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काजर की कोठरी खंड-10

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अब हम थोडा-सा हाल लालसिंह के घर का बयान करते हैं। लालसिंह को घर से गायब हुए आज तीन या चार दिन हो चुके हैं। न तो वे किसी से कुछ कह गए हैं और न कुछ बता ही गए हैं कि किसके साथ कहाँ जाते हैं और कब लौटकर आवेंगे। अपने साथ कुछ सफर का सामान भी नहीं ले गए, जिससे किसी तरह की दिलजमई होती और यह समझा जाता कि कहीं सफर में गए हैं, काम हो जाने पर लौट आवेंगे। वह तो रात के समय यकायक अपने पलंग से गायब हो गए और किसी तरह का शक भी न होने पाया। न तो पहरेवाला ही कुछ बताता है और न खिदमतगार ही किसी तरह का शक जाहिर करता है। सब-के-सब और परेशानी में पड़े हैं तथा ताज्जुब के साथ एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। इसी तरह पारसनाथ भी परेशान चारों तरफ घूमता है और अपने चाचा का पता लगाने की फिक्र कर रहा है। उसने भी लालसिंह की तलाश में कई आदमी भेजे हैं, मगर उसका यह उद्योग चचा की मुहब्बत के खयाल से नहीं है, बल्कि इस खयाल से है कि कहीं यह कार्यवाही भी किसी चालाकी के खयाल से न की गई हो।  वह कई दफे अपनी चाची के पास गया और हमदर्दी दिखाकर तरह-तरह के सवाल किए मगर उसकी जुबानी भी किसी तरह का पता न लगा बल्कि उसकी चाची ने उसे कई दफे कहा कि ‘बेटा ! तुम्हारे ऐसा लायक भतीजा भी अगर अपने चचा का पता न लगावेगा तो और किससे ऐसे कठिन काम की उम्मीद हो सकती है?

            इस तरद्दुद और दौड़-धूप में चार दिन गुजर गए, मगर लालसिंह के बारे में किसी तरह का कुछ भी हाल न मालूम हुआ।

            संध्या का समय है और लालसिंह के कमरे के आगेवाले दालान में पारसनाथ एक कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती और मिटती हैं और एक तौर पर वह गंभीर चिंता में डूबा हुआ मालूम पड़ता है। इसी समय अकस्मात एक परदेसी आदमी ने उसके सामने पहुँचकर सलाम किया और हाथ में एक चिट्ठी देकर किनारे खड़ा हो गया। हाथ-पैर और सूरत-शक्ल देखने से मालूम होता था कि वह आदमी कहीं बहुत दूर से सफर करता हुआ आ रहा है।

              पारसनाथ ने लिफाफे पर निगाह दौड़ाई जो उसी के नाम का लिखा हुआ था। अपने चचा के हाथ के अक्षर पहिचानकर वह चौंक पड़ा और व्याकुलता के साथ चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा। उसमें यह लिखा हुआ था-

“चिरंजीव पारसनाथ यौग्य लिखी लालसिंह की आसीस।

‘ “अपनी राजी-खुशी का हाल लिखना तो अब व्यर्थ ही है, हाँ, ईश्वर से तुम्हारा कुशल-क्षेम मनाते हैं। बेशक तुम लोग ताज्जुब और तरद्दुद में पड़े होवोगे और मेरे यकायक गायब हो जाने से तुम लोगों को रंज हुआ होगा, मगर मैं क्या करूँ! अपनी दिली उलझनों से लाचार होकर मुझे ऐसा करना पड़ा।  सरला के गायब होने और हरनंदन की ऐयाशी ने मेरे दिल पर गहरी चोट पहुँचाई। अब मैं गृहस्थ आश्रम में रहना और किसी को अपना मुँह दिखाना पसंद नहीं करता, इसलिए बिना किसी से कुछ कहे-सुने चुपचाप यहाँ चला आया और आज इस आदमी के सामने ही सिर मुँड़ाकर संन्यास ले लिया है। अब मुझे न तो गृहस्थी से कुछ सरोकार रहा और न अपनी मिलकियत से कुछ वास्ता। जो कुछ वसीयतनामा मैं लिख चुका हूँ, आशा है कि तुम ईमानदारी के साथ उसी के मुताबिक कार्रवाई करोगे तथा मेरे रिश्तेदारों को धीरज व दिलासा देकर रोने-कलपने से बाज रक्खोगे। आज मैं इस स्थान को छोड़ अपने गुरु जी के साथ बदरिकाश्रम की तरफ जाता हूँ और उधर ही किसी जंगल में तपस्या करके शरीर त्याग दूँगा। अब हमारे लौटने की रत्ती-भर भी आशा न रखना और जिस तरह मुनासिब समझना घर का इंतजाम करना।

लालसिंह”

                  चिट्ठी पढ़कर पारसनाथ तबीयत में तो बहुत खुश हुआ मगर जाहिर में रोनी सूरत बनाकर अफसोस करने लगा और दस-बीस बूँद आँसू की गिराकर उस चिट्ठी लानेवाले से यों बोला-

पारसनाथ: तुम्हारा नाम क्या है?

आदमी : लोकनाथ !

पारसनाथ:  मकान कहाँ है?

लोकनाथ : काशीजी।

पारसनाथ:  हमारे चाचा साहब ने तुम्हारे सामने ही संन्यास लिया था?

लोकनाथ : जी हाँ, उस समय जो कुछ उनके पास था, दो सौ रुपए मुझे देकर बाकी सब दान कर दिया और यह चिट्ठी जो पहिले लिख रक्खी थी देकर कहा कि ‘यह चिट्ठी मेरे भतीजे पारसनाथ के पास पहुँचा देना और जो दो सौ रुपए हमने तुम्हें दिए हैं, उसे इसी की मजूरी समझना। दूसरे दिन जब वे दंड-कमंडल लिए हरिद्वार की तरफ गए, तब मैं भी किराए के इक्के पर सवार होकर इस तरफ रवाना हुआ।

पारसनाथ:  अफसोस ! न मालूम चाचा साहब को यह क्या सूझी! उनका अगर पता मालूम हो तो मैं उनके पास जरूर जाऊँ और जिस तरह हो घर लिवा लाऊँ। अगर संन्यास ले लिया है तो क्या हुआ, अलग बैठे रहेंगे, हम लोगों को आज्ञा दिया करेंगे। उनके सामने रहने ही से हम लोगों को आसरा बना रहेगा।’

लोकनाथ : एक तो अब उनका पता लगाना ही कठिन है, दूसरे वह ऐसे कच्चे संन्यासी नहीं हुए हैं जो किसी के समझाने बझाने से घर लौट आवेंगे। अब आप लोग उनका ध्यान छोड़ दें और घर-गृहस्थी के धंधे में लगें।

पारसनाथ:  तो क्या अब हम लोग उनकी तरफ से बिलकुल निराश हो जाएँ?

लोकनाथ : निःसंदेह ! अच्छा अब मुझे बिदा कीजिए तो मैं अपने घर जाऊँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, अभी तुम बिदा न किए जाओगे। अभी मैं हवेली में जाकर औरतों को यह संवाद सुनाऊँगा, कदाचित चाची साहिबा को तुमसे कुछ पूछने की जरूरत पड़े। इसके बाद उनकी आज्ञानुसार कुछ देकर तुम्हारी विदाई की जाएगी, तब तुम अपने घर जाना।

लोकनाथ: ठीक है, आप इसी समय महल जाकर अपनी चाची साहिबा से जो कुछ-कहना-सुनना हो कह-सुन लें, यदि उन्हें कुछ पूछना हो तो मैं जवाब देने के लिए तैयार हूँ, परंतु किसी के रोकने से मैं यहाँ रुक नहीं सकता और न विदाई या भोजन के तौर पर कुछ ले ही सकता हूँ, क्योंकि ऐसा करने के लिए लालसिंह ने कसम दिला दीं है बल्कि यहाँ तक कसम देकर कह दिया है कि जब तक तम वहाँ रहना तब तक अन्न-जल तक न छूना। इसलिए मैं कहता हूँ कि मुझे यहाँ से जल्द छुट्टी दिलाइए क्योंकि इस इलाके से बाहर हो जाने के बाद ही मैं अपने खाने-पीने का बंदोबस्त कर सकूँगा। मुझे इस काम की पूरी मजदूरी लालसिंह दे गए हैं, अस्तु, अब मैं उनकी कसम को टालकर अपना धर्म न बिगाड़ूँगा।

         लोकनाथ की बातें सुनकर पारसनाथ को ताज्जुब मालूम हुआ, मगर वास्तव में ये सब बातें उसकी दिली खुशी को बढ़ाती जाती थीं। वह हाथ में चिट्ठी लिए वहाँ से उठा और सीधे अपनी चाची के पास चला गया। जो कुछ देखा-सुना था बयान करने के बाद उसने लालसिंह की चिट्ठी पढ़कर सुनाई। सबकुछ सुनकर जवाब में उसकी चाची ने कहा, “हाँ, वह तो होना ही था, वे पहिले से ही कहते थे कि अब हम संन्यास ले लेंगे। उन्होंने तो जो कुछ सोचा सो किया, मगर अब दुर्दशा हम लोगों की है !!” इतना कहकर लालसिंह की स्त्री आँखों से आँसू गिराने लगी।

        पारसनाथ ने उसे बहुत-कुछ समझा-बुझाकर शांत किया और फिर लोकनाथ के बारे में पूछा कि वह जाने को तैयार है, जब तक यहाँ रहेगा पानी भी न पीएगा, उसे क्या कहा जाए?  लालसिंह की स्त्री ने जवाब दिया, ‘मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास है और यह चिट्ठी भी ठीक उनके हाथ की लिखी हुई मौजूद है, फिर मैं उस आदमी से क्या और उसे किसलिए अटकाऊँगी? तुम जाओ और उसे विदा करके मेरे पास आओ।’

        पारसनाथ खुशी-खुशी बाहर गया जहाँ उसने दो-चार बातें करके लोकनाथ को विदा कर दिया। इसके बाद खुशी-खुशी एक चिट्ठी लिखकर अपने खास नौकर के हाथ किसी दोस्त के पास भेजकर पुन: महल के अंदर चला गया।

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