1954 में मैला आंचल के प्रकाशन को हिन्दी उपन्यास की अद्भुत घटना के रूप में माना जाता है। इसने आंचलिक उपन्यास के रूप में न सिर्फ हिन्दी उपन्यास की एक नयी धारा को जन्म दिया, बल्कि आलोचकों को लम्बे समय तक इस पर वाद-विवाद का मौका भी दिया। अंग्रेजी में चौसर के ‘केन्टरवरी टेल्स’ और अमेरिकी साहित्य में शेरवुड एंडरसन के ‘बाइंसबर्ग ओहियो’ की तरह रेणु मैला आंचल के साथ हिन्दी में आंचलिकता के ताजे झोंके को लेकर आते हैं। गांव की मिट्टी की सोंधी महक, गांव के गीत, नृत्य और संगीत की मधुर धुन, विदापन और सारंगा सदाबृज की तान हिन्दी उपन्यास के लिए बिल्कुल नयी चीज थे। इस नयेपन ने बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उपन्यास की भूमिका में ही रेणु ने इसे आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी है- ‘‘यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। इसमें शूल भी हैं फूल […]
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प्रेमचन्द के बाद हिन्दी में ग्राम कथा पर आधारित धारा अवरूद्ध सी हो जाती है। बलचनमा (नागार्जुन.1952) और गंगा मैया (भैरव प्रसाद गुप्त.1952) जैसे उपन्यास लिखे तो गये, परन्तु प्रेमचन्द जैसी व्यापक संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टि के अभाव में यथोचित प्रभाव नहीं छोड़ पाए। ऐसे में 1954 में मैला आंचल का आना एक सुखद आश्चर्य की तरह लगता है। हवा का एक ताजा झोंका जैसे प्रेमचन्द के काल से गुजरता हुआ रेणु तक आ पहुँचता है। कथ्य की दृष्टि से देखें तो मैला आँचल, गोदान का ही तार्किक विस्तार प्रतीत होता है। आदर्शवादी नवयुवक डॉ. प्रशान्त विदेश जाने के अवसर को ठुकरा कर मेरीगंज जैसे अंचल में आता है मलेरिया पर अनुसंधान करने, परन्तु कुछ ही दिनों के अनुभव से वह समझ जाता है कि गांव वालों की असली समस्या मलेरिया नहीं है- ‘‘उसने गाँव के रोग के वास्तविक कारण को पहचान लिया है। उसकी नजर में गाँव के […]
किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्न निष्फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने […]
इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के वनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है। एक दिन वह नदी में […]
दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई : मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्यान-मग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता। मैंने पास जाकर कहा, “मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक […]
बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींधकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी।‘ ‘हटो भाईजी।‘ ‘ठहरना भाई जी।‘ ‘आने दो लाला जी।‘ ‘हटो बाछा।‘ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और […]
स्वतंत्रता के पश्चात राजनीति को आधार बनाकर लिखे गये उपन्यासों में मैला आंचल, रागदरबारी और महाभोज सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। मन्नू भण्डारी का महाभोज, प्रेमचन्द का ‘गोदान’ और फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’ तीनों ही मोहभंग जनित परिस्थितियों की उपज हैं। प्रेमचन्द के मोहभंग का कारण तत्कालीन स्वाधीनता आन्दोलन का सामन्ती चरित्र था तो रेणु के मोहभंग का कारण आजादी से जुड़ी आशाओं-आकांक्षाओं का खण्डित होना था। लोगों ने जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन से बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। उम्मीद थी कि सत्ता का चेहरा बदलेगा, शोषण और भ्रष्टाचार का निरंकुश रथ थमेगा, लेकिन चन्द ही दिनों में ये सारी उम्मीदें धूल धूसरित हो गयीं। लोगों ने देखा कि नयी व्यवस्था में न चेहरे बदले और न उनका वास्तविक चरित्र। शोषण और भ्रष्टाचार का रथ द्विगुणीत रफ्तार से चलता रहा। यही मोहभंग ‘महाभोज’ की आधार भूमि है। महाभोज का अर्थ है किसी की मृत्यु पर होने वाली दावत! यहाँ […]
चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूँ , जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब […]
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण; तनये, ली कर दृक्पात तरुण जनक से जन्म की विदा अरुण! गीते मेरी, तज रूप-नाम वर लिया अमर शाश्वत विराम पूरे कर शुचितर सपर्याय जीवन के अष्टादशाध्याय, चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण कह – “पित:, पूर्ण आलोक-वरण करती हूँ मैं, यह नहीं मरण, ‘सरोज’ का ज्योति:शरण – तरण!” अशब्द अधरों का सुना भाष, मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर ज्योतिस्तरणा के चरणों पर। जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार — “जब पिता करेंगे मार्ग पार यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम, तारूँगी कर गह दुस्तर तम?” — कहता तेरा प्रयाण सविनय, — कोई न था अन्य भावोदय। श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार शुक्ला प्रथमा, कर गई पार! धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका! जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर हारता रहा मैं स्वार्थ-समर। शुचिते, पहनाकर चीनांशुक रख सका न तुझे अत: दधिमुख। […]
आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह! राजा ने आसन दिया। कहा : ‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप। भरोसा है अब मुझ को साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!‘ लघु संकेत समझ राजा का गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा, साधक के आगे रख उस को, हट गए। सभी की उत्सुक आँखें एक बार वीणा को लख, टिक गईं प्रियंवद के चेहरे पर। ‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से –घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी- बहुत समय पहले आयी थी। पूरा तो इतिहास न जान सके हम : किंतु सुना है वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था- उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने, कंधों पर बादल सोते थे, उस की करि-शुंडों-सी डालें हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण, कोटर में भालू बसते थे, केहरि उस के वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे। और-सुना है-जड़ उस की जा […]
अगर मैं गोदान लिखता? लेकिन निश्चय है मैं नहीं लिख सकता था, लिखने की सोच भी नहीं सकता था। पहला कारण कि मैं प्रेमचंद नहीं हूँ, और अंतिम कारण भी यही कि प्रेमचंद मैं नहीं हूँ। वह साहस नहीं, वह विस्तार नहीं। गोदान आसपास ५०० पृष्ठों का उपन्यास है। उसके लिए धारणा में ज्यादा क्षमता चाहिए, और कल्पना में ज्यादा सूझबूझ। वह न होने से मेरा कोई उपन्यास ढाई सौ पन्नों से ज्यादा नहीं गया। मैं लिखता ही तो गोदान करीब दो सौ पन्नों का हो जाता। गोदान का एक संक्षिप्त संस्करण भी निकला है और मानने की इच्छा होती है कि उसमें मूल का सार सुरक्षित रह गया है। यानी दो सौ-ढाई सौ में भी गोदान आ सकता था। और क्या विस्मय, मोटापा कम होने से उसका प्रभाव कम के बजाय और बढ़ जाता, अब यदि फैला है तो तब तीखा हो जाता। पुस्तक जब शुरु में निकली […]
कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था। उनके पिता मूर्ख थे। उपन्यासकार नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है, वह वीरता कालिदास में न थी। अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया। फिर भी सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे। वे भेड़ चराते थे। फलत: कालिदास भी मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे। कभी-कभी गायें भी चराते थे। पर वे बाँसुरी नहीं बजाते थे। उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी। उसका उपयोग उन्होंने अपनी उपमाओं में किया है। यह सभी जानते हैं। जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे। इस प्रतिभा के चमत्कार को वररुचि पंडित ने देखा। वे प्रभावित हुए। उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या परम विदुषी थी। विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा […]
गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठा थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, […]
आज मैंने बन्नू से कहा, ” देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है की संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल.” बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है. सोचकर बोला, ” मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है? “ मैंने कहा, ” इस वक़्त हर बात के लिए हो सकता है. अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके क़ानून बनवा दिया […]
राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चँवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। पूरब-पच्छिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल सिंहासन पर बैठा, उनके तमगे कौन लगाता है। कौन-कौन है वह जन-गण-मन- अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज़ बजाता है।
कहानी आपको पसंद आयी यह जानकर अच्छा लगा। हॉरर का तड़का देने की कोशिश की थी। अच्छा लगा यह जानकर…