डायरी या आत्मालाप शैली में लिखी ‘यही सच है’ मन्नू भंडारी की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है . यह कहानी है दीपा की या यूं कहें कि उसके अंतर्द्वंद्व की . निशीथ से निराश दीपा संजय की बाहों में सहारा ढूंढती है. उसे लगता है कि वह निशीथ को भूल गयी है , लेकिन जाने अनजाने वह निशीथ और संजय की तुलना करने लगती है. संजय निशीथ नहीं है…उसका प्यार भी निशीथ के जैसा नहीं है. दीपा अपने मन की समझाती है ,लेकिन एक इंटरव्यू के सिलसिले में कलकत्ता जाने और वहां निशीथ से दुबारा मुलाक़ात होने के बाद उसे लगने लगता है ,जैसे उसने संजय को प्यार नहीं किया …उसमें सहारा ढूँढा था . उसका मन फिर से निशीथ की ओर खिंचने लगता है . कानपुर वापस लौटने के बाद भी यह अंतर्द्वंद्व समाप्त नहीं होता . दीपा, निशीथ और संजय के इस त्रिकोण को आधार बना […]
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पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए यह पद पंचम स्वर में गया, अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ! सोना ने प्रफुल्लित हो कर पूछा, ‘ कोई मीठी ताजी खबर है क्या ? ‘ शास्त्री जी ने पैंतरे बदल कर कहा, ‘ मार लिया आज। ऐसा ताक कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता ! सारे घर का। वह बढ़-बढ़कर हाथ मारूँगा कि देखने वाले दंग रह जाएंगे। उदर महाराज अभी से अधीर हो रहे हैं।‘ सोना – ‘’ कहीं पहले की भाँति अब की भी धोखा न हो। पक्का-पोढ़ा कर लिया है न ? ‘ मोटेराम ने मूँछें ऐंठते हुए कहा, ‘ ऐसा असगुन मुँह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ दिन आया है। जो तैयारियाँ करनी हों, कर लो।‘ सोना – ‘वह तो करूँगी […]
हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है. अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ. न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की. मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया. विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं. जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता. यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई. स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है. किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी […]
हमारी देह पुरानी है, लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता है। नये रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरन्तन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में, एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भाँति, गूँजता रहता है और यह सौ साल की बुढ़िया आज भी नवेली दुल्हन बनी हुई है। जब से लाला डंगामल ने नया विवाह किया है, उनका यौवन नये सिरे से जाग उठा है। जब पहली स्त्री जीवित थी, तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रात: से दस ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दूकान चले जाते। वहाँ से एक बजे रात लौटते और थके-माँदे सो जाते। यदि लीला कभी कहती, जरा और सबेरे आ जाया करो, तो बिगड़ जाते और कहते तुम्हारे लिए क्या दूकान छोड़ दूं, या रोजगार बन्द कर दूं ?यह वह जमाना नहीं है […]
अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं. बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन पर कैसे विजय पाते ? कोई नर्स देहात में जाने पर राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा. लेडी डाक्टर के पास जाने की उन्हें हिम्मत न पड़ी. उसकी फीस पूरी करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन कन्याओं के बाद वह चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वही गूदड़ था और वही गूदड़ की बहू. बच्चे अक्सर […]
एक दिन सूट पहनकर बढ़ियाभोलू बंदरलाल,शोर मचाते धूमधाम सेपहुँच गए ससुराल।गाना गाया खूब मजे सेऔर उड़ाए भल्ले,लार टपक ही पड़ी, प्लेट मेंदेखे जब रसगुल्ले।खूब दनादन खाना खायानही रहा कुछ होश,आखिर थोड़ी देर बाद हीगिरे, हुए बेहोश।फौरन डॉक्टर बुलवायाबस, तभी होश में आए,नहीं कभी इतना खाऊँगा-कहकर वे शरमाए!
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़, दोनों मूरख, दोनों अक्खड़, हाट से लौटे, ठाठ से लौटे, एक साथ एक बाट से लौटे। बात-बात में बात ठन गयी,बांह उठीं और मूछें तन गयीं।इसने उसकी गर्दन भींची,उसने इसकी दाढी खींची।अब वह जीता, अब यह जीता;दोनों का बढ चला फ़जीता;लोग तमाशाई जो ठहरे सबके खिले हुए थे चेहरे!मगर एक कोई था फक्कड़,मन का राजा कर्रा – कक्कड़;बढा भीड़ को चीर-चार करबोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर।अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,सही बात पर झुकना पड़ा!उसने कहा सधी वाणी में,डूबो चुल्लू भर पानी में;ताकत लड़ने में मत खोओचलो भाई चारे को बोओ!खाली सब मैदान पड़ा है,आफ़त का शैतान खड़ा है,ताकत ऐसे ही मत खोओ,चलो भाई चारे को बोओ।सुनी मूर्खों ने जब यह वाणीदोनों जैसे पानी-पानीलड़ना छोड़ा अलग हट गएलोग शर्म से गले छट गए।सबकों नाहक लड़ना अखराताकत भूल गई तब नखरागले मिले तब अक्कड़-बक्कड़खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़अक्कड़ मक्कड़, धूल […]
बहुत पुराने समय की बात है .एक बार एक ब्राह्मण ने यज्ञ करने की सोची. उसने यज्ञ के लिए दूसरे गाँव से एक बकरा ख़रीदा . बकरे को कंधे पर रख कर वह अपने गाँव की ओर लौट रहा था , तभी तीन ठगों की नज़र उस पर पड़ी. मोटे ताजे बकरे को देख कर उनके मुंह में पानी आ गया .उन ठगों ने किसी उपाय से वह बकरा ब्राह्मण से ठगने की सोची . ठगों ने एक योजना बनाई और तीनों एक एक कोस की दूरी पर तीन वृक्षों के नीचे बैठ गए और उस ब्राह्मण के आने की राह देखने लगे।सबसे पहले ब्राह्मण की मुलाक़ात पहले ठग से हुई. जैसे ही ठग ने ब्राह्मण को बकरा लिए आते देखा ,उसने ब्राह्मण से कहा – हे ब्राह्मण, यह क्या बात है कि तुम कुत्ता कंधे पर लिये जाते हो ? ब्राह्मण ने क्रोध से कहा- यह कुत्ता नहीं है, […]
एक घने जंगल में एक शेर रहता था. वह रोज शिकार पर निकलता और एक ही बार में कई-कई जानवरों का शिकार करके लौटता. जंगल के जानवर डरने लगे कि अगर शेर इसी तरह शिकार करता रहा, तो एक दिन जंगल में कोई भी जानवर नहीं बचेगा. सारे जंगल में डर फैल गया. शेर को रोकने के लिये कोई न कोई उपाय करना ज़रूरी था. एक दिन जंगल के सारे जानवर इकट्ठा हुए और शेर को रोकने के उपाय पर विचार करने लगे. अन्त में उन्होंने तय किया कि वे सब शेर के पास जाकर उनसे इस बारे में बात करें. दूसरे दिन जानवरों का एक दल शेर के पास पहुंचा. उनको अपनी ओर आता देख शेर ने गरजकर पूछा, ‘‘क्या बात है ? तुम सब यहां क्यों आ रहे हो ?’’ जानवर दल के नेता ने कहा, ‘‘महाराज, हम आपके पास एक प्रार्थना लेकर आये हैं. आप राजा हैं […]
खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते. लोग उसको बेकार ही नहीं, ‘बेगार‘ समझते हैं. इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को. क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा – पगडंडी पर तौल तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे. मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है. …आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई. एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगो की सवारियाँ बँधी रहती थीं. उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे. ‘…अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाके मे. एक दिन भी समय निकाल कर चलो. कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से – सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवा कर भेज दो.‘ मुझे याद है… मेरी माँ जब कभी सिरचन […]
भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने बाद दूसरी सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गए। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैने से गॉँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था। मॉँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन मॉँजता। भोला की ऑंखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे रग्घू में सब बुराइयॉँ-ही-बुराइयॉँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार ऑंखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोए? बाप ही नहीं, सारा गॉँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं: […]
प्रेमचन्द की कहानी बूढ़ी काकी 1918 में उर्दू में लिखी गई तथा उर्दू की पत्रिका तहज़ीबे निसवाँ में छपी। तदन्तर यही कहानी हिन्दी में रूपान्तरित हो 1921 में ‘श्रीशारदा’ नामक हिन्दी पत्रिका में छपी थी। बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा –स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का रोने के अतिरिक्त दूसरा कोई सहारा ही। समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और जब घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते या भोजन का समय टल जाता, उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और उन्हें न मिलती तो रोने लगती थीं। उनका रोना – सिसकना साधारण न था, वह गला फाड़ – फाड़ कर रोती थीं। उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालान्तर हो चुका था। बेटे तरुण हो होकर चल […]
अद्वैत वेदान्त में सामान्यतः माया को ब्रह्म और जीव के बीच पड़े आवरण के रूप में जाना जाता है. यह माया ही है, जो जीव के ब्रह्म से अलग होने का भ्रम उत्पन्न करती है. जीव को ब्रह्म से विच्छिन्न करती है. कबीर दास जी भी माया को इसी भ्रम के रूप में देखते है. यह माया सतगुण, रजगुण और तम गुण की फांस लिये हुये डोलती रहती है और मीठी बानी के द्वारा लोगों को फंसाती है, उन्हें भ्रमित करती है- माया महाठगिनी हम जानी तिरगुन फांस लिये कर डोले बोले मधुरी बानी. कबीर के अनुसार त्रिगुणात्मक वृत्ति का ही दूसरा नाम माया है. त्रिगुणात्मक वृत्ति के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को नहीं पाया जा सकता- रजगुण, तमगुण, सतगुण कहिबे यह सब तेरी माया इस माया के परदे को वेध कर ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है. यह माया काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी वृत्तियों का कारण […]
1924 में पहली बार माधुरी में प्रकाशित ‘शतरंज के खिलाड़ी’ वाजिदअली शाह के समय के अवध की अनूठी दास्ताँ है. 1977 में सत्यजित राय ने इस कहानी पर इसी नाम से फिल्म भी बनाई . फिल्म में संजीव कुमार और सईद ज़ाफरी ने मुख्य भूमिकाएं निभाई. इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सहित तीन फिल्मफेयर पुरस्कार मिले. वाजिदअली शाह का समय था. लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था. जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था. शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी. राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त […]
हरिधन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुआँ उठता नजर आता था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गए। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये; पर हरिधन अंदर न जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बर्ताव हो रहा था और विशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेड़ियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ही ने तो कहा, था, मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारी जिंदगी-भर का ठीका लिये बैठी हूँ क्या ? और सबसे बढ़कर अपनी स्त्री की निष्ठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार तो उसके मुँह से न निकला, अम्माँ, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…