक हो गईं, समझ लो कि वह तो जड़-मूल से नाश हो गया। जो रंडियों की बातों पर विश्वास करता है, उस पर ईश्वर भी विश्वास नहीं करता। क्या तुम्हें याद नहीं है कि पहिले-पहिल जब हम-तुम दोनों अपने दोस्त नारायण के जिद करने पर गौहर के मकान पर गए थे, तो दरवाजे के अंदर घुसते समय पैर काँपते थे, मगर जब ऊपर जाकर उनके सामने दो घंटे बैठ चुके तब वह बात जाती रही और यह सोचने लगे कि यहाँ की किस बात को लोग बुरा कहते हैं?
हरनंदन : ठीक है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इस दुनिया में जितनी बातें ऐब की गिनी जाती हैं, उन सभों में निपुणता भी इन्हीं की कृपा का फल होता है : झूठ बोलना, बहाना करना, बात बनाना, बेईमानी या दगाबाजी करना, इत्यादि तो इनकी सोहबत का साधारण और मामूली पाठ है मगर साथ ही इसके पुराने विद्वानों का यह भी कौल है कि इनकी सोहबत के बिना आदमी चतुर नहीं हो सकता। यह बात मैं इस ख्याल से नहीं कहता कि इनकी सोहबत मुझे पसंद है बल्कि एक मामूली तौर पर कहता हूँ।
रामसिंह : (मुस्कराकर) ‘काजर की कोठरी में कैसहू सयानो जाय, काजर की रेख एक लागि है पै लागि है!’ और कुछ नहीं तो इन दो है दिनों की सोहबत का इतना असर तो तुम पर हो ही गया कि इनकी सोहबत कुछ आवश्यक समझने लगे।
हरनंदन: नहीं-नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था, तुम तो खामखाह की बदगुमानी करते हो।
रामसिंह : अच्छा-अच्छा, दूसरा ही मतलब सही मगर यह तो बताओ कि क्या जमींदार लोग कम धूर्त और चालाक तथा फरेबी होते हैं?
हरनंदन : (हँसकर) बहुत खासे ! अब आप दूसरे रास्ते पर चले, तो क्या आप जमींदारों की पंक्ति से बाहर हैं?
रामसिंह : (हँसकर) खैर इन पचड़ों को जाने दो, ऐसी दिल्लगी तो हमारे-तुम्हारे बीच बहुत दिनों तक होती रहेगी, हाँ यह बताओ कि अब तुम बाँदी के यहाँ कब जाओगे?
हरनंदन : आज तो नहीं मगर कल जरूर जाऊँगा, तब तक यकीन है कि सब काम ठीक हुआ रहेगा।
रामसिंह : अब केवल दिन और समय ठीक करना ही बाकी है।
हरनंदन : उसका निश्चय तो तुम ही करोगे।
रामसिंह : अगर बाँदी से सरला का पता लग गया होता तो ज्यादे तकलीफ करने की जरूरत न पड़ती और सहज ही में सब काम हो जाता।
हरनंदन : मैंने बहुत चाहा था कि वह किसी तरह सरला का पता बता दे, मगर कमबख़्त ने बताया नहीं और कहने लगी कि मुझे मालूम ही नहीं, मैंने भी ज्यादे जोर देना उचित न जाना।
रामसिंह : खैर कोई हर्ज नहीं, हमारा यह हाथ भी भरपूर बैठेगा, मगर इन सब बातों की खबर महाराज को अवश्य कर देनी चाहिए।
हरनंदन : तो चलिए शिवनंदन से मिलते हुए महाराज से भी मुलाकात कर आवें। .
रामसिंह : अच्छी बात है, अभी गाड़ी तैयार करने के लिए कहता हूँ।
इतना कहकर रामसिंह ने एक माली को आवाज दी और जब वह आ गया तब हुक्म दिया कि कोचवान को शीघ्र गाड़ी तैयार करने के लिए कहो।
जब तक गाड़ी तैयार होती रही तब तक दोनों दोस्त बाग में टहलते और बातें करते रहे, जब मालूम हुआ कि गाड़ी तैयार है तब कमरे में आए और पोशाक बदलकर वहाँ से रवाना हुए। कहाँ गए और क्या किया इसके कहने की कोई जरूरत नहीं। हाँ इस जगह पर थोडा-सा हाल पारसनाथ का जरूर लिखेंगे, जिसने इन दोनों को बाजार में गाड़ी पर सवार जाते देखा था और चाहा था कि किसी तरह इन दोनों का सत्यानाश हो जाए तो बेहतर है।